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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 15
ऋषिः - शुनः शेप आजीगर्तिः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
3
ज꣡रा꣢बोध꣣ त꣡द्वि꣢विड्ढि वि꣣शे꣡वि꣢शे य꣣ज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢ꣳ रु꣣द्रा꣡य꣢ दृशी꣣क꣢म् ॥१५
स्वर सहित पद पाठज꣡रा꣢꣯बोध । ज꣡रा꣢꣯ । बो꣣ध । त꣢त् । वि꣣विड्ढि । विशे꣡वि꣢शे । वि꣣शे꣢ । वि꣣शे । यज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢꣯म् । रु꣣द्रा꣡य꣢ । दृ꣣शीक꣢म् ॥१५॥
स्वर रहित मन्त्र
जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमꣳ रुद्राय दृशीकम् ॥१५
स्वर रहित पद पाठ
जराबोध । जरा । बोध । तत् । विविड्ढि । विशेविशे । विशे । विशे । यज्ञियाय । स्तोमम् । रुद्राय । दृशीकम् ॥१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 15
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा के प्रति स्तोत्र का उपहार दिया जा रहा है।
पदार्थ
हम उपासक लोग (विशेविशे) सब मनुष्यों के हितार्थ (यज्ञियाय) पूजायोग्य, (रुद्राय) सत्योपदेश प्रदान करनेवाले, अविद्या, अहंकार, दुःख आदि को दूर करनेवाले तथा काम, क्रोध आदि शत्रुओं को रुलानेवाले परमात्मा-रूप अग्नि के लिए (दृशीकम्) दर्शनीय (स्तोमम्) स्तोत्र को [उपहाररूप में देते हैं।] हे (जराबोध) स्तुति को तारतम्यरूप से जाननेवाले अथवा स्तुति के द्वारा हृदय में उद्बुद्ध होनेवाले परमात्मन् ! आप (तत्) उस हमारे स्तोत्र को (विविड्ढि) स्वीकार करो। अथवा इस प्रकार अर्थयोजना करनी चाहिए। उपासक स्वयं को कह रहा है—हे (जराबोध) स्तुति करना जाननेवाले मेरे अन्तरात्मन् ! तू (विशे विशे) मन, बुद्धि आदि सब प्रजाओं के हितार्थ (यज्ञियाय) पूजायोग्य (रुद्राय) सत्य उपदेश देनेवाले, दुःख आदि को दूर करनेवाले, शत्रुओं को रुलानेवाले परमात्मा रूप अग्नि के लिए (तत्) उस प्रभावकारी, (दृशीकम्) दर्शनीय (स्तोमम्) स्तोत्र को (विविड्ढि) कर, अर्थात् उक्त गुणोंवाले परमात्मा की स्तुति कर ॥५॥
भावार्थ
हे जगदीश्वर ! आप सबके पूजायोग्य हैं। आप ही रुद्र होकर हमारे हृदय में सद्गुणों को प्रेरित करते हैं, अविवेक, आलस्य आदिकों को निरस्त करते हैं, अन्तःकरण में जड़ जमाये हुए कामादि शत्रुओं को रुलाते हैं। अतः हम आपको हृदय में जगाने के लिए आपके लिए बहुत-बहुत स्तोत्रों को उपहाररूप में लाते हैं। किसी के स्तोत्र हार्दिक हैं या कृत्रिम हैं, यह आप भले प्रकार जानते हैं। इसलिए हमारे द्वारा किये गये स्तोत्रों की हार्दिकता, दर्शनीयता तथा चारुता को जानकर आप उन्हें कृपा कर स्वीकार कीजिए। हे मेरे अन्तरात्मन् ! तू परमात्मा की स्तुति से कभी विमुख मत हो ॥५॥
पदार्थ
