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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1685
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
3
इ꣡न्द्र꣢ स्थातर्हरीणां꣣ न꣡ कि꣢ष्टे पू꣣र्व्य꣡स्तु꣢तिम् । उ꣡दा꣢नꣳश꣣ श꣡व꣢सा꣣ न꣢ भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१६८५॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯ । स्था꣣तः । हरीणाम् । न꣢ । किः꣣ । ते । पूर्व्य꣡स्तु꣢तिम् । पू꣣र्व्य꣢ । स्तु꣣तिम् । उ꣢त् । आ꣣नꣳश । श꣡व꣢꣯सा । न । भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१६८५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र स्थातर्हरीणां न किष्टे पूर्व्यस्तुतिम् । उदानꣳश शवसा न भन्दना ॥१६८५॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्र । स्थातः । हरीणाम् । न । किः । ते । पूर्व्यस्तुतिम् । पूर्व्य । स्तुतिम् । उत् । आनꣳश । शवसा । न । भन्दना ॥१६८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1685
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर की महिमा का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(हरीणाम्) एक-दूसरे का आकर्षण करनेवाले सूर्य, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र आदि लोकों के और विषयों को ग्रहण करनेवाली देह-स्थित इन्द्रियों के (स्थातः) अधिष्ठाता, हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (ते)आपकी (पूर्व्यस्तुतिम्) श्रेष्ठ स्तुति को (नः किः) न कोई (शवसा) बल से, (न भन्दना) न कल्याण से (उदानंश) लाँघ पाता है ॥२॥
भावार्थ
जगदीश्वर से अधिक बलवान् और बल-प्रदाता, कल्याणवान् और कल्याणकर्ता संसार भर में कोई नहीं है ॥२॥
पदार्थ
(हरीणां स्थातः-इन्द्र) हे मनुष्यों के३ अन्दर स्थान लेने वाले परमात्मन्! मनुष्य ही तुझे जान सकते हैं (ते पूर्व्यस्तुतिं न किः-उदानंश) तेरी पूर्व से चली आई—शाश्वती स्तुति को कोई नहीं सम्भाल सकता है—नहीं पा सकता४ (शवसा न भन्दना) न बलसे—बल के हेतु या कल्याण द्वारा, तेरा बल महान् है कल्याण प्रदान महान् है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
जितेन्द्रियता
पदार्थ
हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (हरीणाम्) = इन्द्रियरूप अश्वों के ऊपर (स्थातः) = स्थित होनेवाले ! (ते) = तेरी (पूर्व्यस्तुतिम्) = मुख्य स्तुति को (न कि:) = न तो (शवसा) = बल से और न न ही (भन्दना) = तेज व शुभ कर्मों से (उदानंश) = कोई भी पाता है ।
अर्थात् जितना महत्त्व जितेन्द्रियता का है उतना न बल और तेज का और न ही शुभ कर्मों का है । वास्तविकता तो यह है कि जितेन्द्रियता के बिना न तो मनुष्य बलवान् और तेजस्वी हो सकता है और न ही उसकी शुभ कर्मों में प्रवृत्ति होती है । इस सारी बात का विचार करके ही आचार्य दयानन्द ने जितेन्द्रियता को सदाचार में प्रथम स्थान दिया है । मनु ने इसे सिद्धि की प्राप्ति के लिए आवश्यक माना है—(‘सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति') । जितेन्द्रियता वह केन्द्र है जिसके चारों ओर सदाचार के सब अङ्ग घूमते हैं ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य जितेन्द्रियता को अपना मौलिक कर्त्तव्य समझे । ऐसा समझने पर ही तो वह इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर 'वैयश्व' = विशिष्ट इन्द्रियरूप अश्वोंवाला बनेगा। ऐसा होने पर ही यह विश्वमनाः = व्यापक मनवाला भी बन पाएगा।
भावार्थ
