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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 248
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
त्व꣡मि꣢न्द्र य꣣शा꣡ अ꣢स्यृजी꣣षी꣡ शव꣢꣯स꣣स्प꣡तिः꣢ । त्वं꣢ वृ꣣त्रा꣡णि꣢ हꣳस्यप्र꣣ती꣢꣫न्येक꣣ इ꣢त्पु꣣र्व꣡नु꣢त्तश्चर्षणी꣣धृ꣡तिः꣢ ॥२४८॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । इ꣣न्द्र । यशाः꣢ । अ꣣सि । ऋजीषी꣢ । श꣡व꣢꣯सः । प꣡तिः꣢꣯ । त्वम् । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । हँ꣣सि । अप्रती꣡नि꣢ । अ꣣ । प्रती꣡नि꣢ । ए꣡कः꣢꣯ । इत् । पु꣣रु꣢ । अ꣡नु꣢꣯त्तः । अ । नु꣣त्तः । चर्षणीधृ꣡तिः꣢ । च꣣र्षणि । धृ꣡तिः꣢꣯ ॥२४८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र यशा अस्यृजीषी शवसस्पतिः । त्वं वृत्राणि हꣳस्यप्रतीन्येक इत्पुर्वनुत्तश्चर्षणीधृतिः ॥२४८॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । इन्द्र । यशाः । असि । ऋजीषी । शवसः । पतिः । त्वम् । वृत्राणि । हँसि । अप्रतीनि । अ । प्रतीनि । एकः । इत् । पुरु । अनुत्तः । अ । नुत्तः । चर्षणीधृतिः । चर्षणि । धृतिः ॥२४८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 248
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और राजा की महिमा वर्णित की गयी है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमेश्वर अथवा राजन् ! (त्वम्) आप (यशाः) यशस्वी असि हो, (ऋजीषी) सरल धर्ममार्ग पर चलने के इच्छुक अथवा सरल गुण-कर्म-स्वभाववाले और (शवसः पतिः) बल के स्वामी हो। (त्वम्) आप (एकः इत्) अकेले ही (पुरु) बहुत से (अप्रतीनि) अप्रतिद्वन्द्वी (वृत्राणि) आन्तरिक व बाह्य पापी शत्रुओं को (हंसि) दण्डित या विनष्ट करते हो। (त्वम्) आप (अनुत्तः) किसी से बलात् प्रेरित किये बिना ही (चर्षणीधृतिः) मनुष्यों को धारण करनेवाले हो ॥६॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥६॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर यशस्वी, ऋजुमार्गगामी, बलवान्, पाप आदिकों का विनाशक, स्वयं शुभ कार्यों में प्रवृत्त होनेवाला तथा मनुष्यों का धारणकर्त्ता है, वैसे ही राजा और प्रजाजनों को होना चाहिए ॥६॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन्! (त्वम्) (यशाः) ‘महायशाः’ महा यशस्वी “यस्य नाम महद् यशः” [यजु॰ ३२.३] (ऋजीषी) ‘ऋज्यते-इति-ऋज् क्विप्कर्मणि-ऋजमीषते गुणार्जनं प्रेरयति’ “ऋज गतिस्थानार्जनोपार्जनेषु” [भ्वादि॰] इति तच्छीलः—“सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये” [अष्टा॰ ९३.२.६८] सद्गुण सञ्चय को प्रेरित करने वाला (शवसः-पतिः) समस्त बलों का भण्डार या स्वामी “शवो बलम्” [निघं॰ १.१२] (असि) है (त्वम्) तू (एकः-इत्) अकेला ही (पुर्वनुत्तः) बहुतों से न तिरस्कार होने वाला या बहुत अप्रहित (चर्षणीधृतिः) मनुष्यों का धारक मनुष्यों का सहारा उनके (अप्रतीनि वृत्राणि) घोर पाप वृत्तों—पाप संकल्पों को “पाप्मा वै वृत्रः” [श॰ ११.२.५.७] (हंसि) नष्ट करता है।
भावार्थ
