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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1679
ऋषिः - अम्बरीषो वार्षागिर ऋजिश्वा भारद्वाजश्च
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
3
इ꣡न्द्रा꣢य सोम꣣ पा꣡त꣢वे वृत्र꣣घ्ने꣡ परि꣢꣯ षिच्यसे । न꣡रे꣢ च꣣ द꣡क्षि꣢णावते वी꣣रा꣡य꣢ सदना꣣स꣡दे꣢ ॥१६७९॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । पा꣡त꣢꣯वे । वृ꣣त्रघ्ने꣡ । वृ꣣त्र । घ्ने꣣ । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣च्यसे । न꣡रे꣢꣯ । च꣣ । द꣡क्षि꣢꣯णावते । वी꣣रा꣡य꣣ । स꣣दनास꣡दे꣢ । स꣣दन । स꣡दे꣢꣯ ॥१६७९॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे । नरे च दक्षिणावते वीराय सदनासदे ॥१६७९॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राय । सोम । पातवे । वृत्रघ्ने । वृत्र । घ्ने । परि । सिच्यसे । नरे । च । दक्षिणावते । वीराय । सदनासदे । सदन । सदे ॥१६७९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1679
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या उत्तरार्चिक में १३३१ क्रमाङ्क पर गुरु-शिष्य विषय में हो चुकी है। यहाँ परमात्मा की भक्ति का विषय वर्णित है।
पदार्थ
हे (सोम) मेरे भक्तिरस ! तू (वृत्रघ्ने) पाप-विनाशक, (दक्षिणावते) दानी, (वीराय) काम आदि षड़् रिपुओं को विशेष रूप से कम्पायमान करनेवाले, (सदनासदे) हृदय-सदन में स्थित (नरे च) और नेतृत्व करनेवाले (इन्द्राय) जगदीश्वर के (पातवे) पान करने के लिए (परिषिच्यसे) प्रवाहित किया जा रहा है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा के भक्त लोग पाप-कर्मों का परित्याग करके, प्रचुर ऐश्वर्य प्राप्त करके सब आन्तरिक और बाह्य विघ्नों को नष्ट करने में समर्थ हो जाते हैं ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १३३१)
विशेष
ऋषिः—अम्बरीषः (हृदयाकाश में परमात्मा को प्राप्त करने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—अनुष्टुप्॥<br>
विषय
सोमरक्षण से क्या होगा ?
पदार्थ
(सोम) = हे वीर्यशक्ते! तू (इन्द्राय पातवे) = इन्द्र के पान के लिए होता है । जितेन्द्रिय पुरुष ही तेरा पान करता है। सोम को शरीर में ही व्याप्त करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य जितेन्द्रिय बने । हे सोम! तू (परिषिच्यसे) = शरीर में ही सर्वत्र सिक्त होता है । किनके लिए ? १. (वृत्र-घ्ने) = ज्ञान की आवरणभूत कामादि वासनाओं को नष्ट करनेवाले के लिए, अर्थात् जो मनुष्य कामादि वासनाओं को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील होता है उसके शरीर में यह सोम सम्पूर्ण रुधिर में व्याप्त होकर रहता है । २. (नरे च) = और [नृ= मनुष्य] उस मनुष्य के लिए जो अपने को आगे और आगे ले चलने का निश्चय करता है । यह आगे बढ़ने की भावना भी सोम-सुरक्षा में सहायक होती है। ३. (दक्षिणावते) = दानशील मनुष्य के लिए यह सोम परिषिक्त होता है, अर्थात् दान की वृत्ति भी सोमरक्षा में सहायक है। यह वृत्ति मनुष्य को व्यसनों से बचाती है। व्यसनों से बचाने के द्वारा सोम-रक्षण में साधन बनती है। ४. (वीराय) = वीर पुरुष के लिए । वीर पुरुष अपनी वीरता को नष्ट न होने देने के लिए सोमरक्षण में प्रवृत्त होता है । ५. (सदनासदे) = सदन में बैठनेवाले के लिए। यहाँ सदन शब्द ‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत' इस मन्त्रभाग की ‘सीदत' क्रिया का ध्यान करते हुए सब घरवालों के मिलकर बैठने के स्थान, अर्थात् यज्ञभूमि के लिए आया है।‘इस यज्ञभूमि में बैठने का है स्वभाव जिसका' उसके लिए यह सोमरक्षण सम्भव होता है ।
