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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 175
ऋषिः - देवजामयः इन्द्रमातरः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
ई꣣ङ्ख꣡य꣢न्तीरप꣣स्यु꣢व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ जा꣣त꣡मुपा꣢꣯सते । व꣣न्वाना꣡सः꣢ सु꣣वी꣡र्य꣢म् ॥१७५॥
स्वर सहित पद पाठई꣣ङ्ख꣡य꣢न्तीः । अ꣣पस्यु꣡वः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । जा꣣त꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । आ꣣सते । वन्वाना꣡सः꣢ । सु꣣वी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् ॥१७५॥
स्वर रहित मन्त्र
ईङ्खयन्तीरपस्युव इन्द्रं जातमुपासते । वन्वानासः सुवीर्यम् ॥१७५॥
स्वर रहित पद पाठ
ईङ्खयन्तीः । अपस्युवः । इन्द्रम् । जातम् । उप । आसते । वन्वानासः । सुवीर्यम् । सु । वीर्यम् ॥१७५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 175
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथमः—मन्त्र में परमेश्वर की उपासना और राजा के अभिनन्दन का वर्णन है।
पदार्थ
(ईङ्खयन्तीः) हर्ष से उछलती हुई, (अपस्युवः) कर्म करने की अभिलाषावाली प्रजाएँ (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ वीर्य से युक्त ऐश्वर्य की (वन्वानासः) चाहना या याचना करती हुईं (जातम् इन्द्रम्) हृदय में प्रादुर्भूत परमेश्वर की (उपासते) उपासना करती हैं, अथवा (जातम् इन्द्रम्) निर्वाचित तथा अभिषिक्त राजा का (उपासते) अभिनन्दन व सेवन करती हैं ॥१॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
राष्ट्र की प्रजाएँ ऐश्वर्य-प्राप्ति के लिए जैसे राजा का सेवन करती हैं, वैसे ही उन्हें भौतिक तथा आध्यात्मिक सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए ॥१॥
पदार्थ
(ईङ्खयन्तीः) परमात्मा के प्रति गमन करने की हेतुभूत “ईङ्खते गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (अपस्युवः) स्वकर्म को चाहने वाली (सुवीर्यम्-वन्वानासः) उत्तम प्राणभाव—शोभन जीवन को चाहती हुई मानव देवत्व को उत्पन्न करने वाली परमात्मा का मान करने वाली स्वीकार ध्यान करने वाली वृत्तियाँ—दैवी वृत्तियाँ (जातम् इन्द्रम्-उपासते) साक्षात् प्रसिद्ध परमात्मा की उपासना में प्रवृत्त हो जाती हैं।
भावार्थ
मानव के अन्दर उसको देव बनाने वाली दैवी वृत्तियाँ परमात्मा की ओर जाने की हेतुभूत होकर शोभन कर्म में प्रवृत्त हुई सुन्दर प्राणों वाले जीवन को चाहती हुई प्रसिद्ध परमात्मा की उपासना में लग जाया करती है॥१॥
विशेष
ऋषिः—इन्द्रमातरो देवजामय ऋषिकाः (परमात्मा का मान—स्वीकार करने वाली मानव को देव का जन्म देने वाली दैवी वृत्तियाँ)॥<br>
विषय
शक्ति-रक्षा के तीन उपाय
पदार्थ
इस मन्त्र की ऋषिका (इन्द्रजामयः देवमातरः) = हैं - इन्द्र को जन्म देनेवाली तथा अपने अन्दर दिव्य गुणों का निर्माण करनेवाली । इस नाम से एक भावना सुव्यक्त है कि जिसे प्रभु के दर्शन करने हों उसे अपने अन्दर दिव्य गुणों की वृद्धि करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। दिव्य गुणों की वृद्धि करके ही हम अपने को प्रभु - दर्शन का पात्र बनाते हैं। इन दिव्यगुणों का विकास शरीर में 'सुवीर्य' की रक्षा से सम्भव है, इस (सुवीर्यम्) = उत्तम वीर्य को (वन्वानासः) = विजय करने के हेतु से ये [इन्द्रजामयः देवमातर:] (ईंखयन्ती) = सदा गतिशील होती हुई जीवन-यात्रा में आगे बढ़ती हैं। गतिशीलता वीर्यरक्षा का सर्वप्रथम साधन है। गतिशील होती हुई ये ऋषिकाएँ (अपस्युव:) सदा व्यापक कर्मों को [अपस्] अपने साथ जोड़नेवाली हैं [युव:]। स्वार्थ के कर्मों में लगा रहकर भी मनुष्य वासनाओं से पूरी तरह उपर नहीं उठ सकता। इसके लिए कुछ ऊँचे लक्ष्य का होना भी आवश्यक है, अतः ये 'लोकसंग्रह ' रूप कर्मों को अपने जीवन में सम्बद्ध करती हैं। यह जीवन का ऊँचा लक्ष्य इन्हें भोग के निचले पृष्ठ पर उतरने से बचाता है, परन्तु यह लक्ष्य बन जाना भी सुगम नहीं इसके लिए ये ऋषिकाएँ (जातम्) = सदा से प्रसिद्ध उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की (उपासते) = उपासना करती हैं। यह प्रभु-उपासना उनके जीवन में विशाल मनोवृत्ति को जन्म देती है। 'हम सभी उस प्रभु के ही पुत्र हैं- - हम सब आपस में भाई-भाई हैं' – ऐसे विचार मनुष्य के मन को छोटा नहीं होने देते और उपासक को परार्थकर्म में संलग्न किये रखते हैं। ये इन सुकर्मों मे लगे रहकर सुवीर्य का विजय करते हैं तथा इस विजय से दिव्य गुणों का आधार बनते हैं और अन्त में प्रभु - दर्शन अधिकारी होते हैं।
भावार्थ
हम सुवीर्य की विजय करें। इसके लिए हम गतिशील हों, परार्थ के उत्तम कर्मों में अपने को लगाए रक्खें और उस प्रभु की उपासना करें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( ईंखयन्तीः ) = गतिशील, ज्ञानशील ( अपस्युवः ) = कर्म करने की इच्छावाली इन्द्रियां ( जातं ) = प्रकट हुए ( सुवीर्यम् ) = उत्तम बलशाली ( इन्द्रम् ) = आत्मा को ( वन्वानास: ) = भजन करती हुई या उसको प्राप्त करती हुई ( उपासते ) = उसकी उपासना करती है ।
सायण ने इन्द्र -माताओं पर यह मंत्र लगाया है। इन्द्र आत्मा के माता, प्रमा के साधन इन्द्रियां ही यहां अभिप्रेत है। जैसा ऐतरेयारण्यक में लिखा है—— इन्द्रियें ’ कहा करती हैं “तव उप स्मसि” तेरी ही हैं। इत्यादि ।
टिप्पणी
१७५–'भेजानासः सुवीर्यम्' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - इन्द्रमातरो देवजामयः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्राद्ये मन्त्रे इन्द्रनाम्ना परमेश्वरस्योपासनां नृपस्य चाभिनन्दनं वर्ण्यते।
पदार्थः
(ईङ्खयन्तीः२) हर्षेण उत्प्लवन्त्यः। ईखि गतौ भ्वादिः। ईङ्खते गतिकर्मा। निघं०। २।१४। वेदे चुरादिरपि। शतरि स्त्रियां जसि रूपम्। ईङ्खयन्त्यः इति प्राप्ते वा छन्दसि। अ० ६।१।१०६ इति नियमेन पूर्वसवर्णदीर्घः। अत एव (अपस्युवः) अपांसि कर्माणि आत्मनः कामयमानाः प्रजाः। अपस् इति कर्मनाम। निघं० २।१। ततः क्यचि क्याच्छन्दसि अ० ३।२।१६० इति उ प्रत्ययः। (सुवीर्यम्) श्रेष्ठवीर्योपेतमैश्वर्यम्। शोभनं वीर्यं यत्र तादृशमिति बहुव्रीहौ वीरवीर्यौ च। अ० ६।२।१२० इत्युत्तरपदस्याद्युदात्तत्वम्। (वन्वानासः) इच्छन्त्यः याचमानाः वा सत्यः। वनोतिः इच्छतिकर्मा। निघं० २।६। वनु याचने वा। ततः शानच्। जसि आज्जसेरसुक्। अ० ७।१।५० इत्यसुगागमः। (जातम् इन्द्रम्) हृदये प्रादुर्भूतं परमेश्वरम् निर्वाचितम् अभिषिक्तं च राजानं वा (उपासते) उपस्थानेन अभिनन्दन्ति, स्वागतं ब्रुवन्ति, सेवन्ते वा ॥१॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
यथा राष्ट्रस्य प्रजाभिरैश्वर्यप्राप्तये राजा सेव्यते, तथैव भौतिकाध्यात्मिकसम्पत्प्राप्तये परमेश्वर उपासनीयः ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।१५३।१, अथ० २०।९३।४। २. ईङ्खयन्त्यः गच्छन्त्यः—इति वि०। प्रेरयन्त्यः इन्द्रम् इतस्ततः चालयन्त्यः—इति भ०। गच्छन्त्यः स्तुत्यादिभिः इन्द्रं प्राप्नुवन्त्यः—इति सा०।
इंग्लिश (2)
Meaning
Our intellect full of knowledge and willing to act, and enterprising, meditative persons worship God, when He manifests Himself in the heart.
