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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1632
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
3
त꣡म꣢स्य मर्जयामसि꣣ म꣢दो꣣ य꣡ इ꣢न्द्र꣣पा꣡त꣢मः । यं꣡ गाव꣢꣯ आ꣣स꣡भि꣢र्द꣣धुः꣢ पु꣣रा꣢ नू꣣नं꣡ च꣢ सू꣣र꣡यः꣢ ॥१६३२॥
स्वर सहित पद पाठतम् । अ꣣स्य । मर्जयामसि । म꣡दः꣢꣯ । यः । इ꣣न्द्रपा꣡त꣢मः । इ꣣न्द्र । पा꣡त꣢꣯मः । यम् । गा꣡वः꣢꣯ । आ꣣स꣡भिः꣢ । द꣣धुः꣢ । पु꣣रा꣢ । नू꣣न꣢म् । च꣣ । सूर꣡यः꣢ ॥१६३२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमस्य मर्जयामसि मदो य इन्द्रपातमः । यं गाव आसभिर्दधुः पुरा नूनं च सूरयः ॥१६३२॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । अस्य । मर्जयामसि । मदः । यः । इन्द्रपातमः । इन्द्र । पातमः । यम् । गावः । आसभिः । दधुः । पुरा । नूनम् । च । सूरयः ॥१६३२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1632
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में उपासना का विषय कहते हैं।
पदार्थ
(अस्य) इस स्तोता मनुष्य का (यः) जो (इन्द्रपातमः) परमेश्वर द्वारा अतिशय पान करने योग्य (मदः) हर्षदायक भक्ति-रस है, (तम्) उसे, हम (मर्जयामसि) शुद्ध करते हैं, (यम्) जिसे(पुरा नूनं च) पहले और आज भी (सूरयः) विद्वान् (गावः)स्तोता लोग (आसभिः) मुखों से (दधुः) प्रकट करते रहे हैं ॥२॥
भावार्थ
आडम्बर से रहित, निश्छल, शुद्ध उपासना ही जगदीश्वर को स्वीकार होती है ॥२॥
पदार्थ
(अस्य) इस सोम परमात्मा के (तम्) उस मद—हर्ष आनन्दरस को (मर्जयामसि) प्राप्त करें६ (यः-मदः-इन्द्रपातमः) जो आनन्दरस अत्यन्त पीने योग्य है—अन्दर धारण करने योग्य है७ (यम्) जिस आनन्दरस को (गावः-आसभिः पुर दधुः) स्तुतिगानकर्ता८ आसन आदि योगाङ्गों द्वारा पूर्वकाल में धारण करते रहे (नूनं च सूरयः) और आज—इस समय भी९ स्तुतिकर्ता उपासकजन धारण करते हैं॥२॥
विशेष
<br>
विषय
ज्ञानेन्द्रियों के मुख से
पदार्थ
‘सोम' शरीर में सर्वोत्तम रक्षक है । यह शरीर को नीरोग रखता है, मन को निर्मल करता है और बुद्धि को तीव्र बनाता है । वस्तुतः यह जीवन का आधार है । इसके अभाव में तो मृत्यु ही है,
इसीलिए इसे यहाँ ‘इन्द्र-पात-मः'=जीवात्मा का सर्वोत्तम रक्षक कहा गया है। यह जीवन में उल्लास लानेवाला है, अत: इसे मदः – हर्षजनक कहा है। हम (अस्य) = इस जीव के (तम्) = उस सोम को (मर्जयामसि) = शुद्ध करते हैं (यः) = जो (मदः) = उल्लास को देनेवाला तथा (इन्द्रपातमः) = जीवात्मा का सर्वाधिक रक्षक है। (यः) = जिसको (गावः) = ज्ञानेन्द्रियाँ (आसभिः) = [असनम्=आसः] शत्रुओं के काम-क्रोधादि के प्रक्षेपण के हेतु से (दधुः) = धारण करती हैं । जितना जितना मनुष्य ज्ञान-प्राप्ति में प्रवृत्त होता है, उतना उतना ही सोम-रक्षण सम्भव होता है और मनुष्य वासनाओं के विनाश व दूर फेंकने में समर्थ होता है। ज्ञान-प्राप्ति एक ऐसा व्यसन है जो अन्य सब व्यसनों को नष्ट कर देता है।
(च) = और (सूरयः) = विद्वान् विवेकी समझदार लोग (नूनम्) = शीघ्र ही [now, immediately] पुरा= आत्मरक्षा के लिए [for the defence of] दधुः = इस सोम को धारण करते हैं । वेद में 'पुरा' शब्द का अर्थ ‘रक्षा के लिए' होता है - यही अर्थ यहाँ सङ्गत है । विवेकशील पुरुष श्रेय और प्रेय का अन्तर समझकर सोम का विनियोग क्षणिक प्रेय के लिए न करके स्थायी श्रेय के लिए ही करता है और सोम की रक्षा में अत्यन्त सावधान हो जाता है। सोम की रक्षा यह 'ज्ञानेन्द्रियों के मुख' से ही कर पाता है, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों को सदा ज्ञान-प्राप्ति में लगाये रखकर ही सोम की रक्षा सम्भव होती है।
भावार्थ
ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति में लगाये रखकर ही हम सोम की रक्षा कर पाते हैं ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथोपासनाविषय उच्यते।
पदार्थः
(अस्य) अस्य स्तोतुर्मनुष्यस्य (यः इन्द्रपातमः) इन्द्रेण परमेश्वरेण अतिशयेन पातव्यः (मदः) हर्षकरः भक्तिरसः अस्ति (तम् मर्जयामसि) शोधयामः, परिष्कुर्मः, (यम् पुरानूनं च) प्राक्काले अद्य चापि (सूरयः) विपश्चितः (गावः) स्तोतारः।[गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६।] (आसभिः) मुखैः(दधुः) प्रकटयन्ति ॥२॥
भावार्थः
आडम्बररहिता निश्छला शुद्धैवोपासना जगदीश्वरस्य स्वीकृता भवति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We cleanse this gladdening essence of the soul, the juice which the soul chiefly drinks; that which the learned scholars of the Vedas took into their mouths of old, and take it now.
Translator Comment
Learned knowers of the Vedas have tasted the joy of the soul in ancient times, and taste It even now.
Meaning
That power and ecstasy of this Soma, worthiest of the souls delight, we adore and exalt, which the sense and mind with their perceptions and reflection receive and which, for sure, veteran sages too have experienced for times immemorial. (Rg. 9-99-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अस्य) એ સોમ-પરમાત્માના (तम्) તે મદ = હર્ષ-આનંદરસને (मर्जयामसि) પ્રાપ્ત કરીએ. (यः मदः इन्द्रपातम्) જે આનંદરસ પાન કરવા યોગ્ય છે-અંદર ધારણ કરવા યોગ્ય છે. (यम्) જે આનંદરસને (गावः आसभिः पुरः दधुः) સ્તુતિગાન કર્તા આસન આદિ યોગનાં અંગો દ્વારા પૂર્વકાલમાં ધારણ કરતા રહીને (नूनं च सूरयः) અને આજ-આ સમયમાં પણ સ્તુતિકર્તા ઉપાસકજન ધારણ કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
अवडंबररहित, निश्चल, शुद्ध उपासनाच जगदीश्वराला स्वीकार असते. ॥२॥
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