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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1801
    ऋषिः - सुदासः पैजवनः देवता - इन्द्रः छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    2

    प्रो꣡ ष्व꣢स्मै पुरोर꣣थ꣡मिन्द्रा꣢꣯य शू꣣ष꣡म꣢र्चत । अ꣣भी꣡के꣢ चिदु लोक꣣कृ꣢त्स꣣ङ्गे꣢ स꣣म꣡त्सु꣢ वृत्र꣣हा꣢ । अ꣣स्मा꣡कं꣢ बोधि चोदि꣣ता꣡ नभ꣢꣯न्तामन्य꣣के꣡षां꣢ ज्या꣣का꣢꣫ अधि꣣ ध꣡न्व꣢सु ॥१८०१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । उ꣣ । सु꣢ । अ꣣स्मै । पुरोरथ꣢म् । पु꣣रः । रथ꣢म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । शू꣣ष꣢म् । अ꣣र्चत । अभी꣡के꣢ । चि꣣त् । उ । लोककृ꣢त् । लो꣣क । कृ꣢त् । सङ्गे꣡ । स꣣म् । गे꣢ । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । वृ꣣त्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । बो꣣धि । चोदिता꣢ । न꣡भ꣢꣯न्ताम् । अ꣣न्यके꣡षा꣢म् । अ꣣न् । यके꣡षा꣢म् । ज्या꣣काः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ध꣡न्व꣢꣯सु ॥१८०१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रो ष्वस्मै पुरोरथमिन्द्राय शूषमर्चत । अभीके चिदु लोककृत्सङ्गे समत्सु वृत्रहा । अस्माकं बोधि चोदिता नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥१८०१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । उ । सु । अस्मै । पुरोरथम् । पुरः । रथम् । इन्द्राय । शूषम् । अर्चत । अभीके । चित् । उ । लोककृत् । लोक । कृत् । सङ्गे । सम् । गे । समत्सु । स । मत्सु । वृत्रहा । वृत्र । हा । अस्माकम् । बोधि । चोदिता । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । अन् । यकेषाम् । ज्याकाः । अधि । धन्वसु ॥१८०१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1801
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमात्मा के शत्रुविनाश के गुण की प्रशंसा की गयी है।

    पदार्थ

    हे साथियो ! (अस्मै इन्द्राय) इस जगदीश्वर के महिमा-गान के लिए, (पुरोरथम्) रथ को सबसे आगे रखनेवाले (शूषम्) इसके बल की (प्र अर्चत उ) प्रशंसा करो। वह (अभीके चित् उ) अपने सखा के ऊपर आक्रमण होने पर (लोककृत्) उसे विजय दिलानेवाला होता है। (समत्सु) देवासुरसङ्ग्रामों में (सङ्गे) मुठभेड़ होने पर (वृत्रहा) पाप आदि शत्रुओं का वधकर्ता होता है। वह जगदीश्वर (अस्माकम्) हम वीरों का (चोदिता) प्रेरक होता हुआ (बोधि) हमें उद्बोधन देवे। (धन्वसु अधि) धनुषों पर चढ़ायी हुई (अन्यकेषाम्) शत्रुओं की (ज्याकाः) डोरियाँ (नभन्ताम्) टूट जाएँ, अर्थात् वे साधनहीन होकर पराजित हो जाएँ ॥१॥ यहाँ श्लेष से जीवात्मापरक और सेनापतिपरक अर्थ भी जानना चाहिए ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे वीर सेनापति आक्रान्ता शत्रुओं को मारकर अपने राष्ट्र को विजय दिलाता है, वैसे ही परमेश्वर पाप, विघ्न आदि रूप वैरियों को विनष्ट करके अपने उपासकों को विजयी करता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (अस्मै ‘अस्य’ इन्द्राय ‘इन्द्रस्य’) इस ऐश्वर्यवान् परमात्मा के१ रमणस्थान—मोक्षधाम से पूर्व जगत् में वर्तमान (शूषम्-अचंत) जगद्रचन धारणादि बल पराक्रमको उपासकजनो अर्चित करो—प्रशंसित करो (अभीके चित्-लोककृत्) जो समीप में ही२ पृथिवी आदि लोकों का करने रचने वाला है तथा जो (सङ्गे समत्सु वृत्रहा) सदा सङ्ग में—शरीर में और शरीर से बाहर सम्मोदन स्थानों में३ स्वास्थ्यवारक रोगों और पापों का हननकर्ता४ है (अस्माकम् ‘अस्मान्’ बोधि) हमें बोधित करता है (चोदिता) प्रेरक है (अन्यकेषां ज्याकाः-अधि धन्वसु) अन्य कुत्सितजनों५ की हमें अभिभव करने दबाने वाली दुर्भावनाएँ६ उनके हृदयावकाशों में७ (नभन्ताम्) नष्ट हो जावें८ या न होवें—न रहें९॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—सुदाः (परमात्मा के लिये अपने को उत्तम रूप से देने समर्पित करने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—शक्वरी॥<br>

