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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1814
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - अत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    3

    य꣡जि꣢ष्ठं त्वा꣣ य꣡ज꣢माना हुवेम꣣ ज्ये꣢ष्ठ꣣म꣡ङ्गि꣢रसां विप्र꣣ म꣡न्म꣢भि꣣र्वि꣡प्रे꣢भिः शुक्र꣣ म꣡न्म꣢भिः । प꣡रि꣢ज्मानमिव꣣ द्या꣡ꣳ होता꣢꣯रं चर्षणी꣣ना꣢म् । शो꣣चि꣡ष्के꣢शं꣣ वृ꣡ष꣢णं꣣ य꣢मि꣣मा꣢꣫ विशः꣣ प्रा꣡व꣢न्तु जू꣣त꣢ये꣣ वि꣡शः꣢ ॥१८१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣡जि꣢꣯ष्ठम् । त्वा꣣ । य꣡ज꣢꣯मानाः । हु꣣वेम । ज्ये꣡ष्ठ꣢꣯म् । अ꣡ङ्गि꣢꣯रसाम् । वि꣣प्र । वि । प्र । म꣡न्म꣢꣯भिः । वि꣡प्रे꣢꣯भिः । वि । प्रे꣣भिः । शुक्र । म꣡न्म꣢꣯भिः । प꣡रि꣢꣯ज्मानम् । प꣡रि꣢꣯ । ज्मा꣣नम् । इव । द्या꣢म् । हो꣡ता꣢꣯रम् । च꣣र्षणीना꣢म् । शो꣣चि꣡ष्के꣢शम् । शो꣣चिः꣢ । के꣣शम् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । य꣢म् । इ꣣माः꣢ । वि꣡शः꣢꣯ । प्र । अ꣣वन्तु । जूत꣡ये꣢ । वि꣡शः꣢꣯ ॥१८१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यजिष्ठं त्वा यजमाना हुवेम ज्येष्ठमङ्गिरसां विप्र मन्मभिर्विप्रेभिः शुक्र मन्मभिः । परिज्मानमिव द्याꣳ होतारं चर्षणीनाम् । शोचिष्केशं वृषणं यमिमा विशः प्रावन्तु जूतये विशः ॥१८१४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यजिष्ठम् । त्वा । यजमानाः । हुवेम । ज्येष्ठम् । अङ्गिरसाम् । विप्र । वि । प्र । मन्मभिः । विप्रेभिः । वि । प्रेभिः । शुक्र । मन्मभिः । परिज्मानम् । परि । ज्मानम् । इव । द्याम् । होतारम् । चर्षणीनाम् । शोचिष्केशम् । शोचिः । केशम् । वृषणम् । यम् । इमाः । विशः । प्र । अवन्तु । जूतये । विशः ॥१८१४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1814
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (विप्र) विशेष रूप से पूर्णता करनेवाले जगदीश ! (यजमानाः) उपासना-यज्ञ के याज्ञिक हम (यजिष्ठम्) सबसे बड़े यज्ञकर्ता, (अङ्गिरसां जयेष्ठम्) तपस्वियों में श्रेष्ठ (त्वा) आपको (मन्मभिः) वेदमन्त्रों से (हुवेम) पुकारें। हे (शुक्र) तेजस्वी और पवित्र परमात्मन् ! (मन्मभिः) मननशील (विप्रेभिः) विद्वान् उपासकों के साथ मिलकर आपको पुकारें। (द्याम्) आकाश को (परिज्मानम् इव) मानो सूर्य द्वारा मापनेवाले और (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के (होतारम्) सुखप्रदाता, (शोचिष्केशम्) तेजों से प्रकाशमान, (वृषणम्) वृष्टिकर्ता (यम्) जिन आपकी (इमाः) ये (विशः) प्रजाएँ उपासना करती हैं, उन आपको (विशः) वे प्रजाएँ, (जूतये) बल, वेग आदि की प्राप्ति के लिए (प्रावन्तु) प्राप्त कर लें ॥२॥ यहाँ ‘परिज्मानमिव द्याम्’ में उत्प्रेक्षालङ्कार, ‘मन्मभिः’ की आवृत्ति में यमक और ‘विप्र, विप्रे’ में छेकानुप्रास है ॥२॥

