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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1656
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
नी꣢꣯व शी꣣र्षा꣡णि꣢ मृढ्वं꣣ म꣢ध्य꣣ आ꣡प꣢स्य तिष्ठति । शृ꣡ङ्गे꣢भिर्द꣣श꣡भि꣢र्दि꣣श꣢न् ॥१६५६
स्वर सहित पद पाठनि꣢ । इ꣣व । शीर्षा꣡णि꣢ । मृ꣣ढ्वम् । म꣡ध्ये꣢꣯ । आ꣡प꣢꣯स्य । ति꣣ष्ठति । शृ꣡ङ्गे꣢꣯भिः । द꣣श꣡भिः꣢ । दि꣣श꣢न् ॥१६५६॥
स्वर रहित मन्त्र
नीव शीर्षाणि मृढ्वं मध्य आपस्य तिष्ठति । शृङ्गेभिर्दशभिर्दिशन् ॥१६५६
स्वर रहित पद पाठ
नि । इव । शीर्षाणि । मृढ्वम् । मध्ये । आपस्य । तिष्ठति । शृङ्गेभिः । दशभिः । दिशन् ॥१६५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1656
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा की व्यापकता का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
इन्द्र जगदीश्वर (दशभिः) दस (शृङ्गेभिः) सींगों से अर्थात् पृथिवी, अप्, तेजस्, वायु, आकाश इन पञ्च स्थूलभूतों तथा गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द इन पाँच सूक्ष्मभूतों से (दिशन्) जगत्प्रपञ्च का सर्जन करता हुआ (आपस्य) व्याप्त ब्रह्माण्ड के (मध्ये) अन्दर(तिष्ठति) विद्यमान है। हे मनुष्यो ! तुम उसकी सत्ता में विश्वास करके (शीर्षाणि) अपने मस्तिष्कों को (नि मृढ़्वम् इव) माँज लो ॥३॥
भावार्थ
चर्मचक्षुओं से जगत् के सञ्चालनकर्ता किसी को न देखते हुए जो लोग परमेश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते, वे व्यर्थ ही भ्रम में पड़े हुए हैं। जो श्रद्धा का दीप प्रज्वलित कर लेते हैं, वे कण-कण में परमेश्वर को देखते हैं ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा, राजा और योगी के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ सत्रहवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥ सत्रहवाँ अध्याय समाप्त ॥ अष्टम प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥
पदार्थ
(आपस्य मध्ये तिष्ठति) वह परमात्मा आप्त-प्राप्त किया जाता है जहाँ—उस हृदय देश के४ मध्य—अन्दर रहता है (दशभिः शृङ्गेभिः-दिशन्) दृष्टार्थ५ देख लिये—जान लिये अर्थ—पदार्थमात्र जिनके द्वारा ऐसे विविध ज्ञानप्रकाशों द्वारा६ उपासक को ज्ञान उपदेश एवं अध्यात्म मार्ग का निर्देश करता हुआ रहता है (शीर्षाणि नि मृढ्वम्-इव) हे उपासको! तुम उस परमात्मा के उपदेशों से अपने को अवश्य७ अलंकृत करो—संस्कृत करो॥३॥
विशेष
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विषय
दस चोटियोंवाला पर्वत
पदार्थ
जीवों को प्रभु उपदेश करते हैं कि (शीर्षाणि) = शीर्षस्थ इन्द्रियों को [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्]=कानों, नासिका, आँखों व मुख को (नि मृवम् इव) = पूर्णरूप से शुद्ध-सा कर डालो । इनमें किसी प्रकार का मल न रह जाए। अरे जीव तो (आपस्य मध्ये) = [आपो वै मेध्याः, आपः पुष्करम्] पवित्र हृदयान्तरिक्ष में (तिष्ठति) = निवास करता है । उस हृदयान्तरिक्ष को वासनाओं के बवण्डरों से मलिन मत होने दो ।
