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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 266
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
इ꣡न्द्र꣢ त्रि꣣धा꣡तु꣢ शर꣣णं꣢ त्रि꣣व꣡रू꣢थꣳ स्व꣣स्त꣡ये꣢ । छ꣣र्दि꣡र्य꣢च्छ म꣣घ꣡व꣢द्भ्यश्च꣣ म꣡ह्यं꣢ च या꣣व꣡या꣢ दि꣣द्यु꣡मे꣢भ्यः ॥२६६॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯ । त्रि꣣धा꣡तु꣢ । त्रि꣣ । धा꣡तु꣢꣯ । श꣣रण꣢म् । त्रि꣣व꣡रू꣢थम् । त्रि꣣ । व꣡रू꣢꣯थम् । स्व꣣स्त꣡ये꣢ । सु꣣ । अस्त꣡ये꣢ । छ꣣र्दिः꣢ । य꣣च्छ । मघ꣡व꣢द्भ्यः । च꣣ । म꣡ह्य꣢꣯म् । च꣣ । याव꣡य꣢ । दि꣣द्यु꣢म् । ए꣣भ्यः ॥२६६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र त्रिधातु शरणं त्रिवरूथꣳ स्वस्तये । छर्दिर्यच्छ मघवद्भ्यश्च मह्यं च यावया दिद्युमेभ्यः ॥२६६॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्र । त्रिधातु । त्रि । धातु । शरणम् । त्रिवरूथम् । त्रि । वरूथम् । स्वस्तये । सु । अस्तये । छर्दिः । यच्छ । मघवद्भ्यः । च । मह्यम् । च । यावय । दिद्युम् । एभ्यः ॥२६६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 266
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह विषय है कि कैसा घर, शरीर और कैसी परमात्मा की शरण हमें सुलभ हो।
पदार्थ
प्रथम—राष्ट्र के पक्ष में। हे (इन्द्र) दुःख-विदारक, सुखप्रदाता, परमैश्वर्य के स्वामी राजन् ! आप (मघवद्भ्यः च) धनिकों के लिए (मह्यं च) और मुझ सामान्य प्रजाजन के लिए (स्वस्तये) सुख, उत्तम अस्तित्व व अविनाश के निमित्त (त्रिधातु) तीन मंजिलोंवाला अथवा कम से कम तीन कोठोंवाला (शरणम्) आश्रय-योग्य, (त्रिवरुथम्) सर्दी, गर्मी और वर्षा तीनों को रोकनेवाला (छर्दिः) घर (यच्छ) प्रदान कीजिए। और (एभ्यः) इन जनों के लिए उक्त घर में (दिद्युम्) बिजुली के प्रकाश को भी (यावय) संयुक्त कीजिए, अथवा (एभ्यः) इन घरों से (दिद्युम्) आकाशीय बिजुली को (यावय) दूर कर दीजिए अर्थात्, घरों में विद्युद्-वाहक ताँबे का तार लगवाकर ऐसा प्रबन्ध करवा दीजिए कि आकाश से गिरी हुई बिजली भी घर को क्षति न पहुँचा सके ॥ द्वितीय—मानव-शरीर के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप इस राष्ट्र के (मघवद्भ्यः) विद्या, स्वास्थ्य आदि धनों से सम्पन्न लोगों के लिए (मह्यं च) और मुझ उपासक के लिए (स्वस्तये) कल्याणार्थ, पुनर्जन्म में (त्रिधातु) सत्त्व-रजस्-तमस् रूप, वात-पित्त-कफरूप, प्राण-मन-बुद्धिरूप, बाल्यावस्था-यौवन-वार्धक्यरूप वा अस्थि-मज्जा-वीर्यरूप तीन धातुओं से युक्त, (शरणम्) आत्मा का आधारभूत, (त्रिवरुथम्) ज्ञान-कर्म-उपासनारूप तीन वरणीय व्रतों से युक्त (छर्दिः) मानव-शरीररूप घर (यच्छ) प्रदान कीजिए और (एभ्यः) इन शरीर-गृहों से (दिद्युम्) संतापक रोग आदि तथा दुष्कर्म आदि को (यावय) दूर करते रहिए ॥ तृतीय—अध्यात्म-परक। हे (इन्द्र) दुःखविदारक, सुखप्रदाता, परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! आप (मघवद्भ्यः) योगसिद्धिरूप धन के धनिक सिद्ध योगी जनों के लिए (मह्यं च) और मुझ योग-साधक के लिए (स्वस्तये) मोक्षरूप उतम अस्तित्व के प्राप्त्यर्थ (त्रिधातु) सत्त्व, चित्त्व और आनन्दरूप तीन धातुओंवाली, (त्रिवरुथम्) आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक रूप तीनों दुःखों को दूर करनेवाली, (छर्दिः) पापों का वमन करानेवाली (शरणम्) अपनी शरण (यच्छ) प्रदान कीजिए। (एभ्यः) इन योग में संलग्न लोगों के हितार्थ (दिद्युम्) उत्तेजक काम, क्रोध आदि को (यावय) दूर कर दीजिए ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। पूर्वार्ध में तकार का अनुप्रास और उत्तरार्ध में यकार का अनुप्रास भी है ॥४॥
भावार्थ
राजकीय सहायता से राष्ट्रवासियों के रहने के घर यथायोग्य तिमंजिले, कम से कम तीन कोठोंवाले, सर्दी-गर्मी-वर्षा से त्राण करनेवाले, सब ऋतुओं में सुखकर, बिजली के प्रकाश से युक्त और आकाश की बिजली गिरने पर क्षतिग्रस्त न होनेवाले हों। परमात्मा की छत्रछाया रूप घर भी हमें सुलभ हो। साथ ही हम सदा ऐसे कर्म करें, जिनसे हमें पुनः-पुनः मानव-शरीर-रूप घर ही मिले, कभी ऐसे कर्मों में लिप्त न हों, जिनसे हमें शेर, बाघ, कीड़ें-पतंगों की योनियों अथवा स्थावरयोनियों में जन्म लेना पड़े ॥४॥
पदार्थ
(इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (स्वस्तये) सु—अस्ति—शोभन अस्तित्व—स्वात्मस्वरूप के लिये—अपने अविनाशी—अमरत्व के लिये “स्वस्तीत्यविनाशि नाम। सु अस्तीति” [निरु॰ ३.२१] “परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते” [छान्दो॰ ८.३.४] (मह्यं च) मुझ उपासक के लिये और (एभ्यः-मघवद्भ्यः-च) इन मेरे जैसे अध्यात्म यज्ञ वालों के लिये भी “यज्ञेन मघवान्” [तै॰ सं॰ ४.४.८.१] (त्रिधातु) तीन—स्तुति प्रार्थना उपासनारूप परमात्मा को धारण करने के साधनों से सिद्ध होने वाले—(त्रिवरूथम्) तृतीय धाम मोक्ष में “तृतीय धामन्नध्यैरयन्त” [यजु॰ ३२.१०] यथा “त्रिनाके त्रिदिवे” “तीयप्रत्ययलोपश्छान्दसः” [ऋ॰ ९.११३.९—त्रिदिवे तृतीयायां दिवि त्रिनाके तृतीयनाके सायणः] इन्द्रिय मन आत्मा में से आत्मा द्वारा वरणीय मोक्षधाम में, अथवा तीन स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर का वारण निवृत्ति जिसमें हो जावे ऐसे मोक्षधाम “तस्मादु हैतत्पुरां परमं रूपं यत् त्रिपुरम्” [श॰ ६.३.३.२५] (छर्दिः) सन्दीप्त प्रकाशमय—ज्योतिर्मय—“छृदी सन्दीपने” [चुरादि॰] (शरणम्) घर को “शरणं गृहनाम” [निघं॰ ३.४] (यच्छ) “प्रयच्छ” प्रदान कर (दिद्युं यावय) हमारे अध्यात्मयज्ञ को खण्डित करने वाले “दिद्युद् द्यतेः” [निरु॰ १०.७] वाण या वज्र के समान वाधक पाप या वासनाभाव को “इषवो दिद्यवः” [श॰ ५.४.२.२] “दिद्युद् वज्र नाम” [निघं॰ २.१०] पृथक् कर दें।
भावार्थ
हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू स्वस्ति—शोभन अस्तित्व—अपने स्वरूप अमरत्व के लिये मुझ उपासक के लिये और मेरे जैसे अध्यात्म यज्ञ—सेवन करनेवाले उपासकों के लिये भी तुझे धारण कराने वाले स्तुति प्रार्थना उपासना से सिद्ध होनेवाले तृतीयधाम तीन स्थूल सूक्ष्म कारण शरीरों का वारण निवृत्ति जिसमें हो जाती है ऐसे मोक्षरूप ज्योतिर्मय घर को अपनी कृपा से प्रदान कर जहाँ हम अपने अमर स्वरूप से तुझ परम अमृत का आनन्द प्राप्त कर सकें अतः अध्यात्म यज्ञ को खण्डित करने वाले वाण या वज्र के समान किसी वाधक पाप या वासनाभाव को दूर रख॥४॥
विशेष
ऋषिः—शंयुर्भरद्वाजो वा (कल्याणकर परमात्मा को प्राप्त होने वाला या अमृत अन्न को अपने में भरने वाला)॥<br>
विषय
चमकता हुआ अस्त्र [ The Bright Weapon ]
पदार्थ
हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो! आप हमें (त्रिधातु) = उचित मात्रा में होने पर सम्यक् धारण करनेवाले तीन तत्त्वों से युक्त कीजिए, अर्थात् वात, पित्त व कफ के साम्यवाला बनाइए। पित्त व कफ साम्यावस्था में होते हैं, तो यह शरीर नीरोग रहता है। (शरणम्) = स्थूल शरीररूपी घर (यच्छ) = दीजिए। वात,
हे इन्द्र! आप हमें (त्रिवरूथम्) = तीन (वरूथ )= रक्षाएँ [protection] (यच्छ)= प्राप्त कराइए । हमारी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि आसुर भावनाओं के आक्रमण से सुरक्षित रहें। सुरक्षित होकर ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानप्राप्ति में लगी रहें, कर्मेन्द्रियाँ उत्तम कर्मों में व्याप्त रहें, मन शिवसंकल्पात्मक बने और बुद्धि विवेकमयी हो, इस प्रकार (स्वस्तये) = ये इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि हमारी उत्तम स्थिति के लिए हों। संक्षेप में स्थूलशरीर स्वस्थ हो तो सूक्ष्मशरीर सुन्दर व शिव हो ।
हे इन्द्र! आप हमें (छर्दिः) = अपनी छत्रछाया- अपना रक्षारूप घर (यच्छ)= प्राप्त कराइए । आपकी छत्रछाया ही हमारे आनन्दमयकोश निवास का साधन है। परन्तु यह छत्रछाया (मघवद्भ्यः च)=[मा- अघ] उन लोगों के लिए है, जिनकी सम्पत्ति पाप के लवलेश से शून्य उपायों से कमायी जाती है और मह्यं च = [मह् पूजायाम्] जो लोकसेवा के द्वारा आपकी पूजा में लगे हैं, उनके लिए ही यह छत्रछाया है।
इस छत्रछाया का स्वरूप क्या है? (एभ्यः) = इन अपने कृपा-पात्रों के लिए आप (दिद्युम्) = देदीप्यमान ज्ञानरूप अस्त्र को (यावय) = संयुक्त कीजिए [यु मिश्रण] प्रभु जिसपर कृपा करते हैं, उसकी बुद्धि को निर्मल करके उसके ज्ञान को दीप्त करते हैं। यह चमकता हुआ ज्ञान ही वह अस्त्र है जिससे काम, क्रोधादि आन्तर शत्रुओं का संहार होता है।
एवं यह प्रभु का कृपा-पात्र स्वस्थ शरीरवाला होकर सबल बनता है और 'भरद्वाज' कहलाता है। इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि के दीप्त होने से यह देदीप्यमान ज्ञानवाला होकर 'बार्हस्पत्य' बनता है। यह ‘भारद्वाज बार्हस्पत्य' ही आदर्श पुरुष है।
भावार्थ