    भावार्थ

    विप्रजनों के साथ मिलकर सामूहिक उपासना से सबको उस परमात्मा की पूजा करनी चाहिए, जो सृष्टियज्ञ का सञ्चालक, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, सर्वाधिक तेजस्वी और मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है तथा जो सूर्य को पूर्व से पश्चिम तक यात्रा कराता हुआ उसके द्वारा मानो आकाश को मापता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (विप्र) हे विशेष कामनापूरक परमात्मन्! (त्वा यजिष्ठम्) तुझ अत्यन्त यष्टा—अध्यात्मयज्ञ के आधार (अङ्गिरसां ज्येष्ठम्) अङ्गों को रसीला बनाने वालों में अत्यन्त प्रशस्त को (विप्रेभिः मन्मभिः) विशेष कामनापूरक मननीय स्तुतिसमूहों से५ (यजमानाः-हुवेम) हम अध्यात्मयज्ञ के यजमान उपासक आमन्त्रित करते हैं (शुक्र मन्मभिः) हे शुभ्र परमात्मन्! मननीय स्तुतिसमूहों—(चर्षणीनां होतारं द्याम्-इव परिज्मानम्) दर्शक मनुष्यों के अध्यात्म होता ऋत्विक् को मोक्षधाम की ओर प्रेरक (शोचिष्केशम्)६ ज्ञानरश्मि७ वाले (वृषणम्) सुखवर्षक (यम्) जिस तुझको (ऊतये) रक्षा के लिये (इमाः-विशः-प्रावन्तु) ये उपासक प्रजाएँ प्रकृष्टरूप से प्राप्त हों॥२॥

    विशेष

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    विषय

    यजिष्ठ का यजन

    पदार्थ

    परुच्छेप=अङ्ग-अङ्ग में शक्ति का निर्माण करनेवाला भक्त कहता है कि हे (अङ्गिरसां विप्र) = अङ्गरसवालों, अर्थात् शक्तिशालियों का विशेषरूप से पूरण करनेवाले प्रभो ! (यजिष्ठम्) = सर्वाधिक दान देनेवाले (ज्येष्ठम्) = सदा सर्वाधिक वर्धमान (त्वा) = आपको (यजमानाः) = यज्ञ के स्वभाववाले हम (मन्मभिः) = मननीय स्तोत्रों के द्वारा (हुवेम) = पुकारते हैं । हे (शुक्र) = शुद्धस्वरूप परमात्मन्! उन (मन्मभिः) = मननीय स्तोत्रों से आपको पुकारते हैं जो (विप्रेभिः) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं। आपके स्तोत्रों से हमें ही तो प्रेरणा प्राप्त होती है और हमारे जीवन न्यूनताओं से रहित होकर पूर्ण होते हैं ।

    हे प्रभो ! मैं आपका निम्नरूप में स्मरण करता हूँ – १. (परिज्मानम् इव द्याम्) = आप इस निरन्तर गतिशील प्रकाशमय सूर्य की भाँति हैं। आपका उपासक मैं भी गति और प्रकाश को अपनाऊँ। २. (चर्षणीनाम्) = [कर्षणीनाम्] कृषि करनेवाले श्रमशील मनुष्यों को आप (होतारम्) - सबकुछ देनेवाले हैं। मैं भी इस तत्त्व को समझैँ कि आपकी कृपा मुझे परिश्रम करने पर ही प्राप्त होगी और यह समझकर ‘श्रम' को अपने जीवन का मूलतत्त्व बनाऊँ ।

    ३. (शोचिष्केशम्)=[शोचि-केश] आप प्रकाशमय किरणोंवाले हैं अथवा [शोचिष्क+ईश ] सब ज्योतियों के ईश है । मैं भी अपने ज्ञान के प्रकाश को निरन्तर बढ़ाऊँ । ।

    ४. (वृषणम्) = आप शक्तिशाली हैं और सभी पर सुखों की वर्षा करनेवाले हैं। मैं भी ऐसा ही बनूँ । 

    ५. (यम्) -जिस आपको (इमाः विश:) = ये सब प्रजाएँ (प्रावन्तु) = प्रकर्षेण अपने में दोहन का प्रयत्न करें [अव्=भागदुघे] । वस्तुतः प्रभु का अपने में दोहन किये बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव कहाँ ? (विशः) = सब प्रजाएँ जूतये=[going on] निरन्तर आगे बढ़ने के लिए प्रावन्तु-आपकी भावना को अपने में सुरक्षित करें। प्रभु के स्मरण से ही मनुष्य की निरन्तर उन्नति होती है।

