Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1863
    ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः देवता - इषवः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    2

    अ꣡व꣢सृष्टा꣣ प꣡रा꣢ पत꣣ श꣡र꣢व्ये꣣ ब्र꣡ह्म꣢सꣳशिते । ग꣢च्छा꣣मि꣢त्रा꣣न्प्र꣡ प꣢द्यस्व꣣ मा꣢꣫मीषां꣣ कं꣢ च꣣ नो꣡च्छि꣢षः ॥१८६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡व꣢꣯ । सृ꣣ष्टा । प꣡रा꣢꣯ । प꣣त । श꣡र꣢꣯व्ये । ब्र꣡ह्म꣢꣯शꣳसिते । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । श꣣ꣳसिते । ग꣡च्छ꣢꣯ । अ꣣मि꣡त्रा꣢न् । अ꣣ । मि꣡त्रा꣢꣯न् । प्र । प꣣द्यस्व । मा꣢ । अ꣣मी꣡षा꣢म् । कम् । च꣣ । न꣢ । उत् । शि꣣षः ॥१८६३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसꣳशिते । गच्छामित्रान्प्र पद्यस्व मामीषां कं च नोच्छिषः ॥१८६३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अव । सृष्टा । परा । पत । शरव्ये । ब्रह्मशꣳसिते । ब्रह्म । शꣳसिते । गच्छ । अमित्रान् । अ । मित्रान् । प्र । पद्यस्व । मा । अमीषाम् । कम् । च । न । उत् । शिषः ॥१८६३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1863
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अपनी सेना को उद्बोधन देते हैं।

    पदार्थ

    हे (ब्रह्मसंशिते) धनुर्वेद के ज्ञाता सेनापति द्वारा तीक्ष्ण अर्थात् उत्साहित की हुई (शरव्ये) शस्त्रास्त्र चलाने में कुशल सेना ! (अवसृष्टा) प्रेरित की हुई तू (परापत) शत्रुओं पर टूट पड़। (गच्छ) जा, (अमित्रान्) शत्रुओं को (प्रपद्यस्व) प्राप्त कर। (अमीषाम्) इनके मध्य (कंचन) किसी को भी (न उच्छिषः) बचा न रहने दे ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे सेनापति से प्रेरित वीरों की सेना शत्रुओं को जीत लेती है, वैसे ही शरीर के अध्यक्ष जीवात्मा से प्रेरित सात्त्विक वीर भावों की सेना तामस दुर्भावों पर विजय पा लेती है। तामस भावों को निःशेष कर देना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि नाममात्र भी वे यदि बचे रहें, तो फिर बढ़ जाते हैं ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (ब्रह्मसंशिते शरव्ये) हे मन्त्र विचार से सिद्ध कामादि के हिंसन करने में समर्थ सङ्कल्पशक्ति! तू (अवसृष्टा) छोड़ी हुई—प्रयुक्त की हुई (परापत) दूर दूर तक जा (अमित्रान् गच्छ) काम आदि शत्रुओं को प्राप्त हो (प्रपद्यस्व) उन्हें दबा दे (अमीषां कञ्चन मा-उच्छिषः) उन काम आदि में से किसी को मत रहने दे॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—पूर्ववत्, भारद्वाजः पायुर्वा (पूर्ववत्)॥ देवता—इषुः (एषणा सङ्कल्पशक्तिः)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    लक्ष्यदृष्टि

    पदार्थ

    संसार में न फँसने व निरन्तर आगे और आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने सामने एक ध्येय–लक्ष्य रक्खे । लक्ष्य ओझल हुआ और मनुष्य भटका । यह लक्ष्य ही 'शरव्या' है । यह लक्ष्य बड़ा सोच-समझकर बनाया जाए - यह 'ब्रह्मसंशित' ज्ञान से तीव्र किया हुआ हो । मन्त्र में कहते हैं कि (ब्रह्मसंशिते) = ज्ञान से तीव्र (शरव्ये) = हे लक्ष्य ! तू (अवसृष्टा) =[अवसृज्=to make, to create] हमारे जीवनों में उत्पन्न होकर (परापत) = खूब दूर बढ़ चल । लक्ष्य के सदा सामने होने पर हमारी तीव्रगति व ‘शीघ्र प्रगति' क्यों न होगी? उन्नति का अभाव तो तभी तक था जब तक कोई लक्ष्य नहीं था। लक्ष्य का न होना व लक्ष्य का भूला हुआ होना दोनों एक ही परिणाम को पैदा करते हैं।