हे परमात्मन्! तू महायशस्वी है वस्तु वस्तु में तेरा यशस्वी नाम प्रतिभासित हो रहा है, तू उपासक में गुणसमूह को प्रेरित करने वाला समस्त बलों का स्वामी है तू अकेला भी अनेक विरोधी तत्त्वों से पराभूत न होने वाला है मनुष्यों का धारक—सहारा है, उनके गहरे पाप संकल्पों को भी नष्ट करता है॥६॥
विशेष
ऋषिः—नृमेधः पुरुषमेधश्च (नायक मेधा वाला पौरुष बुद्धि वाला उपासक)॥<br>
विषय
विजय पताका फहराते हुए
पदार्थ
जो व्यक्ति अनासक्तभाव से कर्तव्यों को करता हुआ आगे बढ़ता चलेगा, वह अवश्य अपनी यात्रा में सफल होगा। प्रभु कहते हैं कि (इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव त्(वम्)=तू (यशा: असि)= यशस्वी है। तू अपनी यात्रा को पूर्ण करके विजय पताका को फहरा पाया है। यात्रा की निर्विघ्न पूर्ति का सर्वप्रथम रहस्य यही है कि १. तू इन्द्र बना है, इन्द्रियों का अधिष्ठाता बना है। इन्द्रियाँ शरीररूप रथ के घोड़े हैं। जो व्यक्ति घोड़ों को काबू कर पाएगा वही उन्हें निर्दिष्ट स्थान की ओर ले जाएगा ।
२. (ऋजीषी)=तू ऋजीषी है। ऋजीषी शब्द के तीन अर्थ हैं- [क] पकड़ना, [ख] परे धकेलना, [ग] आगे बढ़ना । इन्द्र ऋजीषी है। यह यात्रा में बाधक बननेवालों को पकड़ता है, उन्हें परे धकेलता है और आगे बढ़ता है। कोई भी विघ्न इसकी यात्रा को रोक नहीं पाता।
३. (शवसः पतिः) = यह शक्ति का पति है। शक्तिशाली होने से यह थककर बीच में ही रुक नहीं जाता, ४. (त्वम्)=तू (अप्रतीनि)= अनन्त शक्तिवाले [of matchles strength] (वृत्राणि)=मार्ग रोकनेवाले काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को (एक-इत्)=अकेला ही, औरों के भरोसे न बैठकर (हंसि)=नष्ट कर डालता है। ये काम-क्रोध जीव के मार्ग निरोधक शत्रु हैं। जो इन्द्र होता है, वह इन्हें नष्ट कर डालता है।
५. (पुरु अनुत्तः) = इस यात्रा में वह अपने रथ का 'पालन व पूरण' करता है। इस रथ को वह अतिभोजन, अतिजागरण, अतिस्वप्नादि की दलदल में फँसने से बचाता है और स्वयं कभी शत्रुओं से विषय - गर्त में नहीं धकेला जाता।
६. (चर्षणीधृतिः)=इन्द्र इस यात्रा को पूरा कर पाया इसका अन्तिम रहस्य यह है कि यह ‘मनुष्यों का धारण करनेवाला' बना। ('सर्वभूतहिते रतः') = प्रभु का भक्ततम माना जाता है। लोकसेवा की वृत्ति उसे विषय - स्वार्थ में गिरने से बचाती है। 'चर्षणीधृति' का एक और भी अर्थ है। [चर्षणी=कर्षणी] ये कृषि व उत्पादक काम के सिद्धान्त को दृढ़ता से धारण करता है। तथा ‘चर्षणयः द्रष्टारः' यह द्रष्टा बनने का प्रयत्न करता है। खेलनेवाला उतनी अच्छी प्रकार खेल को नहीं देख पाता जितना कि 'खेल का द्रष्टा । द्रष्टा बननेवाला संसार को ठीक रूप में देखता है और ठीक रूप में देखनेवाला फँसता नहीं। इसी का परिणाम होता है कि यात्रा निर्विघ्न पूर्ण हो जाती है।
इस मन्त्र के ऋषि 'नृमेधपुरुमेधौ आङ्गिरसौ ' हैं। इस मन्त्र का ऋषि आङ्गिरस तो है ही-[शवसस्पतिः], नृमेध भी है- मनुष्यों से मेल करनेवाला है [मेधृ सङ्गमे] । बिना इस मेल के उसके लिए अपना भी पालन व पूरण सम्भव न होता, औरों का तो वह करता ही क्या ? अतः यह 'पुरुमेध' है।
