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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1597
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    पु꣣नाने꣢ त꣣꣬न्वा꣢꣯ मि꣣थः꣢꣫ स्वेन꣣ द꣡क्षे꣢ण राजथः । ऊ꣣ह्या꣡थे꣢ स꣣ना꣢दृ꣣त꣢म् ॥१५९७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुनाने꣡इति꣢ । त꣣न्वा꣢ । मि꣣थः꣢ । स्वे꣡न꣢꣯ । द꣡क्षे꣢꣯ण । रा꣣जथः । ऊ꣢ह्याथे꣣इ꣡ति꣢ । स꣣ना꣢त् । ऋ꣣त꣢म् ॥१५९७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनाने तन्वा मिथः स्वेन दक्षेण राजथः । ऊह्याथे सनादृतम् ॥१५९७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनानेइति । तन्वा । मिथः । स्वेन । दक्षेण । राजथः । ऊह्याथेइति । सनात् । ऋतम् ॥१५९७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1597
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में आत्मा और बुद्धि के आपस के उपकार का वर्णन है।

    पदार्थ

    (तन्वा) स्वरूप से (मिथः) एक-दूसरे को (पुनाने) पवित्र करते हुए तुम दोनों आत्मा और बुद्धि (स्वेन) अपने (दक्षेण) बल से (राजथः) शोभित होते हो, (सनात्) चिरकाल से (ऋतम्) सत्य को (ऊह्याथे) चरितार्थ करते हो ॥२॥

    भावार्थ

    आत्मा और बुद्धि आकाश और भूमि के समान एक-दूसरे के उपकारक होते हुए मनुष्य को अभ्युदय और निःश्रेयस के मार्ग पर भली-भाँति चलाते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (तन्वा मिथः पुनाने) हे परमात्मन्! तू संसार का प्रकाशक और धारक साथ ही (स्वेन दक्षेण राजथः) अपने बल से स्वामित्व करता है (सनात्-ऋतम्-ऊह्याथे) सदा से ब्राह्मण१ उपासकजन को मोक्ष की ओर पहुँचाता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    सनातन यज्ञ

    पदार्थ

    द्युलोक वृष्टि व प्रकाश से पृथिवी को पवित्र करता है और पृथिवी 'अज' [व्रीहि] आदि यज्ञिय ओषधियों को जन्म देकर यज्ञों द्वारा द्युलोक को पवित्र करती है । इस प्रकार ये दोनों लोक एक-दूसरे के पावक हैं । मन्त्र में कहते हंर कि ये दोनों द्युलोक व पृथिवीलोक (मिथः) = आपस में (तन्वा) = अपने शरीरों को [स्वरूपों को] पुनाने पवित्र करते हुए (स्वेन दक्षेण) = अपने बल व वृद्धि से (राजथः) = दीप्त होते हैं। पृथिवी द्युलोक के बल को बढ़ाती है और द्युलोक पृथिवी के बल को बढ़ाता है। पृथिवी यज्ञिय ओषधियों को जन्म देकर अग्नि के मुख से उन ओषधियों को द्युलोक में पहुँचाती हैं, और द्युलोक वर्षा के द्वारा पृथिवी की उत्पादन शक्ति को बढ़ाता है । इस क्रम से ये दोनों लोक (सनात् ऋतम्) = इस सनातन यज्ञ को (ऊह्याथे) = वहन कर रहे हैं, अर्थात् इन दोनों लोकों का यह परस्पर भावन करनेवाला यज्ञ चल रहा है । हम स्तोताओं के अध्यात्म में भी मस्तिष्क शरीर का धारण करनेवाला बने तथा शरीर मस्तिष्क

    का । स्वस्थ विचार शरीर को स्वस्थ बनाएँ तथा शरीर का स्वास्थ्य मस्तिष्क की विचारशक्ति को पवित्र करे। [A Sound mind in a sound body] स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मनवाले बनकर हम भी द्युलोक व पृथिवीलोक के सच्चे स्तोता बनें ।

    भावार्थ

    हमारा शरीर स्वस्थ हो, उस स्वस्थ शरीर में हम स्वस्थ मन को धारण करनेवाले बनें । 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे जीव और परमात्मन् ! या शिष्य और गुरो ! (स्वेन) अपने (तन्वा) शरीर अर्थात् स्वरूप और (दक्षण) ज्ञान बल, और कर्म सामर्थ्य से (मिथः) परस्पर (पुनाने) एक दूसरे को पवित्र करते हुए (राजथः) प्रकाशित होते हो और (सनाद्) सदा काल से (ऋतं) सत्य ज्ञान को (उह्याथे) धारण करते हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथात्मबुद्ध्योः परस्परोपकर्तृत्वमाह।

    पदार्थः

    (तन्वा) स्वरूपेण (मिथः) अन्योन्यम् (पुनाने) पवित्रीकुर्वाणे युवाम् आत्मबुद्धी (स्वेन) स्वकीयेन (दक्षेण) बलेन (राजथः) शोभेथे, (सनात्) चिरात् (ऋतम्) सत्यम् (ऊह्याथे) वहथः ॥२॥२

    भावार्थः

    आत्मा बुद्धिश्च द्यावापृथिवीवत् परस्परमुपकुर्वन्तौ मनुष्यमभ्युदयमार्गे निःश्रेयसमार्गे च सम्यग् वहतः ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O teacher and pupil. Ye shine, sanctifying each other with your body and spiritual strength. Ye always imbibe truth !

    Translator Comment

    The verse may apply to God and soul as well.

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    Meaning

    Divine and pure heaven and earth, together in body with your innate power and potential, you shine in glory and observe the laws of eternal truth in existence. (Rg. 4-56-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (तन्वा मिथः पुनाने) હે પરમાત્મન્ ! તું સંસારનો પ્રકાશક અને ધા૨ક સાથે જ (स्वेन दक्षेण राजथः) પોતાનાં બળથી સ્વામીત્વ કરે છે. (सनात् ऋतम् ऊह्याथे) સદાથી બ્રાહ્મણ-ઉપાસકજનને મોક્ષની તરફ પહોંચાડે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा व बुद्धी, आकाश व भूमीप्रमाणे एकमेकांचे उपकारक असून माणसाला अभ्युदय व नि:श्रेयस मार्गावर उत्तम प्रकारे नेतात. ॥२॥

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