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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1487
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अतिशक्वरी
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
सा꣣कं꣢ जा꣣तः꣡ क्रतु꣢꣯ना सा꣣क꣡मोज꣢꣯सा ववक्षिथ सा꣣कं꣢ वृ꣣द्धो꣢ वी꣣꣬र्यैः꣢꣯ सास꣣हि꣢꣫र्मृधो꣣ वि꣡च꣢र्षणिः । दा꣢ता꣣ रा꣡ध꣢ स्तुव꣣ते꣢꣫ काम्यं꣣ व꣢सु꣣ प्र꣡चे꣢तन꣣ सै꣡न꣢ꣳ सश्चद्दे꣣वो꣢ दे꣣व꣢ꣳ स꣣त्य꣡ इन्दुः꣢꣯ स꣣त्य꣡मिन्द्र꣢꣯म् ॥१४८७॥
स्वर सहित पद पाठसा꣣क꣢म् । जा꣣तः꣢ । क्र꣡तु꣢꣯ना । सा꣣क꣢म् । ओ꣡ज꣢꣯सा । व꣣वक्षिथ । साक꣢म् । वृ꣣द्धः꣢ । वी꣣र्यैः꣢ । सा꣣सहिः꣢ । मृ꣡धः꣢꣯ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः । दा꣡ता꣢꣯ । रा꣡धः꣢꣯ । स्तु꣣वते꣢ । का꣡म्य꣢꣯म् । व꣡सु꣢꣯ । प्र꣡चे꣢꣯तन । प्र । चे꣣तन । सः꣢ । ए꣣नम् । सश्चत् । देवः꣡ । दे꣣व꣢म् । स꣣त्यः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । स꣣त्य꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् ॥१४८७॥
स्वर रहित मन्त्र
साकं जातः क्रतुना साकमोजसा ववक्षिथ साकं वृद्धो वीर्यैः सासहिर्मृधो विचर्षणिः । दाता राध स्तुवते काम्यं वसु प्रचेतन सैनꣳ सश्चद्देवो देवꣳ सत्य इन्दुः सत्यमिन्द्रम् ॥१४८७॥
स्वर रहित पद पाठ
साकम् । जातः । क्रतुना । साकम् । ओजसा । ववक्षिथ । साकम् । वृद्धः । वीर्यैः । सासहिः । मृधः । विचर्षणिः । वि । चर्षणिः । दाता । राधः । स्तुवते । काम्यम् । वसु । प्रचेतन । प्र । चेतन । सः । एनम् । सश्चत् । देवः । देवम् । सत्यः । इन्दुः । सत्यम् । इन्द्रम् ॥१४८७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1487
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में फिर उपास्य-उपासक का विषय है।
पदार्थ
हे इन्द्र जगदीश्वर ! आप (क्रतुना) कर्म और प्रज्ञा के (साकम्) साथ और (ओजसा) बल के (साकम्) साथ (जातः) प्रसिद्ध हो। इसी कारण आप (ववक्षिथ) जगत् के भार को वहन कर रहे हो। आप (वीर्यैः साकम्) पराक्रमों के साथ (वृद्धः) प्रवृद्ध, (मृधः सासहिः) हिंसकों को परास्त करनेवाले, (विचर्षणिः) पुण्यकर्ताओं और अपुण्यकर्ताओं को विवेकपूर्वक देखनेवाले हो। हे (प्रचेतन) उत्कृष्टरूप से चेतानेवाले ! आप (स्तुवते) स्तुतिकर्ता जन के लिए (राधः) सफलता, और (काम्यं वसु) अभीष्ट ऐश्वर्य के (दाता) देनेवाले हो। (सः) वह (देवः) दिव्यगुणोंवाला, (सत्यः) सत्य का प्रेमी (इन्दुः) तेजस्वी स्तोता (एनम्) इस (देवम्) दिव्य गुणोंवाले, (सत्यम्) सत्य गुण, कर्म, स्वभाववाले (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् आप जगदीश्वर को (सश्चत्) प्राप्त कर लेवे ॥२॥
भावार्थ
जो ज्ञान, कर्म, बल और पराक्रम में सर्वाधिक है और सदाचारी स्तोता के उत्तम मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है, उस जगदीश्वर को ध्याकर और पाकर सब मनुष्य पूर्ण मनोरथोंवाले हों ॥२॥
पदार्थ
