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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1651
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    स꣡म꣢स्य म꣣न्य꣢वे꣣ वि꣢शो꣣ वि꣡श्वा꣢ नमन्त कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । स꣣मुद्रा꣡ये꣢व꣣ सि꣡न्ध꣢वः ॥१६५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स꣢म् । अ꣣स्य । मन्य꣡वे꣢ । वि꣡शः꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । न꣣मन्त । कृष्ट꣡यः꣢ । स꣣मुद्रा꣡य꣢ । स꣣म् । उद्रा꣡य꣢ । इ꣣व । सि꣡न्ध꣢꣯वः ॥१६५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः । समुद्रायेव सिन्धवः ॥१६५१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । अस्य । मन्यवे । विशः । विश्वाः । नमन्त । कृष्टयः । समुद्राय । सम् । उद्राय । इव । सिन्धवः ॥१६५१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1651
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १३७ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ राजा के दृष्टान्त से परमात्मा का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    जैसे (अस्य) इस इन्द्र राजा के (मन्यवे) क्रोध के सम्मुख (विश्वाः) सब (कृष्टयः) विनाशक (विशः) शत्रु-सेनाएँ (सं नमन्त) झुक जाती हैं, वैसे ही (अस्य) इस इन्द्र परमात्मा के (मन्यवे) तेज के सम्मुख (विश्वाः) सब (कृष्टयः) योगाभ्यासरूप कृषि करनेवाली (विशः) प्रजाएँ (सं नमन्त) नम्र हो जाती हैं, (समुद्राय इव) जैसे समुद्र को प्राप्त करने के लिए (सिन्धवः) नदियाँ (सं नमन्त) नम्र अर्थात् नीचे की ओर बहनेवाली हो जाती हैं ॥१॥ यहाँ उपमा और श्लेष अलङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर का प्रताप, प्रभाव और महत्त्व सबसे महान् है, जिसके संमुख सभी नतमस्तक होते हैं ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १३७)

    विशेष

    ऋषिः—काण्वो वत्सः (मेधावी से सम्बद्ध स्तुतिवक्ता उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    हम प्रभु के ‘वत्स'=प्रिय बनें

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र की व्याख्या संख्या १३७ पर इस रूप में है—

    (इव) = जैसे (सिन्धवः) = बहनेवाली नदियाँ (समुद्राय) = समुद्र के लिए [संनमन्ति] = झुकती हैं, उसी प्रकार (विश्वाः) = इस संसार के अन्दर प्रविष्ट हुए हुए और अब प्रभु की गोद में प्रवेश की इच्छावाले (कृष्टयः) = हृदयस्थली से वासनारूप घासफूस को उखाड़ देने की कामनावाले (विश:) = प्रजाजन (अस्य) = इस प्रभु के (मन्यवे) = ज्ञान के लिए (संनमन्त) = झुकते हैं, अर्थात् प्रभु से दिये गये वेदज्ञान के लिए प्रयत्नशील होते हैं । 
     

    भावार्थ

    ज्ञान प्राप्त करना हमारे लिए स्वाभाविक हो जाए तभी हम प्रभु के प्रिय बन पाएँगे ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १३७ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र नृपतिदृष्टान्तेन परमात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    यथा (अस्य) इन्द्रस्य नृपतेः (मन्यवे) क्रोधाय (विश्वाः) सर्वाः (कृष्टयः) कर्षयित्र्यः (विशः) शत्रुसेनाः (सं नमन्त) संनमन्ति, तथैव (अस्य) इन्द्रस्य परमात्मनः (मन्यवे) तेजसे (विश्वाः) सर्वाः (कृष्टयः) योगाभ्यासरूपं कृषिकर्म कुर्वाणाः (विशः) प्रजाः (सं नमन्त) नम्रा भवन्ति, (समुद्राय इव) समुद्रं प्राप्तुं यथा (सिन्धवः) नद्यः (संनमन्त) नम्राः निम्नाभिमुखाः जायन्ते ॥१॥ अत्रोपमा श्लेषश्चालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    वरिष्ठः किल जगदीशस्य प्रतापः प्रभावो महिमा च यस्य पुरतः सर्वेऽपि नतमस्तका जायन्ते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    All men and subjects bow before the dignity of the King, us rivers bow themselves to the sea.

    Translator Comment

    See verse 137.

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    Meaning

    The people, in fact the entire humanity, bow in homage and surrender to this lord of passion, power and splendour just as rivers flow on down and join into the sea. (Rg. 8-6-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अस्य) એ ઇન્દ્ર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માના (मन्यवे) દીપ્ત પ્રકાશ સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ માટે (विश्वाविशः कृष्टयः) સર્વ પ્રવેશ કરનારી મનુષ્ય પ્રજાઓ (सम् नमन्त) દ્રવીભૂત બને છે , ઝૂકી જાય છે ; (समुद्राय सिन्धवः इव) સમુદ્રને માટે - જેમ સમુદ્રને પ્રાપ્ત થવા માટે નદીઓ ઝૂકીને વહી જાય છે.
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જેમ સમુદ્રને પ્રાપ્ત થવા નદીઓ ઝૂકીને વહી જાય છે , તેમ પરમાત્માના પ્રકાશ સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરવા માટે તેમાં પ્રવેશ કરવા માટે સર્વ મનુષ્યો તેની તરફ ઝૂકીને ચાલ્યા જાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वराचा प्रताप, प्रभाव व महत्त्व सर्वात महान आहे, ज्याच्यासमोर सर्वजण नतमस्तक होतात. ॥१॥

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