Meaning
Active, expressive and eloquent people, conscious of their rights and duties, serve and abide by the ruling power of the system, Indra, as it arises and advances, and while they do so they enjoy good health, honour and prosperity of life for themselves and their progeny. (Rg. 10-153-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ईङ्खयन्तीः) પરમાત્મા તરફ ગતિ કરનારી કારણભૂત, (अपस्युवः) સ્વકર્મને કર્મને ચાહનારી, (सुवीर्यम् वन्वानासः) ઉત્તમ પ્રાણભાવ-શ્રેષ્ઠ જીવનને ચાહના કરતી, મનુષ્યમાં દેવત્વને ઉત્પન્ન કરનારી, પરમાત્માનું માન કરનારી, સ્વીકાર અને ધ્યાન કરનારી વૃત્તિઓ - દૈવી વૃત્તિઓ (जातम् इन्द्रम् उपासते) સાક્ષાત્ પ્રસિદ્ધ પરમાત્માની ઉપાસનામાં પ્રવૃત્ત બની જાય છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મનુષ્યમાં તેને દેવ બનાવનારી દૈવી વૃત્તિઓ પરમાત્માની તરફ જવામાં કારણભૂત બનીને, શ્રેષ્ઠ કર્મમાં પ્રવૃત્ત થઈને, સુંદર પ્રાણો યુક્ત જીવનને ચાહતી પ્રસિદ્ધ પરમાત્માની ઉપાસનામાં જોડાઈ જાય છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
من اِندریوں کے ساتھ بھگوان کی بھگتی کریں
Lafzi Maana
(اینگ کھینتی) گتی شےل (اپ سیُووہ) کرم کرنے کی اِچھا والی اِندریاں، پَران شکتیاں (جاتم سُووِیریم اِندرم) پرگٹ ہوئے اُتم بلوان اِندر آتما کا (ونوانسہ) بھجن کرتی ہُوئیں اُس کے پراپت کرنے کے لئے (اُپاستے) اُس اِندر کی اُپاسنا کرتی ہیں۔
Tashree
شکتیاں یہ اِندریاں جن سے ہیں ہوتے کام سارے، دی ہُوئیں بھگوان کی بھگوان پانے کے لئے۔
मराठी (2)
भावार्थ
राष्ट्राची प्रजा ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी जसा राजाचा स्वीकार करते, तसेच त्यांनी भौतिक व आध्यात्मिक संपत्तीच्या प्राप्तीसाठी परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे ॥१॥
विषय
आता प्रथम मंत्रात इन्द्र ज्याचे नाव, त्या परमेश्वराचे आणि नृपतीचे अभिनंदन केले आहे -
शब्दार्थ
(ईड्सयन्ती) हर्षाने उल्हसित, (अपस्वुवः) व कर्म करण्यास उत्सुक, कर्मशील असे प्रजानन (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ पराक्रमाद्वारे प्राप्त होणाऱ्या ऐश्वर्याची (वन्वावासः) कामना करीत (जातम् इन्द्रम्) हृदयात प्रादुर्भूत परमेश्वराची (उपासते) उपासना करतात अथवा प्रजाजन (जातम् इन्द्रम्) निर्वाचित वा अभिषिक्त राजाचे (उपासते) अभिनंदन करतात आणि त्याच्यापासून रक्षण व इतर लाभ प्राप्त करतात ।। १।।
भावार्थ
राष्ट्राची प्रजा जसे ऐश्वर्य प्राप्तीसाठी राजाचे साह्य घेते, त्याप्रमाणे प्रजाजनांनी भौतिक व आध्यात्मिक संपदेसाठी परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे. ।। १।।
विशेष
या मंत्रात अर्थश्लेष अलंकार आहे. ।।१।।
तमिल (1)
Word Meaning
சுபமான வீரத்தை ஐயித்துக் கொண்டு, அலைந்தவர்களாய் செயல் ஆன்மாக்கள் (இந்திரனுக்குச்)சமீபமாகிறார்கள்.
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