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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1498
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    वि꣣भक्ता꣡सि꣢ चित्रभानो꣣ सि꣡न्धो꣢रू꣣र्मा꣡ उ꣢पा꣣क꣢ आ । स꣣द्यो꣢ दा꣣शु꣡षे꣢ क्षरसि ॥१४९८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि꣣भक्ता꣢ । वि꣣ । भक्ता꣢ । अ꣡सि । चित्रभानो । चित्र । भानो । सि꣡न्धोः꣢꣯ । ऊ꣣र्मौ꣢ । उ꣣पाके꣢ । आ । स꣣द्यः꣢ । स꣣ । द्यः꣢ । दा꣣शु꣡षे꣢ । क्ष꣣रसि ॥१४९८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ । सद्यो दाशुषे क्षरसि ॥१४९८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विभक्ता । वि । भक्ता । असि । चित्रभानो । चित्र । भानो । सिन्धोः । ऊर्मौ । उपाके । आ । सद्यः । स । द्यः । दाशुषे । क्षरसि ॥१४९८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1498
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर जगदीश्वर और आचार्य को कहा गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (चित्रभानो) अद्भुत तेजवाले अग्नि नामक परमात्मन् ! आप (विभक्ता असि) अपने तेज को अन्य सूर्य आदि पदार्थों में बाँटनेवाले हो। आप (सिन्धोः) समुद्र वा नदी की (उर्मौ) लहर में विद्यमान हो। आप (उपाके) सबके समीप (आ) विराजमान हो। आप (दाशुषे) आत्मसमर्पणकर्ता उपासक के लिए (सद्यः) शीघ्र ही (क्षरसि) आनन्द को चुआते हो ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। हे (चित्रभानो) अद्भुत विद्या-प्रकाश से पूर्ण विद्वान् आचार्य ! आप (विभक्ता असि) अन्यों में विद्या को बांटनेवाले हो। (सिन्धोः उर्मौ उपाके) नदी के लहरोंवाले प्रवाह के निकट (आ) गुरुकुल आश्रम की स्थापना करके निवास करते हो और वहाँ (सद्यः) जल्दी-जल्दी (दाशुषे) आत्मसमर्पक शिष्य के लिए (क्षरसि) विद्या को बरसाते हो ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर सब वस्तुएँ अपनी प्रजाओं में बाँटते हैं, वैसे ही गुरु लोग सब विद्याएँ अपने शिष्यों में बाँटें ॥२॥

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    पदार्थ

    (चित्रभानो) दर्शनीय ज्योति वाले परमात्मन्! तू (सिन्धोः-उपाके ऊर्मौ-आ) स्यन्दनशील नदी के समीप५ ऊर्मि—तरङ्ग—लहरों—नहरों के समान आनन्द ज्योतियों से विभाग करता है (दाशुषे सद्यः क्षरसि) आत्मदानी उपासक के लिये तो तुरन्त आनन्द ज्योति को क्षिराता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    ‘दाश्वान्' को देनेवाले प्रभु हैं

    पदार्थ

    हे (चित्रभानो) = अद्भुत दीप्तिवाले प्रभो! आप क्या तो (सिन्धोः ऊर्मा) = समुद्र की लहरों में - अर्थात् घर से दूर विदेश में समुद्रपार स्थित दाश्वान् को और क्या (उपाके) = बिल्कुल समीप में स्थित [in the neighbourhood] दाश्वान् को (आ) = सर्वथा (विभक्ता असि) = उचित धनों में भागी बनानेवाले हैं । (दाशुषे) = इस दाश्वान् के लिए - आपके प्रति अपना समर्पण करनेवाले दानी [दाश् दाने] के लिए (सद्य) = शीघ्र ही (क्षरसि) = आवश्यक धनों को देते हैं। प्रभु का भक्त - लोकहित के लिए अपना तन-मन-धन देनेवाला दाश्वान् कभी भूखा नहीं मरता । 'दाश्वान्' लोकहित के लिए देता है और प्रभु दाश्वान् को देते हैं । ' Spend and God will send' इस लोकहित की मूल भावना यही तो है । दाश्वान् घर पर हो, समुद्र पार गया हो, कहीं भी हो प्रभु उसकी आवश्यकताएँ पूरी करते ही हैं । एवं, परार्थ के द्वारा यह दाश्वान् स्वार्थ को सिद्ध करता है और सुखी व शान्त जीवनवाला बनकर प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'शुन: शेप' होता है ।

    भावार्थ

    हम दें – प्रभु हमें देंगे ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनर्जगदीश्वरमाचार्यं च प्राह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (चित्रभानो) अद्भुततेजस्क अग्ने परमात्मन् ! त्वम् (विभक्ता) असि स्वकीयस्य तेजसः अन्येषु सूर्यादिपदार्थेषु विभाजयिता असि। त्वम् (सिन्धोः) समुद्रस्य नद्याः वा (ऊर्मौ) तरङ्गे विद्यसे। (उपाके) सर्वेषां समीपे (आ) आगतोऽसि। [उपाके इति अन्तिकनाम। निघं० २।१६।] त्वम् (दाशुषे) आत्मसमर्पकाय उपासकाय (सद्यः) शीघ्रमेव (क्षरसि) आनन्दं स्रावयसि ॥ द्वितीयः—आचार्यपरः। हे (चित्रभानो२) अद्भुतविद्याप्रकाशमय विद्वन् आचार्य ! त्वम् (विभक्ता असि) विद्यायाः अन्येषु विभाजयिता विद्यसे। (सिन्धोः ऊर्मौ उपाके) नद्याः ऊर्मिमयस्य प्रवाहस्य निकटे (आ) गुरुकुलाश्रमं संस्थाप्य आतिष्ठसि। तत्र च (सद्यः) शीघ्रम् (दाशुषे२) आत्मसमर्पकाय शिष्याय (क्षरसि) विद्यां वर्षसि ॥२॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वरः सर्वं वस्तुजातं स्वप्रजासु विभजति तथैव गुरवः सर्वा विद्याः शिष्येषु विभजेरन् ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Lord of manifold suns, just as small canals are dug out of a big river, so, out of Thy ocean of superhuman power, dost Thou distribute might, and make joy flow for Thy devotee !

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    Meaning

    Versatile lord of wide and various knowledge such as analysis of sea waves and water particles, come soon, you always give a shower of knowledge to the man of faith, reverence and generosity. (Rg. 1-27-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (चित्रभानो) દર્શનીય પ્રકાશમાન પરમાત્મન્ ! તું (सिन्धोः उपाके उर्मौ आ) સ્ચંદનશીલ નદીની સમીપ ઉર્મિ - તરંગ લહેરો - નહેરોની સમાન આનંદ જ્યોતિઓથી વિભાગ કરે છે. (दाशुषे सद्यः क्षरसि) આત્મદાની ઉપાસકને માટે તો તુરંત આનંદ જ્યોતિને વરસાવે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा जगदीश्वर सर्व वस्तू आपल्या प्रजेमध्ये वाटतो तसेच गुरूंनी सर्व विद्या आपल्या शिष्यात वाटाव्या ॥२॥

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