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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 244
    ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    य꣢ ऋ꣣ते꣡ चि꣢द꣣भिश्रि꣡षः꣢ पु꣣रा꣢ ज꣣त्रु꣡भ्य꣢ आ꣣तृ꣡दः꣢ । स꣡न्धा꣢ता स꣣न्धिं꣢ म꣣घ꣡वा꣢ पुरू꣣व꣢सु꣣र्नि꣡ष्क꣢र्ता꣣ वि꣡ह्रु꣢तं꣣ पु꣡नः꣢ ॥२४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः꣢ । ऋ꣣ते꣢ । चि꣣त् । अभिश्रि꣡षः꣢ । अ꣣भि । श्रि꣡षः꣢꣯ । पु꣣रा꣢ । ज꣣त्रु꣡भ्यः꣢ । आ꣣तृ꣡दः꣢ । आ꣣ । तृ꣡दः꣢꣯ । स꣡न्धा꣢꣯ता । स꣣म् । धा꣣ता । सन्धि꣢म् । स꣣म् । धि꣢म् । म꣣घ꣡वा꣢ । पु꣣रूव꣡सुः꣢ । पु꣣रु । व꣡सुः꣢꣯ । नि꣡ष्क꣢꣯र्ता । निः । क꣣र्त्ता । वि꣡ह्रु꣢꣯तम् । वि । ह्रु꣣तम् । पु꣢नरि꣡ति꣢ ॥२४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः । सन्धाता सन्धिं मघवा पुरूवसुर्निष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥२४४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ऋते । चित् । अभिश्रिषः । अभि । श्रिषः । पुरा । जत्रुभ्यः । आतृदः । आ । तृदः । सन्धाता । सम् । धाता । सन्धिम् । सम् । धिम् । मघवा । पुरूवसुः । पुरु । वसुः । निष्कर्ता । निः । कर्त्ता । विह्रुतम् । वि । ह्रुतम् । पुनरिति ॥२४४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 244
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा, जीवात्मा, प्राण और शल्यचिकित्सक का कर्तृत्व वर्णित है।

    पदार्थ

    (यः) जो (अभिश्रिषः) जोड़नेवाले पदार्थ गोंद, सरेस, प्लास्टर आदि के (ऋते चित्) बिना ही (जत्रुभ्यः) गर्दन की हड्डियों पर से (आतृदः) गले के कटने से (पुरा) पहले ही (सन्धिम्) जोड़ने योग्य अवयव को (सन्धाता) जोड़ देता है, अर्थात् शस्त्र आदि से गले के एक भाग के कट जाने पर भी कटे हुए भाग को प्राकृतिक रूप से भरकर पुनः स्वस्थ कर देता है, जिससे सिर कटकर गिरता नहीं, वह (पुरूवसुः) बहुत से शरीरावयवों को यथास्थान बसानेवाला (मघवा) चिकित्सा-विज्ञानरूप धन का धनी परमेश्वर, जीवात्मा, प्राण वा शल्य-चिकित्सक (विह्रुतम्) टेढ़े हुए भी अङ्ग को (पुनः) फिर से (निष्कर्ता) ठीक कर देता है ॥२॥ इस मन्त्र में जोड़नेवाले द्रव्य रूप कारण के बिना ही जोड़ने रूप कार्य की उत्पत्ति का वर्णन होने से विभावना अलङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    अहो, परमेश्वर की कैसी शरीर-रचना की चतुरता है ! यदि वह जोड़नेवाले द्रव्य गोंद आदि के बिना ही बीच में जोड़ लगाकर सिर को धड़ के साथ दृढ़तापूर्वक जोड़ न देता तो कभी भी कहीं भी सिर धड़ से अलग होकर गिर जाता। यह भी परमेश्वर का ही कर्तृत्व है कि शरीर का कोई भी अङ्ग यदि घायल या टेढ़ा हो जाता है तो जीवात्मा और प्राण की सहायता से तथा शरीर की स्वाभाविक क्रिया से फिर घाव भर जाता है और टेढ़ा अङ्ग सीधा हो जाता है। कुशल शल्य-चिकित्सक भी इस कर्म में परमेश्वर का अनुकरण करता है। युद्ध में यदि शत्रु के शस्त्र-प्रहार से किसी योद्धा का गले का एक भाग कट जाता है तो वह कटेभाग को सुई से सीकर और ओषधि का लेप करके पुनः स्वस्थ कर देता है। दुर्घटना आदि से यदि किसी का अङ्ग विकृत या टेढ़ा हो जाता है तो उसे भी वह उचित उपायों से ठीक कर देता है ॥२॥

