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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1477
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    हो꣡ता꣢ दे꣣वो꣡ अम꣢꣯र्त्यः पु꣣र꣡स्ता꣢देति मा꣣य꣡या꣢ । वि꣣द꣡था꣢नि प्रचो꣣द꣡य꣢न् ॥१४७७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हो꣡ता꣢꣯ । दे꣣वः꣢ । अ꣡म꣢꣯र्त्यः । अ । म꣣र्त्यः । पु꣡रस्ता꣢त् । ए꣣ति । माय꣡या꣢ । वि꣣द꣡था꣢नि । प्र꣣चोद꣡य꣢न् । प्र꣣ । चोद꣡य꣢न् ॥१४७७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता देवो अमर्त्यः पुरस्तादेति मायया । विदथानि प्रचोदयन् ॥१४७७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता । देवः । अमर्त्यः । अ । मर्त्यः । पुरस्तात् । एति । मायया । विदथानि । प्रचोदयन् । प्र । चोदयन् ॥१४७७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1477
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमेश्वर का वर्णन है।

    पदार्थ

    (होता) कार्यसिद्धि को देनेवाला, (देवः) दिव्य गुणोंवाला, (अमर्त्यः) अमर अग्निनामक परमेश्वर (विदथानि) ज्ञानों, कर्मों और उच्च विचारों को (प्रचोदयन्) अन्तरात्मा में प्रेरित करता हुआ (मायया) ऋतम्भरा प्रज्ञा के साथ (पुरस्तात्) सम्मुख (एति) आता है ॥१॥

    भावार्थ

    योगाभ्यास द्वारा योगी लोग योगसिद्धि पाकर परमात्मा को बिलकुल सामने देखते हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (अमर्त्यः) मरणधर्मरहित (होता) हमारे अध्यात्मयज्ञ का साधक१ (देवः) द्योतमान (विदथानि प्रचोदयन्) वे दोनों—अध्यात्म अनुभवों को२ प्रेरित करता हुआ (मायया) प्रज्ञाशक्ति से (पुरस्तात्-एति) सम्मुख आता है—प्रत्यक्ष होता है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—विश्वामित्रः (सर्वमित्र उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाश-स्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    वह तो देता है- -हम लेनेवाले बनें [माया-विदथ ]

    पदार्थ

    वे प्रभु (होता) = सब-कुछ देनेवाले हैं [हु: दान], (देवः) = वे प्रभु दिव्य गुणोंवाले हैं, (अमर्त्यः) = अमरणधर्मा हैं । वस्तुतः जीव को भी इन गुणों को ही अपने अन्दर धारण करना हैकभी लोभ में न फँसकर सदा देनेवाला बनना है, उसने क्रोध से ऊपर उठकर देव बनना है और काम से ऊपर उठकर, किसी भी वस्तु के लिए अत्यन्त लालायित न होते हुए [=न मरते हुए] अमर बनना है ।

    यह प्रभु (मायया) = अपनी दया [Pity] की वृत्ति के कारण असाधारण शक्ति [Extra ordinary power] व प्रज्ञा [Wisdom] के साथ (पुरस्तात् एति) = हमारे सामने आते हैं। मानो हमें भी ‘दयालुता, शक्ति व ज्ञान' प्रदान करना चाहते हैं। हमारा कितना दौर्भाग्य है कि प्रभु तो इन देय वस्तुओं के साथ उपस्थित होते हैं और हम लेने के लिए उद्यत नहीं होते- हमने अपने को पात्र नहीं बनाया होता ।

    वे प्रभु निरन्तर (विदथानि) = ज्ञान, त्याग [Knowledge, sacrifice] तथा वासनाओं के साथ संग्राम [battle] की (प्रचोदयन्) = प्रेरणा दे रहे हैं। ‘विदथ' शब्द के तीनों ही अर्थ यहाँ अभिप्रेत हैं। प्रभु स्पष्ट कह रहे हैं कि यदि वासनाओं के साथ संग्राम में जीतना है तो ज्ञान प्राप्त करो, मस्तिष्क को ज्ञानाग्नि से दीप्त करो तथा त्याग की वृत्ति को अपनाओ - अपने हृदयों में त्याग की भावना भरो।

    प्रस्तुत मन्त्र में माया शब्द के भी तीन अर्थ हैं तथा विदथ के भी तीन अर्थ हैं। माया शब्द की भावना यह है कि हृदय में दया हो– बाहुओं में शक्ति हो तथा मस्तिष्क ज्ञानाग्नि से दीप्त हो । विदथ शब्द भी मस्तिष्क को ज्ञान से परिपूर्ण करके और हृदय को त्याग की भावना से भरकर बाहुओं से शत्रुओं के साथ संग्राम करने का संकेत कर रहा है। इन भावनाओं को भरने की कामनावाला ‘उशना: ' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है । यह 'काव्यः'=अर्थतत्त्व को देखता है - और पदार्थों के पीछे मरनेवाला नहीं बनता । 

    भावार्थ

    प्रभु तो कृपा करके शक्ति व ज्ञान देते ही हैं— मैं लेने के लिए तैयार बनूँ । 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (अमर्त्यः) मरणरहित, अमर (देवः) सबका प्रकाशक परमात्मा (विदथानि*) ज्ञान करने योग्य उत्तम कर्मों और आत्मतत्वों को (प्रचोदयन्) हृदय में प्रेरित करता हुआ (मायया*) विशेष ज्ञानशक्ति या बुद्धि से (पुरस्तात्) साक्षात् (एति) प्रत्यक्ष होता है।

    टिप्पणी

    *विदथानि वेदितव्यानि इति सायणः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमेश्वरं वर्णयति।

    पदार्थः

    (होता) कार्यसिद्धिप्रदाता, (देवः) दिव्यगुणाः, (अमर्त्यः)अविनश्वरः अग्निः परमेश्वरः (विदथानि) ज्ञानानि कर्माणि उच्चविचारांश्च (प्रचोदयन्) अन्तरात्मनि प्रेरयन् (मायया) ऋतम्भरया प्रज्ञया सह (पुरस्तात्) सम्मुखम् (एति) आगच्छति ॥१॥२

    भावार्थः

    योगाभ्यासेन योगिजना योगसिद्ध्या परमात्मानं पुरत एव पश्यन्ति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Immortal, Effulgent God, the Accomplisher of the sacrifice of life, urging knowable noble deeds and spiritual truths in the heart, is directly realised through intellect!

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    Meaning

    The brilliant performers of yajna, immortal and indestructible, goes forward with his innate power and intelligence, inspiring, advancing and accelerating yajnic programmes of creative and productive corporate action. (Rg. 3-27-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अमर्त्यः) મરણધર્મરહિત (होता) અમારા અધ્યાત્મયજ્ઞના સાધક (देवः) પ્રકાશમાન (विदाथानि प्रचोदयन्) તે બન્ને-અધ્યાત્મ અનુભવોને પ્રેરિત કરતાં (मायया) પ્રજ્ઞાશક્તિથી (पुरस्तात् एति) સામે આવે છે-પ્રત્યક્ષ થાય છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    योगाभ्यासाद्वारे योगी लोक योगसिद्धी प्राप्त करून परमात्म्याला अगदी समोर (प्रत्यक्ष) पाहतात. ॥१॥

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