Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1668
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
कु꣣वि꣡त्स꣢स्य꣣ प्र꣢꣫ हि व्र꣣जं꣡ गोम꣢꣯न्तं दस्यु꣣हा꣡ गम꣢꣯त् । श꣡ची꣢भि꣣र꣡प꣢ नो वरत् ॥१६६८॥
स्वर सहित पद पाठकु꣣वि꣢त्सस्य । कु꣣वि꣢त् । स꣣स्य । प्र꣢ । हि । व्र꣡ज꣢म् । गो꣡म꣢꣯न्तम् । द꣣स्युहा꣢ । द꣣स्यु । हा꣢ । ग꣡म꣢꣯त् । श꣡ची꣢꣯भिः । अ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । वरत् ॥१६६८॥
स्वर रहित मन्त्र
कुवित्सस्य प्र हि व्रजं गोमन्तं दस्युहा गमत् । शचीभिरप नो वरत् ॥१६६८॥
स्वर रहित पद पाठ
कुवित्सस्य । कुवित् । सस्य । प्र । हि । व्रजम् । गोमन्तम् । दस्युहा । दस्यु । हा । गमत् । शचीभिः । अप । नः । वरत् ॥१६६८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1668
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा तथा राजा का विषय कहा गया है।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। जो (दस्युहा) विघ्नों का विनाशक इन्द्र जगदीश्वर (कुवित्सस्य) बहुत दान देनेवाले को (गोमन्तं व्रजम्) उत्कृष्ट धेनुओं से युक्त गोशाला वा अध्यात्म-प्रकाश का समूह (प्र गमत्) प्राप्त कराता है, वह (शचीभिः) अपने कर्मों से (नः) हमारे लिए भी (अप वरत्) गाय आदि धनों वा अध्यात्म-प्रकाशों का द्वार खोल दे ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (दस्युहा) दुष्टों का वधकर्ता इन्द्र राजा (कुवित्सस्य) गोघातक की (गोमन्तं व्रजम्) धेनुओं से युक्त गोशाला में (प्र गमत् हि) पहुँचे और (शचीभिः) अपनी सेनाओं से, उसकी गौओं को (नः) हम धार्मिकों के लिए (अप वरत्) छीन लाये ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा दानियों का ही सहायक होता है। दुष्ट गोहत्यारों को यही दण्ड है कि उनकी गौएँ छीनकर सज्जनों को भेंट कर दी जाएँ ॥३॥ इस खण्ड में ज्ञानरस, जगदीश्वर, जीवात्मा और राजा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ अठारहवें अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(दस्युहा) सद्गुणों के क्षयकर्ता का नाशक परमात्मा (कुवित्सस्य) कु—निन्दित—दुराचरण को प्राप्त हुए (गोमन्तं व्रजम्) इन्द्रियों वाले स्थान मन—अन्तःकरण में (हि) ही—वहीं (प्र-आगमत्) चला जावे पहुँच जावे (नः) हम उपासकों को (शचीभिः-अपवरत्) अपनी प्रज्ञान दान कृपाओं के द्वारा दूर रखे॥३॥
विशेष
<br>
विषय
जब मेरे बाड़े में प्रभु आते हैं
पदार्थ
जीव 'कुवित्स' है [कु - वित्] – इसका ज्ञान अल्प है, अतएव अप्रशस्त है – इस अल्पज्ञता के कारण ही जीव अनेक ग़लतियाँ भी कर बैठता है । इन ग़लतियों के परिणामरूप ही उसकी स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है और इसे इस शरीररूप बाड़े में क़ैद होना पड़ता है । यह शरीररूप बाड़ा भी गौवोंवाला है—इन्द्रियाँ ही यहाँ गौवें हैं। ‘गाव:' शब्द के दोनों ही अर्थ हैं—गौवें तथा इन्द्रियाँ । वे प्रभु ‘दस्युहा' हैं—शरीररूप बाड़े में इन्द्रियरूप गौवों की चोरी के लिए कामादि दस्यु प्रवेश करते हैं—परन्तु वहाँ उपस्थित प्रभु उन दस्युओं का नाश कर देते हैं। वास्तव में तो जब प्रभू इस बाड़े में आते हैं तब इस बाड़े की आवश्यकता ही नहीं रहती । जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है । मोक्ष के लिए आवश्यक ज्ञान व कर्म प्रभु की कृपा से प्राप्त होता है और हम इस बाड़े को अपने से दूर कर पाते हैं। यदि काव्य के शब्दों में कहें तो कामादि दस्यु तो इन्द्रियरूप गौवों को ही चुरा रहे थे; दस्युहा प्रभु आते हैं और बाड़े का भी सफ़ाया कर देते हैं । मन्त्र में कहा है कि