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    पदार्थ

    पदार्थ—(यः—पुरूवसुः-मघवा) जो सबमें वसने वाला—सर्वव्यापक या सबको अपने अन्दर वसाने वाला रक्षक “त्वमस्य पारे रजसो व्योमनः” [ऋ॰ १.५२.४] इन्द्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा (जत्रुभ्यः) ग्रीवा जोड़ों से प्रधान अङ्ग या ऊपर के अङ्ग को (आतृदः पुरा) आतर्दन—हिंसक—टूटने से—अलग होने से पूर्व “तृदिर् हिंसायाम्” [रुधादि॰] (अभिश्रिषः-ऋतेचित्) अभिश्लेष—चिपकाने या जोड़ने वाले साधन के विना भी—विना ही (सन्धिं सन्धाता) सन्धान योग्य—जोड़ने योग्य को जोड़ने की शक्ति रखने वाला है (पुनः) अपितु (वि ह्रु तं ‘विद्रुतम्’) प्रधान या ऊपर के अङ्ग से अन्य अलग अलग जो मांस आदि अङ्ग हैं उसे भी उसी भाँति उनके हिंसित होने से पूर्व (निष्कर्ता) प्रत्येक का निष्करण नियोजन—यथास्थान पर निष्ठापन करने वाला है वह उपास्य है।

    भावार्थ

    मानवदेह को लक्ष्य बनाकर परमात्मा का मनन प्रकार दर्शाया है कि संसार में शल्यचिकित्सक तो ग्रीवा आदि अङ्ग जब अपने जोड़ों से कट जाते अलग हो जाते हैं तभी उसे जोड़ते हैं और जोड़ने के साधन से जोड़ते हैं परन्तु परमात्मा जो सबमें वसा हुआ सबको अपने में वसाने वाला है वह तो ग्रीवादि प्रधान या ऊपर के अङ्ग को अपने जोड़ वाले अङ्गों से अलग होने से पूर्व ही जोड़ने वाला है और विना जोड़ने वाले साधन के एक सन्धि जोड़ को दूसरे जोड़ से सन्धान—जोड़ने की शक्ति रखने वाला एवं एक हड्डी को दूसरी हड्डी से जोड़ता है फिर इसी प्रकार जो अवयव पृथक् होने वाले मांस आदि है उसे भी उसके कटने फटने से पूर्व विना जोड़ने वाले साधन के नियोजित करने यथास्थान निष्ठापित करने में समर्थ है उस ऐसी शरीरकृति को देख विचार—मनन कर उस परम शल्य चिकित्सक या परम शिल्पी की उपासना करनी चाहिए॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिर्मेध्यातिथिर्वा (मेधा से अतन—गमन प्रवेशशील या पवित्र परमात्मा में अतन—गमन प्रवेशशील)॥<br>

