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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 202
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
इ꣢न्द्रा꣣ नु꣢ पू꣣ष꣡णा꣢ व꣣य꣢ꣳ स꣣ख्या꣡य꣢ स्व꣣स्त꣡ये꣢ । हु꣣वे꣢म꣣ वा꣡ज꣢सातये ॥२०२॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯ । नु । पू꣣ष꣡णा꣢ । व꣣य꣢म् । स꣣ख्या꣡य꣢ । स꣣ । ख्या꣡य꣢꣯ । स्व꣣स्त꣡ये꣢ । सु꣣ । अस्त꣡ये꣢ । हु꣣वे꣡म꣢ । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये ॥२०२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रा नु पूषणा वयꣳ सख्याय स्वस्तये । हुवेम वाजसातये ॥२०२॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रा । नु । पूषणा । वयम् । सख्याय । स । ख्याय । स्वस्तये । सु । अस्तये । हुवेम । वाजसातये । वाज । सातये ॥२०२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 202
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि हम कल्याणार्थ किसे पुकारें।
पदार्थ
(वयम्) हम प्रजाजन (इन्द्रा-पूषणा) परमात्मा-जीवात्मा, प्राण-अपान, राजा-सेनापति, क्षत्रिय-वैश्य और विद्युत्-वायु को (नु) शीघ्र ही (सख्याय) मित्रता के लिए (स्वस्तये) अविनाश, उत्तम अस्तित्व एवं कल्याण के लिए, और (वाजसातये) अन्न, धन, बल, वेग, विज्ञान, प्राणशक्ति को प्राप्त करानेवाले आन्तरिक और बाह्य संग्राम में सफलता के लिए (हुवेम) पुकारें ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥
भावार्थ
मनुष्य के जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में मनोभूमि में और बाहर की भूमि पर संग्राम होते हैं। उनमें परमात्मा-जीवात्मा, प्राण-अपान, राजा-सेनापति, क्षत्रिय-वैश्य और विद्युत्-वायु की मित्रता का जो वरण करते हैं, वे विजयी होते हैं ॥९॥
पदार्थ
(इन्द्रा) इन्द्र—ऐश्वर्यवान् “सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेया॰” [अष्टा॰ ७.१.३९] ‘आकारः’ (नु) न केवल ऐश्वर्यवान् अपितु ‘नु वितर्के’ [अव्ययार्थनिबन्धनम्] (पूषणा) पोषणकर्ता परमात्मा को (वयम्) हम उपासक (सख्याय) सखापन—साथी मित्र बनाने के लिये (स्वस्तये) संसार में सु-अस्तित्व—उच्च जीवन लाभ के लिये—अभ्युदय के लिये (वाजसातये) आत्मबल सम्भागी होने के लिये निःश्रेयस अमृतसुख के लिए “अमृतो अन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] (हुवेम) अपने हृदय में आमन्त्रित करते—अर्चित करते हैं स्तुति में लाते हैं “ह्नयति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] “हुवेम ह्वयेम” [निरु॰ १०.२८]।
भावार्थ
सकल ऐश्वर्य वाले एवं पोषणकर्ता परमात्मा को अपना सखा बनाने के लिए—सखा बन जाने पर हमारी स्वस्ति संसार में अच्छा अस्तित्व-अभ्युदय और वाजसाति अमृत भोग प्राप्ति—निःश्रेयस प्राप्ति के लिये उसे आहूत—आमन्त्रित तथा अर्चित करते हैं स्तुति में लाते हैं॥९॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (आत्मबल को भरण धारण करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
