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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 211
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
अ꣣पां꣡ फेने꣢꣯न꣣ न꣡मु꣢चेः꣣ शि꣡र꣢ इ꣣न्द्रो꣡द꣢वर्तयः । वि꣢श्वा꣣ य꣡दज꣢꣯य꣣ स्पृ꣡धः꣢ ॥२११॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣पा꣢म् । फे꣡ने꣢꣯न । न꣡मु꣢꣯चेः । न । मु꣣चेः । शि꣡रः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । उ꣢त् । अ꣣वर्तयः । वि꣡श्वाः꣢꣯ । यत् । अ꣡ज꣢꣯यः । स्पृ꣡धः꣢꣯ ॥२११॥
स्वर रहित मन्त्र
अपां फेनेन नमुचेः शिर इन्द्रोदवर्तयः । विश्वा यदजय स्पृधः ॥२११॥
स्वर रहित पद पाठ
अपाम् । फेनेन । नमुचेः । न । मुचेः । शिरः । इन्द्र । उत् । अवर्तयः । विश्वाः । यत् । अजयः । स्पृधः ॥२११॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 211
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा, जीवात्मा, वैद्य, राजा और सेनापति किस प्रकार नमुचि का संहार करते हैं।
पदार्थ
प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे (इन्द्र) परमात्मन् व जीवात्मन् ! तुम (अपां फेनेन) पानी के झाग के समान स्वच्छ सात्त्विक चित्त की तरङ्ग से (नमुचेः) न छोड़नेवाले, प्रत्युत दृढ़ता से अपना पैर जमा लेनेवाले पाप के(शिरः) सिर को अर्थात् ऊँचे उठे प्रभाव को (उदवर्तयः) पृथक् कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) सब (स्पृधः) पापरूप नमुचि के सहायक काम-क्रोध आदि शत्रुओं की स्पर्धाशील सेनाओं को (अजयः) जीतते हो ॥ द्वितीय—आयुर्वेद के पक्ष में।हे (इन्द्र) रोगविदारक वैद्य ! आप (अपां फेनेन) समुद्रफेन रूप औषध से (नमुचेः) शरीर को न छोड़नेवाले, दृढ़ता से जमे रोग के (शिरः) हानिकारक प्रभाव को (उदवर्तयः) उच्छिन्न कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) समस्त (स्पृधः) स्पर्धालु, रोग-सहचर वेदना, वमन, मूर्छा आदि उत्पातों को (अजयः) जीतते हो ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में।हे (इन्द्र) वीर राजन् ! आप (अपाम्) राष्ट्र में व्याप्त प्रजाओं के (फेनेन) कर-रूप से प्राप्त तथा चक्रवृद्धि ब्याज आदि से बढ़े हुए धन से (नमुचेः) राष्ट्र को न छोड़नेवाले, प्रत्युत राष्ट्र में व्याप्त होकर स्थित दुःख, दरिद्रता आदि के (शिरः) सिर को, उग्रता को (उदवर्तयः) उच्छिन्न कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) समस्त (स्पृधः) हिंसा, रक्तपात, लूट-पाट, ठगी, तस्कर-व्यापार आदि स्पर्धालु वैरियों को (अजयः) पराजित कर देते हो ॥ चतुर्थ—सेनापति के पक्ष में। हे (इन्द्र) सूर्यवत् विद्यमान शत्रुविदारक सेनापति ! आप (अपां फेनेन) जलों के झाग के समान उज्ज्वल शस्त्रास्त्र-समूह के द्वारा (नमुचेः) न छोड़नेवाले शत्रु के (शिरः) सिर को (उदवर्तयः) धड़ से अलग कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) सब (स्पृधः) स्पर्धा करनेवाली शत्रुसेनाओं को (अजयः) जीतते हो ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, उपमानोपमेयभाव ध्वनित हो रहा है ॥८॥
भावार्थ
