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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1469
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
यु꣣ञ्ज꣡न्त्य꣢स्य꣣ का꣢म्या꣣ ह꣢री꣣ वि꣡प꣢क्षसा꣣ र꣡थे꣢ । शो꣡णा꣢ धृ꣣ष्णू꣢ नृ꣣वा꣡ह꣢सा ॥१४६९॥
स्वर सहित पद पाठयु꣣ञ्ज꣡न्ति꣢ । अ꣣स्य । का꣡म्या꣢꣯ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । वि꣡प꣢꣯क्षसा । वि । प꣣क्षसा । र꣡थे꣢꣯ । शो꣡णा꣢꣯ । धृ꣣ष्णू꣡इति꣢ । नृ꣣वा꣡ह꣢सा । नृ꣣ । वा꣡ह꣢꣯सा ॥१४६९॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे । शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥१४६९॥
स्वर रहित पद पाठ
युञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरीइति । विपक्षसा । वि । पक्षसा । रथे । शोणा । धृष्णूइति । नृवाहसा । नृ । वाहसा ॥१४६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1469
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में दो हरियों का रथ में जोड़ना वर्णित है।
पदार्थ
प्रथम—प्राण-अपान के विषय में। विद्वान् योगी लोग (अस्य) इस इन्द्र नामक जीवात्मा के (रथे) शरीररूप रथ में (काम्या) चाहने योग्य, (विपक्षसा) प्राणक्रिया और अपानक्रिया रूप विशिष्ट पंखोंवाले, (शोणा) गतिशील, (धृष्णू) चतुर, (नृवाहसा) मनुष्य-देह को वहन करनेवाले (हरी) प्राण-अपान रूप दो घोड़ों को (युञ्जन्ति) प्राणायाम की विधि से उपयोग में लाते हैं ॥ द्वितीय—शिल्प के विषय में। शिल्पी लोग (अस्य) इस सूर्य या बिजली रूप अग्नि के (काम्या) कमनीय, (विपक्षसा) परस्पर विरुद्ध गुणवाले, (शोणा) गतिशील, (धृष्णू) घर्षणशील, (नृवाहसा) मनुष्यों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जानेवाले (हरी) ऋणात्मक विद्युत् तथा धनात्मक विद्युत् रूप दो घोड़ों को (युञ्जन्ति) भूयान, जलयान तथा विमानों में जोड़ते हैं ॥२॥
भावार्थ
जैसे प्राणायाम का अभ्यास करनेवाले विद्वान् लोग प्राण-अपान रूप घोड़ों को नियुक्त करके शरीर-रथ को चलाते हैं,वैसे ही शिल्पी लोग ऋण और धन विद्युत् को यान आदि तथा घर आदि में लगाकर यात्रा और प्रकाश किया करें ॥२॥
पदार्थ
(अस्य) इस इन्द्र—परमात्मा के (रथे) रमणीय स्वरूप में (विपक्षसा) विरुद्धपक्षीय (शोणा) शुभ्र (धृष्णू) धर्षणशील पापाज्ञाननाशक (काम्या) कमनीय (नृवाहसा) मुमुक्षुजनों के बहने वाले४ (हरी) स्तुति और उपासना को५ (युञ्जन्ति) उपासकजन युक्त करते हैं॥२॥
विशेष
<br>
विषय
इन्द्रियाश्वों को रथ में जोतना
पदार्थ
मनुष्य का यह शरीर रथ है—इस रथ में ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप दो घोड़े जुते हैं। ये घोड़े (शोणा) = [शोणृ गतौ] अत्यन्त चञ्चल हैं । इन्द्रियों की चञ्चलता लोकसिद्ध है। ये (धृष्णू) = धर्षण करनेवाले हैं—कुचल डालनेवाले हैं। ('इन्द्रियाणि प्रमाथीनि') = ये मथ डालनेवाली हैं। (नृवाहसा) = ये मनुष्यों को इधर-उधर ले-जानेवाली हैं, ('हरन्ति प्रसभं मन:') = बलात् मन को हर ले जाती हैं और न जाने कहाँ-कहाँ भटकती हैं । ये न