यह सोमरक्षण करनेवाला व्यक्ति सदा सरल मार्ग से चलता है— दूसरे शब्दों में 'ऋजिश्वा' बनता है। यह ऋजिश्वा सोमरक्षण के लिए निम्न बातें करता है -
१. जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करता है [इन्द्राय] । २. वासनाओं को विनष्ट करता है [वृत्रघ्ने]। ३. आगे बढ़ने की वृत्ति को धारण करता है [नरे] । ४. दानशील बनता है [दक्षिणावते] । ५. वीर बनता है [वीराय]। ६. यज्ञशील बनता है [सदनासदे]।
सोमरक्षण होने पर ये बातें हममें फूलती-फलती हैं।
भावार्थ
हम सोमरक्षण के द्वारा वीर बनें ।
विषय
missing
भावार्थ
व्याख्या देखो अविकल सं० [५०५] ६६।
टिप्पणी
‘दधाय सदनासद’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् उत्तरार्चिके १३३१ क्रमाङ्के गुरुशिष्यविषये व्याख्याता अत्र परमात्मभक्तिविषय उच्यते।
पदार्थः
हे (सोम) मदीय भक्तिरस ! त्वम् (वृत्रघ्ने) पापानां हन्त्रे, (दक्षिणावते) दानवते (वीराय) कामादिषड्रिपूणां विशेषेण प्रकम्पयित्रे, (सदनासदे) हृदयगृहस्थिताय, (नरे च) नेतरि च (इन्द्राय) जगदीश्वराय (पातवे) पातुम् (परिषिच्यसे) परिक्षार्यसे ॥१॥
भावार्थः
परमात्मभक्ता जनाः पापकर्माणि परित्यज्य विपुलमैश्वर्यं च प्राप्य सर्वानान्तरान् बाह्यांश्च विघ्नान् हन्तुं क्षमन्ते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Soma, thou art poured for the heroic worshipper, seated in the altar, the giver of guerdon to the priests, and the queller of foes, so that he may drink thee!
Meaning
O Soma spirit of light and ecstasy of grace, you are adored and served for the souls experience of divinity, for the man of charity and the brilliant sage on the vedi of yajnic service so that the demon of evil, darkness and ignorance may be expelled from the soul of humanity and destroyed. (Rg. 9-98-10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (वृत्रघ्ने) પાપ નષ્ટ ચૂકેલ જે તે નિષ્પાપ (दक्षिणावते) કામવાન્ - કામનાવાળા (वीराय) કર્મશીલ-સ્વતંત્ર કર્મ કરનારા (सदनासदे) શરીર અર્થાત્ હૃદયગૃહમાં બેસનાર (नरे) મુમુક્ષુ (इन्द्राय) આત્માને (पातवे) પાન-ધારણ કરવા માટે (परिषिच्यसे) પ્રાર્થિત કરવામાં આવે છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસકજન એ કામના યોગ્ય દુઃખાપહરણકર્તા સુખાહરણકર્તા શાંત સ્વરૂપ પરમાત્માને વરણ સાધન-મનથી સંસ્કૃત કરતાં-નિશ્ચય કરીને સ્વીકારે છે. જે સમસ્ત ઇન્દ્રિયોને આપણા આનંદથી પરિપ્રાપ્ત થાય છે. (૮)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचे भक्त लोक पाप कर्मांचा परित्याग करून, प्रचुर ऐश्वर्य प्राप्त करून, सर्व आंतरिक व बाह्य विघ्ने नष्ट करण्यास समर्थ होतात. ॥१॥
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