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    विषय

    कामदेव का धनुष 'अधिज्य' न हो पाये

    पदार्थ

    १. (अस्मै इन्द्राय) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए, अर्थात् प्रभु की आराधना के लिए (पुरोरथम्) = इस शरीररूपी रथ को निरन्तर आगे ले-चलनेवाले (शूषम्) = बल को (प्र सु-अर्चत) = प्रकर्षेण उत्तमता से अलंकृत करो। [अर्च=to adorn] । प्रभु ने यह शरीररूप रथ जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए हमें दिया है। यदि हम इसका ठीक प्रयोग करते हैं तो प्रभु की अर्चना कर रहे होते हैं। किसी से दी गयी वस्तु का ठीक प्रयोग ही उसका आदर है । हम इस शरीररूप रथ को शक्ति से अलंकृत करें, जिससे यह हमें आगे और आगे ले चलनेवाला हो । शरीररूप रथ का सशक्त रखना और इसे न बिगड़ने देना ही प्रभु का सच्चा आदर है ।

    २. (अभीके) = प्रभु की समीपता में रहने से (चित् उ) = निश्चय से ही वे (लोककृत्) = प्रकाश करनेवाले हैं । जब हम प्रभु की समीपता में रहते हैं तब हमारा मार्ग कभी अन्धकारमय नहीं होता । 

    ३. (सङ्गे) = उस प्रभु का सम्पर्क होने पर (समत्सु) = संग्रामों में – कामादि वासनाओं के साथ युद्ध में (वृत्रहा) = ज्ञान को आवृत करनेवाले जीव वृत्रों को विनष्ट करनेवाला होता है।

    ४. (अस्माकं बोधि) = हे प्रभो ! आप हमें सदा चेतानेवाले होओ (चोदिता) = आप हमारे प्रेरक होओ। वस्तुत: (‘चोदनालक्षणो धर्मः') = जिस बात की प्रेरणा वेद में है वही धर्म है। प्रभु की प्रेरणा ही मुझे धर्म के मार्ग पर ले-चलती है ।

    ५. हे प्रभो! आप ऐसी कृपा करो कि (अन्यकेषाम्) = इन हमारे विरोधी कामदेवादि की (ज्याकाः) = डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ । कामदेव का तीर हमपर चल ही न सके। इसके लिए आवश्यक है कि हम प्रभु से अपना उत्तम [सु] बन्धन [दास्] बनाकर इस मन्त्र के ऋषि ‘सुदास्’ बन जाएँ।

    भावार्थ

    हम काम के शिकार न हो पाएँ ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमात्मनः शत्रुविनाशगुणः प्रशस्यते।

