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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1820
    ऋषिः - अग्निः पावकः देवता - अग्निः छन्दः - सतोबृहती स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    2

    इ꣣ष्कर्त्ता꣡र꣢मध्व꣣रस्य꣣ प्र꣡चे꣢तसं꣣ क्ष꣡य꣢न्त꣣ꣳ रा꣡ध꣢सो म꣣हः꣢ । रा꣣तिं꣢ वा꣣म꣡स्य꣢ सु꣣भ꣡गां꣢ म꣣ही꣢꣯मिषं꣣ द꣡धा꣢सि सान꣣सि꣢ꣳ र꣣यि꣢म् ॥१८२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣ष्क꣡र्ता꣢रम् । अ꣣ध्वर꣡स्य꣢ । प्र꣡चे꣢तसम् । प्र । चे꣡तसम् । क्ष꣡य꣢꣯न्तम् । रा꣡ध꣢꣯सः । म꣡हः꣢꣯ । रा꣣ति꣢म् । वा꣣म꣡स्य꣢ । सु꣣भ꣡गा꣢म् । सु꣣ । भ꣡गा꣢꣯म् । म꣣ही꣢म् । इ꣡ष꣢꣯म् । द꣡धा꣢꣯सि । सा꣣नसि꣢म् । र꣣यि꣢म् ॥१८२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इष्कर्त्तारमध्वरस्य प्रचेतसं क्षयन्तꣳ राधसो महः । रातिं वामस्य सुभगां महीमिषं दधासि सानसिꣳ रयिम् ॥१८२०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इष्कर्तारम् । अध्वरस्य । प्रचेतसम् । प्र । चेतसम् । क्षयन्तम् । राधसः । महः । रातिम् । वामस्य । सुभगाम् । सु । भगाम् । महीम् । इषम् । दधासि । सानसिम् । रयिम् ॥१८२०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1820
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभावों का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे जगदीश्वर ! (अध्वरस्य) जीवन-यज्ञ के (इष्कर्तारम्) संस्कृत करनेवाले, (प्रचेतसम्) जागृति प्रदान करनेवाले, (महः) महान् (राधसः) दिव्य धन के (क्षयन्तम्) ईश्वर, (वामस्य) सेवनीय सुरम्य ऐश्वर्य के (रातिम्) दाता आपकी हम उपासना करते हैं, आप (सुभगाम्) सौभाग्यकारिणी, (महीम्) महती (इषम्) अभीष्ट दुःखमुक्ति को और (सानसिम्) संभजनीय (रयिम्) भौतिक तथा दिव्य ऐश्वर्य को (दधासि) प्रदान करते हो ॥५॥

    भावार्थ

    आराधना किया हुआ परमेश्वर उपासकों को जागरूक करके और उन्हें सारी अभीष्ट लौकिक तथा दिव्य सम्पदा प्रदान करके कृतार्थ करता है ॥५॥

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    पदार्थ

    (अध्वरस्य-इष्कर्तारम्) हे अग्रणेता परमात्मन्! अध्यात्म यज्ञ के तुझ निष्पादक२ (प्रचेतसम्) ज्ञान देकर सावधान करने वाले—(महः-राधसः क्षयन्तम्) महान् धन का स्वामित्व करते हुए को३ (वामस्य रातिम्) वननीय अध्यात्म सुखलाभ के दाता४—को स्तुत करते हैं—स्तुति में लाते हैं (महीं सुभगाम्-इषम्) महती सुभाग्य करने वाली कामना को, तथा (सानसिं रयिम्) सनातन४ शाश्वतिक—स्थिर ऐश्वर्य मोक्षैश्वर्य को (दधासि) तू धारण कराता है॥५॥

    विशेष

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    विषय

    कैसे धन को ?

    पदार्थ

    गत मन्त्र में प्रभु ने कहा था कि 'तू हमारे गौ आदि पशुओं से अपनी सम्पत्ति को विस्तृत कर' । प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि 'तुझे कैसी सम्पत्ति मिलेगी ?' – हे जीव! तू (रयिं दधासि) = उस सम्पत्ति को धारण करता है, जो -

    १. (अध्वरस्य इष्कर्तारम्) = हिंसारहित यज्ञों को परिष्कृत करनेवाली हैं, अर्थात् जिसके द्वारा शतशः अध्वरों - यज्ञों का साधन होता है I

    २. प्(रचेतसम्) = जो प्रकृष्ट चेतनावाली है । जो नमक- तेल- ईंधन की चिन्ता से बुद्धि को विलुप्त नहीं होने देती और न ही अपनी चकाचौंध से आँखों को चुँधिया ही देती है। 

