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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 157
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    व꣣य꣡मु꣢ त्वा त꣣दि꣡द꣢र्था꣣ इ꣡न्द्र꣢ त्वा꣣य꣢न्तः꣣ स꣡खा꣢यः । क꣡ण्वा꣢ उ꣣क्थे꣡भि꣢र्जरन्ते ॥१५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व꣣य꣢म् । उ꣣ । त्वा । तदि꣡द꣢र्थाः । त꣣दि꣢त् । अ꣣र्थाः । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वा꣣य꣡न्तः꣢ । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । क꣡ण्वाः꣢꣯ । उ꣣क्थे꣡भिः꣢ । ज꣣रन्ते ॥१५७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयमु त्वा तदिदर्था इन्द्र त्वायन्तः सखायः । कण्वा उक्थेभिर्जरन्ते ॥१५७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । उ । त्वा । तदिदर्थाः । तदित् । अर्थाः । इन्द्र । त्वायन्तः । सखायः । स । खायः । कण्वाः । उक्थेभिः । जरन्ते ॥१५७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 157
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि हम परमात्मा की अर्चना करते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (त्वायन्तः) आपके पाने की कामना करते हुए (सखायः) आपके सखा (वयम् उ) हम उपासक लोग (तदिदर्थाः) आपके दर्शन को ही प्रयोजन मानते हुए (त्वा) आपकी स्तुति करते हैं। न केवल हम, प्रत्युत (कण्वाः) सभी मेधावी जन (उक्थेभिः) स्तोत्रों से आपकी (जरन्ते) स्तुति करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    हे परमानन्दप्रदायक परमेश्वर ! आपके दर्शनों की लालसावाले हम सभी बड़ी उत्सुकता से आपकी चाहना करते हैं और बार-बार भक्ति से गद्गद होकर आपकी स्तुति करते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (कण्वाः) मेधावी (सखायः) तेरे मित्रजन (त्वायन्तः) तुझे चाहते हुए (उक्थेभिः) प्रशंसनीय वचनों—वैदिक स्तुत्य नामों से (जरन्ते) स्तुति में लाते हैं (वयम्-उ) हम भी (तदिदर्थाः) उस ही अर्थ—लक्ष्य को लेकर वैसे बनकर (त्वा) तुझे स्तुति में लाते हैं।

    भावार्थ

    परमात्मन्! हम भी अन्य पूर्ववर्ती या अपने से ऊँचे विद्वानों की भाँति तुझे चाहते हुए वैदिक नामों द्वारा तेरी स्तुति करते हैं। अपने से ऊँचे विद्वानों को आदर्श बनाकर परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिः काण्व प्रियमेधा वा (मेधावी का शिष्य मेधा से अतन परमात्मा में प्रवेश करने वाला प्रिया मेधा जिसकी है ऐसा विद्वान्)॥<br>

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    विषय

    सच्ची उपासना

    पदार्थ

    हे इन्द्र! (त्वा) = आपकी (जरन्ते) = स्तुति करते हैं। कौन ?

    १. (वयम् उ)=निश्चय से कर्मतन्तु का विस्तार करनेवाले [वेञ् तन्तुसन्ताने]। जो व्यक्ति “कुर्वन् एव इह कर्माणि - एवं त्वयि, न अन्यथा इतः अस्ति" [यजु:०४०/२] कर्मों को करते हुए ही जीने की इच्छा करते हैं।

    २. (तत् इत् अर्था:)= [तत् इत् अर्थो येषाम्] - सर्वव्यापक प्रभु ही जिनका लक्ष्य है [तनु विस्तारे] । प्रभु नि:सीम हैं, उनकी हित-साधन की प्रक्रिया सीमित नहीं है। इसी प्रकार जो व्यक्ति मनोवृत्ति को व्यापक बना, संकुचितता को समाप्त कर देते हैं, वे विस्तृत बनते हुए प्रभु की सच्ची उपासना कर रहे होते हैं। प्रभु ब्राह्मण व चाण्डाल गृह में एक समान सूर्य-किरणों को पहुँचाते हैं। हम भी व्यवहार में संकुचित न हों।