जैसे कोई वैद्यराज समुद्रफेन औषध से रोग को नष्ट करता है, जैसे राजा प्रजा से कर-रूप में प्राप्त हुए धन से प्रजा के दुःखों को दूर करता है और जैसे सेनापति शस्त्रास्त्र-समूह से शत्रु का सिर काटता है, वैसे ही परमेश्वर और जीवात्मा मनुष्य के मन की सात्त्विक वृत्तियों से पाप को उन्मूलित करते हैं ॥८॥ यहाँ सायणाचार्य ने यह इतिहास प्रदर्शित किया है—पहले कभी इन्द्र असुरों को जीतकर भी नमुचि नामक असुर को पकड़ने में असमर्थ रहा। उल्टे नमुचि ने ही युद्ध करते हुए इन्द्र को पकड़ लिया। पकड़े हुए इन्द्र को नमुचि ने कहा कि तुझे मैं इस शर्त पर छोड़ सकता हूँ कि तू मुझे कभी न दिन में मारे, न रात में, न सूखे हथियार से मारे, न गीले हथियार से। जब इन्द्र ने यह शर्त मान ली तब नमुचि ने उसे छोड़ दिया। उससे छूटे हुए इन्द्र ने दिन-रात की सन्धि में झाग से उसका सिर काटा (क्योंकि दिन-रात की सन्धि न दिन कहलाती है, न रात, और झाग भी न सूखा होता है, न गीला)।’’ यह इतिहास दिखाकर सायण कहते हैं कि यही विषय इस ऋचा में प्रतिपादित है। विवरणकार माधव ने भी ऐसा ही इतिहास वर्णित किया है। असल में तो यह कल्पित कथानक है, सचमुच घटित कोई इतिहास नहीं है ॥८॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन्! तू (अपाम्) मेरे अन्दर अपनी व्यापन शक्तियों के “तद्यदब्रवीद् ब्रह्मआभिर्वा अहमिदं सर्वमाप्स्यामि यदिदं किञ्चेति तस्मादापोऽभवन्” [गो॰ पू॰ १.२] (फेनेन) हिण्डोर—निरन्तर प्रवृद्ध वर्तन से (नमुचेः) न छोड़ने वाले—संसार में बाँधने वाले पाप को “पाप्मा वै नमुचिः” [शत॰ १२.७.३.४] (शिरः) राग को, बन्धन का प्रधान कारण राग है कहा भी है “राग एव बन्धनं नान्यद् बन्धनमस्ति” (उदवर्तयः) उद्वतिर्त कर देता है—उखाड़ देता है—पृथक् कर देता है तथा (विश्वाः स्पृधः) सारी बाधक वृत्तियों को भी (यत् अजयः) जिससे जीत लेता—विनष्ट कर देता है।
भावार्थ
हे परमात्मन्! तू अपने उपासक के अन्दर अपनी व्यापन शक्तियों का ऐसा चक्र चलाता है जिससे संसार में बन्धन के कारण राग को उखाड़ फेंकता है और अन्य समस्त बाधक वृत्तियों को भी छिन्न भिन्न कर देता है॥८॥
विशेष
ऋषिः—गोषूक्त्यश्वसूक्तिनावृषी (इन्द्रियों की प्रशस्त उक्तियों वाला तथा मन की प्रशस्त उक्ति वाला)॥<br>
विषय
नमुचि-संहार
पदार्थ
इस मन्त्र के ऋषि ‘काण्वायन' अर्थात् कण्वों की बिरादरी के ‘गोषुक्ति और अश्वसूक्ति' हैं। जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ उत्तम कथन करनेवाली हैं। इसकी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से उत्तम ही व्यापार चलते हैं। इसने कण-कण करके उत्तमता का साधन किया है। 9
इस गोषुक्ति व अश्वसूक्ति पुरुष से प्रभु कहते हैं कि (इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता ऐश्वर्यशाली जीव! तूने (अपाम्) = कर्मों की (फेनेन)= [स्फायी वृद्धौ] वृद्धि के द्वारा (नमुचे:)=अहंकार के (शिरः) = सिर को (उदवर्तयः) = उलट डाला है। (यत्) = जबकि तूने (विश्वा स्पृधः) = अन्दर घुस आनेवाली और हमारा पराभव करने की इच्छावाली सब वृत्तियों को (अजय:) = जीत लिया है।
‘इन्द्र' नाम से जीव का सम्बोधन तभी होता है जब यह इन्द्रियों का विजेता बनकर वास्तविक ऐश्वर्य को पाता है। जब यह कर्मों में लगा रहता है तो वासनाओं का शिकार नहीं होता। सब वासनाओं को जीत लेने पर विजय के अहंकार की वृत्ति उत्पन्न हो जाती है, जो बड़ों-बड़ों का भी पीछा नहीं छोड़ती, जिसे Last infirmity of the noble कहा जाता है, यह उस ‘न-मुचि' अन्त तक पीछा न छोड़नेवाली अहंकार-वृत्ति के सिर को भी कुचल देता है । सौन्दर्य तो यही है कि सारी “ दैवी सम्पत्ति " होने पर 'नातिमानिता'=गर्व न हो। दैवी सम्पत्ति की यही तो चरम सीमा है। यह अभिमान की वृत्ति तभी कुचली जाती है जब हम निरन्तर कर्मों मे लगे रहें। वस्तुतः कर्मशीलता ही हमें इस वृत्ति से बचाकर विनीत बनाती है।