'इन्द्रा- पूषणा' का स्मरण - भक्त की लक्षणत्रयी
पदार्थ
पिछले मन्त्र में वर्णित भक्त प्रभु को सदा दो ही रूपों में स्मरण करता है। वे प्रभु ‘इन्द्र हैं–परमैश्वर्यशाली हैं- ज्ञानधन से परिपूर्ण हैं | ज्ञानियों को भी ज्ञान देनेवाले होने से 'देव-सम्राट्' हैं। जहाँ सूर्यादि को प्रकाश देते हैं, वहाँ 'अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिराः' आदि ऋषियों के हृदय में भी ज्ञानसूर्य उदय होता है। प्रभु का दूसरा रूप ‘पूषन्' का है, वे प्रभु ही सब का पोषण करनेवाले हैं, अतः (वयम्) = हम सब (नु)=अब-कुछ समझदार बनने पर (इन्द्रापूषणा) = ज्ञानरूप परमैश्वर्य के कोश व शक्ति के भण्डार प्रभु को (हुवेम) = पुकारते हैं। इसलिए पुकारते हैं कि यह प्रभु-स्तुति हमारा लक्ष्य भी 'ज्ञान व शक्ति' ही बना दे। सदा ज्ञान व शक्ति की वृद्धि में लगे हुए हम (सख्याय) = उस प्रभु की मित्रता के लिए समर्थ हों। समान ख्यानवाला बनना इसलिए आवश्यक है कि ऐसा बने बिना हमारी उत्तम स्थिति व कल्याण सम्भव नहीं है, अतः (स्वस्तये)=सु अस्तये उत्तम जीवन के लिए हम प्रभु का 'इन्द्रापूषणा' शब्दों से स्मरण करते हैं। ज्ञान व शक्ति को बढ़ाकर अपने जीवन को उत्तम बनाते हैं। प्रभु का स्मरण मुझे अन्य व्यसनों से बचाकर शक्तिशाली बनाता है, अतः (वाजसातये) = शक्तिशाली बनने के लिए [वाज=शक्ति, साति= प्राप्ति] हम 'इन्द्रापूषणा', का स्मरण करते हैं । एवं, प्रभु स्मरण के तीन लाभ हैं—१. हमारे मस्तिष्क में ज्ञान - सूर्य का उदय होकर हमें प्रभु के समान ख्याति, प्रभु का सख्य प्राप्त होता है, २. हमारा जीवन सब व्यसनों से शून्य व मन वासनाशून्य होकर हमें ‘स्वस्ति'=उत्तम स्थिति प्राप्त होती है, ३. निर्व्यसनता हमारी शक्तियों को जीर्ण न होने देकर हमारे शरीरों को सबल बनाती है। हम बल-प्राप्ति के लिए समर्थ होते हैं।
भावार्थ
ज्ञानी भक्त का मस्तिष्क ज्ञानपूर्ण होता है, मन निर्व्यसन होकर उत्तम स्थितिवाला होता है तथा शरीर वर्चस्वी बन नीरोग होता है
पदार्थ
शब्दार्थ = ( वयम् ) = हम लोग ( वाजसातये ) = धन, अन्न और बल प्राप्ति के लिए और ( स्वस्तये ) = लोक परलोक में अपने कल्याण, के लिए ( सख्याय ) = प्रभु से मित्रता और उसकी अनुकूलता के लिए ( इन्द्रम् ) = परमैश्वर्ययुक्त ( न ) = और ( हुवेम ) = पालन-पोषण करनेवाले परमेश्वर की उपासना और सत्कार करें ।
भावार्थ
भावार्थ = हे सर्वपालक पोषक प्रभो ! जो श्रेष्ठ पुरुष आपकी उपासना और आपका ही सत्कार करते हैं, आप उनको धन, अन्न, आत्मिक बल कल्याण आदि सब-कुछ देते हैं । जो लोग आपसे विमुख होकर दुराचार में फँसे हैं, उनको न तो यहाँ शान्ति वा सुख प्राप्त होता है, और न मरकर । इसलिए हमें वेदों के अनुसार चलनेवाले सदाचारी, अपने भक्त बनाओ, जिससे धन, अन्न, बल और कल्याण सब-कुछ प्राप्त हो सके।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( इन्द्रा पूषणा ) = सर्वैश्वर्यसम्पन्न इन्द्र और सबके पालक पूषा परमात्मा को हम लोग अपने ( सख्याय ) = मित्रता, ( स्वस्तये ) = अपने कल्याण और ( वाजसातये ) = ज्ञान बल और अन्नादि सामर्थ्य प्राप्त करने के लिये ( हुवेम ) = प्रार्थना करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ स्वस्तये वयं कमाह्वयेमेत्याह।