(जराबोध) स्तुति के द्वारा बोध कराने वाले “जरा जरतेः स्तुति कर्मणः” [निरु॰ १०.८] (विशे विशे) प्रत्येक मनोनिवेशरूप ध्यानयज्ञ के निमित्त “यज्ञो वै विशो यज्ञे हि सर्वाणि भूतानि विष्टानि” [श॰ ८.७.३.२१] (यज्ञियाय रुद्राय) तुझ ध्यान यज्ञ के अभीष्टदेव तथा स्तुति द्वारा पूर्ण प्रकाशमान हुए या जरावस्था द्वारा रुलाने वाले परमात्मा के लिये “अग्निरपि रुद्र उच्यते” [निरु॰ १०.८] (तत्-दृशीकं स्तोमम्) उस दर्शन साधक स्तुति वचन को (विविड्ढि) भली प्रकार विष्ट हो—अपना ले।
भावार्थ
प्रिय परमात्मन्! जब मैं तेरी स्तुति करता हूँ तो तू मुझे बोध देता है तथा जरावस्था में सावधान करता है—नश्वर संसार से छूट अपनी शरण में आने को प्रेरित करता है। इस प्रकार बोधन कराने वाले परमात्मन्! तू मेरे प्रत्येक मनोनिवेशरूप ध्यान यज्ञ में प्रविष्ट हो—प्राप्त हो—उसे अपना—स्वीकार कर। तुझ प्रकाशस्वरूप ध्यान यज्ञ के इष्टदेव तथा जन्मजन्मान्तर से भोगों की दौड़ में पड़े हुए को पूर्ण पश्चात्ताप कराने वाले के लिये दर्शन साधन मेरे स्तुतिसमूह को स्वीकार कर॥५॥
विशेष
ऋषिः—आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रिय भोगों की दौड़ में शरीर गर्त में गिरा विषय लोलुप उत्थान का उच्छुक जन)॥<br>
विषय
दीखनेवाली स्तुति
पदार्थ
प्रभु जीव से कहते हैं कि (जराबोध)= जरा - बुढ़ापा, उसमें बुध्यते - जो चेतता है, अर्थात्
यौवन के नशे में मनुष्य की बुद्धि विलुप्त हो जाती है, मानव जीवन का लक्ष्य भूल जाने से वह पथ - भ्रष्ट हो जाता है। प्रायः शक्तियों के जीर्ण हो जाने पर - जरावस्था आने पर उसे होश आता है, परन्तु इस प्रकार तो सब जीवन ही व्यर्थ चला जाता है, अतः प्रभु कहते हैं कि हे जराबोध! (विशेविशे)= प्रत्येक प्राणी में (यज्ञियाय)= सङ्गतिकरण में - सम्पर्क में श्रेष्ठ उस (रुद्राय)=क्रियात्मक उपदेश देनेवाले प्रभु के लिए [रुत्+र] (तत्)='तनु विस्तारे' विस्तृत (दृशीकम्)= जो आँखो से दिखे [visible] नकि केवल वाणी से बोला जाए, ऐसे (स्तोमम्)= स्तोत्र को-स्तुतिसमूह को (विविडि)= व्याप्त कर।
प्रभु प्रत्येक प्राणी में व्याप्त है। किसी से उन्हें घृणा नहीं है और इस प्रकार जीव को भी वे क्रियात्मक उपदेश दे रहे हैं कि मेरी स्तुति का प्रकार यही है कि तेरा सम्पर्क भी अधिक-से-अधिक प्राणियों से हो । Greatest good of the greatest number – (यद्भूतहित मत्यन्तम्)= अधिक-से-अधिक प्राणियों का हित करना ही तेरा लक्ष्य हो।
इसी उद्देश्य से तेरे सारे कर्म चलें। ये तेरे कर्म ही वस्तुतः उस प्रभु की दृश्य स्तुति होंगे। इसी मार्ग से चलकर ही हम वास्तविक सुख का [शुन:] निर्माण करनेवाले [शेप:] इस मन्त्र के ऋषि ‘शुन:शेप' बनेंगे।
भावार्थ