भावार्थ
कर्मतन्तु के विस्तार के द्वारा हम विनय को अंकुरित करें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( यत् ) = जब ( विश्वाः स्पृधः ) = अपने से स्पर्द्धा करने वाली सब तामस वृत्तियों को ( अजयः ) = विजय करले तब ( नमुचेः ) = कभी न पीछा छोड़ने वाले मृत्यु वा कर्मबन्धन का भी ( शिरः ) = शिर या आश्रय ( अपां फेनेन ) = ज्ञान और कर्मों के बल से अथवा प्राप्त पुरुषों के शुद्ध ज्ञानोपदेश से ( उद् अवर्त्तय: ) = काट डाल ।
टिप्पणी
२११ - स्फयायते वर्धते स फेनः । अपः इति प्रज्ञानाम, कर्मनाम च, नि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ ।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मा, जीवात्मा, भिषग्, राजा च कथं नमुचिं घ्नन्तीत्युच्यते।
पदार्थः
प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन् जीवात्मन् वा ! त्वम् (अपां फेनेन) जलफेनवत् स्वच्छेन सात्त्विकचित्ततरङ्गेण (नमुचेः) न मुञ्चति, किन्तु सुदृढं बध्नातीति नमुचिः पाप्मा तस्य। पाप्मा वै नमुचिः। श० १२।७।३।४। (शिरः) मूर्धानम्, मूर्धवदुन्नतं प्रभावम् (उदवर्त्तयः२) उच्छिनत्सि। उत् पूर्वो वृतु वर्तने णिजन्तः, लडर्थे लङ्। (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) पापाचरणस्य सहायभूताः कामक्रोधादिशत्रूणां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि। जि जये धातोः कालसामान्ये लङ् ॥ अथ द्वितीयः—आयुर्वेदपरः। हे (इन्द्र) रोगविदारक वैद्य३ ! त्वम् (अपां फेनेन) समुद्रफेनरूपेण भेषजेन (नमुचेः) शरीरे दृढमवस्थितस्य रोगस्य (शिरः) हिंसकं प्रभावम्। शृणाति हिनस्तीति शिरः, शॄ हिंसायाम् क्र्यादिः। (उदवर्तयः) उच्छिनत्सि, (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) रोगसहचराणां वेदनावमनमूर्च्छादीनामुत्पातानां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि ॥ अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। हे (इन्द्र) वीर राजन् ! त्वम् (अपां) राष्ट्रे व्याप्तानां प्रजानाम्, (फेनेन४) कररूपतया प्राप्तेन चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितेन धनेन। स्फायी वृद्धौ धातोः फेनमीनौ उ० ३।३ इति नक् प्रत्ययो धातोः फे आदेशश्च निपात्यते। (नमुचेः) राष्ट्रं न मुञ्चतः प्रत्युत व्याप्य स्थितस्य दुःखदारिद्र्यदुर्भिक्षमहारोगादेः (शिरः) मूर्धानम्, मूर्धोपलक्षितम् उग्रत्वम् (उदवर्तयः) उद् वर्तयसि उच्छिनत्सि, (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) हिंसारक्तपातलुण्ठनवञ्चनतस्करत्वादीनां वैरिणां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि पराभवसि ॥ अथ चतुर्थः—सेनाध्यक्षपरः। हे (इन्द्र) सूर्य इव वर्तमान शत्रुविदारक सेनेश ! त्वम् (अपां फेनेन) जलानां फेनवद् विद्यमानेन उज्ज्वलेन शस्त्रास्त्रसमूहेन (नमुचेः)आक्रमणं न मुञ्चतः शत्रोः (शिरः) मूर्धानम् (उदवर्तयः) कबन्धात् पृथक् करोषि, (यत्) यदा (विश्वाः) सर्वाः (स्पृधः) स्पर्धमानाः रिपुसेनाः (अजयः) पराजयसे ॥८॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः। उपमानोपमेयभावश्च ध्वन्यते ॥८॥