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    विषय

    वह महान् चिकित्सक

    पदार्थ

    निष्काम कर्मों से हम उस प्रभु को पाते हैं (यः) = जो (अभिश्रिषः ऋते चित्)=सन्धान द्रव्य के बिना ही, (जत्रुभ्यः आतृदः पुरा) = ग्रीवास्थि [Coller bone] पूरा-पूरा कट जाने से पहले, अर्थात् यदि गला ही अलग न हो गया हो तो, (सन्धिं सन्धाता) = जोड़ों को फिर जोड़ देनेवाला है। संसार में इस प्रकार वे व्यक्ति भी जिनको डाक्टर असाध्य रोगी ठहरा देते हैं ठीक होते देखे जाते हैं। ये सब बातें प्रभु की अनिर्वचनीय महिमा को प्रकट करती हैं। आयुर्वेद में अन्तिम औषध ‘भगवन्नाम-स्मरण' है। भगवान् के नाम स्मरण से मनोवृत्ति में अन्तर आकर अन्दर की सोमशक्ति रोगों को दूर कर देती है। बिलकुल लटक गई हदियों के जोड़ भी फिर से जुड़ जाते हैं। वे प्रभु सचमुच (मघवा) = पवित्र ऐश्वर्यवाले हैं (पुरुवसुः) = पालक और पूरक निवास देनेवाले हैं। (विद्रुतम्) = कटे हुए को (पुनः निष्कर्ता) = फिर संस्कृत कर देनेवाले हैं। संसार में होनेवाली ये अखुत घटनाएँ हमें उस प्रभु का स्मरण करातीं हैं। शरीर में सारे-के-सारे सन्धिबन्ध बिना चिपकानेवाले पदार्थों के बँधे हैं। उन बन्धनों को देखकर ही उस अखुत् कृतिवाले प्रभु के प्रति हम नतमस्तक हो जाते हैं।

    सचमुच ‘मेधातिथि' = ज्ञान - मार्ग पर निरन्तर चलनेवाला व्यक्ति शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग की रचना में उस मेध्य= पवित्र प्रभु-माहात्म्य को देखता है और उसकी ओर चलनेवाला बनकर ‘मेध्यातिथि' हो जाता है। मेधातिथि से आज वह मेध्यातिथि बना है।

    भावार्थ

    हम प्रभु की महिमा को समझें और उसके उपासक बनें।

    टिप्पणी

    सूचना-' पुरा जत्रुभ्य आतृद: '='गला ही न कट गया हो' ये शब्द वेद के वास्तविकतावाद [Realism] को कितनी उत्तमता से सूचित कर रहे हैं। कुछ मूल बचा हो तो प्रभुकृपा से रोगी ठीक हो जाता है।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( यः ) = जो आत्मा ( अभिस्रिष: ) =  आश्लेषण करने वाले द्रव्य के ( ऋते चित् ) = विना ही ( पुरा ) = पूर्व ही ( जत्रुभ्यः ) = जीवों के ( आतृदः ) = अलग २ हुए अङ्गों के भी ( सन्धिम् ) = जोड़ों को ( संघाता ) = जोड़ता है वह ( पुरुवसुः ) = समस्त देहों में रहने वाला ( मघवा ) = जीवन यज्ञ का स्वामी आत्मा ( विह्नुतम् ) = शस्त्र से कटे को भी ( पुनः ) = फिर २ ( निष्कर्त्ता ) = खूब अच्छी तरह से वैसा ही बना देता है । इस रहस्य का स्पष्टीकरण देखो ब्राह्मणों के प्रति याज्ञवल्क्य का प्रश्न {वृह० उप० अ० ३ ना० ९  ।  क० २८ } और {अथर्ववेद कां० ११ । सू० १८ ।  मं० ११-१४} 

    टिप्पणी

    २४४ इष्कर्ता विह्रुतं  इति ऋ०। 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनः जीवात्मनः प्राणस्य शल्यचिकित्सकस्य च कर्तृत्वं वर्णयन्नाह।