प्रभु का अर्चन लोकहित के कर्मों द्वारा होता है, ('स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य'), कर्म ही उसके ‘दृशीक स्तोम' हैं।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे ( जराबोध ) = स्तुतियों द्वारा ज्ञान करने एवं प्रकट करने योग्य ! अग्ने ! ( विशे विशे ) = प्रत्येक प्रजा के हित के लिये ( तत् विविड्ढ़ि ) = उस परम स्थान या हृदय में प्रवेश करो जहां लोग ( यज्ञियाय ) = यज्ञ, आत्मा के योग्य हितैषी, उपास्य, ( रुद्राय ) = दुष्टों को दण्ड करके रुलाने वाले तुझ ईश्वर के लिये ( दॄशीकम् ) = दर्शनीय ( स्तोमम् ) = स्तुति पाठ करते हैं ।
अर्थात् जिस हृदय में कर्मव्यवस्था का भय करके दुष्टों के दण्डकर्त्ता ईश्वर के लिये स्तुति की जाती है, हे स्तुति द्वारा हृदय में प्रकाशित होने वाले परमात्मन् ! आप भक्ति द्वारा प्रत्येक मनुष्य के उस हृदय में प्रकट हों। फलतः, डर से ईश्वर की स्तुति करने की अपेक्षा सब लोग प्रेम और भक्ति से ईश्वर को हृदय में स्थान दें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - शुनः शेप:।
छन्द: - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मानं प्रति स्तोत्रमुपहरति।
पदार्थः
वयम् उपासकाः (विशेविशे) सर्वेषां मनुष्याणां (हितार्थम्)। विश इति मनुष्यनाम। निघं० २।२। (यज्ञियाय) यज्ञं पूजामर्हतीति यज्ञियस्तस्मै। अत्र यज्ञर्त्विग्भ्यां घखञौ अ० ५।१।७१ तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम् वा० अनेन यज्ञशब्दाद् घः प्रत्ययः। (रुद्राय) रुतः सत्योपदेशान् राति ददाति१ यस्तस्मै, यद्वा यो रुद् अविद्याहंकारदुःखादिकं द्रावयति२ तस्मै, यद्वा यो रोदयति३ कामक्रोधादीन् रिपून् तस्मै तुभ्यं परमात्माग्नये। अग्निरपि रुद्र उच्यते इति निरुक्तम् १०।७। अग्निर्वे रुद्रः। श० ५।३।१।१०। (दृशीकम्) दर्शनीयम्। अत्र दृशिर् प्रेक्षणे धातोः अनिहृषिभ्यां किच्च। उ० ४।१८ इति बाहुलकाद् औणादिक ईकन् प्रत्ययः किच्च। (स्तोमम्) स्तोत्रम् उपहराम इति शेषः। हे (जराबोध) जरां स्तुतिं बुध्यते तारतम्यतया जानाति यः, यद्वा जरया स्तुत्या बोधो हृदये जागरणं यस्य स जराबोधः, तादृश हे परमात्मन् ! पादादौ आमन्त्रितत्वाद् आमन्त्रितस्य च। अ० ६।१।१९८ इत्याद्युदात्तत्वम्। त्वम् (तत्) अस्माकं स्तुतिकरणम् (विविड्ढि) वेवेड्ढि व्याप्नुहि, स्वीकुरु। अत्र विष्लृ व्याप्तौ धातोः लोण्मध्यमैकवचने णिजां त्रयाणां गुणः श्लौ। अ० ७।४।७५ इति प्राप्तस्य गुणस्य वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमाद् गुणाभावः।४ अथवा एवं योज्यम्। उपासकः स्वात्मानमाह। हे (जराबोध४) स्तुतिविज्ञ मदीय अन्तरात्मन् ! जरां स्तुतिप्रकारं बुध्यते जानानीति जराबोधः, तत्संबुद्धौ। त्वम् (विशे विशे) सर्वासां प्रजानां मनोबुद्ध्यादीनां हितार्थम् (यज्ञियाय) पूजार्हाय (रुद्राय) सत्योपदेशप्रदाय, दुःखादिद्रावकाय, शत्रुरोदकाय च परमात्माग्नये (तत्) तं प्रभावकरम् (दृशीकम्) दर्शनीयम् (स्तोमम्) स्तोत्रम् (विविड्ढि५) कुरु, उक्तगुणं परमात्मानं स्तुहीत्यर्थः ॥५॥६ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे—जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणस्तां बोध, तया बोधयितरिति वा, तद् विविड्ढि तत् कुरु, मनुष्यस्य यजनाय, स्तोमं रुद्राय दर्शनीयम् इति। निरु० १०।८।
