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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1761
    ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    प्र꣢ ते꣣ धा꣡रा꣢ अस꣣श्च꣡तो꣢ दि꣣वो꣡ न य꣢꣯न्ति वृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । अ꣢च्छा꣣ वा꣡ज꣢ꣳ सह꣣स्रि꣡ण꣢म् ॥१७६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । ते꣣ । धा꣡राः꣢꣯ । अ꣣सश्च꣡तः꣢ । अ꣣ । सश्च꣡तः꣢ । दि꣣वः꣢ । न । य꣣न्ति । वृष्ट꣡यः꣢ । अ꣡च्छ꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯म् । स꣣हस्रि꣡ण꣢म् ॥१७६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते धारा असश्चतो दिवो न यन्ति वृष्टयः । अच्छा वाजꣳ सहस्रिणम् ॥१७६१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । धाराः । असश्चतः । अ । सश्चतः । दिवः । न । यन्ति । वृष्टयः । अच्छ । वाजम् । सहस्रिणम् ॥१७६१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1761
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में आनन्द-वर्षाओं का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे पवमान सोम अर्थात् पवित्र करनेवाले रसागर परमेश्वर ! (असश्चतः) किसी से भी रुकावट न डाली गई (ते) आपकी (धाराः) आनन्द-धाराएँ (सहस्रिणम्) सहस्र संख्यावाले (वाजम्) बल को (अच्छ) प्राप्त कराने के लिए (प्र यन्ति) उपासक के पास पहुँचती हैं, (दिवः) न जैसे आकाश से (वृष्टयः) वर्षाएँ (वाजम्) अन्न को (अच्छ) प्राप्त कराने के लिए (प्रयन्ति) भूतल पर पहुँचती हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे मेघ से वर्षा की धाराएँ अन्न उत्पन्न करने के लिए खेतों पर बरसती हैं, वैसे ही जगदीश्वर से आनन्द की धाराएँ बल उत्पन्न करने के लिए उपासकों के अन्तरात्मा में बरसती हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (ते धाराः-असश्चतः) हे परमात्मन्! तेरी आनन्दधाराएँ न टकराती हुईं—न विरोध करती हुईं१ (सहस्रिणम्-अच्छ वाजं प्रयन्ति) सहस्रों में ऊँचे अच्छे अमृत अन्नभोग को२ प्रदान करती हैं (दिवः-न वृष्टयः) आकाश से वर्षा धाराएँ जैसे भौमवाज—साधारण अन्न को देती हैं॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—अवत्सारः (रक्षण करते हुए परमात्मा के अनुसार चलने वाला उपासक)॥ देवता—पवमानः सोमः (धारारूप में प्राप्त होने वाला शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    अपराभूत सोम

    पदार्थ

    शरीर में सोम–वीर्य वह धातु है जो धातुओं की भी धातु है । वास्तव में यही शरीर का मूल धारक है। जब तक यह शरीर में सुरक्षित होता है तब तक यह असश्चत्=अपराभूत [not defeated] होने से शरीर में किसी रोगादि का प्रवेश नहीं होने देता । शरीर को यह अत्यन्त सबल बनाता है । जैसे आकाश से वृष्टियाँ गिरती हैं और एक-एक दाने को शतगुणित दाने उत्पन्न करने योग्य बनाती हैं उसी प्रकार यह सोम मनुष्य को खूब सशक्त बनाकर उसे शतश: ज्ञानों का प्राप्त करनेवाला बनाते हैं ।

    प्रस्तुत मन्त्र ‘अवत् सार' ऋषि के हैं जो इस सारभूत वस्तु की ध्यान से रक्षा करता है । वह अनुभव करता हुआ कहता है कि – हे सोम ! (ते) = तेरी, जो तू (असश्चतः) = अपराभूत है—इस देवों की निवासस्थानभूत नगरी का ऐसा द्वारपाल है कि किसी भी रोगादि को व आसुर भावना को अन्दर नहीं आने देता—उस तेरी (धारा:) = धारण-शक्तियाँ (दिवः वृष्टयः न) = द्युलोक से वर्षा की भाँति (सहस्त्रिणं वाजं अच्छ) = सहस्रगुणा शक्ति की ओर (यन्ति) = गति करती हैं, अर्थात् मनुष्य को यह सोम अनन्तशक्ति-सम्पन्न बनाता है । कल्पना भी करनी कठिन होती है कि इतनी शक्ति कहाँ से आ टपकी ? मन्त्र कहता है कि 'अरे जैसे वर्षा टपकती है उसी प्रकार यह शक्ति भी आ टपकती है'। यह सोमरक्षा का महत्त्व है। इसे ध्यान करके ही 'अवत्सार' ने इसे अपना मूलकर्त्तव्य समझा । इसे ही वैदिक साहित्य में 'ब्रह्मचर्यं परं तपः' व 'ब्रह्मचर्यं परो धर्मः' शब्दों में परं-तप व परं-धर्म कहा गया है।

    भावार्थ

    भावार्थ—मैं सोमरक्षा द्वारा अजेय बनूँ तथा सहस्रगुणा शक्ति का लाभ करूँ ।
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथानन्दवर्षा वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    हे पवमान सोम पावक रसागार परमेश्वर ! (असश्चतः) केनापि अप्रतिरुध्यमानस्य२ (ते) तव (धाराः) आनन्दधाराः (दिवः) आकाशात् (वृष्टयः न) वर्षाः इव (सहस्रिणम्) सहस्रसंख्यावन्तम् (वाजम्) बलम् (अच्छ) प्रापयितुम् (प्र यन्ति) उपासकं प्रति प्र यान्ति, (दिवः न) आकाशाद् यथा (वृष्टयः) वर्षाः (वाजम्) अन्नम् (अच्छ) प्रापयितुम् (प्र यन्ति) भूतलं प्रयान्ति। [वाजः इत्यन्ननाम बलनाम च। निघं० २।७,९] ॥१॥

    भावार्थः

    यथा मेघाद् वर्षाधारा अन्नमुत्पादयितुं क्षेत्रेषु वर्षन्ति तथा जगदीश्वरादानन्दधारा बलमुत्पादयितुमुपासकानामन्तरात्मनि वर्षन्ति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The three wheeled chariot of Prana and Apana, yoked with Om, and immemorial, immortal soul, highly praised in the Vedas, moves manifestly. May the learned and concentrated soul, the giver of prosperity to mankind, with its three charioteers, bring weal to our bipeds and quadrupeds.

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    Meaning

    O Soma, the ceaseless streams of your inexhaustible ecstasy flow like rains of heavenly light, bringing thousandfold strength, energy and joy for the celebrants. (Rg. 9-57-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ते धाराः असश्चतः) હે પરમાત્મન્ ! તારી આનંદધારાઓ ન અથડાતી - ન વિરોધ કરતી (सहस्रिणम् अच्छ वाजम् प्रयन्ति) હજારોમાં ઉન્નત સુંદર અમૃત અન્નભોગને પ્રદાન કરે છે. (दिवः न वृष्टयः) આકાશથી વરસાદની ધારાઓ જેમ ભૌમવાજ-સાધારણ અન્નને આપે છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशा मेघातून जलधारा अन्न उत्पन्न करण्यासाठी शेतात बरसतात, तसेच जगदीश्वराकडून आनंदाच्या धारा उपासकांच्या अंतरात्म्यात बल उत्पन्न करण्यासाठी बरसतात. ॥१॥

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