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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 255
    ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - मित्रावरुणादित्याः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    4

    प्र꣢ मि꣣त्रा꣢य꣣ प्रा꣢र्य꣣म्णे꣡ स꣢च꣣꣬थ्य꣢꣯मृतावसो । व꣣रूथ्ये꣢३ व꣡रु꣢णे꣣ छ꣢न्द्यं꣣ व꣡चः꣢ स्तो꣣त्र꣡ꣳ राज꣢꣯सु गायत ॥२५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । मि꣣त्रा꣡य꣢ । मि꣣ । त्रा꣡य꣢꣯ । प्र । अ꣣र्यम्णे꣢ । स꣣च꣡थ्य꣢म् । ऋ꣣तावसो । ऋत । वसो । व꣣रूथ्ये꣢꣯ । व꣡रु꣢꣯णे । छ꣡न्द्य꣢꣯म् । व꣡चः꣢꣯ । स्तो꣣त्र꣢म् । रा꣡ज꣢꣯सु । गा꣣यत ॥२५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मित्राय प्रार्यम्णे सचथ्यमृतावसो । वरूथ्ये३ वरुणे छन्द्यं वचः स्तोत्रꣳ राजसु गायत ॥२५५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । मित्राय । मि । त्राय । प्र । अर्यम्णे । सचथ्यम् । ऋतावसो । ऋत । वसो । वरूथ्ये । वरुणे । छन्द्यम् । वचः । स्तोत्रम् । राजसु । गायत ॥२५५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 255
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि इन्द्र के अतिरिक्त अन्य कौन-कौन गुण-वर्णन द्वारा स्तुति करने योग्य हैं। मन्त्र के देवता आदित्य अर्थात् अदिति के पुत्र मित्र, अर्यमा और वरुण हैं।

    पदार्थ

    प्रथम—वायु आदि के पक्ष में। हे (ऋतावसो) सत्यरूप धनवाले मानव ! तू (मित्राय) वायु के लिए, (अर्यम्णे) आदित्य के लिए और (वरुथ्ये) शरीर रूप गृह के लिए हितकर (वरुणे) अग्नि के लिए (सचथ्यम्) सेवनीय, (छन्द्यम्) छन्दोबद्ध (वचः) स्तुति-वचन को (प्र प्र) भली-भाँति गान कर, गान कर। हे भाइयो ! तुम भी (राजसु) उक्त शोभायमान वायु, आदित्य और अग्नि के सम्बन्ध में (स्तोत्रम्) स्तोत्र का (गायत) गान करो ॥ द्वितीय—प्राणों के पक्ष में। हे (ऋतावसो) प्राणायाम रूप यज्ञ को धन माननेवाले प्राणसाधक ! तू (मित्राय) पूरक प्राण के लिए, (अर्यम्णे) कुम्भक प्राण के लिए और (वरूथ्ये) शरीररूप गृह के हितकारी (वरुणाय) रेचक प्राण के सम्बन्ध में (सचथ्यम्) एक साथ मिलकर पढ़ने योग्य, (छन्द्यम्) छन्दोबद्ध (वचः) प्राण महिमापरक वचन का (प्र प्र) भली-भाँति उच्चारण कर। हे दूसरे प्राणसाधको ! तुम भी (राजसु) प्रदीप्त हुए पूर्वोक्त पूरक, कुम्भक एवं रेचक प्राणों के विषय में (स्तोत्रम्) प्राण का महत्त्व प्रतिपादित करनेवाले स्तोत्र का (गायत) गान करो ॥ प्राण का महत्त्व प्रतिपादन करनेवाले छन्दोबद्ध वेदमन्त्र अथर्व ११।४ में देखने चाहिए। जैसे अन्दर आनेवाले पूरक प्राण को हम अनुकूल करें, बाहर जानेवाले रेचक प्राण को अनुकूल करें आदि अथर्व० ११।४।८ ॥ तृतीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे (ऋतावसो) राष्ट्रयज्ञ को धन माननेवाले राष्ट्रभक्त ! तू राजा रूप इन्द्र के साथ-साथ (मित्राय) देश-विदेश में मैत्री के सन्देश का प्रसार करनेवाले राज्याधिकारी के लिए, (अर्यम्णे) न्यायाध्यक्ष के लिए और (वरूथ्ये) सेना के लिए हितकारी (वरुणे) शत्रुनिवारक सेनाध्यक्ष के लिए (सचथ्यम्) सहगान के योग्य, (छन्द्यम्) छन्दोबद्ध गीत को (प्र प्र) भली-भाँति गा। हे दूसरे राष्ट्रभक्तो ! तुम भी (राजसु) पूर्वोक्त राज्याधिकारियों के विषय में (स्तोत्रम्) उन-उनके गुण वर्णन करनेवाले स्तोत्र को (गायत) गाओ ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा की सृष्टि में जो वायु-सूर्य और अग्नि आदि, मनुष्य के शरीर में जो प्राण आदि और राष्ट्र में जो विभिन्न राज्याधिकारी हैं, उनके गुण-कर्मों का वर्णन करते हुए उनसे यथायोग्य लाभ सबको प्राप्त करने चाहिएँ ॥३॥