पदार्थः
(वयम्) प्रजाजनाः (इन्द्रा-पूषणा) परमात्म-जीवात्मानौ, प्राणापानौ, नृपति-सेनापती, क्षत्रियवैश्यौ, विद्युद-वायू वा। द्वन्द्वसमासे देवता- द्वन्द्वे च। अ० ६।३।२६ इति पूर्वपदस्य आनङ्। मध्ये नु इत्यनेन व्यवधानं छान्दसम्। पूषणा इत्यत्र सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९ इति द्वितीयाद्विवचनस्य आकारः। (नु) क्षिप्रम् (सख्याय) मैत्रीभावाय, (स्वस्तये) अविनाशाय, अभिपूजिताय अस्तित्वाय, कल्याणाय वा। स्वस्तीत्यविनाशिनाम। अस्तिरभिपूजितः स्वस्ति। निरु० ३।२२। किञ्च (वाजसातये२) संग्रामाय, संग्रामे साफल्याय इत्यर्थः। वाजसातिरिति संग्रामनाम। निघं० २।१७। वाजानाम् अन्नधनबलवेगविज्ञानप्राणशक्त्या- त्मशक्त्यादीनां सातिः प्राप्तिः यस्मिन् स वाजसातिः संग्रामः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (हुवेम) आह्वयेम ॥९॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥
भावार्थः
मनुष्यस्य जीवने प्रतिक्षेत्रं मनोभूमौ बहिर्भूमौ च देवासुरसंग्रामा जायन्ते। तत्र परमात्म-जीवात्मनोः, प्राणापानयोः, नृपतिसेनापत्योः, क्षत्रियविशोः, विद्युद्वाय्वोश्च सख्यं ये वृण्वन्ति ते विजयिनो भवन्ति ॥९॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।५७।१, ऋषिः शंयुः बार्हस्पत्यः। देवते इन्द्रापूषणौ। २. वाजः अन्नम्, तस्य च सातये सम्भजनाय, तस्य लाभार्थमित्यर्थः—इति वि०। वाजस्य अन्नस्य बलस्य वा सातये सम्भजनाय—इति सा०। अन्नादीनां विभागो यस्मिंस्तस्मै—इति ऋग्भाष्ये द०। ३. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये परमैश्वर्ययुक्तस्य पोषकस्य च जनस्य सख्यविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
For friendship, prosperity and wealth of knowledge, we invoke the Omnipotent and Fostering God.
Meaning
We always invoke and call upon Indra, lord commander of power, honour and excellence, and Pusha, giver of nourishment energy and intelligence, for the sake of friendship and all round joy and well being and for the achievement of success and victory in the battles of life. (Rg. 6-57-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्रा) ઇન્દ્ર = ઐશ્વર્યવાન (नु) માત્ર ઐશ્વર્યવાન જ નહિ પરન્તુ (पूषणा) પોષણકર્તા પરમાત્માને (वयम्) અમે ઉપાસકો (सख्याय) સાથી મિત્ર બનાવવા માટે (स्वस्तये) સંસારમાં સુ-અસ્તિત્વ-શ્રેષ્ઠ જીવન લાભને માટે-અભ્યુદયને માટે (वाजसातये) આત્મબળ સંભાગી બનવા માટે નિઃશ્રેયસ અમૃત સુખને માટે (हुवेम) પોતાના હૃદયમાં આમંત્રિત કરતાં-અર્ચિત કરીએ છીએ, સ્તુતિમાં લાવીએ છીએ.