भावार्थ
हमें इस जीवन में यह लक्ष्य रखना चाहिए कि विजय पताका फहराते हुए यात्रा को अवश्य पूर्ण करना है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( त्वं ) = तू ( ऋजीषी ) = ऋजु, कुटिलता रहित मार्ग में अपने भक्तों को प्रेरणा करने वाला, ( शवसस्पतिः ) = बल का स्वामी, शक्तिमान् ( यशाः असि ) = यश:स्वरूप है । ( त्वं ) = तू ( एक इत् ) = अकेला ही ( पुरु -अनुत्तः ) = देहों में बिना किसी से प्ररित होकर स्वतन्त्र रूप से, ( चर्षणीधृतिः ) = स्वतः सब मनुष्यों में धारक प्रयत्न होकर ( अप्रतीनि ) = न दबने वाले ( वृत्राणि ) = विघ्नों को ( हंसि ) = नाश करता है ।
टिप्पणी
२४८- एक इदनुत्ताचर्षणीधृता' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - नृमेधपुरुमेध:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रस्य नाम्ना परमात्मनो नृपस्य च महिमानं वर्णयति।
पदार्थः
हे (इन्द्र) परमेश्वर राजन् वा ! (त्वम् यशाः२) यशस्वी (असि) वर्तसे। (ऋजीषी३) ऋजु सरलं धर्ममार्गमिच्छतीति ऋजीषी सरलगुणकर्मस्वभावो वा (शवसः पतिः) बलस्य स्वामी च असि। (त्वम् एकः इत्) एकाकी एव (पुरु) पुरूणि बहूनि। पुरु इति बहुनाम। निघं० ३।१। ‘शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७०’ इति शिलोपः। (अप्रतीनि४) अप्रतिद्वन्द्वीनि (वृत्राणि) आन्तरिकान् बाह्यांश्च पापाचारान् शत्रून् (हंसि) दण्डयसि विनाशयसि वा। त्वम् (अनुत्तः) न केनापि नुत्तः बलात् प्रेरितः सन्। नुत्तः इति नुद प्रेरणे इत्यस्य निष्ठायां रूपम्। (चर्षणीधृतिः) मनुष्याणां धारकश्चासि। चर्षणय इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। ॥६॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥६॥
भावार्थः
यथा परमेश्वरो यशस्वी, ऋजुमार्गसेवी, बलवान्, पापादीनां हन्ता, स्वयं शुभकार्येषु प्रवर्त्तमानो मानवानां धारकश्चास्ति तथैव राजभिः प्रजाभिश्च भवितव्यम् ॥६॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९०।५। ‘शवसस्पते’ इति ‘इदनुत्ता चर्षणीधृता’ इति च पाठः। साम० १४११। २. यशः अन्नं कीर्तिः वा। अन्तर्णीतमत्वर्थं चेदं द्रष्टव्यम्। यशस्वी अन्नवान् कीर्तिमान् वा—इति वि०। यशस्वी असि, यशः शब्दान्मत्वर्थीयलोपः—इति भ०। ३. (ऋजीषिणम्) ऋजूनां सरलानां धार्मिकाणां जनानामीषितुं शीलम् इति ऋ० ६।४२।२ भाष्ये, (ऋजीषी) सरलगुणकर्मस्वभावः इति ऋ० ६।२४।१ भाष्ये, (ऋजीषी) ऋजुनीतिः इति च ऋ० ४।१६।१। भाष्ये द०। यत् सोमस्य पूयमानस्यातिरिच्यते तदृजीषम्, अपार्जितं भवति इति यास्कः। निरु० ५।१२। ४. अप्रतिद्वन्द्वीनि—इति भ०। बलिभिरप्यप्रतिगतानि—इति सा०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thou art far-renowned, the Leader of Thy devotees free from crookedness, on the path of virtue, the Lord of power and might. Alone, Thou, unconquered by many, art the Guardian of mankind. Thou smitest down resistless impediments!
Translator Comment
Impediments: Foes like passions.