हृदय में स्थित हुआ हुआ यह जीव (दशभिः शृंगेभि:) = दस ऊँचाइयों के द्वारा, अर्थात् पाँचों ज्ञानेन्द्रियों तथा पाँचों कर्मेन्द्रियों को अत्यन्त उन्नत करके दिशन्- उस प्रभु की ओर संकेत कर रहा है। एक-एक इन्द्रिय को उच्चता के शिखर पर ले जाकर ही तो यह प्रभु को प्राप्त कर पाता है । यदि यह किसी एक इन्द्रिय को उच्चता के शिखर पर ले जाता है तो उसका जीवन अपूर्णता व अपरिपक्वता के कारण रसमय नहीं हो पाता । रसमयता के लिए दशों इन्द्रियों का शृङ्ग पर - - चोटी पर पहुँचना आवश्यक है । बस, अब इन दश शृङ्गों के द्वारा यह अपने ब्रह्मलोकवास का संकेत कर रहा होता है—यह तो अवश्य ब्रह्म को पाएगा ही। सच्चे मोक्ष-सुख का लाभ करके यह सचमुच 'शुन: शेप' हो जाएगा।
भावार्थ
जीव का उन्नति-पर्वत दशशृङ्ग है – दस शिखरोंवाला है ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो व्यापकत्वं वर्णयति।
पदार्थः
इन्द्रो जगदीश्वरः (दशभिः) दशसंख्यकैः (शृङ्गेभिः) पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशैः स्थूलभूतैः गन्धरसरूपस्पर्शशब्दै-स्तद्विषयैश्च (दिशन्) जगत्प्रपञ्चम् अतिसृजन् (आपस्य) व्याप्तस्य ब्रह्माण्डस्य (मध्ये) अभ्यन्तरे (तिष्ठति) विद्यमानोऽस्ति। हे मनुष्याः ! यूयम् तत्सत्तायां विश्वस्य(शीर्षाणि) स्वकीयानि मस्तिष्काणि (नि मृढ्वम् इव) संमार्जयध्वम्। [इवशब्दः पूरणे] ॥३॥
भावार्थः
चर्मचक्षुर्भिर्जगत्सञ्चालकं कमप्यपश्यन्तो ये जनाः परमेश्वरसत्तायां न विश्वसन्ति ते वृथैव विभ्राम्यन्ति। ये तु श्रद्धादीपं प्रज्वालयन्ति ते कणे कणे परमेश्वरं पश्यन्ति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो नृपतेर्योगिनश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O learned persons, the soul resides in the body, acquiring knowledge and doing noble deeds with the aid of ten organs. Control these turbulent organs!
Translator Comment
Ten organs: Fire organs of action i.e., Karma Indriyas and five of cognition i.e, Jnana Indriyas. The word ten may also refer to ten vital airs or life-breaths, which should be controlled for acquiring spiritual happiness. They are named as Prana, Apana, Vyana, Udana, Smana, Naga, Kurma, Krikla, Devadatta, Dhananjaya.
Meaning
O celebrants, cleanse your mind and thoughts, bow down your heads in reverence, Indra abides in the midst of spatial oceans of energy and realms of light pointing to the paths of action and advancement with all the divine words, wisdom and pranic energies.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (आपस्य मध्ये तिष्ठति) તે પરમાત્મા આપ્ત-પ્રાપ્ત કરી શકાય છે જ્યાં-તે હૃદય દેશની મધ્ય-અંદર રહે છે. (दशभिः श्रृङ्गेभिः दिशन्) દ્રષ્ટાર્થ-જોવા માટે-જાણવા માટે-પદાર્થ માત્ર જેના દ્વારા એવા વિવિધ જ્ઞાનપ્રકાશો દ્વારા ઉપાસકને જ્ઞાન ઉપદેશ અને અધ્યાત્મ માર્ગનો નિર્દેશ કરતા રહે છે. (शीर्षाणि नि मृढवम् इव) હે ઉપાસકો ! તમે તે પરમાત્માના ઉપદેશોથી પોતાને અલંકૃત કરો-સંસ્કૃત કરો. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जगाच्या संचालनकर्त्याला जे नेत्रांनी पाहत नाहीत ते लोक परमेश्वराच्या सत्तेवर विश्वास ठेवत नाहीत. ते व्यर्थ भ्रमात पडलेले असतात. जे श्रद्धेचे दीप प्रज्वलित करतात ते कणाकणात परमेश्वराला पाहतात. ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात परमात्मा, राजा व योगी यांच्या विषयांचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे
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