हम अपने जीवन मैं जितेन्द्रियता को सर्वाधिक महत्त्व दें ।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( हरीणां स्थात: ) = हे सूर्यकिरणादि तेजों के स्थापक इन्द्र परमेश्वर । ( ते पूर्व्यस्तुतिम् ) = आपकी सनातन वेदोक्तस्तुति को कोई ( नकिः उदानंश ) = नहीं पाता ( शवसा न भन्दना ) = न तो बल से, और न तेज से ।
भावार्थ
भावार्थ = हे परमेश्वर ! आप सूर्य चन्द्रादि सब ज्योतियों के उत्पादक और सब प्राणियों के सुख के लिए इन सूर्यादिकों की अपने-अपने स्थानों में स्थापन करनेवाले हैं। आपकी महिमा अपार है और अपार ही आपकी स्तुति है, उसका पार जानने का किस का बल वा शक्ति है, अर्थात् कोई पार नहीं पा सकता ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरस्य महिमानमाचष्टे।
पदार्थः
(हरीणाम्) परस्पराकर्षणवतां सूर्यग्रहोपग्रहनक्षत्रादिलोकानां विषयग्रहणशीलानां देहस्थानामिन्द्रियाणां वा (स्थातः) अधिष्ठातः, हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (ते) तव (पूर्व्यस्तुतिम्) श्रेष्ठां स्तुतिम् (न किः) न कोऽपि (शवसा) बलेन (न भन्दना) न कल्याणेन। [भदि कल्याणे सुखे च भ्वादिः। भन्दनेन इति प्राप्ते, ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इत्यनेन विभक्तेराकारादेशः] (उदानंश२) अतिक्रामति ॥२॥
भावार्थः
जगदीश्वरादधिको बलवान् बलप्रदः कल्याणवान् कल्याणकर्ता च जगतीतले कश्चिन्नास्ति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, the Establisher of the revolving planets like the Sun, Moon etc., none can acquire through power or goodness. Thy qualities sung by the ancient sages!
Meaning
Indra, glorious lord president of the moving worlds of existence, no one ever by might or by commanding adoration has been able to equal, much less excel, the prime worship offered to you. (Rg. 8-24-17)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (हरीणां स्थातः इन्द्र) હે મનુષ્યોની અંદર સ્થાન લેનાર પરમાત્મન્ ! મનુષ્ય જ તને જાણી શકે છે. (ते पूर्व्यस्तुतिं न किः उदानंश) તારી પૂર્વથી ચાલી આવતી-પ્રાચીન-શાશ્વત સ્તુતિને કોઈ પણ મનુષ્ય સંભાળી શકતો નથી-પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી. કારણ કે (शवसा न भन्दना) તારું બળ મહાન છે અને તારું કલ્યાણ પ્રદાન મહાન છે, તેથી કોઈ પણ મનુષ્ય પોતાનાં જ્ઞાનબળથી પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી. (૨)
बंगाली (1)
পদার্থ
ইন্দ্র স্থাতর্হরীণাং নকিষ্টে পূর্ব্যস্তুতিম্।
উদানংশ শবসা ন ভন্দনা।।৬৮।।
(সাম ১৬৮৫)
পদার্থঃ (হরীণাং স্থাতঃ) হে সূর্যকিরণাদি তেজের স্থাপক (ইন্দ্র) সর্বশক্তিমান পরমেশ্বর! (তে পূর্ব্যস্তুতিম্) তোমার সনাতন বেদোক্ত স্তুতিকে কেউ (শবসা ন ভন্দনা) না তেজ দ্বারা আর বল দ্বারা (নকিঃ উদানংশ) প্রাপ্ত করতে পারে।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে পরমেশ্বর! তুমি সূর্য, চন্দ্রাদি সমস্ত জ্যোতির উৎপাদক ও সমস্ত প্রাণীর সুখের জন্য এই সূর্যাদিকে স্থাপন করেছ। তোমার মহিমা অপার এবং তোমার স্তুতি অপার। এই অপারকে জানার বল বা শক্তি কারো নেই। অর্থাৎ কেউই বল ও শক্তির গর্ব দ্বারা তোমায় প্রাপ্ত করতে পারে না। তোমায় পাওয়ার জন্য দরকার ভক্তি, শ্রদ্ধা, ধ্যান ও বৈদিক জ্ঞান।।৬৮।।
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वरापेक्षा अधिक बलवान व बल-प्रदाता व कल्याणकर्ता जगात कुणीही नाही. ॥२॥
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