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    पदार्थ

    (ऋतावसो) हे सत्य धन वाले उपासक! (मित्राय) मित्र रूप स्नेही साथी इन्द्र परमात्मा के लिये (सचथ्यं छन्द्यं वचः स्तोत्रम्) सेवनीय—उपासनीय, स्वाभिप्रायानुरूप वचन स्तुति समूह को (प्र-गायत) ‘गाय’ प्रकृष्ट रूप से गा-बोल (वरुथ्ये वरुणे प्र) घर में रहने, हृदय में वसने वाले वरुणरूप—वरने योग्य इन्द्र-परमात्मा के निमित्त भी वैसे ही प्रकृष्ट गान कर (राजसु) इन राजरूपों के लिये प्रकृष्ट गान कर।

    भावार्थ

    हे उपासक तू मित्ररूप स्नेही संसारव्यापी वरुणरूप वरणीय हृदय वासी परमात्मा अर्यमा रूप आश्रयदाता मोक्षवासी परमात्मा के लिये उपासनीय स्वाभिप्रायानुरूप स्तुति वचन का उत्तम गान कर॥३॥

    टिप्पणी

    [*22. “जमदग्नयः प्रज्वलिताग्नयः” [निरु॰ ७.२५]।]

    विशेष

    ऋषिः—जमदग्निः (प्रज्वलित ज्ञानाग्नि जिसके अन्दर है*22)॥ देवताः—इन्द्रो मित्रार्यमवरुणरूपः (मित्र अर्यमा वरुण रूप इन्द्र परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    पञ्चाङ्गपूर्ण जीवन

    पदार्थ

    प्रभु जीव से कहते हैं कि (ऋतावसो) = हे ऋत के धनी! (मित्राय अर्यम्णे) = मित्र और अर्यमा के लिए वरूथ्ये (वरुणे-वरूथ्य) और वरुण के विषय में तथा (राजसु) = राजा के विषय में (सचथ्यम्) = समवेत हो जानेवाले तथा (छन्द्यम्) = प्रबल इच्छा पैदा करनेवाले (वचः) = स्तुतिवचन का (प्रगायत) = खूब गायन करो। ऋत का अर्थ है ठीक। जो ठीक स्थान में व ठीक समय पर हो वह ‘ऋत' है। जो व्यक्ति प्रत्येक क्रिया को ठीक स्थान व ठीक समय पर करने पर बल देता है, वह ऋतावसु - ऋत का धनी है। इसे निम्न पाँच व्यक्तियों को अपने जीवन का आदर्श बनाना चाहिए -