(प्रचेतन) हे प्रकृष्ट चेताने वाले इन्द्र—ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (क्रतुना साकं जातः) प्रज्ञान१—प्रकृष्टज्ञान—स्वतः ज्ञानरूप वेद के साथ प्रसिद्ध हुआ (ओजसा साकं ववक्षिथ) आत्मीयबल के द्वारा संसार को वहन—धारण कर रहा है (वीर्यैः साकं वृद्धः) स्वपराक्रमों से वृद्ध है—महान् है (विचर्षणिः-मृधः सासहिः) तू विशेष द्रष्टा है, उपासकों के पापों—काम-क्रोध आदि२ प्रताड़न करने वाला—दूर करने वाला (स्तुवते काम्यं राधः-वसु दाता) स्तुति करने वाले उपासक के लिये कमनीय धन और मोक्षवास को देने वाला है (एनं सत्यं देवम्-इन्द्रम्) तुझ इस सत्यस्वरूप देव ऐश्वर्यवान् परमात्मा को (सः-सत्यः-इन्द्रः-देवः सश्चत्) वह सत्य—नित्य—इन्दुमान्३ उपासनारस वाला उपासक प्राप्त करता है४॥२॥
विशेष
<br>
विषय
‘देव, सत्य व इन्दु'
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘गृत्समद शौनक' है—‘गृणाति'=प्रभु का स्तवन करता है, 'माद्यति'=प्रसन्न रहता है तथा ‘शुनति' गतिशील होता है । यह (क्रतुना साकं जातः) = सङ्कल्प के साथ अपना विकास करता है— जीवन में दृढ़ निश्चय के साथ चलता है और (ओजसा साकं ववक्षिथ) = बल के साथ वृद्धि को प्राप्त करता है। संकल्प के अनुपात में ही इसके बल की वृद्धि होती है। जितना- जितना सङ्कल्प उतनी-उतनी बल की वृद्धि । यह गृत्समद 'प्रभु-स्तवन' के कारण वासनाओं का शिकार नहीं होता और परिणामतः (वीर्यैः साकं वृद्धः) = शक्तियों के साथ बढ़ा हुआ (मृधः) = शत्रुओं को (सासहिः) = पराभूत करनेवाला होता है। इसके शरीर पर रोगों का आक्रमण नहीं होता, मन पर द्वेष आदि भावनाएँ प्रबल नहीं होतीं । यह सङ्कल्प, ओज तथा वीर्य वृद्धि के द्वारा शत्रुओं को कुचलने के साथ (विचर्षणिः) अर्थतत्त्व का विशेषरूप से द्रष्टा बनता है । सुरक्षित वीर्य इसकी ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और यह वास्तविकता को जाननेवाला – वस्तुओं को सूक्ष्मता से देखनेवाला 'विचर्षणि' होता है।
इस विचर्षणि व प्रचेतन=प्रकृष्ट चेतनावाले से कहते हैं कि हे (प्रचेतन) = समझदार ! तू इस बात को समझ ले कि वे प्रभु (स्तुवते) = स्तुति करनेवाले के लिए (काम्यम्) = वाञ्छनीय (राधः) = कार्य की सिद्धि करानेवाला (वसु) = धन (दाता) = देते ही हैं । वे आवश्यक धन अवश्य प्राप्त कराएँगे ही, अतः धन के लिए तू व्याकुल मत हो । तेरी सारी शक्ति इस धन जुटाने में ही न लग जाए ।
तू इस बात का भी ध्यान कर कि (एनं देवम्) = इस प्रभु को (सः देवः) = वह जीव देव बनकर ही (सश्चत्) = प्राप्त करता है । (सत्यम्) = उस सत्य प्रभु को (सत्यः) = सत्य को अपनानेवाला ही पाता है। (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली सर्वशक्तिमान् प्रभु को (इन्द्रः) = शक्तिशाली बननेवाला ही (सश्चत्) = प्राप्त करता है, अत: तू धन के पीछे ही भागता न रहकर 'देव, सत्य व इन्द्र' बनने का प्रयत्न कर।
भावार्थ
हम दृढ़संकल्पवाले हों, जिससे हमारी शक्ति में वृद्धि हो । हम शत्रुओं का पराभव करके ‘देव, सत्य व इन्दु' बनें ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरुपास्योपासकयोर्विषय एव वर्ण्यते।
पदार्थः