Meaning
Indra, lord all powerful, ruler of the world, yours is the honour, yours is the creation of wealth and joy. All by yourself, unsubdued, you eliminate irresistible forms of evil and darkness by the power you wield for the people. (Rg. 8-90-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (यशाः) મહા યશસ્વી (ऋजीषी) સદ્ગુણ સંચયને પ્રેરિત કરનાર (शवसः पतिः) સમસ્ત બળોનો ભંડાર વા સ્વામી (असि) છે. (त्वम्) તું (एकः इत्) માત્ર એકલો જ (पूर्वनुत्तः) અનેકોથી નિરસ્કૃત ન થનાર અર્થાત્ અનેકોથી અપ્રતિહત (चर्षणीधृतिः) મનુષ્યોનો ધારક અને સહાયક તેના (अप्रतीनि वृत्राणि) ભયંકર પાપ વૃત્તો-પાપ સંકલ્પોનો (हंसि) નાશ કરે છે. (૬)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું મહા યશસ્વી છે, પ્રત્યેક પદાર્થમાં તારું યશસ્વી નામ પ્રતિભાસિત થઈ રહેલ છે, તું ઉપાસકના ગુણ સમૂહને પ્રેરિત કરનાર સમસ્ત બળોનો સ્વામી છે, તું માત્ર એકલો પણ વિરોધી તત્ત્વોથી પરાજીત થનાર નથી, મનુષ્યોનો ધારક-સહાયક છે, તેના ઘોર પાપ સંકલ્પોને પણ નષ્ટ કરનાર છે. (૬)
उर्दू (1)
Mazmoon
اَندر پیدا ہونیوالے دُکھوں اور بُرائیوں کے ناشک
Lafzi Maana
ہے اِندر! (توّم یشہ اسی) آپ کیرتی سورُوپ ہیں (رِجی شی) اپنے پیاروں کو سرل مارگ سے چلاتے ہیں اور آپ (شو شسپتی ایک اِت) بل کے بھنڈار سوامی ایسے ہو کر اپنے اُپاسک کے اندر سے راگ دویش وغیرہ (ورترانی) راکھشسوں کا (ہنسّی) ناش کرتے ہو (اپرتنی) یہ چُھپے بغض و حسد رُوپی شیطان آپ کا مقابلہ نہیں کر سکتے، چاہے یہ (پرو) کثیر التعداد ہیں۔ (انوتہ چِرشنی دھرتی) بِنا کسی کی رغبت کے آپ سب پرانیوں کا پالن کر رہے ہیں۔
Tashree
کیرتی اور نیک نامی بل کے ہو بھنڈار سوامی، اپنے پیاروں کی بُرائی اور دُکھوں کا ناش کرتے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा परमेश्वर यशस्वी, ऋजुमार्गगामी, बलवान, पाप इत्यादींचा विनाशक, स्वत: शुभ कर्मात प्रवृत्त होणारा व माणसांचा धारणकर्ता आहे. तसेच राजा व प्रजेलाही पाहिजे ॥६॥
विषय
इन्द्र नावाने परमेश्वराचा व राजाचा महिमा -
शब्दार्थ
हे (इन्द्र) परमेश्वर अथवा हे राजा, (त्वम्) आपण (यशाः) यशस्वी (असि) आहात. आपण (ऋजीषी) सरळ मार्गानुगामी वा सरळ स्वाभाविक गुण, कर्म, स्वभाव असणारे तसेच (शवसः पतिः) बळाचे स्वामी आहात. (त्वम्) आपण (एकः इत्) एकटे असूनही (अप्रतीनि) अप्रतिद्वन्दी (कोणीही प्रतिद्वन्दी नसलेले) आणि (वृत्राणि) आंतरिक व बाह्य पापी शत्रूंना (हंसि) दंडित करता वा नष्ट करता. (त्वम्) आपण (अनुत्रः) कोणाद्वारेदेखील बनात् प्रेरित होणारे (म्हणजे कोणाच्या सांगण्यावरून गुण, कर्म, स्वभाव बदलणारे) नाहीत. आपणच (चर्षणोधृतम्) मनुष्यांचे / प्रजाजनांचे धारण / पालन करणारे आहात.।।६।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे परमेश्वर यशमान, ऋजुमार्ग गात्री, बलवान, पापविनाशक स्वतः शुभ कार्य करणारा आणि मानवांचा धारणकर्ता आहे, तद्वत राजाने आणि प्रजाजनांनीदेखील असायला हवे.।।६।।
विशेष
या मंत्रात अर्थश्लेष अलंकार आहे।।६।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே! பலத்தின் [1]பாதுகாப்பரே ! சோமனைப்போலான நீ கீர்த்தியுடன் மனிதர்களின் ஜயிக்கமுடியாத சீமானான நீயே, எதிர்க்க முடியாத சத்துருக்களை அழிக்கிறாய்.
FootNotes
[1] பாதுகாப்பரே- பாதுகாப்பவனே.
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