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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1834
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
1
य꣡दि꣢न्द्रा꣣हं꣢꣫ यथा꣣ त्वमीशी꣢꣯य꣣ व꣢स्व꣣ ए꣢क꣢ इ꣢त् । स्तो꣣ता꣢ मे꣣ गो꣡स꣢खा स्यात् ॥१८३४॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । इ꣣न्द्र । अ꣣ह꣢म् । य꣡था꣢꣯ । त्वम् । ई꣡शी꣢꣯य । व꣡स्वः꣢꣯ । ए꣡कः꣢꣯ । इत् । स्तो꣣ता꣢ । मे꣣ । गो꣡स꣢꣯खा । गो । स꣣खा । स्यात् ॥१८३४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत् । स्तोता मे गोसखा स्यात् ॥१८३४॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । इन्द्र । अहम् । यथा । त्वम् । ईशीय । वस्वः । एकः । इत् । स्तोता । मे । गोसखा । गो । सखा । स्यात् ॥१८३४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1834
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १२२ क्रमाङ्क पर हो चुकी है। इसमें धनपति होकर मैं क्या करूँ, इसका वर्णन है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) जगदीश्वर आचार्य वा राजन् ! (यत्) यदि (यथा त्वम्) जैसे आप हो वैसे (अहम्) मैं (वस्वः) दिव्य ऐश्वर्य का, विद्या-धन का वा भौतिक धन का (एकः इत्) अद्वितीय (ईशीय) स्वामी हो जाऊँ तो (मे) मेरा (स्तोता) प्रशंसक (गोसखा) दिव्य प्रकाशों का, समस्त वाङ्मय का वा धेनुओं का सखा (स्यात्) हो जाए ॥१॥
भावार्थ
यदि मैं जगदीश के समान सत्य, अहिंसा, योगसिद्धि आदि दिव्य धनों का स्वामी हो जाऊँ तो सत्पात्रों को दिव्य धन बाटूँ, यदि मैं आचार्य के समान विद्या-धनों का स्वामी हो जाऊँ तो शिष्यों को विविध विद्याओं का अध्यापन करूँ, यदि मैं राजा के समान चाँदी, सोना, गाय आदि धनों का स्वामी हो जाऊँ तो निर्धनों को सोना, गाय आदि धन वितीर्ण करूँ ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १२२)
विशेष
ऋषिः—गोषूक्त्यश्वसूक्तिनावृषी (इन्द्रियों की संयमरूप उक्ति वाला और व्यापनशील मन की शिवसङ्कल्परूप उक्ति वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
वेदरूपी गौ का चित्र
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘गोषूक्ति व अश्वसूक्ति' है, जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ सदा उत्तम ही कथन करती हैं, अर्थात् इसके ज्ञान व कर्म दोनों ही पवित्र होते हैं । यह वेदज्ञान को प्राप्त करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करता है, परन्तु जब एक लम्बे समय तक उसे 'अन्दर का प्रकाश' प्राप्त नहीं होता तब यह प्रभु को इन शब्दों में उपालम्भ देता है – हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभो! (यत्) = यदि (अहम्) = मैं (यथा त्वम्) = तेरी भाँति (वस्वः) = इस ज्ञान - धन का (ईशीय) = स्वामी होता तो मे (स्तोता) = मेरा भक्त (गोसखा स्यात्) = वेदवाणियों का मित्र बन चुकता । तूने मुझे वेदज्ञान देने के लिए किसी से पूछना थोड़ा ही है ('एक इत्') = आप तो एकेले ही इसके स्वामी हो। मैं आपका भक्त इस ज्ञान के बिना तरसता रह जाऊँ, यह क्या आपको शोभा देता है ?