    - ‘हमारा लक्ष्य क्या हो ?' इसका थोड़ा-सा संकेत मन्त्र के उत्तरार्ध में इस प्रकार है कि (गच्छ) = तू जा (अमित्रान्) = स्नेह न करने की भावना को – ईर्ष्या - द्वेषादि की भावना को – [अमित्र दुर्हद ] - औरों से जलने की भावना को तू (प्रपद्यस्व) = विशेषरूप से आक्रान्त कर [पद गतौ, क्रम-गतौ] । (अमीषाम्) = इन द्वेषादि की निकृष्ट भावनाओं में से (कंचन) = किसी को (मा उच्छिष:) = शेष मत छोड़ । तू इन भावनाओं में से एक-एक को ढूँढकर समाप्त कर दे । जो मनुष्य प्रतिदिन आत्मालोचन करता है वह अपने अन्दर छिपे रूप में रहनेवाली इन बुरी भावनाओं को समाप्त करने में समर्थ होता है। 

    भावार्थ

    हमारा जीवन निरुद्देश्य न हो। हम दुर्हदता की भावना को समूल नष्ट कर दें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्वसेनामुद्बोधयति।

    पदार्थः

    हे (ब्रह्मशंसिते२) ब्रह्मणा धनुर्वेदविदा सेनापतिना तीक्ष्णीकृते (शरव्ये) शरेषु शस्त्रास्त्रचालनेषु साध्वि सेने३ ! (अवसृष्टा) प्रेरिता त्वम् (परा पत) शत्रूणामुरि आक्राम। (गच्छ) याहि, (अमित्रान्) शत्रून् (प्र पद्यस्व) प्राप्नुहि, (अमीषाम्) एषां मध्ये (कं चन) कमपि (न उच्छिषः) न अवशिष्टं परित्यज ॥३॥४

    भावार्थः

    यथा सेनापतिना प्रेरिता वीराणां सेना शत्रुविजयकरी जायते तथैव शरीराध्यक्षेण जीवात्मना प्रेषिता सात्त्विकानां वीरभावानां सेना तामसान् दुर्भावान् विजयते। तामसभावानां निःशेषकरणमेव श्रेयस्करं यतो नाममात्रमप्यवशिष्टास्ते पुनरपि वर्द्धन्ते ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    0 wife of the Commander-in-chief, expert in the art of archery, trained by a learned person knowing the Vedas, on persuasion, go afar, encounter the foes, achieve victory by slaying them. Let not even one of those distant foes be left alive!

    Translator Comment

    See Yajur 17-45.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    O sharpest and fastest of missiles, tempered and tested by the best of defence scientists, shot and released, fly far, reach the target and fall upon the enemies. Spare none of them whatsoever even at the farthest distance. (Rg. 6-75-16)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ब्रह्मसंशिते शरव्ये) હે મંત્ર-વિચારથી સિદ્ધ કામ આદિને મારવામાં સમર્થ સંકલ્પશક્તિ ! તું (अवसृष्टा) છોડવામાં આવેલી-પ્રયુક્ત કરેલી (परापत) દૂર-દૂર સુધી જા. (अमित्रान् गच्छ) કામ આદિ શત્રુની પાસે જા. (प्रपद्यस्व) તેને દબાવી દે. (अमीषां कञ्चन मा उच्छिषः) તે કામ આદિમાંથી કોઈને પણ ન રહેવા દે-દરેકને મારી નાખ. (૩)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी सेनापतीकडून प्रेरित झालेली वीरांची सेना शत्रूंना जिंकते, तसेच शरीराचा अध्यक्ष असलेल्या जीवात्म्याकडून प्रेरित झालेली सात्त्विक वीर भावयुक्त सेना तामस दुर्भावनांवर विजय प्राप्त करते. तामस भाव नि:शेष करणेच श्रेयस्कर आहे, कारण ते नाममात्रही राहिले तर पुन्हा वाढतात. ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top