    पदार्थः

    हे सखायः ! (अस्मै इन्द्राय) एतस्मै जगदीश्वराय, अस्य जगदीश्वरस्य महिमानं गातुमित्यर्थः, (पुरोरथम्) येन रथः सर्वेषां पुरः तिष्ठति तादृशम्, सर्वाग्रगन्तृत्वहेतुमित्यर्थः (शूषम्) अस्य बलम् (प्र अर्चत उ) प्रशंसत ! सः (अभीके चित् उ) स्वसख्युः उपरि आक्रमणे जाते (लोककृत्) तस्य विजयकर्ता जायते। (समत्सु) देवासुरसंग्रामेषु (सङ्गे) संघट्टे सति (वृत्रहा) पापादीनां शत्रूणां हन्ता भवति। स जगदीश्वरः (अस्माकम्) वीराणाम् अस्माकम् (चोदिता) प्रेरकः सन् (बोधि) अस्मान् उद्बोधयेत्। [बुध अवगमने, ण्यर्थगर्भः, विध्यर्थे लुङ्, अडभावश्च] (धन्वसु अधि) धनुःषु अधिरोपिताः (अन्यकेषाम्) शत्रूणाम् (ज्याकाः) प्रत्यञ्चाः (नभन्ताम्) त्रुट्यन्ताम्, ते निःसाधना भूत्वा पराजीयन्तामिति भावः। [नभ हिंसायाम्, भ्वादिः] ॥१॥ अत्र श्लेषेण जीवात्मपरः सेनापतिपरश्चाप्यर्थोऽध्यवसेयः ॥१॥

    भावार्थः

    यथा वीरः सेनापतिराक्रान्तॄन् शत्रून् हत्वा स्वराष्ट्रस्य विजयं कारयति तथैव परमेश्वरः पापविघ्नादिरूपान् रिपून् विनाश्य स्वोपासकान् विजयिनः करोति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Duly sing of the strength of this Glorious God, Who sets in motion the chariot of the universe. He sees all from the closest quarter of the heart. Standing by our side in life’s struggles, He removes the coverings of ignorance. He imparts knowledge unto us. The weak bow-strings of our week internal foes like lust and anger break upon the sight of God.

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    Meaning

    Offer a song of abundant praise in honour of this ruling lord Indra for his mighty force and front rank chariot. He, destroyer of darkness and evil, inspires us in our battles of life at the closest and enlightens us in our struggle for universal freedom. Let the strings of the alien enemy bows be snapped by the strike of the forces of Indra. (Rg. 10-133-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अस्मै "अस्य" इन्द्राय "इन्द्रस्य") એ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા રમણસ્થાન-મોક્ષધામથી પૂર્વ જગતમાં રહેલ (शूषम् अर्चत) જગત રચના, ધારણ આદિ બળ-પરાક્રમને ઉપાસકજનો અર્પિત કરો - પ્રશંસિત કરો (अभीके चित् लोककृत्) જે નિકટમાં જ છે-પૃથિવી આદિ લોકનો કરનાર-રચનાર છે તથા જે (सङ्गे समत्सु वृत्रहा) સદા સંગમાં-શરીરમાં તથા શરીરથી બહાર સંમોદન સ્થાનોમાં સ્વાસ્થ્યવારક રોગો અને પાપોનો હનનકર્તા છે. (अस्माकम् "अस्मान्" बोधि) અમને જ્ઞાન આપે છે. (चोदिता) પ્રેરક છે. (अन्यकेषां ज्याकाः अधि धन्वसु) અન્ય કુત્સિતજનોની અમને હરાવવાની દબાવવાની દુર્ભાવનાઓ તેઓના હૃદયાવકાશોમાં (नभन्ताम्) નાશ પામે અથવા દુર્ભાવના ન થાય-ન રહે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा वीर सेनापती, आक्रांता शत्रूंना मारून आपल्या राष्ट्राला विजय मिळवून देतो, तसेच परमेश्वर पाप, विघ्न इतयादी वैऱ्यांना नष्ट करून आपल्या उपासकांना विजयी करतो. ॥१८०१॥

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