भावार्थः
हे जगदीश्वर ! त्वं सर्वेषां पूजार्होऽसि। त्वमेव रुद्रो भूत्वास्माकं हृदये सद्गुणान् प्रेरयसि, अविवेकालस्यादीन् निरस्यसि, अन्तःकरणे बद्धमूलान् कामादीन् शत्रून् रोदयसि। अतो वयं त्वां हृदि बोधयितुं त्वत्कृते भूरिशः स्तोमानुपहरामः। अस्मत्कृतानां स्तोमानां हार्दिकत्वं, दर्शनीयत्वं, चारुत्वं च विज्ञाय त्वं तान् कृपया स्वीकुरु। हे मदीय अन्तरात्मन् ! त्वं परमात्मस्तुत्या कदापि विमुखो मा भूः ॥५॥
टिप्पणीः
१. (रुद्र) रुतः सत्योपदेशान् राति ददाति तत्सम्बुद्धौ—इति ऋ० १।११४।३ भाष्ये द०। २. (रुद्रम्) यो रुद् रोगं द्रावयति तम्—इति ऋ० ६।४९।१० भाष्ये द०। ३. रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः—इति य० ३।१६ भाष्ये द०। ४. जरास्तुतिः। तां यः स्वयं बुध्यति बोधयति वा देवान् स जराबोधः।.... जराबोध इत्यपि अन्तरात्मनः सम्बोधनम्। प्रैषश्च, हे मदीय अन्तरात्मन्—इति वि०। जरया स्तुत्या बोधयति देवानिति जराबोधः स्तोता। जरतिः स्तुतिकर्मा। हे स्तोतः, आत्मन एव ऋषेरामन्त्रणम्—इति भ०। हे जराबोध जरया स्तुत्या बोध्यमान अग्ने—इति सा०। ५. विविड्ढि वेत्थ जानासि....। अथवा, विविड्ढीति विष्लृ व्याप्तावित्येतस्य रूपम्। अयं च धातुः वेष इति कर्मनामसु पाठात् (निघं० २।१), नाम्नां चाख्यातजत्वात्, कर्मणि च करोत्यर्थस्य सम्भवात् करोत्यर्थोऽपि, न व्याप्त्यर्थ एवेति गम्यते। तत्कुरु इत्यर्थः—इति वि०। यत् बुद्धिस्थं स्तुतिरूपं तद् विविड्ढि, विष्लेर्व्याप्तिकर्मणः लोटि मध्यमपुरुषैकवचनम्, व्याप्नुहि कुरु इत्यर्थः—इति भ०। तद् देवयजनं विविड्ढि प्रविश—इति सा०। ६. दयानन्दर्षिणा ऋग्वेदे मन्त्रोऽयं सेनाधिपतिपक्षे व्याख्यातः—‘(जराबोध) जरया गुणस्तुत्या बोधो यस्य सैन्यनायकस्य तत्संबुद्धौ। (यज्ञियाय) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै इत्यादि।
इंग्लिश (4)
Meaning
O God, knowable through praise, for the good of all, abide Thyself in our heart. We sing beautiful laudation, for Thee, the just Chastiser of the wicked and Worthy of adoration.
Meaning
Hero of high knowledge and wide fame, create and provide for every people and offer to adorable yajnic Rudra, brilliant lord of justice and power, that wealth, honour and celebration which is magnificent and worthy of praise. (Rg. 1-27-10)
Translation
0 God: Thou art dispenser of justice, to be adored, praised and known by every one. Manifest Thyself in the pure heart of that devotee who glorifies Thee sincerely and earnestly.