    ३. (इन्द्र) = वे प्रभु इन्द्र हैं। शक्ति के सब कार्यों को करनेवाले हैं, अतः हम भी इन्द्र बनें। शक्तिशाली कार्यों के करनेवाले हों। इन्द्र ने असुरों का संहार किया, हम भी काम, क्रोध, लोभ, मोहादि आसुर वृत्तियों का संहार करनेवाले बनें ।

    ४. (त्वायन्तः)=तेरी ही कामनावाले हों, धन भी न हो। जिसके जीवन का लक्ष्य धन जुटाना हो जाता है, वह प्रभु का उपासक नहीं बन सकता ।

    ५. (सखायः) = जो तेरे सखा हैं - समान ख्यानवाले हैं। जैसे आप सर्वज्ञ हैं, इसी प्रकार जो सर्वज्ञ- कल्प बनने का प्रयत्न करते हैं, वे आपके सच्चे उपासक हैं।

    ६. (कण्वाः)=मेधावी लोग जो कण-कण करके विद्या का ग्रहण करते हैं, वे (उक्थेभिः)=स्तोत्रों के द्वारा (जरन्ते)= आपकी स्तुति करते हैं।

    एवं, स्पष्ट है कि प्रभु की सच्ची भक्ति १. निरन्तर कर्म करने, २. हृदय को विशाल बनाने, ३. आसुर वृत्तियों का संहार करने, ४. धन को ही जीवन का उद्देश्य न बना लेने तथा ५. प्रभु के समान सर्वज्ञ - कल्प बनने का प्रयत्न करने में है। इन पाँचों बातों में भी अन्तिम बात के महत्त्व को स्पष्ट करने के लिए कहा गया है कि कण्व - मेधावी ही तेरी स्तुति करते हैं।

    इस मन्त्र के ऋषि मेधातिथि = निरन्तर मेधा की ओर चलनेवाला- मेधाम् अतति तथा प्रियमेध [प्यारी है मेधा जिसको] हैं। इन ऋषियों के नामों से भी स्पष्ट है कि सर्वोत्तम भक्ति ज्ञानप्राप्ति में लगे रहने में ही है। इनमें मेधातिथि काण्व - कण-कण करके मेधा के सञ्चय में लगा है। प्रियमेध विषयों में अरुचि के कारण शक्तिसम्पन्न होकर सचमुच आङ्गिरस है।

    भावार्थ

    हम प्रभु के सर्वोत्तम ज्ञानीभक्त बनने के लिए प्रयत्नशील हों।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( वयम् ) = हम और ( कण्वा:) = मेधावी विद्वान् लोग, हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( त्वायन्तः ) = तेरी कामना करते हुए, तेरे प्रेमी, तुझे प्राप्त करने में लगे हुए ( सखायः ) = समान ख्याति वाले ( तदि-इद्-अर्थाः ) = उस परम तत्व तुझको एकमात्र अपना इष्ट प्रयोजन जानते हुए ( त्वा ) = तेरी ( उक्थेभिः ) = मन्त्रों द्वारा ( जरन्ते ) = स्तुति करते हैं, तेरे स्वरूप का वर्णन करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - मेधातिथिप्रियमेधौ । 

    देवता - इन्द्रः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वयं परमात्मानमर्चयाम इत्याह।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (त्वायन्तः) त्वां कामयमानाः। युष्मच्छब्दात् आत्मन इच्छार्थे क्यचि शतरि रूपम्। (सखायः) तव सुहृदः (वयम् उ) वयम् उपासकाः खलु। उ इति वाक्यालङ्कारे पदपूरणे वा। (तदिदर्थाः२) तत् इत् तदेव त्वद्दर्शनमेव अर्थः प्रयोजनं येषां तथाविधाः सन्तः (त्वा) त्वाम् स्तुमः इति शेषः। न केवलं वयम्, प्रत्युत (कण्वाः) सर्वेऽपि मेधाविनः। कण्व इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (उक्थेभिः) उक्थैः स्तोत्रैः त्वाम् (जरन्ते) स्तुवन्ति। जरते अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४ ॥३॥