    १. (मित्राय) = जो मित्र है - स्नेह करनेवाला है, जो अपने जीवन में किसी के साथ कटु व्यवहार नहीं करता, सबके साथ स्नेहपूर्वक ही चलता है। २. (अर्यम्णे) = 'अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति'=जो देनेवाला है, जो दान देता है, सदा पञ्च यज्ञ करके यज्ञशेष ही खाता है। ३. (वरूथ्ये) = जो धन के विषय में उत्तम है। [वरूथ=wealth] - अर्थात् धनी होकर धन का विनियोग सदा उत्तम कर्मों में ही करता है। धन के कारण उसमें शराब, व्यभिचारादि दुर्गुणो का प्रवेश नहीं हो गया। ४. (वरुणे) = जो वरुण है-पाशी है- जो सैकड़ों व्रतों के पाशों में अपने को जकड़े रखता है। ५. जिसकी प्रत्येक क्रिया सूर्य (राजसु) = जिसका जीवन बड़ा नियन्त्रित [well regulated] है। और चन्द्रमा की भाँति नियमित चाल से चलती है। हमारे जीवन के आदर्श उल्लिखित पाँच व्यक्ति हों, हम इनके लिए स्तुतिरूप वचनों को बोलें, परन्तु इनके गुणों का गान केवल शाब्दिक न हो। वे गुण-वचन (सचथ्य) = हों- हममें समवेत होनेवाले हों, अर्थात् वे गुण हमारे जीवन के अङ्ग बन जाएँ।

    इस प्रकार जो व्यक्ति उल्लिखित पुरुषों के गुणों को अपने जीवन का अङ्ग बनाता है वह ‘जमदग्नि’ है, उसकी अग्नि पाचनशक्ति से पूर्ण है। उसने सुन-सुनाकर वहीं पल्ला नहीं झाड़ दिया, उसे अपचन नहीं हुई। वह एक के बाद एक गुण को अपने जीवन का अङ्ग बनाता चला है। इस प्रकार अपने जीवन का परिपाक करने से वह भार्गव है। [भ्रस्ज् पाके]

    भावार्थ

    हम स्नेह, दान, धन का उत्तम विनियोग, व्रतबन्धन व नियमितता इन पाँच गुणों से अपने जीवनों को विभूषित करें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( ऋतावसो ) = सत्य ज्ञान में ही वास करनेहारे ज्ञानिन् !" ( मित्राय ) = अपने हृदय के स्नेही के लिये ( प्र गायत ) = उत्तम गान कर ।  न्यायकारी और अन्तर्यामी, ( वरूथ्ये ) = अपने गृहस्वरूप देह  के हितकारी ( वरुणे ) = सब विघ्नों के निवारक ( राजसु ) = तेजस्वी राजाओं में स्वछन्दता से विचरने वाले राजा के समान ( राजसु छन्द्यं ) = तेजस्वी पदार्थों में सूर्यवत् प्रकाशक परमेश्वर, या प्राणों में व्यापक आत्मा को लक्ष्य करके ( छन्द्यं ) = वेदानुसार ( स्तोत्रं ) = स्तुतिकारक ( सचर्थ्यं  ) = सेवन करने योग्य, हृदयग्राही ( वचः ) = स्तुति वचन का ( प्र गायत ) = उत्तम रूप से गान करो । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - जमदग्नि:।

    देवता - आदित्याः

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इन्द्रातिरिक्तम् अन्ये के के गुणवर्णनेन स्तोतव्या इत्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—वाय्वादिपरः। हे (ऋतावसो) सत्यधन मानव ! पूर्वपदस्य दीर्घश्छान्दसः। त्वम् (मित्राय) वायवे। अयं वै वायुर्मित्रो योऽयं पवते। श० ६।५।७।१४। (अर्यम्णे२) आदित्याय। अर्यमा आदित्यः, अरीन् नियच्छति। निरु० ११।२३। असौ वाऽऽदित्योऽर्यमा। तै० सं० २।३।४।१। अपि च (वरूथ्ये) वरूथं शरीररूपं गृहम्, तस्मै हिताय। वरूथमिति गृहनाम। निघं० ३।४। (वरुणे) वरुणाय अग्नये। यो यै वरुणः, सोऽग्निः। श० ५।२।४।१३। वरूथ्ये, वरुणे इत्युभयत्र चतुर्थ्येकवचनस्य ‘सुपां सुलुक्’ अ० ७।१।३९ इति शे आदेशः। (सचथ्यम्) सेवनार्हम्। षच सेचने सेवने च। सचथः सेवनं, तदर्हम्। अर्हार्थे यत् प्रत्ययः। (छन्द्यम्३) छन्दोबद्धम् (वचः) स्तुतिवचनम् (प्र प्र) प्रगाय प्रगाय। पुनरुक्तिर्दाढ्यार्था। गायत इत्युत्तरत्र पाठात् ‘ऋतावसो’ इत्येकवचनानुसारेण ‘गाय’ इत्यूहनीयम्। हे भ्रातरः ! य़ूयमपि (राजसु) राजमानेषु पूर्वोक्तेषु मित्रार्यमवरुणेषु, तद्विषये इत्यर्थः, (स्तोत्रम्) स्तुतिवचनम् (गायत) गानविषयीकुरुत ॥ अथ द्वितीयः—प्राणपरः। हे (ऋतावसो४) ऋतं प्राणायामयज्ञ एव वसु धनं यस्य तादृश प्राणसाधक ! ऋतमिति यज्ञवाचकम् निरुक्ते प्रोक्तम्। ऋतस्य योगे यज्ञस्य योगे इति। निरु० ६।२२। त्वम् (मित्राय) पूरकप्राणाय। प्राणो मित्रम्। जै० उ० ३।३।६। (अर्यम्णे) कुम्भकप्राणाय। फुप्फुसयोः पूरितः यः अरीन् रुधिरे विद्यमानान् रोगकृमीन् नियच्छति तस्मै। किञ्च, (वरूथ्ये) शरीरगृहस्य हितकराय (वरुणे) वरुणाय रेचकप्राणाय। वारयति बहिर्निस्सारयति शरीरस्थानि मलानि यः स वरुणः। (सचथ्यम्) सह पठितुं योग्यम्। षच समवाये धातोर्बाहुलकादौणादिके ‘अथ’ प्रत्यये सचथः इति, तदर्हम्। (छन्द्यम्) छन्दोबद्धम् (वचः) प्राणमहिमात्मकं वचनम् (प्र प्र) प्रकर्षेण गाय उच्चारय। हे इतरे प्राणसाधकाः ! यूयमपि (राजसु) प्रदीप्तेषु पूर्वोक्तेषु पूरक-कुम्भक-रेचकेषु प्राणेषु, तद्विषये इत्यर्थः, (स्तोत्रम्) प्राणमहत्त्वप्रतिपादकं स्तोमम् (गायत) मानपूर्वकमुच्चारयत ॥ प्राणमहत्त्वप्रतिपादका मन्त्रा अथर्ववेदे ११।४ इत्यत्र द्रष्टव्याः। यथा—नम॑स्ते प्राण प्राण॒ते नमो॑ अस्त्वपान॒ते। प॒रा॒चीना॑य ते॒ नमः॑ प्रती॒चीनाय॑ ते॒ नमः॒ सर्व॑स्मै त इ॒दं नमः॑ ॥ अथ० ११।४।८ इत्यादिकम् ॥ अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। हे (ऋतावसो) ऋतं राष्ट्रयज्ञ एव वसु धनं यस्य तादृश राष्ट्रभक्त ! त्वम् इन्द्रेण सम्राजा सह (मित्राय) देशे विदेशे च मैत्रीसन्देशप्रसारकाय राज्याधिकारिणे, (अर्यम्णे) न्यायाध्यक्षाय५राज्याधिकारिणे, (वरूथ्ये) वरूथं सैन्यं तस्मै हिताय (वरुणे) शत्रुनिवारकाय सेनाध्यक्षाय च (सचथ्यम्) सहगानयोग्यम् (छन्द्यम्) छन्दोबद्धं गीतम् (प्र प्र) प्रकृष्टतया प्रगाय। हे इतरे राष्ट्रभक्ताः ! यूयमपि (राजसु) पूर्वोक्तानां राज्याधिकारिणां विषये (स्तोत्रम्) तत्तद्गुणवर्णनपरं स्तुतिगीतं (गायत) प्रोच्चारयत ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मनः सृष्टौ ये वायुसूर्यवह्न्यादयः, मनुष्यस्य शरीरे ये प्राणादयः, राष्ट्रे च ये विभिन्ना राज्याधिकारिणः सन्ति तेषां गुणकर्मवर्णनपूर्वकं तेभ्यो यथायोग्यं लाभाः सर्वैः प्राप्तव्याः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।१०१।५ ‘वरूथ्ये’ इत्यत्र ‘वरूथ्यं’ इति पाठः। २. “य ऋच्छति नियच्छति आकर्षणेन पृथिव्यादीन् स सूर्यलोकः।” इति य० ३।३१ भाष्ये द०। ३. छन्दशब्देन स्तुतिरुच्यते, तस्यां स्तुतौ भवमित्यर्थः—इति वि०। कमनीयम्—इति भ०। यज्ञगृहभवम्, अभिप्रायानुसारं वा०—इति सा०। ४. ऋतावसो यज्ञधन—इति भ०, सा०। ५. द्रष्टव्यम् १८५ संख्यकस्य मन्त्रस्य भाष्यम्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O learned lover of truth, sing the praise of God, Your Friend in the heart. Sing well with Vedic praiseworthy, enjoyable words, the glory of God, Who is Just, Ever-present in the heart, the Well-wisher of the body. His Residence, the Remover of all impediments, and King of the Kings!