Comments
जराबोधः--जरया-स्तुत्याबोधयः स परमेश्वरः |
रुद्राय--दष्टानां रोदयित्रे, रु-शब्दे रुतं वेदात्मकं शाब्दं सगौदी राति--ददातीति तस्म'ज्ञानप्रदाय |
Translation
O cosmic Lord, earnest to prayers, may you enter into the spirit of our songs of praise for the completion of the sacrifice that benefits all mankind.; (Cf. S. 1663; Rv I.27.10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (जराबोधः) સ્તુતિ દ્વારા બોધ-જ્ઞાન કરાવનાર (विशे विशे) પ્રત્યેક મનોનિવેશરૂપ ધ્યાન– યજ્ઞના માટે (यज्ञियाय रुद्राय) તું ધ્યાનયજ્ઞના અભીષ્ટ દેવ તથા સ્તુતિ દ્વારા પૂર્ણ પ્રકાશમાન થયેલ અથવા જરા-વૃદ્ધાવસ્થા દ્વારા રડાવનાર પરમાત્માને માટે (तत् दृशीकं स्तोमम्) તે દર્શન સાધક-નેત્રથી જોયેલ સ્તુતિ વચનને (विवीड्ढि) સમ્યક્ રીતે અપનાવી લે.
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પ્રિય પરમાત્મન્ ! જ્યારે હું તારી સ્તુતિ કરું છું, ત્યારે તું મને બોધ-જ્ઞાન આપે છે. તથા જરા-વૃદ્ધાવસ્થામાં સાવધાન કરે છે - નાશવાન સંસારથી છૂટીને તારા શરણમાં આવવા માટે પ્રેરિત કરે છે.
આ રીતે બોધ કરાવનાર પરમાત્મન્ ! તું મારા પ્રત્યેક મનોનિવેશરૂપ ધ્યાનયજ્ઞમાં પ્રવેશ કર-પ્રાપ્ત થા - પોતાનો માનીને સ્વીકાર કર. તું પ્રકાશસ્વરૂપ ધ્યાનયજ્ઞના ઇષ્ટદેવ તથા જન્મ-જન્માન્તરના ભોગોની દોડમાં પડેલાને પૂર્ણ પશ્ચાતાપ કરાવનારને માટે દર્શન સાધન મારી સ્તુતિ સમૂહનો સ્વીકાર કર. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
تیری رعیّت خُوشحال ہو
Lafzi Maana
(جرا بودھ) بڑھاپے میں جا کر جس کا گیان اپنے آپ ہو جاتا ہے، ایسے سُتتی پرارتھناؤں سے جاننے یوگیہ پرمیشور! (اگنے شبد سے ایشور کا ارتھ پیچھے سے آ رہا ہے) تت) اُن ہمارے ہردیوں میں (وِوِڈھی) پرویش کیجئے۔ داخل ہو ویں۔ تاکہ آپ کی سبھی پرجا (رعایا) خوشحال ہو۔ (یگیائے) ہمارے یوگ آُپاسنا یگیہ سپھل ہوں، یکسوئی سے نکلی ہوئی دلی دُعائیں کامیاب ہوں، (رُدرائے) دُشٹوں کو رُلانے والے آپ کی ہم اُپاسک (دِرشی کم) منوہر سُتتی کرتے رہیں۔
Tashree
گناہوں سے پاک صاف ہو کر ہی ہماری دُعائیں آپ کے ہاں منظورہ وں گی۔ پاپوں میں لت پت ہو کر نہیں۔ لہٰذا آپ نیائے کاری، مُنصفِ اعلےٰ کے حضور میں ہم پوّتر پرارتھنائیں بھینٹ کرتے ہیں۔
मराठी (2)
भावार्थ
हे जगदीश्वरा! सर्वांनी पूजा करावी असा तू आहेस. तूच रुद्र बनून आमच्या हृदयात सद्गुणांना प्रेरित करतोस. अविवेक, आलस्य इत्यादींना नाहीसे करतोस, अंत:करणात वसलेले काम इत्यादी शत्रूंना रडवितोस. त्यासाठी आम्ही तुला हृदयात जागृत करण्यासाठी, तुझ्यासाठी अनेक स्तोत्रांना उपहार रूपात आणतो. कुणाचे स्तोत्र हार्दिक आहेत किंवा कृत्रिम आहेत हे तू चांगल्या प्रकारे जाणतोस. त्यासाठी आमच्या द्वारे केल्या गेलेल्या स्तोत्रांची हार्दिकता, दर्शनीयता व चारुता जाणून तू त्यांना स्वीकार कर. हे माझ्या अंतरात्म्या, तू परमात्म्यापासून कधी विमुख होऊ नकोस ॥५॥
विषय
आता पुढील मंत्रात परमेश्वराला स्त्रोताचा उपहार दिला आहे.