    भावार्थ

    मैं प्रभु का स्मरण करूँ, जिससे १. निरन्तर गतिशील २. प्रकाशमय ३. श्रम को महत्त्व देनेवाला ४. ज्ञान की सम्पत्तिवाला तथा ५. शक्तिशाली बनूँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (विप्र) ज्ञानवन् ! अग्ने ! परमेश्वर ! हम (यजमानाः) देवोपासना करने हारे लोग (यजिष्ठं) सब उपासकों में से सबसे अधिक श्रेष्ठ (अंगिरसां) समस्त ज्ञानवान् आत्माओं से भी (ज्येष्ठं) श्रेष्ठ परमात्मरूप आपको (विप्रेभिः) विशेष रूप से आपके महत्व को दर्शाने हारे ज्ञानमय (मन्मभिः) विचारों, मन्त्रों से (त्वा) आपको (हुवेम) स्मरण करते हैं। हे (शुक्र) तेजःस्वरूप सबके प्रकाशक ! (परिज्मानं) सर्वव्यापक, (द्यां) तेजस्वरूप, (चर्षणीनां) समस्त मनुष्यों को (होतारं) कृपा का दान करने हारे (शोचिष्केशं) कान्तिमान् सूर्यादि पिण्डों को वश करने हारे (वृषणं) सब सुखों के वर्षक (यं) जिस आपको (इमाः) ये समस्त (विशः) आप में आश्रय पाने हारे जीवगण (प्रावन्तु) प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (विप्र) विशेषेण पूरयितः जगदीश ! (यजमानाः) उपासनायज्ञस्य यष्टारः वयम् (यजिष्ठम्) यष्तृतमम् (अङ्गिरसां ज्येष्ठम्) तपस्विनां श्रेष्ठम् (त्वा) त्वाम् (मन्मभिः) वेदमन्त्रैः (हुवेम) आह्वयेम। हे (शुक्र) तेजस्विन्, पवित्र परमात्मन् ! (मन्मभिः) मननशीलैः (विप्रेभिः) उपासकैः विद्वद्भिः सह त्वां हुवेम। (द्याम्) आकाशम् (परिज्मानम् इव) सूर्यद्वारा परिमिमानमिव, (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (होतारम्) सुखप्रदातारम्, (शोचिष्केशम्) शोचिर्भिः प्रकाशमानम्, (वृषणम्) वृष्टिकरम् (यम्) यं त्वाम् (इमाः) एताः (विशः) प्रजाः उपासते, तं त्वाम् (विशः) ताः प्रजाः (जूतये) बलवेगादिप्राप्तये। [‘ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च’। अ० ३।३।९७ इत्यनेनोदात्तः क्तिन् प्रत्ययो धातोर्दीर्घत्वं च निपात्यते।] (प्रावन्तु) प्राप्नुवन्तु ॥२॥२ अत्र ‘परिज्मानमिव द्याम्’ इत्युत्प्रेक्षालङ्कारः, ‘मन्मभिः’ इत्यस्यावृत्तौ यमकम्, ‘विप्र विप्रे’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥२॥

    भावार्थः

    विप्रजनैः सह मिलित्वा सामूहिकोपासनया सर्वैः स परमात्मा पूजनीयो यः सृष्टियज्ञस्य सञ्चालको ज्येष्ठः श्रेष्ठस्तेजस्वितमः कामवर्षकश्च वर्तते यश्च सूर्यं पूर्वतः पश्चिमान्तं यात्रां कारयन् तेनाकाशं परिमातीव ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Omniscient, Refulgent God, with Vedic verses and learned thoughts, which expatiate on Thy greatness, we remember Thee ; Most Excellent and Superior to all souls. These souls, seeking Thy shelter, for the attainment of salvation, achieve Thee, All-pervading, Lustrous, the Giver of bounty to mankind, the Controller of all luminous planets like the Sun etc., and the Showerer of all joys!

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    Meaning

    Agni, lord most worshipful, we the performers of this yajnic assembly, with all our heart and mind, together with all the saints and scholars with their earnest desire, invoke and invite you, wisest and senior-most of the scholar visionaries of Divinity, pure and immaculate, brilliant as the sun with your reach into the light of heaven, high-priest of humanity, lord of light knowledge, generous as rain showers, whom all these people accept, respect and approach with their desire and prayer for protection and self-fulfilment. (Rg. 1-127-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विप्र) હે વિશેષ કામનાપૂરક પરમાત્મન્ ! (त्वा यजिष्ठम्) તુજ અત્યંત ઇષ્ટ-અધ્યાત્મયજ્ઞના આધાર (अङ्गिरसां ज्येष्ठम्) અંગોને રસવાન બનાવનારાઓમાં અત્યંત પ્રશસ્તને (विप्रेभिः मन्मेभिः) વિશેષ કામનાપૂરક સ્તુતિ સમૂહોથી (यजमानाः हुवेम) અમે અધ્યાત્મયજ્ઞના યજમાનો-ઉપાસકો આમંત્રિત કરીએ છીએ. (शुक्र मन्मभिः) હે શુભ્ર પરમાત્મન્ ! મનનીય સ્તુતિ સમૂહો, (चर्षणीनां होतारं द्याम् इव परिज्मानम्) દર્શક મનુષ્યોના અધ્યાત્મ હોતા ઋત્વિક્ ને મોક્ષધામની તરફ પ્રેરિત કરનાર (शोचिष्केशम्) જ્ઞાનરશ્મિવાળા (वृषणम्) સુખવર્ષક (यम्) જે તને (ऊतये) રક્ષાને માટે (इमाः विशः प्रावन्तु) એ ઉપાસક પ્રજાઓ પ્રકૃષ્ટ રૂપમાં પ્રાપ્ત થાય. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विप्रजनाची साथ घेऊन सामूहिक उपासनेने सर्वांनी त्या परमात्म्याची पूजा केली पाहिजे, जो सृष्टियज्ञाचा संचालक, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ सर्वात अधिक तेजस्वी व मनोरथांना पूर्ण करणारा आहे व जो सूर्याला पूर्वेकडून पश्चिमेपर्यंत प्रवास करत त्याच्याद्वारे जणू आकाशाचे मापन करतो. ॥२॥

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