(कुवित्सस्य) = अल्पज्ञ जीव के (गोमन्तं व्रजम्) = इस इन्द्रियरूप गौवोंवाले शरीररूप बाड़े को जब (हि) = निश्चय से (दस्युहा) = कामादि दस्युओं का नाश करनेवाले प्रभु (आगमत्) = प्रकर्षेण प्राप्त होते हैं [सर्वव्यापकता के नाते तो वे यहाँ हैं ही, हमें जब उनका ज्ञान होता है तब यही उनका प्रकर्षेण प्राप्त होना कहलाता है] तब (शचीभिः) = प्रज्ञानों व शक्तिशाली कर्मों से [शची=१. प्रज्ञा २. कर्म] (न:) = हमसे (अपवरत्) = इस बाड़े को दूर कर देते हैं । वस्तुत: बाड़े में छिपकर रहने की अब आवश्यकता ही क्या है ? उस सर्वशक्तिमान् प्रभु के सान्निध्य में कोई भय है क्या जो छिपकर रहा जाए? अब मन में किसी प्रकार का भय नहीं रह जाता । यह व्यक्ति सचमुच 'शंयु' बन जाता है ।
भावार्थ
मैं अपने इस बाड़े में प्रभु को आमन्त्रित करूँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो नृपतेश्च विषयमाह।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। यः (दस्युहा) विघ्नहन्ता इन्द्रो जगदीश्वरः (कुवित्सस्य२) कुवित् बहु सनोति ददादीति तस्य बहुदानकर्तुर्मनुष्यस्य (गोमन्तं व्रजम्) प्रशस्तधेनुयुक्तां गोशालाम् अध्यात्मप्रकाशसमूहं वा (प्र गमत्) प्रगमयति प्रापयति, सः (शचीभिः) स्वकीयैः कर्मभिः (नः) अस्मभ्यमपि (अप वरत्) गवादिधनानाम् अध्यात्मप्रकाशानां वा द्वारम् उद्घाटयेत्। [कुवित्सस्य, कुवित्पूर्वात् षणु दाने धातोः कर्तरि डः प्रत्ययः, डित्त्वात् टिलोपः। गमत्, गम्लृ गतौ णिगर्भः] ॥ द्वितीयः—नृपतिपरः। (दस्युहा) दुष्टानां हन्ता इन्द्रो नृपतिः (कुवित्सस्य३) कुवित् बहु स्यति हिनस्ति यः स कुवित्सः तस्य गोघातकस्य दुर्जनस्य (गोमन्तं व्रजम्) धेनुयुक्तं गोगृहम् (प्र गमत् हि) प्रगच्छेत् खलु, अपि च (शचीभिः) स्वकीयाभिः सेनाभिः, तस्य गाः (नः) अस्मभ्यं धार्मिकेभ्यः (अप वरत्) अपाच्छिन्द्यात्। [कुवित्सः, कुवित्पूर्वात् षो अन्तकर्मणि इति धातोर्डः।] ॥३॥४
भावार्थः
परमात्मा दातॄणामेव सहायको जायते। दुष्टानां गोघातकानामयमेव दण्डो यत्तेषां गा अपच्छिद्य धार्मिकेभ्यः सज्जनेभ्यस्ता उपायनीक्रियेरन् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे ज्ञानरसस्य जगदीश्वरस्य जीवात्मनो नृपतेश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्ज्ञेया ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Soul, the destroyer of ignorance, verily assumes many a time, the body, the seat of the organs of cognition and vital airs. The same soul, through the instruments of knowledge and noble deeds, casts aside the bondage of the body and attains to final beatitude.
Meaning
May the lord destroyer of evil, negativity and poverty visit the homestead of the prayerful devotee blest with lands, cows and divine knowledge and open up the flood gates of wealth, power and divine grace for us with his vision and powers. (Rg. 6-45-24)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (दस्युहा) સદ્ગુણોને ક્ષય કરનારનો નાશ કરનાર પરમાત્મા (कुवित्सस्य) કુ = નિંદિત દુરાચરણને પ્રાપ્ત થયેલ (गोमन्तं व्रजम्) ઇન્દ્રિયોવાળા સ્થાન મન-અન્તઃકરણમાં (हि) ત્યાં જ (प्र आगमत्) ચાલ્યો જાય-પહોંચી જાય (नः) અમને ઉપાસકોને (शचीभिः अपवरत्) પોતાના પ્રજ્ઞાન દાન કૃપાઓ દ્વારા દૂર રાખે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा दानी लोकांचाच साह्यकर्ता असतो. गौ हत्याऱ्यांना हीच शिक्षा आहे, की त्यांच्या गायी हिसकावून धर्मात सज्जनांना भेट द्याव्या ॥३॥ या खंडात ज्ञानरस, जगदीश्वर, जीवात्मा व राजाच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणावी.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal