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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 225
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    5

    उ꣣क्थं꣢ च꣣ न꣢ श꣣स्य꣡मा꣢नं꣣ ना꣡गो꣢ र꣣यि꣡रा चि꣢꣯केत । न꣡ गा꣢य꣣त्रं꣢ गी꣣य꣡मा꣢नम् ॥२२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣣क्थ꣢म् । च꣣ । न꣢ । श꣣स्य꣡मा꣢नम् । न । अ꣡गोः꣢꣯ । अ । गोः꣣ । रयिः꣢ । आ । चि꣣केत । न꣢ । गा꣣यत्रम् । गी꣣य꣡मा꣢नम् ॥२२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्थं च न शस्यमानं नागो रयिरा चिकेत । न गायत्रं गीयमानम् ॥२२५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उक्थम् । च । न । शस्यमानम् । न । अगोः । अ । गोः । रयिः । आ । चिकेत । न । गायत्रम् । गीयमानम् ॥२२५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 225
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह बताते हैं कि किसका किया हुआ भी कार्य व्यर्थ होता है।

    पदार्थ

    (अगोः) अश्रद्धालु जन का (न) न तो (शस्यमानम्) उच्चारण किया जाता हुआ (उक्थम् च) स्तोत्र ही, (न) न ही (रयिः) दान किया जाता हुआ धन, (न) न ही (गीयमानम्) गान किया जाता हुआ (गायत्रम्) सामगान (आ चिकेत) कभी किसी से जाना गया है। अतः श्रद्धापूर्वक ही परमेश्वर-विषयक-स्तुति आदि कर्म करना चाहिए ॥३॥ इस मन्त्र में स्तोत्रोच्चारण, गायत्रगान आदि के कारण के होने पर भी उनके ज्ञान-रूप कार्य की अनुत्पत्ति वर्णित होने से विशेषोक्ति अलङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    श्रद्धा-रहित मनुष्य का उच्चारण किया गया भी स्तोत्र अनुच्चारित के समान होता है, दिया हुआ भी दान न दिये हुए के समान होता है और गाया हुआ भी सामगान न गाये हुए के समान होता है। इसलिए श्रद्धा के साथ ही सब शुभ कर्म सम्पादित करने चाहिएँ ॥३॥

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    पदार्थ

    (अगोः) “गौः स्तोता” [निघं॰ ३.१६] ‘अगोः-अस्तोता तद्विरुद्धो नास्तिकः’ नास्तिक जन के (न-उक्थम्) न प्रार्थनावचन को (च) और (न शस्यमानम्) न स्तुतिवचन को (न गीयमानं गायत्रम्) न गाने योग्य उपासना को (रयिः) ‘रयिमान्’ ऐश्वर्यवान् इन्द्र—परमात्मा “मतुब्लोपश्छान्दसः” (आचिकेत) मानता है—स्वीकार करता है।

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान् परमात्मा अपने विरोधी नास्तिक की दम्भ या प्रदर्शन या भय या लोभ से—की गई प्रार्थना, स्तुति, उपासना को कभी स्वीकार नहीं करता, वह परमात्मा के ऐश्वर्यस्वरूप का लाभ नहीं उठा सकता है॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिः प्रियमेधा च (मेधा से गमन करने वाला तथा प्रिय है मेधा सङ्गमनीय परमात्मा जिसको ऐसा उपासक)॥<br>

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    विषय

    अगोरयि न बनें

    पदार्थ

    के गुण-धर्मों का वर्णन करना है। प्रकृति के पदार्थों का वर्णन करती हुई ये ऋचाएँ जब उन प्राकृतिक पदार्थों में प्रभु के माहात्म्य का दर्शन करने लगती हैं तब ये 'उक्थ' कहलाती हैं। प्रस्तुत मन्त्र में शंस का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, परन्तु 'शस्यमानं' क्रिया के द्वारा उसका संकेत हो रहा है। यजु-मन्त्र जीवों के कर्त्तव्यों का मुख्यरूप से वर्णन करते हैं, परन्तु उन कर्त्तव्यों के अन्दर भी जब हम जीवों की परस्पर सम्बद्धता [Interlinking ] देखते हैं तो प्रभु का अद्भुत रचना-कौशल हमें प्रभु की ओर प्रेरित करता है और ये यजुर्मन्त्र 'शंस' = प्रभु की महिमा का शंसन करनेवाले हो जाते हैं।

    साम के मन्त्र उपासनापरक हैं। जब जीव भक्ति के उत्कर्ष में उनका गायन करने लगता है तो वे 'गायत्र' कहलाते हैं। गायन करनेवाले का ये त्राण करते हैं।

    इन (उक्थम्) = उक्थों को और (शस्यमानम्) = शंसों को (चन)= भी (अगोरयिः) = जो ज्ञान-धन से रहित है वह (न अचिकेत) = नहीं समझता है। उक्थों व शंसों के द्वारा स्तवन ज्ञानी ही कर पाता है। अज्ञानी ने पदार्थों की रचना में कर्ता की कुशलता को क्या देखना? और जीवों की परस्पर सम्बद्धता के सौन्दर्य को भी क्या समझना?

    यह अगोरयि (गीयमानम्) = गाये जाते हुए (गायत्रम्) = गायत्र को भी (न अचिकेत) = नहीं समझता है। ज्ञानी पुरुष ही प्रभु की सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, दयालुता आदि गुणों के प्रकर्ष से प्रभावित हो प्रभु की महिमा का गायन करता है।

    हम भी ‘गोरयि' = ज्ञान के धनवाले बनकर प्रभु के उक्थों, शंसों व गायत्रों का उच्चारण करें, जिससे वे हमारे वर्धन का कारण बनें ।

    यह ज्ञानी सदा ज्ञान के मार्ग पर चलता हुआ कण-कण का संचय करके ही तो ऐसा बना है, अतः [मेधाम् अतति] 'मेधातिथि काण्व' है। ज्ञान व बुद्धि का प्यारा होने से यह ‘प्रियमेध' है। व्यसनों में न फँसने के कारण ‘आङ्गिरस' है।

    भावार्थ

    हम ज्ञानधनी बनकर प्रभु के ज्ञानी भक्त बनें।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( अयि: ) = सर्वव्यापक परमेश्वर ( अगो: ) = इन्द्रिय या वाणी रहित अज्ञानि  का ( शस्यमानं ) = पड़े हुए ( उक्थं चन ) = स्तुतिपाठ का भी ( न आचिकेत ) = क्या नहीं जानता ? और क्या ( गीयमानं ) = गाये गये ( गायत्रं ) = गायत्र साम को भी नहीं जानता ? जानता ही है वह उसको भी स्वीकार करता ही । 

    टिप्पणी

     २२५-'मगोररिराचिकेत ' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - मेधातिथिः प्रियमेधा 

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    कस्य कृतमपि कार्यं वृथैव भवतीत्याह।

    पदार्थः

    (अगोः२) अस्तोतुः अश्रद्दधानस्य जनस्य। गायतीति गौः वेदपाठी स्तोता। गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६। यो गायन्नपि श्रद्दधानेन मनसा न गायति सः अगौरित्युच्यते तस्य। (न) नैव (शस्यमानम्) उदीर्यमाणम् (उक्थम् च) स्तोत्रं हि (न) नैव (रयिः३) दीयमानं धनम्, (न) नैव च (गीयमानम्) गानविषयीक्रियमाणम् (गायत्रम्) गायत्रनामकं साम (आचिकेत) आचिकिते, कदापि अवबुद्धं केनचित्। कित ज्ञाने लिट्, कर्मणि परस्मैपदं छान्दसम्। अतः श्रद्धयैव इन्द्रस्तुत्यादिकं कर्म करणीयमिति भावः ॥३॥ अत्र उक्थशंसनगायत्रगानादिरूपे कारणे सत्यपि तज्ज्ञानरूपकार्यानुत्पत्तिवर्णनाद् विशेषोक्तिरलङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    श्रद्धाविहीनस्य जनस्य शस्तमपि स्तोत्रमशस्तमिव भवति, दत्तमपि धनमदत्तमिव भवति, गीतमपि च सामगानमगीतमिव भवति। अतः श्रद्धयैव सर्वाणि शुभकार्याणि सम्पाद्यानि ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।२।१४ ‘शस्यमानमगोररिराचिकेत’ इति पाठः। २. नागोः। कुङ् गुङ् अव्यक्ते शब्दे। गुः अव्यक्तभाषी। न गुः अगुः व्यक्तभाषी। न अगुः न व्यक्तभाषी नागुः। तस्य नागोः अव्यक्तभाषिण इत्यर्थः—इति वि०। अगोः गौरहितस्य गोभिः हीनस्य अदक्षिणस्य यजमानस्य—इति भ०। अगोः अस्तोतुः—इति सा०। ३. सायणस्तु ‘अगोः अयिः’ इति विच्छिद्य ‘अयिः अरिः’ व्यत्ययेन यकारः, इति व्याचष्टे। तत्तु पदकारविरुद्धत्वात् चिन्त्यम्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Doesn’t God know the prayer offered by an ignorant person. Doesn’t He know the recitation of the Gayatra Sama. He does know.