    Translator Comment

    Griffith translates Aryama. Mitra and Varuna as different deities. This is unacceptable as the Vedas are free from historical references. These are the significant names of God.

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    Meaning

    O lover of truth and eternal laws and values of cosmic truth, sing together, sing in the home and sing on joyous occasions collective, homely and celebrative songs in honour of Mitra, lord of love and universal friendship, Aryaman, lord of the paths of rectitude, and Varuna, lord of judgement and wisdom. Sing hymns of adoration for all the refulgent divinities. (Rg. 8-101-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ऋतावसो) હે સત્ય ધનવાળા ઉપાસક ! (मित्राय) મિત્રરૂપ સ્નેહી સાથી ઇન્દ્ર પરમાત્માને માટે (सचथ्यं छन्द्यं वचः स्तोत्रम्) સેવનીય-ઉપાસનીય સ્વાભિપ્રાય અનુરૂપ વચન સ્તુતિ સમૂહને (प्र प्रगायत) પ્રકૃષ્ટ રૂપ ગા-બોલ (वरुथ्ये वरुणे प्र) ઘરમાં રહેનાર-હૃદયમાં વસનાર વરુણરૂપ-વરણ કરવા યોગ્ય ઇન્દ્ર પરમાત્માના નિમિત્તે પણ તું પ્રકૃષ્ટ ગાન કર (राजसु) એ રાજરૂપોને માટે પ્રકૃષ્ટ ગાન કર. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે ઉપાસક ! તું મિત્રરૂપ સ્નેહી, સંસારવ્યાપી, વરુણરૂપ વરણીય હૃદયવાસી પરમાત્મા, અર્યમારૂપ આશ્રયદાતા મોક્ષવાસી પરમાત્માને માટે ઉપાસનીય, સ્વાભિપ્રાયાનુરૂપ સ્તુતિ વચનનું ઉત્તમ ગાન કર. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    عابد کی دولت سچائی ہے!

    Lafzi Maana

    (رِتاوسو) سچائی کو ہی دھن سمجھنے والے ہے عابد لوگو! (مِترائے) سب کے دوست اِیشور کے لئے (سچیتھم چھندیم ستو ترم وچہ پرگائے) اُس کی سیوا کرنے یوگیہ وید وکت سُتتی منتروں کا شردھا سے گان کیا کرو۔ (اریمنے پر) اُس سارے جہاں کے عادل پرمیشور کی بندگی پوری عقیدت سے کیا کرو۔ (ورُوتھیئے راجسو گایت) بہاروں کے سہارے راجاؤں میں مہاراج کی مل کر سجدے میں بھگتی کیا کرو۔ گُن گان کیا کرو۔

    Tashree

    دوست سب کے نیائے کاری راج ہوا دھیراج سب کے، راستی پر گامزن مِل گائیں گُن ہم آپ کے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या सृष्टीत जे वायू-सूर्य व अग्नी इत्यादी व माणसाच्या शरीरात जे प्राण इत्यादी व राष्ट्रात जे विभिन्न राज्याधिकारी आहेत, त्यांच्या गुणकर्मांचे वर्णन करत त्यांच्याकडून सर्वांनी लाभ घ्यावा. ॥३॥