    पदार्थः

    (यः अभिश्रिषः२) संश्लेषणद्रव्यात् (ऋते चित्) विनैव (जत्रुभ्यः३) ग्रीवास्थिभ्यः (आतृदः) आतर्दनात् कण्ठच्छेदात्। हिंसार्थात् तृदधातोः ‘सृपितृदोः कसुन्’ अ० ३।४।१७ इति भावलक्षणे कसुन् प्रत्ययः। (पुरा) पूर्वमेव (सन्धिम्) सन्धातव्यम् अवयवम् (सन्धाता) संयोजयिता भवति, शस्त्रादिना कृत्तेऽपि कण्ठैकदेशे कृत्तं भागं प्राकृतिकरूपेण संपूर्य पुनः स्वस्थं करोति, येन शीर्षपतनं न भवतीत्यर्थः। सः (पुरूवसुः) बहूनां शरीराङ्गानाम् यथास्थानं वासयिता (मघवा) चिकित्साविज्ञानरूपधनसम्पन्नः इन्द्रः परमेश्वरः जीवः प्राणः शल्यचिकित्सको वा। मघमिति धननाम। निघं० २।१०। ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ’ अ० ५।२।१२२ वा० इति वनिप्। (विह्रुतम्४) वक्रीभूतमपि अङ्गम्। ह्वृ कौटिल्ये, निष्ठायां ‘ह्रु ह्वरेश्छन्दसि’ अ० ७।२।३१ इति धातोः ह्रुः आदेशः। (पुनः) भूयोऽपि (निष्कर्ता) संस्कर्ता भवति ॥२॥ अत्र संश्लेषणद्रव्यरूपकारणाभावेऽपि सन्धानरूपकार्योत्पत्तिवर्णनाद् विभावनालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    अहो परमेश्वरस्य कीदृशं शरीररचनाचातुर्यम्। यद्यसौ संश्लेषणद्रव्येण विनैव मध्ये सन्धिं कृत्वा शिरः कबन्धेन सुदृढं न समयोजयिष्यत् तर्हि कदापि क्वचिदपि शिरः कबन्धाच्छिन्नं भूत्वा पृथगभविष्यत्। एतदपि परमेश्वरस्यैव कर्तृत्वं यच्छरीरस्य किमप्यङ्गं यदि कदाचिद् विद्धं वक्रं वा जायते तदा जीवात्मनः प्राणस्य च साहाय्येन शरीरस्य स्वाभाविकक्रियया च पुनरपि तत् प्ररोहति प्रकृतिं चापद्यते। कुशलः शल्यचिकित्सकोऽप्येतस्मिन् कर्मणि परमेश्वरमनुकरोति। संग्रामे यदि शत्रोः शस्त्रप्रहारेण कस्यचिद् योद्धुर्गलैकदेशः कृत्यते तदा स कृत्तं भागं सूच्या संसीव्यौषधिं संलिप्य च पुनः स्वस्थं करोति। दुर्घटनादिकारणाद् यदि कस्यचिदङ्गं विकृतं वक्रं वा जायते तदा तदप्युचितैरुपायैः स संस्करोति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।१।१२। अथ–० १४।२।४७ ऋषिका सूर्याशावित्री, देवता आत्मा। २. अभिश्लिषः अभिश्लेषकात् श्लेष्मणः। येन छिन्नं संश्लिष्यते तत् श्लेष्म—इति भ०। ३. जतृभ्यः ग्रीवानाडीभ्य इत्यर्थः—इति वि०। जतृभ्यः असंग्रीवाभ्यां मध्ये नाडीभ्यः—इति भ०। जत्रुभ्यः ग्रीवाभ्यः—इति सा०। ४. विह्रुतम्। विहुतस्य इतश्चेतश्च विक्षिप्तावयवस्य भग्नस्येत्यर्थः—इति वि०। विच्छिन्नम्—इति भ०, सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, residing in all bodies without ligature, even before blood is produced, joins together the joints of the neck, and at His will soon dissevers them.

    Translator Comment

    How wondrous is the power of God, that embryo in the womb, before the creation of blood, and without, any ligature, gets the joints of his neck closed up.^God at His will in a trice dissevers the joints and sends the strongest man to death. This process of birth and death is eternal through the potency of God.

