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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1500
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    4

    अ꣣ह꣢꣫मिद्धि पि꣣तु꣡ष्परि꣢꣯ मे꣣धा꣢मृ꣣त꣡स्य꣢ ज꣣ग्र꣡ह꣢ । अ꣣ह꣡ꣳ सूर्य꣢꣯ इवाजनि ॥१५००॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣ह꣢म् । इत् । हि । पि꣣तुः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । मे꣣धा꣢म् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । ज꣣ग्र꣡ह꣢ । अ꣣ह꣢म् । सू꣡र्यः꣢꣯ । इ꣣व । अजनि ॥१५००॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रह । अहꣳ सूर्य इवाजनि ॥१५००॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । इत् । हि । पितुः । परि । मेधाम् । ऋतस्य । जग्रह । अहम् । सूर्यः । इव । अजनि ॥१५००॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1500
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १५२ क्रमाङ्क पर व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ मनुष्य अपनी उपलब्धि का वर्णन कर रहा है।

    पदार्थ

    (अहम्) मैंने (इत् हि) निश्चय ही (पितुः परि) पालनकर्ता पिता, आचार्य वा परमेश्वर से (ऋतस्य) सत्य ज्ञान और सत्य आचरण की (मेधाम्) बुद्धि को (जग्रह) ग्रहण कर लिया है। (अहम्) सत्यज्ञान वा सत्य आचरण को प्राप्त मैं (सूर्यः इव) सूर्य के समान सर्वोन्नत, प्रकाशवान् और प्रकाशक (अजनि) हो गया हूँ ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    जो माता, पिता वा आचार्य के पास से तथा परमेश्वर की प्रेरणा से सब विद्याओं और सदाचार को सीखकर उनका यथायोग्य सत्कार तथा पूजन करते हैं और दूसरों को विद्याएँ तथा सदाचार सिखाते हैं, वे प्रशंसित होते हैं ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १५२)

    विशेष

    ऋषिः—काण्वो वत्सः (मेधावी का पुत्र-अत्यन्त मेधावी)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    मैं सूर्य की तरह हो गया हूँ

    पदार्थ

    १५२ संख्या पर मन्त्रार्थ इस रूप में दिया गया है

    (अहम्) = मैं (इत् हि) = सचमुच, निश्चय से (पितुः) = ज्ञानदाता परमपिता प्रभु से (ऋतस्य) = सत्य कीसत्यज्ञान की (मेधाम्) = बुद्धि को (परिजग्रह) = सर्वतः ग्रहण करता हूँ । इस प्रकार सत्य-ज्ञान को प्राप्त करके (अहम्) = मैं (सूर्यः इव) = सूर्य की भाँति (अजनि) = हो गया हूँ।

    भावार्थ

    सत्य-ज्ञान के द्वारा हम सूर्य के समान चमकें।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५२ क्रमाङ्के व्याख्याता। अत्र मानवः स्वोपलब्धिं वर्णयति।

    पदार्थः

    (अहम्) जनः (इत् हि) निश्चयेन (पितुः परि) पालकात् पितुः, आचार्यात् परमेश्वराच्च (ऋतस्य) सत्यज्ञानस्य सत्याचरणस्य च (मेधाम्) बुद्धिम् (जग्रह) गृहीतवानस्मि। (अहम्) प्राप्तसत्यज्ञानाचरणो जनः (सूर्यः इव) आदित्य इव सर्वोन्नतः प्रकाशवान् प्रकाशकश्च (अजनि) जातोऽस्मि ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    ये मातापित्रोराचार्यस्य च सकाशात् परमेश्वरप्रेरणया च सर्वा विद्याः सदाचारं च शिक्षित्वा तान् यथायोग्यं सत्कुर्वन्ति पूजयन्ति च अन्यांश्च विद्याः सदाचारं च शिक्षयन्ति ते प्रशंसिता भवन्ति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Verily have I acquired Vedic intelligence from my Father, and have hence become illustrious like the Sub.

    Translator Comment

    See Verse 152.

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    Meaning

    I have received from my father super intelligence of the universal mind and law, I have realise it too in the soul, and I feel reborn like the refulgent sun. (Rg. 8-6-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अहम् इत् हि) હું સ્વયં અવશ્ય જ (पितुः) પરમપિતા પરમાત્મા દ્વારા (ऋतस्य मेधां परि जग्रह)  સત્યજ્ઞાનની મેધાને = ઋતંભરા બુદ્ધિને પૂર્ણ રૂપથી પ્રાપ્ત કરું છું તે ઉપાસના દ્વારા (अहं सूर्यः इव अजनि) હું ઉપાસક સૂર્યની સમાન જ્યોતિ પ્રાપ્ત કરીને પ્રસિદ્ધ થઈ જાઊં છું, જેમ સૂર્ય પરમાત્માની જ્યોતિ પ્રાપ્ત કરીને પ્રસિદ્ધ થાય છે. (૮)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જેમ સૂર્ય પરમાત્માથી જ્યોતિ પ્રાપ્ત કરીને પ્રસિદ્ધ થાય છે, તેમ ઉપાસક પરમાત્મા દ્વારા ઋતંભરા પ્રજ્ઞા = બુદ્ધિ પ્રાપ્ત કરીને પ્રસિદ્ધ થાય છે. (૮)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे माता, पिता किंवा आचार्याकडून व परमेश्वराच्या प्रेरणेने सर्व विद्या व सदाचार शिकून त्यांचा यथायोग्य सत्कार व पूजन करतात व दुसऱ्यांना विद्या व सदाचार शिकवितात, ते प्रशंसनीय असतात. ॥१॥

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