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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1594
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - मरुतः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
श꣣शमान꣡स्य꣢ वा नरः꣣ स्वे꣡द꣢स्य सत्यशवसः । वि꣣दा꣡ काम꣢꣯स्य꣣ वे꣡न꣢तः ॥१५९४॥
स्वर सहित पद पाठश꣣शमान꣡स्य꣢ । वा꣣ । नरः । स्वे꣡द꣢꣯स्य । स꣣त्यशवसः । सत्य । शवसः । विद꣢ । का꣡म꣢꣯स्य । वे꣡न꣢꣯तः ॥१५९४॥
स्वर रहित मन्त्र
शशमानस्य वा नरः स्वेदस्य सत्यशवसः । विदा कामस्य वेनतः ॥१५९४॥
स्वर रहित पद पाठ
शशमानस्य । वा । नरः । स्वेदस्य । सत्यशवसः । सत्य । शवसः । विद । कामस्य । वेनतः ॥१५९४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1594
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे एक ऋचावाले सूक्त में विद्वान् जनों को सम्बोधन है।
पदार्थ
हे (नरः) नेता मरुतो ! विद्वान् लोगो ! तुम (शशमानस्य) शीघ्रता से प्रयत्न करते हुए, (स्वेदस्य) पसीने से तर-बतर शरीरवाले, (सत्यशवसः) सत्य बलवाले (वेनतः वा) और महत्वाकाङ्क्षा से युक्त मनुष्य के (कामस्य) मनोरथ को (विद) जानो और पूर्ण करो ॥१॥
भावार्थ
परिश्रम के पसीने से नहाये शरीरवाले, सत्य विज्ञानवाले, सत्य बलवाले और सत्य कर्मवाले मनुष्य की ही महत्वाकाङ्क्षाएँ सिद्ध होती हैं, आलसी की नहीं ॥१॥
पदार्थ
(सत्यशवसः-नरः) हे सत्यबलवाले नायक उन्नत पथ पर ले जानेवाले वासनाओं को मारनेवाले परमात्मन्!४ तू (शशमानस्य) शंसमान—प्रशंसा करनेवाले—स्तुति करनेवाले५ के (वा) और६ (स्वेदस्य) तुझ से स्नेह करनेवाले७—अनुरक्त श्रद्धावान् के (वेनतः) तेरे दर्शन की कामना करनेवाले उपासक८ के (कामस्य ‘कामम्’ विद) काम—कमनीय स्वदर्शन एवं मोक्षानन्द को९ प्राप्त करा॥१॥
विशेष
ऋषिः—गोतमः (परमात्मा में विशेष गतिशील उपासक)॥ देवता—मरुतः (वासनाओं को मार देने वाला परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
धर्माविरुद्ध काम
पदार्थ
अपनी इन्द्रियों को उत्तम बनानेवाले मनुष्य 'गो-तम'=प्रशस्तेन्द्रिय कहलाते हैं । ये ही अपने जीवन में आगे बढ़ने के कारण 'नर:' हैं [नृ नये ] | इन नर व्यक्तियों से प्रभु कहते हैं -
(नरः) = हे मनुष्यो ! (कामस्य विद) = तुम काम- इच्छा को प्राप्त करो, परन्तु किस पुरुष की इच्छा को ? १. (शशमानस्य) = प्लुत गतिवाले मनुष्य की इच्छा को । उस मनुष्य की कामना को जो पुरुषार्थ में किसी प्रकार की कमी नहीं करता । २. (स्वेदस्य) = जो परिश्रम करके पसीने से तर-बतर हो जाता है—‘न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः '-देवता इस परिश्रम से चूर-चूर हुए-हुए पुरुष की ही मित्रता के लिए होते हैं । ३. (सत्यशवस:) = सत्य के बलवाले की । तुम कभी भी उस पुरुष की कामना को प्राप्त मत करो जो असत्य से कमाने का प्रयत्न करता है । ४. (वा) = तथा (वेनतः) = मेधावी तथा यज्ञशील की । मूर्ख मनुष्य की कामना तो अनुपादेय है ही, परन्तु साथ ही स्वार्थ में रत पुरुष की कामना भी हमारी न हो । कामना तभी ठीक है यदि यह निम्न बातों से समवेत हो