शब्दार्थ
आम्ही उपासकगण (विशेविरो) सर्व लोकांच्या हितार्थ (यज्ञियाय) पूजनीय अशा (रूद्राय) सत्योपदेश देणाऱ्या अविद्या, अहंकार, दु:खादीचे निवारण करणाऱ्या आणि काम, क्रोधादी शत्रूंना रडविणाऱ्या परमात्मरूप अग्नीसाठी (स्तोमम्) स्तुतीचे स्तोत्र (उपहाररूपाने सादर करीत आहोत.) हे (जराबोध) आमच्या स्तुतीला सम्यकप्रमारे जाणणा-या अथवा स्तुतीद्वारे हृदयात उद्बुद्ध होणाऱ्या परमेश्वरा, तू (तत्) आमच्या त्या स्त्रोताचा (विविडि) स्वीकार कर ।।५।। अथवा - या मंत्रशची अर्थयोजना याप्रकारेही करता येते. उपासक चिंतनस्थितीत स्वतःला उद्देशून म्हणत आहे - (जराबोध) स्तुती करणे ज्यास येते अशा हे माझे आत्मन् तू (विशे विशे) मन, बुद्धी आदी सर्व प्रजांच्या हिताकरीता (यज्ञियाय) पूजायोग्य अशा (रूद्राय) सत्योपदेश प्रदायक, दुःखनिवारक आणि आमच्या शत्रूंना रडविणाऱ्या परमात्मरूप अग्नीसाठी (तत्) त्या (दशीकम्) दर्शनीय वा महत्त्वपूर्ण (स्तोत्रम्) स्तोत्र (विविडि) कर अथति पूर्वोक्त गुणयुक्त परमात्म्याची स्तुती कर ।।५।।
भावार्थ
हे जगदीश्वर, आपण सर्वांसाठी पूजनीय आहात. आपणच आमच्या हृदयी सद्गुण ग्रहणाची प्रेरणा देता. आलस्य, अविवेक आदींना निरस्त करता, आमच्या अंत:करणात ठाण मांडून बसलेल्या कामादी शत्रूंना रडविता. म्हणून आम्ही तुम्हाला हृदयात जागृत करण्यासाठी अनेक प्रकारे अनेकानेक स्तोत्र उपहाररूपेण आणत आहोत. कुणाचे स्तोत्र हार्दिक आहेत किंवा कोणाचे कृत्रिम आहेत, हे तुम्ही नीटपणे जाणता. यामुळे आम्ही केलेल्या स्तोत्रांचे हृदयत्व, दर्शनीयत्व आणि चारूत्व ओळखून तुम्ही कृपया त्यांचा स्वीकार करा. हे माझे अंतरात्मन्, तू परमेश्वराच्या स्तुतीपासून कधीही विमुख होऊ नकोस. ।।५।।
तमिल (1)
Word Meaning
துதியை அறிபவனே! ஒவ்வொரு மனிதரிலும் உண்மையான துதியை (யக்ஞத்தை) சித்தியாக்கும் [1] (ருத்ரனின்) பொருட்டு இந்தச் செயலைப் ப்ரவேசிப்பாயோ?
FootNotes
[1] ருத்ரனின் - துஷ்டர்களைத் தண்டிப்பவனின்
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