भावार्थः
यथा कश्चिद् वैद्यराजः अपां फेनेन भेषजेन रोगं हन्ति, यथा वा राजा प्रजायाः सकाशात् कररूपतया प्राप्तेन वर्धितेन च धनेन प्रजाया दुःखं दूरीकरोति, यथा वा सेनाध्यक्षः शस्त्रास्त्रजालेन शत्रोः शिरः कर्तयति, तथैव परमेश्वरो जीवात्मा वा मनुष्यस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिभिः पाप्मानमुच्छिनत्ति ॥८॥ अत्र सायणाचार्य इममितिहासं प्रदर्शयति—“पुराकिलेन्द्रोऽसुरान् जित्वा नमुचिमसुरं ग्रहीतुं न शशाक। स च युध्यमानस्तेनासुरेण जगृहे। स च गृहीतमिन्द्रमेवमवोचत् त्वां विसृजामि रात्रावह्नि च शुष्केणार्द्रेण चायुधेन यदि मां मा हिंसीरिति। स इन्द्रस्तेन विसृष्टः सन् अहोरात्रयोः सन्धौ शुष्कार्द्रविलक्षणेन फेनेन तस्य शिरश्चिच्छेद। अयमर्थोऽस्यां प्रतिपाद्यते” इति। विवरणकारेणापि तादृश एवेतिहासो वर्णितः। वस्तुतस्तु कल्पितं कथानकमेतन्न सत्यमेव घटितः कश्चिदितिहास इति बोध्यम् ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।१४।१३, य० १९।७१, ऋषिः शङ्खः। अथ० २०।२९।३। २. उदवर्तयः उद्वर्तितवान् छिन्नवानित्यर्थः—इति वि०। उद्वर्तनं विशरणम्—इति भ०। शरीरादुद्गतमवर्तयः अच्छैत्सीरित्यर्थः—इति सा०। ३. (इन्द्र) आयुर्वेदविद्यायुक्त इति ऋ० २।११।११ भाष्ये द०। ४. (फेनम्) चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितं धनम् इति ऋ० १।१०४।३ भाष्ये द०। ५. दयानन्दर्षिर्यजुर्भाष्ये मन्त्रमेतम् अथ सेनेशः कीदृशः स्यादिति विषये व्याचष्टे। यथा सूर्यो मेघम् उच्छिनत्ति तथा सेनेशः सर्वाः शत्रुसेना उच्छिन्द्यादिति तदीयः—अभिप्रायः।
इंग्लिश (2)
Meaning
G soul. when thou overcomest all evil propensities, cut thou asunder the head of Death through the force of contemplation and action !
Translator Comment
Griffith describes Namuchi as one of the numerous demons of draught conquered by Indra. Namuchi means death which follows us and doesn’t release the soul till the end. Some commentators have interpreted the word as ‘cloud’ which does not easily release water. Cutting the head of death means becoming free from the fear of death.
Meaning
When you fight out the adversaries of life and humanity, you crush the head of the demon of drought and famine with the sea mist and the cloud. (Rg. 8-14-13)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! તું (अपाम्) મારી અંદર તારી વ્યાપન શક્તિઓને (फेनेन) જે નિરંતર પ્રવૃદ્ધ વર્તનથી (नमुचेः) ન છોડનાર-સંસારમાં બાંધનાર પાપને (शिरः) રાગને, બંધનનુ પ્રધાન કારણ રાગમમતા છે, તેને (उदवर्तयः) ઉદ્વર્તિત કરી નાખે છે-ઉખાડી દે છે-પૃથક કરી નાખે છે તથા (विश्वाः स्पृधः) સંપૂર્ણ બાધક વૃત્તિઓને પણ (यत् अजयः) જેથી જીતી લઈને-વિનિષ્ટ કરી નાખે છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું પોતાના ઉપાસકોની અંદર તારી વ્યાપન શક્તિઓનું એવું ચક્ર ચલાવે છે કે, જેનાથી સંસારમાં બંધનનું કારણ રાગને ઉખેડીને ફેંકી દે છે અને અન્ય સમસ્ત બાધક વૃત્તિઓને પણ છિન્ન-ભિન્ન કરી નાખે છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
موت اور زندگی کا جال!
Lafzi Maana
ہے پرمیشور! آپ کی نوازش سے ہی عابد کے گناہوں کا خاردار راستہ بُغض اور حسد سے بھری ہوئی زندگی فتح ہو گئی۔ اب تو آپ کی بخشش سے ہی علم معرفت اور اُتم کرموں سے فطرت ادنےٰ (تموگن پرکرتی) اور موت اور زندگی کا جال بھی کٹ جائے۔
Tashree
زندگی آلودہ عصیاں سے ہوئی تھی پامال، آپ کی ذرّہ نوازی سے ہوئی ہے باکمال۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा एखादा वैद्य समुद्रफेन या औषधाने रोग नष्ट करतो, जसा राजा प्रजेकडून कररूपाने प्राप्त झालेल्या धनाने प्रजेचे दु:ख दूर करतो व जसे सेनापती शस्त्रास्त्र-समूहाने शत्रूचे मस्तक छाटतो, तसेच परमेश्वर व जीवात्मा मानवी मनाच्या सात्त्विक वृत्तीने पाप उन्मूलित करतात. ॥८॥ येथे सायणाचार्याने हा इतिहास प्रदर्शित केलेला आहे- प्रथम इंद्र असुरांना जिंकून ही नमुचि नामक असुराला पकडण्यात असमर्थ होता. उलट नमुचिनेच युद्ध करत इंद्राला पकडले पकडलेल्या इंद्राला नमुचिने म्हटले की, तुला मी एका शर्तीवर सोडू शकतो, की तू मला कधी दिवसा मारू नये किंवा रात्री मारू नये. शुष्क कोरड्या शस्त्राने मारू नये किंवा ओलसर शस्त्राने मारू नये. जेव्हा इंद्राने ही अट कबूल केली तेव्हा नमूचिने त्याची सुटका केली. सुटका झाल्यावर इंद्राने दिवस व रात्रीच्या संध्याकाळी फेसाद्वारे त्याचे मस्तक उडविले (कारण दिवस व रात्रीच्या संध्याकाळाला दिवस किंवा रात्र म्हणता येत नाही व फेस हा कोरडा नसतो किंवा ओला नसतो) हा इतिहास दर्शवून सायण म्हणतो की हाच विषय या ऋचेमध्ये प्रतिपादित आहे. वास्तविक हे कल्पित कथानक आहे, खरोखर घडलेला इतिहास नाही. ॥८॥
विषय
‘नमुचि - संहार’ - परमेश्वर, जीवात्मा, वैध, राजा आणि सेनाध्यक्ष यांद्वारे -
शब्दार्थ
(प्रथम अध्यात्मपर) हे (इन्द्र) परमेश्वर अथवा हे जीवात्मा (अपां फेनेन) पाण्याच्या फेसाप्रमाणे स्वच्छ सात्त्विक तरंगाद्वारे देखील (नमुचेः) न सुटणारे किंबहुना चित्तावर अधिकच दृढतेचे आपली सत्ता बसविणाऱ्या पापभावनेच्या (शिरः) मस्तकाला अर्थात पापाच्या मोठ्या आक्रमणाला (उदवर्तायः) तुम्ही दूर करता वा त्यास परावर्तित करता (तुम्ही पापनाशक आहात) तुम्ही (यत्) जेव्हा तसे करता, तेव्हा (विश्वाः) सर्व (स्पृधः) पापरूप नमुचिचे सहाय्यक असलेल्या काम, क्रोध आदी शत्रूंचे सैन्य (अजयः) जिंकून घेता (आमच्या हृदयातील षड्रिपूनां निस्सन्देह नष्ट करण्याचे सामर्थ्य तुमच्याजवळ आहे.) ।। द्वितीय अर्थ - (आयुर्वेदपर) - हे (इन्द्र) रोगनिवारक वैद्यराज, तुम्ही (अपां फेनेन) समुद्र फेस रूप औषदाद्वारे (नमुचेः) शरीराला न सोडणाऱ्या असाध्यप्राय रोगांच्या (शिरः) हानिकर प्रभावाला (उदवर्तायः) उच्छिन्न करता. (यत्) त्या वेळी तुम्ही जे कार्य करता, त्याद्वारे (विश्वाः) समस्त (स्पृधः) स्पर्धा करणाऱ्या रोगाची वृद्धी करणारे जे वेदना, वमन मूर्च्छा आदी सहाय्यक आहेत, त्यांना (अजयः) तुम्ही जिंकून घेता (रोग्याला निरोगी करता)।। तृतीय अर्थ - (राजापर) - हे (इन्द्र) वीर राजा, आपण (अपां) राष्ट्रात व्यात (फेनेन) कररूपाने प्राप्त आणि चक्रवृद्धी व्याजाद्वारे अर्जित धनाद्वारे (नमुचेः) राष्ट्राला न सोडणारे अथवा राष्ट्रात व्याप्त होऊन अधिकच त्रास देणाऱ्या दुःख, दारिद्रय आदींच्या (शिरः) मस्तकाला म्हणजे अग्रतेला (उदवर्तयः) विच्छिन्न करता, असे करताना आपण (यत्) जे (विश्वाः) सर्व (स्पृधः) स्पर्धा करणारे शत्रुसैन्य आहे, त्याला तुम्ही (अजयः) जिंकून घेता.।। चतुर्थ अर्थ - (सेनाध्यक्षपर) हे (इन्द्र) सूर्याप्रमाणे तेजस्वी, शत्रुविदारक सेनापती, आपण (अपां फेनेन) पाण्याच्या फेसाप्रमाणे उज्ज्वळ अशा अस्त्र- शस्त्राद्वारे (नमुचेः) वीराचा कायम पाठलाग करणाऱ्या शत्रूचे (शिरः) मस्तक (उदवर्तयः) धडापासून वेगळे करता. (यत्) तेव्हा (विश्वाः) सर्व (स्पृधः) स्पर्धा वा विरोध करणाऱ्या सर्व शत्रूसैन्यांवर तुम्ही (अजयः) विजय मिळविता.।। ८।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे एक वैध समुद्र फेन (प्रवाळ) आदी औषधींद्वारे रोग नष्ट करतो, जसा एक राजा प्रजेकडून प्राप्त होणऱ्या कर रूप धनाने प्रजेचे दुःख हरण करतो, जसा एक सेनापती शस्त्रास्त्राद्वारे शत्रूचा शिरच्छेद करतो, त्याचप्रमाणे परमेश्वर आणि जीवात्मा मनुष्याच्या मनातील पापभावना सात्त्विक वृत्तीच्या उदयाद्वारे दूर करतो वा उन्मूलित करतो.।। ८।। सायणाचार्याने मात्र या मंत्रात इतिहास दाखविला आहे. तो असा - केव्हा एके काळी इंद्राने अनेक असुरांचा वध केला, पण नमुचि नावाच्या राक्षसाचा वध करणे त्याला शक्य झाले नाही. उलट इंद्रच नमुचीच्या तावडीत सापडला. नमुचीने युद्धात इंद्राला बंदी केले. नमुचि बंदीवान असलेल्या इंद्राला म्हणाला, ‘मी तुला एका अटीवर मुक्त करू शकतो. ती अट अशी की तू दिवसा माझा वध करू नकोस आणि रात्री पण नको. तू मला कोरड्या शस्त्राने मारायचे नाही तसे ओल्या शस्त्रानेही ठार मारायचे नाही.’ इंद्राने नमुचीची अट मान्य केल्यानंतर नमुचीने इंद्रास मुक्त केले. मुक्त झालेल्या इंद्राने नंतर दिवस - रात्रीच्या संधिकाळात पाण्याच्या फेसाने त्याचे मस्तक भग्न केले (दिवस- रात्री चा संधिकाळ म्हणजे दिवसही नसतो व रात्रही नाही. तसेच फेस कोरडा नाही तसे ओलाही नसतो) अशा प्रकारे मंत्रात इतिहास दाखवून सामण म्हणतात की या ऋचेत हाच विषय प्रतिपादित आहे. विवरणकार माधव यानेही सा इतिहास या मंत्रात असल्याचे म्हटले आहे. वास्तव असे की असे कथानक निव्वळ कल्पित असून हा काही खरेच घडलेला प्रसंग व ऐतिहासिक घटना नाही.।।८।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. याशिवाय या मंत्रात उपमान उपमेद भावदेखील ध्वनित होत आहे.।। ८।।
तमिल (1)
Word Meaning
எல்லா சத்துருக்களை நீ ஜயித்த பொழுது இந்திரனே [1] (நமூசியின்) தலையை சலநுரையால் சேதனஞ் செய்கிறாய்.
FootNotes
[1] நமூசியின் - அரக்கன் பிடிவாதமுள்ளவன்.
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