१. क्रियाशीलता, २. श्रम, ३. सत्य तथा ४. बुद्धिमत्ता और लोकहित की भावना । इन बातों से युक्त ‘काम’ धर्माविरुद्ध है - यह हममें प्रभु का रूप है । यही काम पवित्र है। यही हमें सदा लोकहित के व्यापक कर्मों में प्रवृत्त रखता है और हमारी इन्द्रियाँ पवित्र बनी रहती हैं ।
भावार्थ
हममें काम हो, परन्तु वह धर्माविरुद्ध हो । उसके साथ पुरुषार्थ, श्रम, सत्य, बुद्धिमत्ता तथा यज्ञिय भावना जुड़ी हुई हों ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (सत्यशवसः) विद्यमान रह कर सबके प्रेरक सत्यबल से सम्पन्न (नरः) शरीर और इन्द्रियों को वहन करने हारे नेतास्वरूप विद्वानो ! और प्राणो ! (शशमानस्य) शमादि गुणों का अभ्यास करने वाले (स्वेदस्य) प्राणायाम के अवसर पर समस्त गात्र में स्वेद धारण करने वाले, उद्योगी (वेनतः) विद्वान् योगी के (कामस्य) मनः संकल्प को प्राप्त कराओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन्नेकर्चे सूक्ते विद्वांसो जनाः सम्बोध्यन्ते।
पदार्थः
हे (नरः) नेतारः मरुतो विद्वांसो जनाः ! यूयम् (शशमानस्य) द्रुतगत्या प्रयतमानस्य। [शश प्लुतगतौ, भ्वादिः।] (स्वेदस्य) स्विन्नगात्रस्य, (सत्यशवसः) सत्यबलस्य, (वेनतः वा) महत्त्वाकाङ्क्षायुक्तस्य च जनस्य। [वेनतिः कान्तिकर्मा। निघं० २।६। वा इति समुच्चये। निरु० १।५।] (कामस्य) कामम् अभीप्सितम्। [अत्र कर्मणि षष्ठी।] (विद) जानीत, पूरयत च। [संहितायां द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः] ॥१॥२
भावार्थः
परिश्रमेण स्विन्नगात्रस्य सत्यविज्ञानस्य सत्यबलस्य सत्यकर्मण एव जनस्य महत्त्वाकाङ्क्षाः सिध्यन्ति, नालसस्य ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O most powerful learned persons, fulfil the ambition of a Yogi, who is calm, and perspires through Pranayama (exercise of breath) !
Meaning
Maruts, dynamic powers of action and generosity, know and fulfil the plan and desire of the man truly courageous and powerful, knowledgeable, cultured and graceful who honestly lives by the sweat of his brow. (Rg. 1-86-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सत्यशवसः नरः) હે સત્યબળવાળા નાયક, ઉન્નત માર્ગ પર લઈ જનારી વાસનાઓને મારનાર પરમાત્મન્ ! તું (शशमानस्य) શંસમાન-પ્રશંસા કરનારા-સ્તુતિ કરનારાને (वा) અને (स्वेदस्य) તારાથી સ્નેહ કરનારા-અનુરક્ત શ્રદ્ધાવાનને (वेदतः) તારા દર્શનની કામના કરનારા ઉપાસકોને (कामस्य "कामम्" विद) કામ-સુંદર સ્વદર્શન અને મોક્ષાનંદને પ્રાપ્ત કરાવ. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
परिश्रम करून घाम गाळणाऱ्या शरीरयुक्त, सत्यविज्ञानयुक्त, सत्यबलयुक्त व सत्यकर्मयुक्त माणसाची महत्त्वाकांक्षा सिद्ध होते, आळशी लोकांची नव्हे. ॥१॥
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