युञ्जान लोग (हरी) = शरीररूप रथ को आगे और आगे ले जानेवाले इन इन्द्रियाश्वों को (अस्य काम्या) = इस प्रभु की कामनावाला बनाकर तथा (विपक्षसा) = [वि= विशेष, पक्ष परिग्रहे ] = विशिष्ट ज्ञान व कर्म का परिग्रह करनेवाला बनाकर (रथे) = इस शरीररूप रथ में ही (युञ्जन्ति) = जोड़ते हैं। सामान्यतः ये घोड़े प्रभु की कामना न करके विषयों की कामनावाले हो जाते हैं और उन्हीं में विचरते रहते हैं ज्ञान व यज्ञों के परिग्रह की बजाय ये विषयों का ही स्वाद लेते रहते हैं । रथ को आगे ले-चलने के स्थान में चरने में मस्त रहते हैं । 'शतं वैखानस' लोग इन्हें रथ मंण जोतकर यात्रा को पूरा करने का ध्यान करते हैं। यह यात्रा कोई सुगम व संक्षिप्त सी तो है ही नहीं - यह तो निरन्तर आगे बढ़ते रहने से ही पूरी होगी । इस तत्त्व को समझकर इन इन्द्रियाश्वों का रथ में जोतना ही श्रेयस्कर है |
भावार्थ
हम इन्द्रियाश्वों को रथ में जोतकर यात्रा को पूरा करने का ध्यान करें।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ हर्यो रथयोगो वर्ण्यते।
पदार्थः
प्रथमः—प्राणापानपरः। विद्वांसो योगिनो जनाः (अस्य) इन्द्रस्य जीवात्मनः (रथे) देहरूपे (काम्या) काम्यौ कामयितव्यौ, (विपक्षसा) विपक्षसौ प्राणनापाननक्रियारूपविशिष्टपक्षौ, (शोणा) शोणौ गतिशीलौ। [शोणृ वर्णगत्योः भ्वादिः।] (धृष्णू) प्रगल्भौ, (नृवाहसा) नृवाहसौ नृणां मानवदेहानां वोढारौ (हरी) प्राणापानरूपौ अश्वौ (युञ्जन्ति) प्राणायामविधिना उपयुञ्जते ॥ द्वितीयः—शिल्पपरः। शिल्पिनो जनाः (अस्य) इन्द्रस्य सूर्यस्य विद्युदग्नेर्वा (काम्या) कामयितव्यौ, (विपक्षसा) परस्परविरुद्धगुणौ, (शोणा) गतिशीलौ, (धृष्णू) धर्षणशीलौ (नृवाहसा) मनुष्याणां वाहकौ स्थानान्तरप्रापकौ (हरी) ऋणात्मकधनात्मकविद्युद्रूपौ अश्वौ (युञ्जन्ति) भूजलान्तरिक्षयानेषु प्रयुञ्जते ॥२॥२
भावार्थः
यथा प्राणायामाभ्यासिनो विद्वांसो जनाः प्राणापानरूपौ हरी नियुज्य देहयज्ञं निर्वहन्ति तथैव शिल्पिनो जना ऋणात्मकधनात्मकविद्युतौ यानादिषु गृहादिषु च नियुज्य यात्रां प्रकाशं च कुर्युः ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
They, who, in this body, the chariot of the soul, harness the Prana and Apana, the bearers of their leader, the soul, charming, active, sustainers of the body in diverse ways, ever-moving and steadfast, achieve glory.
Translator Comment
The adjectives charming, active etc., refer to they.
Meaning
Scholars of science dedicated to Indra study and meditate on the lords omnipotence of light, fire and wind, and harness the energy like two horses to a chariot, both beautiful, equal and complementary as positive- negative currents, fiery red, powerful and carriers of people. (Rg. 1-6-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अस्य) એ ઇન્દ્ર-પરમાત્માના (रथे) રમણીય-સુંદર સ્વરૂપમાં (विपक्षसा) વિરુદ્ધ પક્ષીય (शोणा) શુભ્ર (धृष्णू) ધર્ષણશીલ-પાપ-અજ્ઞાનનાશક (काम्या) ઇચ્છનીય (नृवाहसा) મુમુક્ષુજનોના વહનારા (हरी) સ્તુતિ અને ઉપાસનાને (युञ्जन्ति) ઉપાસકજન યુક્ત કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसा प्राणायामाचा अभ्यास करणारे विद्वान लोक प्राण-अपानरूपी घोड्यांना नियुक्त करून शरीर रथ चालवितात, तसेच शिल्पी लोकांनी ऋण व धन विद्युतला यान इत्यादी व घर इत्यादीमध्ये वापरून यात्रा व प्रकाश पसरवावा. ॥२॥
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