    Translator Comment

    Gayatra Sama is a part of the Samaveda.

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    Meaning

    Indra, lord of power and piety, the man dedicated to divinity in faith and opposed to doubt and disloyalty knows the words of praise spoken by a man of doubtful faith as much as he knows the songs of adoration sung by a man of faith (and makes a distinction between the two). (Rg. 8-2-14)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अगोः) નાસ્તિક જનના (न उक्थम्) ન પ્રાર્થના વચનને (च) અને (न शस्यमानम्) ન સ્તુતિ વચનને (न गीयमानं गायत्रम्) ન ગાવા યોગ્ય ઉપાસનાને (रयिः) ઐશ્વર્યવાન ઇન્દ્ર-પરમાત્મા (आचिकेत) માને છે-સ્વીકાર કરે છે. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા પોતાના વિરોધી નાસ્તિકના દંભ, પ્રદર્શન-દેખાવની, ભય અથવા લોભ વગેરે દ્વારા કરવામાં આવેલી પ્રાર્થના, સ્તુતિ, ઉપાસનાનો કદીપણ સ્વીકાર કરતો નથી. તે-નાસ્તિક પરમાત્માના ઐશ્વર્ય સ્વરૂપનો લાભ ઉઠાવી શકતો નથી. - પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    عقیدت سے خالی تعریف کو وہ نہیں سُنتا

    Lafzi Maana

    (اگوہ شسیہ مانم اُکتھم) عقیدت یا شردھا سے رہت محض تعریفی کلمات یا بناوٹی حمد و ثنا یا وید سُوکتوں کے پڑھنے پر بھی (چن آئی نہ چکیت) وہ سب کچھ جاننے والا اِیشور دھیا نہیں دیتا اور (نہ گی یہ مانم گائیتم) نہ شردھا پریم سے مبّرا سام گان پر بھی۔

    Tashree

    شردھا بھگتی پریم سے گائے ہیں اِیشور کو جو، ایسی لفاظیم حض گفتار کو سُنتا نہ وہ۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    श्रद्धा-रहित माणसाचे उच्चारण केले गेलेले स्तोत्र अनुच्चारिताप्रमाणे असते. दिले गेलेले दानही न दिल्याप्रमाणे असते व गायन केलेले गानही सामगान न गायल्याप्रमाणे असते. त्यासाठी श्रद्धेबरोबरच शुभ कर्म संपादित केले पाहिजे ॥३॥

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    विषय

    कोणाचे कार्य अयशस्वी होते

    शब्दार्थ

    (अगोः) अश्रद्ध मनुष्याचद्वारे (शस्यमानम्) उच्चारलेले (उक्थम्) स्तोत्र (न) कोणाद्वारेही (स्वीकृत) होत नाही, एवढेच नव्हे तर त्याने दिलेले (रयिः) दानदेखील (न) कोणी (विवेकी मनुष्य) स्वीकृत करीत नाही. याही पुढे असे की श्रद्धाहीन माणसाने (गीयमानम्) गायिलेले (गायत्रम्) सामगान देखील (आ चिकेत) कोणी स्वीकार करीत नाही म्हणजे त्या गानाला व्यर्थ जाणून त्याची दखलदेखील घेत नाही. म्हणून परमेश्वराची स्तुती, उपासना आदी कार्ये श्रद्धेने केली पाहिजेत.।।३।।

    भावार्थ

    श्रद्धेविना उच्चारित स्तोत्र जणू काय अनुच्चारितच राहते. त्याने दिलेले दानदेखील न दिलेल्याप्रमाणे होते आणि सामगान गायिले तरीही ते गान न गायिल्याप्रमाणे आहे, असे समजावे. म्हणून स्तोत्र-पाठ, दान, गायन आदी कर्मे सदैव श्रद्धेने केली पाहिजेत.।।३।।

    विशेष

    या मंत्रात स्तोत्र उच्चारण, गायत्रगान आदी असल्यानंतर ही म्हणजे कारण उपस्थित झाल्यानंतर देखील कार्य म्हणजे ज्ञानाची उत्पत्ती होत नाही. त्यामुळे येथे विशेषोक्ती अलंकार आहे.।।३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    தோத்திரஞ் செய்யாதவர்களுடைய ஐசுவரியம் சிறந்த ஆயுதங்களை அறிவதில்லை. கானஞ்செய்யும் சாமனையும் அறிவதில்லை.

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