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    Meaning

    Indra is that vibrant immanent lord of unbounded natural health and assertive life energy who, without piercing and without ligatures, provides for the original jointure of the series of separate vertebrae and collarbones and then, later, heals and sets the same back into healthy order if they get dislocated or fractured. (Rg. 8-1-12)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यः पुरुवसुः मघवा) જે સર્વમાં વસનાર-સર્વવ્યાપક વા સર્વને પોતાની અંદર વસાવનાર રક્ષક ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (जत्रुभ्यः) ગ્રીવાની સંધિથી પ્રધાન અંગો અર્થાત્ ગ્રીવાથી ઉપરના અંગોને (आतृदः पुरा) આતર્દન હિંસક-તૂટવાથી-છૂટા પડ્યા પહેલાં (अभिश्रिषः ऋतेचित्) અભિશ્લેષ-ચોટાડવા અથવા (सन्धिं सन्धाता) જોડવાના સાધન વિના પણ જોડવાની શક્તિ રાખનાર છે (पुनः) ફરી (वि हु तं विद्रुतम्) પ્રધાન અથવા ગ્રીવાથી ઉપરના અંગોથી અન્ય પૃથક્-પૃથક્ જે માંસ વગેરે અંગો છે તેને પણ તેની માફક તેનાથી હિંસિત થયા પહેલાં જ (निष्कर्ता) પ્રત્યેકનું નિષ્કરણ નિયોજન-યથાસ્થાન પર સ્થાપન કરનાર છે. તે ઉપાસ્ય છે. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મનુષ્ય શરીરને લક્ષ્ય બનાવીને પરમાત્માના મનનની રીતિ બતાવી છે કે, સંસારમાં શલ્ય ચિકિત્સક સર્જન તો ગ્રીવા આદિ અંગ જ્યારે પોતાની સંધિઓથી કપાઈને છૂટા પડી જાય છે, ત્યારે તેને જોડે છે અને તેને સાધનો ધ્વારા જોડી શકે છે. પરન્તુ પરમાત્મા તો સર્વમાં વસેલો અને સર્વને વસાવનાર છે, તે તો ગ્રીવા આદિ મુખ્ય અથવા ગ્રીવાથી ઉપરના અંગોને તેના સંધિબંધનથી છૂટી જવા પહેલાં જ જોડનાર છે અને જોડવાના સાધન વિનાજ એક સંધિબંધન બીજા બંધન સાથે સંધાનજોડવાની શક્તિ રાખનાર તથા એક અસ્થિનું બીજા અસ્થિથી સંધાન કરે છે-જોડે છે. ફરી એ જ રીતે જે અવયવ અલગ થયેલાં માંસ આદિને પણ તે કપાયા પહેલાં જ સાધન વિના જ સંયોજન કરીને યથાસ્થાન સ્થાપિત કરવામાં સમર્થ છે. આવી અદ્ભુત શરીરની રચનાને જોઈને વિચાર-મનન કરીને તે પરમ શલ્ય ચિકિત્સક = મહાન સર્જક અથવા પરમ શિલ્પીની ઉપાસના કરવી જોઈએ. (૨)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اجسما کو بنانے والا

    Lafzi Maana

    (یہ ابھی شرشہ رِتے چِت) جس پرمیشور نے جوڑنے کے کسی ہتھیار کے بغیر ہی (حُبتروبھیہ) ہڈی پسلی وغیرہ سے اس جسم کو (پُرا آتری دہ) آغازِ دُنیا میں گھڑا تھا اور گھڑتا رہتا ہے، اُس نے ہی جسم کے ہر ایک (سندھم سندھاتا) کونے کو آپس میں جوڑ رکھا ہے، وہ (مگھواپُورو وسُو) ایشوریہ وان پُورن ہو کر سب جگہ بس رہا ہے، (وِہرتم پُنہ نش کرتا) مہلک ہتھیاروں سے کٹے پھٹے شریروں اور نباتات وغیرہ سبھی پدارتھوں کو وہ پھر سے بار بار تھیک کر دیتا ہے۔

    Tashree

    شریر کے نظام کو بناتا اور جوڑتا، نہیں کہیں مرہم لگی کٹا پھٹا یُوں جوڑتا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराने चतुराईने शरीररचना कशी केलेली आहे - जर त्याने डिंक इत्यादी पदार्थांशिवायच डोक्याला धडाबरोबर दृढतापूर्वक जोड दिला नसता तर डोके कधीही कुठेही धडापासून वेगळे झाले असते. याशिवाय परमेश्वराचे हे कर्तृत्व आहे, की शरीराचे कोणतेही अंग जर जखमी झाले किंवा वाकडे झाले तर जीवात्मा व प्राणाच्या साह्याने व शरीराच्या स्वाभाविक क्रियेने पुन्हा जखम बरी होते व वाकडे झालेले अंग सरळ होते. कुशल शल्य-चिकित्सकही या कर्मात परमेश्वराचे अनुकरण करतो. युद्धात जर शत्रूच्या शस्त्र-प्रहाराने एखाद्या योद्ध्याचा गळ्याचा एक भाग कापला गेला तर तो कापलेल्या भागाला शिवून व औषधाचा लेप लावून पुन्हा स्वस्थ करतो. दुर्घटना इत्यादीने जर एखाद्याचे अंग विकृत किंवा वाकडे झाल्यास तेही योग्य उपायाने ठीक करतो ॥२॥