    भावार्थः

    हे परमानन्दप्रदायक परमेश्वर ! त्वद्दर्शनलालसाः सर्वे वयमौत्सुक्येन त्वां कामयामहे, पुनः पुनश्च सभक्तिगद्गदं त्वां स्तुवामहे ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।२।१६, साम० ७१९, अथ० २०।१८।१। २. तदिदर्थाः। इदिति पादपूरणः। यस्तवार्थो यागादिः स अर्थो येषां ते तदर्थाः, यागपरा इत्यर्थः—इति वि०। स एवार्थः प्रयोजनं येषां ते तदिदर्थाः स्तुत्येकपरार्थाः—इति भ०। यत् त्वद्विषयं स्तोत्रं तदित् तदेवार्थः प्रयोजनं येषां तादृशाः सन्तः—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, learned persons. Thy friends, worship Thee with Vedic verses. We Thy sincere devotees, longing for Thee, also worship Thee.

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    Meaning

    Indra, we too have the same aims and objectives as you. We are your friends and admirers. We know and wish to achieve, and with all words of praise and appreciation, we adore you as others, wise devotees, do. (Rg. 8-2-16)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

     પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (कण्वाः) મેધાવી (सखायः) તારા મિત્રજન (त्वायन्तः) તારી કામના કરતા (उक्थेभिः) પ્રશંસનીય વચનો-વૈદિક સ્તુતિના નામો દ્વારા (जरन्ते) સ્તુતિમાં લાવીએ છીએ. (वयम् उ) અમે પણ (तदिदर्थाः) તે માટે-લક્ષ્યને લઈને, તેવા બનીને (त्वा) તને સ્તુતિમાં લાવીએ છીએ. (૩)                    

    भावार्थ

              ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! અમે પણ પૂર્વવર્તી અથવા અમારાથી શ્રેષ્ઠ વિદ્વાનોની માફક તને ચાહતાકામના કરતા વૈદિક નામો દ્વારા તારી સ્તુતિ કરીએ છીએ. આપણાથી શ્રેષ્ઠ વિદ્વાનોને આદર્શ માનીને પરમાત્માની સ્તુતિ કરવી જોઈએ. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آپ کے مِتر بننا چاہتے ہیں!

    Lafzi Maana

    ہے اِندر پرمیشور! آپ کے دیئے ہوئے وید گیان کے خزانے سے کُچھ (کنوہ) گیان کے ذرّات حاصل کرنے کے خواہشمند لوگ (اُکتھے بھی) وید منتروں دوارہ (جرنتے) آپ کی اُستتیاں کرتے ہیں (ویُم تُوا) ہم آپ کے اُپاسک بھی آپ کا ہی گان کرتے ہیں اور (تُو اینتا) آپ کو ہی پراپت کرنا چاہتے ہیں (مت اِت ارتھاہ) بس یہی ایک ہماری چاہنا (خواہش) اور یہی ہے ہماری زندگی کا مقصدِ اعلےٰ۔ ہم ہیں آپ کے (سکھایہ) سَکھا، پیارے مِتر۔

    Tashree

    ہے اِندر! ہم سب مِتر بن ملنا تمہیں ہیں چاہتے، کیول تمہارے گیت گا نِج بھاگیہ اُچیہ سراہتے۔

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे परमानंददायक परमेश्वरा! तुझ्या दर्शनाची लालसा करणारे आम्ही सर्वजण अत्यंत उत्सुकतेने तुझी कामना करतो व वारंवार भक्तीने गद्गद होऊन तुझी स्तुती करतो ॥३॥

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (இந்திரனே!) உன் ஆத்மாவை விரும்பி உன் (நண்பர்களைப்போல்) நாங்கள்
    இந்தத்தூதியால் உன்னை நாடுகிறோம். [1]கண்வர்கள் கீதங்களால் துதிசெய்கிறார்கள்.

    FootNotes

    [1].கண்வர்கள் - மேதாவிகள்

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