उल्लिखित प्रकार से उपालम्भ वही व्यक्ति दे सकता है जो इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रबल इच्छा रखता हो और जिसने पूर्ण प्रयत्न किया हो । प्रबल इच्छा और पूर्ण प्रयत्न के उपरान्त ही यह उपालम्भ शोभा देता है। इनके अभाव में उपालम्भ का मतलब ही क्या ? इसीलिए यह भक्त अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को बड़ा अच्छा बनाने के लिए प्रयत्नशील होता है। यह ‘गोषूक्ति' और ‘अश्वसूक्ति' है। इसकी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों सभी से उत्तमता झलक रही है । ज्ञान-प्राप्ति के लिए यह प्रयत्न आवश्यक भी तो है ।
भावार्थ
हम अपनी इन्द्रियों को उत्तम बनाएँ, जिससे ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कर सकें।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १२२ क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। धनपतिर्भूत्वाऽहं कि कुर्यामित्याह।
पदार्थः
हे (इन्द्र) जगदीश्वर आचार्य राजन् वा ! (यत्) यदि (यथा त्वम्) यथा त्वमसि तथैव (अहं वस्वः) विद्याधनस्य भौतिकधनस्य वा (एकः इत्) अद्वितीयः एव (ईशीय) ईश्वरो भवेयम्, तर्हि (मे) मम (स्तोता) प्रशंसकः (गोसखा) गवाम् दिव्यप्रकाशानाम् निखिलवाङ्मयानां धेनूनां वा सखा स्वामी (स्यात्) भवेत् ॥१॥
भावार्थः
यद्यहं जगदीशवद् दिव्यधनानां सत्याहिंसायोगसिद्ध्यादीनां स्वामी भवेयं तर्हि सत्पात्रेभ्यो दिव्यधनानि दद्याम्, यद्यहमाचार्यवद् विद्याधनानां स्वामी भवेयं तर्हि शिष्येभ्यो विविधा विद्या अध्यापयेयम्, यद्यहं भूपतिरिव रजतसुवर्णगवादिधनाधीशो भवेयं तर्हि निर्धनेभ्यो रजतसुवर्णगवादिधनानि वितरेयम् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
If I. O God, were like Thee, the single ruler over wealth, my worshipper would be rich in kine; then why not Yours.
Meaning
Indra, lord of universal knowledge, power and prosperity, if I were, like you, the sole master of wealth, wisdom and power in my field, then pray may my dependent and celebrant also be blest with wealth and wisdom of the world. (Let all of us together be blest with abundance of wealth and wisdom under the social dispensation of our system of government and administration. )(Rg. 8-14-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (यत् यथा त्वं वस्वः एकः इत् ईशिषे) જેમ તું ઐશ્વર્યનું એકલો સ્વામીત્વ કરે છે - સ્વામી છો ; (अहम् ईशीय) હું તારી સાથે રહીને ઐશ્વર્યનો સ્વામી બની જાઉં - બની જાઉં છું , ત્યારે (मे गोसखा) મારો સહપાઠી - "વિદ્યામાં સમાન રહેનાર" (स्तोता स्यात्) તારી સ્તુતિ કરનારો બની જાય - બની જાય છે.
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્માની સ્તુતિ કરનાર જીવનમુક્ત ઉપાસક પરમાત્માના આનંદ આદિ ઐશ્વર્યથી યુક્ત છે , તેને જોઈ - દેખાદેખીથી સહપાઠી પણ પરમાત્માનો સ્તોતા બની જાય છે , એવો આસ્તિક ભાવનો પ્રચાર એક આદર્શ ઉપાસક દ્વારા થાય છે. (૮)
मराठी (1)
भावार्थ
जर मी जगदीश्वराप्रमाणे सत्य, अहिंसा, योग सिद्धी इत्यादी धनांचा स्वामी होईन तर सत्पात्रांना दिव्य धन देईन, जर मी आचार्याप्रमाणे विद्या-धनांचा स्वामी होईन तर शिष्यांना विविध विद्यांचे अध्यापन करीन, जर मी राजाप्रमाणे चांदी, सोने, गाय इत्यादी धनांचा स्वामी होईन तर निर्धनांना चांदी, सोने, गाय इत्यादी धन वितीर्ण करीन ॥१॥
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