हे इन्द्र जगदीश्वर ! त्वम् (क्रतुना) कर्मणा प्रज्ञया च (साकम्) सह, (ओजसा) बलेन च (साकम्) सह (जातः) प्रसिद्धोऽसि, अतएव त्वम् (ववक्षिथ) जगद्भारं वहसि। त्वम् (वीर्यैः साकम्) पराक्रमैः सह (वृद्धः) प्रवृद्धः, (मृधः सासहिः) हिंसकान् अभिभविता, (विचर्षणिः) विवेकेन पुण्यापुण्यकृतां द्रष्टा च भवसि। हे (प्रचेतन) प्रचेतयितः ! त्वम् (स्तुवते) स्तुतिं कुर्वते जनाय (राधः) साफल्यम् (काम्यं वसु) अभीष्टं धनं च (दाता) प्रदाता भवसि। (सः) असौ (देवः) दिव्यगुणः, (सत्यः) सत्यप्रियः (इन्दुः) प्रदीप्तः स्तोता (एनम्) इमम् (देवम्) दिव्यगुणम्, (सत्यम्) सत्यगुणकर्मस्वभावम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं जगदीश्वरं त्वाम् (सश्चत्) प्राप्नुयात् ॥२॥२
भावार्थः
यो ज्ञानेन कर्मणा बलेन पराक्रमेण च सर्वातिशायी, सदाचारिणः स्तोतुः सन्मनोरथानां पूरयिता च वर्तते तं जगदीश्वरं ध्यात्वा प्राप्य च सर्वे जना आप्तकामा भूयासुः ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Omniscient God, with Thy coexistent wisdom and strength, Thou sustained the universe. Thou art Mighty with Thy manifold powers. Thou subduest all foes. Thou art the Seer of the whole world. Thou art the Giver of lovely wealth to him, who worships and praises Thee. The true lustrous soul achieves this True, Refulgent God.
Meaning
The jiva, individual soul, born in human form with the potential to know and act, courage and splendour, carries on the business of life and grows with vigour and valour, challenging, victorious and brilliant with vision and judgement. Indra, lord of life, all giver, provides whatever wealth and power is loved and valued by the pious and worshipful soul. May the soul of man, blessed and true as the moon, join and serve this supreme lord Indra, self-refulgent, eternal and true, in prayer, worship and meditation. (Rg. 2-22-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (प्रचेतन) હે પ્રકૃષ્ટ ચેતવનાર ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (क्रतुना साकम् जातः) પ્રજ્ઞાન પ્રકૃષ્ટજ્ઞાન-સ્વતઃ જ્ઞાનરૂપ વેદની સાથે પ્રસિદ્ધ થઈને (ओजसा साकं ववक्षिथ) આત્મીય બળની સાથે સંસારનું વહન-ધારણ કરી રહેલ છે, (वीर्यैः साकं वृद्धः) પોતાના પરાક્રમથી વૃદ્ધ છે-મહાન છે, (विचर्षणिः मृधः सासहिः) તું વિશેષ દ્રષ્ટા છે, ઉપાસકોના પાપો-કામ, ક્રોધ આદિ પ્રતાડન કરનાર-દૂર કરનાર છે, (स्तुवते काम्यं राधः वसु दाता) સ્તુતિ કરનારા ઉપાસકોને માટે શ્રેષ્ઠ ધન અને મોક્ષવાસને આપનાર છે. (एनं सत्यं देवम् इन्द्रम्) તું એ સત્યસ્વરૂપ દેવ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને (सः सत्यः इन्द्रः देवः सश्चत्) તે સત્ય-નિત્ય, ઇન્દુમાન-ઉપાસનારસવાળા ઉપાસક પ્રાપ્ત કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जो ज्ञान, कर्म, बल व पराक्रमात सर्वाधिक आहे व सदाचारी स्तोत्याच्या उत्तम मनोरथांना पूर्ण करणारा आहे. त्या जगदीश्वराचे ध्यान करून त्याला प्राप्त करून सर्व माणसांनी आपले मनोरथ पूर्ण करावे. ॥२॥
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