भावार्थ
ભાવાર્થ : સમસ્ત ઐશ્વર્યયુક્ત અને પોષણકર્તા પરમાત્માને પોતાના મિત્ર બનાવવા માટે-મિત્ર બની ગયા પછી અમારી સ્વસ્તિ-સંસારમાં શ્રેષ્ઠ અસ્તિત્વ-અભ્યુદય અને વાજસાતિ-અમૃતભોગ પ્રાપ્તિ અર્થાત્ નિઃશ્રેયસ પ્રાપ્તિને માટે તેને આહુત-આમંત્રિત તથા અર્ચિત કરીએ છીએ, સ્તુતિમાં લાવીએ છીએ. (૯)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہم پرمیشور کو کیوں بُلاتے ہیں؟
Lafzi Maana
(اِندرا پُوشنا) پرم ایشوریہ والے اور سب کو بَل شکتی دینے والے اِیشور کو (وئیم ہُوویم) ہم بُلاتے ہیں۔ (سکھائے سوستیئے) دوست بننے کے لئے اور سُکھی کرنے کے لئے یعنی وہ ہمارا مِتر بن کر ہم کو راحتیں دے، ساتھ ہی (واج ساتیئے) گیان، بَل، اَنّ، دھن وغیرہ اور آتمک بل کی پراپتی کے لئے بُلاتے ہیں، دوستی گانٹھتے ہیں۔
Tashree
دوستی سے اِندر کی سب دھن ملنے رُوحانیت، اِس لئے آہ وان کرتے ہیں سدا ہم اِیش کا۔
बंगाली (1)
পদার্থ
ইন্দ্রা নু পূষণা বয়ং সখ্যায় স্বস্তয়ে ।
হুবেম বাজসাতয়ে।।২১।।
(সাম ২০২)
পদার্থঃ (বয়ম্) আমরা মনুষ্যগণ (বাজসাতয়ে) ধন, অন্ন ও বল প্রাপ্তির জন্য, (স্বস্তয়ে) নিজেদের জাগতিক ও পারমার্থিক কল্যাণের জন্য, (সখ্যায়) পরমাত্মার মিত্রতা এবং তাঁর অনুকূলতা প্রাপ্তির জন্য (নু) শীঘ্রই (ইন্দ্রা) পরম ঐশ্বর্যযুক্ত (পুষণা হুবেম) সকলের পালন-পোষণকারী পরমেশ্বরের উপাসনা এবং সেবা করি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে সর্বপালক পোষক ঈশ্বর! যে ব্যক্তি তোমার উপাসনা করে এবং তোমারই সেবা করে, তুমি তাকে ধন, অন্ন, আত্মিক বল, কল্যাণ সহ সব কিছুই প্রদান করো। যে ব্যক্তি তোমার থেকে বিমুখ হয়ে দুরাচারে ব্যস্ত থাকে, তারা ইহজাগতিক বা পারমার্থিক কোন শান্তিই পায় না। এজন্য আমাদেরকে বেদ অনুসারী ও সদাচারী ভক্ত করো যাতে আমাদের ধন, অন্ন, বল এবং কল্যাণ সব কিছুই প্রাপ্তি হয়।।২১।।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांच्या जीवनात प्रत्येक क्षेत्रात मनोभूमीत व बाहेरच्या भूमीवर संग्राम होतात, त्यात परमात्मा-जीवात्मा-प्राण-अपान-राजा-सेनापती, क्षत्रिय-वैश्य व विद्युत-वायु यांची मैत्री करणाऱ्यांचे वरण करतात, ते विजयी होतात ॥९॥
विषय
आम्ही कल्याणासाठी कुणाला हाक द्यावी, पुढील मंत्रात हा विषय वर्णित आहे -
शब्दार्थ
(वयम्) आम्ही प्रजाजनांनी (सख्याय) मैत्रीसाठी तसेच (स्वस्तये) अविनाशी, उत्तम दशा व कल्याणासाठी (इन्द्रा पूषणा) परमात्मा - जीवात्मा, प्राण- अपान, राजा- सेनापती, क्षत्रिय वैश्य आणि विद्युत वायू या सर्वांना (योग्य व आवश्यक त्या त्या वेळी) (नु) अवश्यमेव हाक मारावी (व यांचे साहाय्य घ्यावे) तसेच (वाजसातये) अन्न, धन, शक्ती, वेग, विज्ञान, प्राणशक्ती आणि आत्मशक्ती प्राप्त करविणाऱ्या आंतरिक व बाह्य संग्रामामध्ये यशस्वी होण्याकरिता वर उल्लेखिलेल्या सर्वांना हाक मारावी व त्यांचे साहाय्य घ्यावे (हेच आमच्या हिताचे आहे.) ।। ९।।
भावार्थ
मानवीय जीवनात प्रत्येकाच्या मनात व बाह्य परिस्थितीत सतत युद्ध वा संघर्ष सुरू असतो. त्या संघर्षात जे लोक परमात्मा, जीवात्मा, प्राण, अपान, राजा, सेनापती, क्षत्रिय, वैश्य, विद्युत आणि वायूशी मैत्री करतात, तेच लोक विजय संपादन करतात. ।। ९।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. कारण की इथे ङ्गइन्द्रा- पूषणाफ या शब्दाचे एकाहून अधिक म्हणजे अनेक अर्थ आहेत. ।। ९।।
तमिल (1)
Word Meaning
(இந்திரனை) (பூஷணனை) (இந்திரன்) துரிதமாக நாங்கள் நட்பிற்கு பலமுடன் ஆவதற்கு அழைப்போம்.
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