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    विषय

    अर्थात अदितीचे पुत्र मित्र, अर्यमा आणि वरुण हे आहेत -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (वायूपर) - हे (ऋतावसो) सत्यरूप धनाचे स्वामी मानव, तू (मित्राय) वायूसाटी (अर्यम्णे) आदित्यासाठी आणि (वरूप्ये) शरीररूप घरासाठी लाभदायी अशा (वरुणे) अग्नीकरिता (सचप्यम्) सेवनीय (छन्घम्) छन्दोबद्ध (वचः) स्तुतिवचन (प्र प्र) चांगल्या प्रकारे म्हण, स्तुतिगान कर. हे माझ्या बांधवांनो, तुम्हीदेखील (राजसु) उल्लिखित वायू, आदित्य आणि अग्नीविषयी (स्तोत्रम्) स्तोत्राचे (गायन) गान करा.।। द्वितीय अर्थ - (प्राणपर) (ऋतातसो) प्राणायामरूप यज्ञालाच मोठी संपदा मानणाऱ्या हे प्राणसाधका, तू (मित्राय) पूरक प्राणासाठी (अर्यम्णे) कुंभक प्राणासाठी आणि (वरूथ्ये) शरीररूप गृहासाठी हितकारी अशा (वरुणाय( रेचक प्राणाविषयी (सचथ्यम्) तसेच एकाच वेळी सर्वांनी वाचन करण्यास योग्य अशा (छन्घम्) छंदोबद्ध रीतीने (वचः) प्राणांचा महिमा स्पष्ट करणारी वचने (प्र प्र) उत्तम प्रकारे उच्चारण करा. हे अन्य प्राणसाधक जनहो, तुम्हीदेखील (राजसु) प्रदीप्त झालेल्या पूर्ववर्णित पूरक, कुंभक व रेचक प्राणांविषयी (स्तोत्रम्) महत्त्व सांगणाऱ्या स्तोत्रांचे (गायत) गान करा।। प्राणांचे महत्त्व प्रतिपादित करणारे छन्दोबद्ध वेदमंत्र अथर्ववेद (११/४) येथे पहावेत. तिथे म्हटले आहे - ङ्गआत जाणाऱ्या पूरक प्राणशक्तीला आम्ही अनुकूल करावे, बाहेर जाणाऱ्या प्राणाने आमच्या रेचक प्राणाला वश करावे.फफ। (अथर्व ११/४/८) तृतीय अर्थ - (राष्ट्रपर) - (ऋतावसो) राष्ट्र यज्ञालाच धन मानणाऱ्या हे राष्ट्रभक्त माणका, तू राजारूप इंद्रासह (मित्राय) देश- विदशात मैत्रीचा संदेश विस्तृत करणाऱ्या राज्याधिकाऱ्यासाठी (अर्यम्णे) न्यायाध्यक्षासाठी आणि (वरूथ्ये) सैन्यासाठी हितकारी अशा (वरूणे) शत्रुनिवारक सेनाध्यक्षासाठी (सचप्यम्) सहगान करण्यास योग्य (असे गीत जे सर्वजण मिळून गाऊ शकतील आणि जे (छन्घम्) छंदोबद्ध आहे, असे राष्ट्रगीत (प्र प्र) योग्य प्रकारे (गायत) गा. हे अन्य राष्ट्रभक्त जनहो, तुम्हीदखील (राजसु) पूर्ववर्णित राज्याधिकाऱ्यांविषयी (स्तोत्रम्) त्यांचे गुणवर्णन करणारे स्तोत्र (गीत) गायत) गा।।३।।

    भावार्थ

    परमेश्वर निर्मित या सृष्टीमध्ये वायू, सूर्य, अग्नी आदी पदार्थ आहेत, त्यांच्या गुण, कर्मांचे वर्णन करीत सर्वांनी यथोचित लाभ प्राप्त केले पाहिजेदत तसेच मानव शरीरात जो प्राण आणि राष्ट्रात जे विभिन्न राज्याधिकारी आहेत, लोकांनी त्यांच्या गुणांचे, कर्मांचे ज्ञान करून घ्यावे आणि त्यापासून आपले हित साधावे.।।३।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे।।३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    புனித நிலயனே மித்திரனுக்கும் (நட்பிற்கு) அர்யமானுக்கும் (நியாயத்திற்கு) சேவார்ஹமாய் சந்தசுடனான துதியை கானஞ் செய்யவும். வருணனுக்கும் (காலனில்) ராஜர்களிலும் (கனிந்த செயல்களிலும்) கானஞ் செய்யவும்.

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