    ३. (महः राधसः क्षयन्तम्) = जो महान् सफलता का निवास स्थान है, अर्थात् जिसके द्वारा हमारे संसार के आवश्यक कार्य पूर्ण होते हैं ।

    ४. (वामस्य रातिम्) = सब सुन्दर वस्तुओं को देनेवाली है । सम्पत्ति इतनी चाहिए कि वह जीवन को सुन्दर बनाने के लिए सब आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करा सके ।

    ५. (सुभगाम्) = जो सुन्दर है, अर्थात् जिसके प्राप्त होने से मेरे जीवन में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आता कि वह अखरने लगे ।

    ६. (महीम्) = जो सम्पत्ति [मह पूजायाम् ] मुझे पूजा की भावना से पृथक् नहीं कर देती ।

    ७. (इषम्) = जो मुझे गतिशील रखती है— अकर्मण्य नहीं बना देती ।

    ८. (सानसिम्) = जो संविभाग के योग्य है, अर्थात् मुझे वह सम्पत्ति दीजिए जिसका यज्ञों में विनियोग करके बची हुई का खानेवाला बनूँ ।

    भावार्थ

    मैं सम्पत्ति को प्राप्त करूँ, उस सम्पत्ति को जोकि यज्ञों को सिद्ध करनेवाली हो ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरस्य गुणकर्मस्वभावानाह।

    पदार्थः

    हे जगदीश्वर ! (अध्वरस्य) जीवनयज्ञस्य (इष्कर्तारम्) संस्कर्तारम्, (प्रचेतसम्) प्रचेतयति जागरयतीति प्रचेताः तम्, (महः) महतः (राधसः) दिव्यस्य धनस्य (क्षयन्तम्) ईश्वरम्। [क्षयतिरैश्वर्यकर्मा। निघं० २।२१।] (वामस्य) वननीयस्य चारुणः ऐश्वर्यस्य (रातिम्) दातारम्। [रा दाने कर्तरि क्तिन्।] त्वां वयम् उपास्महे इति शेषः। त्वम् (सुभगाम्) सौभाग्यकारिणीम्, (महीम्) महतीम् (इषम्) अभीष्टां दुःखमुक्तिम्, अपि च (सानसिम्) संभजनीयम् (रयिम्) भौतिकं दिव्यं चैश्वर्यम् (दधासि) प्रयच्छसि ॥५॥२

    भावार्थः

    आराधितः परमेश्वर उपासकान् जागरूकान् विधाय तेभ्यः सकलामभीष्टां लौकिकीं दिव्यां च सम्पदं प्रदाय तान् कृतार्थयति ॥५॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I laud God, Who orders the sacrifice (Yajna) of this mighty world. Who is Wise, Who hath great riches under His control, and is the Bestower of nice, attainable objects. O God, Thou givest auspicious, plenteous feed, Thou givest wealth to be shared by all!

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    Meaning

    Agni, lord, spirit, and power of the light and fire of life, we celebrate and adore you, inspirer, impeller and promoter of holy yajna of love and non-violence, omniscient treasure giver and controller of the great worlds wealth, who bear and bring us abundant gifts of beauty and splendour and the good fortune of life, high energy and food, plenty and prosperity, indeed all wealth, honour and excellence of life. (Rg. 10-140-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अध्वरस्य इष्कर्तारम्) હે અગ્રણી પરમાત્મન્ ! અધ્યાત્મયજ્ઞના તુજ નિષ્પાદક (प्रचेतसम्) જ્ઞાન આપીને સાવધાન કરનાર, (महः राधसः क्षयन्तम्) મહાન ધનનું સ્વામીત્વ કરનારને, (वामस्य रातिम्) વનનીય-સેવનીય અધ્યાત્મ સુખલાભના દાતાને સ્તુત કરીએ છીએ-સ્તુતિમાં લાવીએ છીએ. (महीं सुभगाम् इषम्) મહાન સુભાગ્ય કરનારી કામનાને; તથા (सानसिं रयिम्) સનાતન-શાશ્વતિક-સ્થિર ઐશ્વર્ય મોક્ષૈશ્વર્યને (दधाति) તું ધારણ કરાવે છે. (૫)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आराधना केलेला परमेश्वर उपासकांना जागरूक करून व त्यांना संपूर्ण अभीष्ट लौकिक व दिव्य संपत्ती प्रदान करून कृतार्थ करतो. ॥५॥

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