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    विषय

    परमात्मा, जीवात्मा, प्राण आणि शल्य शास्त्रविशारद यांचे कर्तृत्व

    शब्दार्थ

    जो (अभिश्रिषः) जोडणारे वा चिटकविणारे पदार्थ - यथा डिंक, सिरस, प्लास्टर आदी पदार्थां (ऋते चित्) शिवाय जो (जत्रुभ्यः) गळ्याच्या हाडापासून (आतृदः) गळा कापला (पुरा) जाण्यापूर्वीच (शत्रूच्या प्रहारामुळे सैनिकाचा गळा अर्धवट कापलेल्या अवस्थेत असतानाच) (सन्धिम्) जोडाच्या अवयवाला त्या कापले गेलेल्या अवयवाशी (सन्धाता) जोडून टाकतो, म्हणजे शस्त्रादीने गळ्याचा एक भाग कापला गेलेला असूनही त्या भागाला नैसर्गिक रूपाने भरून देणअयाची किमया करतो व त्यामुळे गळा धडापासून वेगळा होऊन भूमीवर पडू शकत नाही, तो (पुरुवसुः) अनेक शरीरावयवांना यथास्थान पूर्ववत ठेवणारा (मधवा) वै शल्यचिकित्सारूप धनाचा स्वामी परमेश्वर, जीवात्मा, प्राण अथवा शल्य विशारद (विहृुतम्) वाकडा झालेल्या अवयवाला (पुनः) पुन्हा (निष्कर्ता) दुरुस्त वा जसा असावयास हवा तसे करू शकतो.।।२।।

    भावार्थ

    अहा ! परमेश्वराचे मानक - शरीर- रचनेचे हे असे चातुर्य केवढे अद्भुत आहे. जोडणाऱ्या साधनांशिवाय डिंक आदी विनादेखील धाव वा कापलेला गळा पुन्हा दृढतेने जोडून येण्याचे कसब त्याने केले नसते. मध्येच स्वयमेव जोडून येण्याचे वा जखम भरून देण्याची व्यवस्था त्याने केली नसती, तर शिर धडापासून वेगळे झाले असते. (वा जखम न भरून येता ते अवयव नासले असते) हेदेखील ईश्वराचेच कर्तृत्व आहे की शरीराचा कोणताही अवयव क्षत- विक्षत वा विकृत झाला तर ईश्वर जीवात्मा व प्राण यांच्या साह्याने आणि शरीराच्या नैसर्गिक प्रक्रियेमुळे ती जखम वा तो वाकडा अवयव पूर्व स्थितीत येतो. एक निष्णात शल्य शास्त्र विशारददेखील परमेश्वराच्या त्या कर्तृत्वाचेच अनुकरण करीत असतो. युद्धामध्ये शत्रूच्या प्रहारामुळे कोणा सैनिकाच्या गळ्याचा एक भाग कापला गेला, तर शल्यचिकित्सक सुईद्वारे शिवून आणि औषधी लेप करून त्या भागाला निरोग करतो एखाद्या अपघातात जर कोणाचा अवयव वाकडा वा भग्न होतो, तर शल्यविशारद योग्य त्या उपचाराद्वारे तो अवयव नीट करतो.।।२।।

    विशेष

    या मंत्रात जोडण्याच्या साधनाशिवाय (म्हणजे कारणाशिवाय) जोडणे म्हणजे कार्य करू शकणे, असे वर्णन असल्यामुळे इथे विभावना अलंकार आहे.।।२।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    துண்டம் துண்டமானதை நன்றாய்ச் சேர்க்கும் ஐசுவரியனான இந்திரன் கழுத்தில் சேதனமாக்குவதற்கு முன்னரே வளையாமல் துண்டமானதை மறுபடியும் இணைக்கிறான்.

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