प्रभो! आपकी कृपा से हम स्वस्थ शरीर, निर्मल मन व बुद्धिवाले बनकर सदा आपकी छत्रछाया में विचरें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( मघवद्भयः ) = यज्ञ करने हारे ऐश्वर्य और विभूतिमान् अथवा निष्पाप कर्मों वाले साधकों और ( मह्यं च ) = मेरे लिये ( त्रिधातु ) = वात, पित्त, कफ़ तीन धातुओं से बने, ( त्रिवरूथं ) = तीनों दोषों का वारण करने हारे ( शरणं ) = देह के ( स्वस्तये ) = कल्याण के निमित्त ( यच्छ ) = प्रदान कर । ( एभ्यः ) = उक्त कर्मठ पुरुषों की ओर से ( दिद्युम् ) = वज्रस्वरूप ( छर्दिः ) = आच्छादक बन्धन को ( यावया ) = हटा ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कीदृशं गृहं परमात्मशरणं वाऽस्माकं सुलभं भवेदित्याह।
पदार्थः
प्रथमः—राष्ट्रपरः। हे (इन्द्र) दुःखविदारक सुखप्रद परमैश्वर्यवन् राजन् ! त्वम् (मघवद्भ्यः च) राष्ट्रस्य बहुधनेभ्यो जनेभ्यश्च। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (मह्यं च) मह्यं सामान्यप्रजाजनाय च। (स्वस्तये) सुखाय, उत्तमास्तित्वाय, अविनाशाय वा। स्वस्तीत्यविनाशिनाम। अस्तिरभिपूजितः, स्वस्तीति। निरु० ३।२२। (त्रिधातु२) त्रिभूमिकम् न्यूनान्न्यूनं त्रिकोष्ठं वा, (शरणम्) आश्रयितुं योग्यम्, (त्रिवरूथम्३) त्रयाणां शीतातपवर्षाणां निवारकम्। वृञ् आवरणे धातोः ‘जॄवृभ्यामूथन् उ० २।६’ इति ऊथन् प्रत्ययः. (छर्दिः) गृहम्। छर्दिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। (यच्छ) देहि। (एभ्यः) जनेभ्यः, (दिद्युम्) विद्युत्प्रकाशं च (यावय) यवय गृहेषु संयोजय। यु मिश्रणामिश्रणयोर्णिजन्तस्य रूपम्। संहितायाम् द्वयोरप्यचोः ‘अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७’ इति दीर्घः। यद्वा, (एभ्यः) गृहेभ्यः अपादानभूतेभ्यः (दिद्युम्४) आकाशीयां विद्युतम्। द्युत दीप्तौ धातोः बाहुलकात् डु प्रत्यये, छान्दसे द्वित्वे, टिलोपे दिद्युः। अस्यैव धातोः क्विबन्तं रूपं दिद्युत् इति वज्रनाम निघं० २।१०। (यावय) पृथक् कुरु, भूमौ अतिवाहय। विद्युद्वाहकताम्रतारं संयोज्य तथा प्रबन्धं कुरु येनाकाशात् पतितापि विद्युद् गृहक्षतिकरी न भवेदित्यर्थः ॥ अथ द्वितीयः—मानवशरीरपरः। हे (इन्द्र) परमेश्वर ! त्वम्, अस्य राष्ट्रस्य (मघवद्भ्यः) विद्यास्वास्थ्यादिधनसंपन्नेभ्यो जनेभ्यः, (मह्यं च) उपासकाय (स्वस्तये) कल्याणार्थं पुनर्जन्मनि (त्रिधातु) त्रयो धातवः सत्त्वरजस्तमोरूपाः, वातपित्तकफरूपाः, प्राणमनोबुद्धिरूपाः, बाल्ययौवनस्थविरत्वरूपाः, अस्थिमज्जावीर्यरूपा वा यत्र तादृशम्, (शरणम्) आत्मनोऽधिष्ठानभूतम्, (त्रिवरूथम्) त्रीणि ज्ञानकर्मोपासनारूपाणि वरूथानि वरणीयानि व्रतानि यत्र तादृशम् (छर्दिः) मानवशरीररूपं गृहम् (यच्छ) प्रदेहि। (एभ्यः) शरीरगृहेभ्यः (दिद्युम्) संतापकं रोगादिकं दुष्टकर्मादिकं च (यावय) पृथक् कुरु ॥ अथ तृतीयः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) दुःखविदारक सुखप्रद परमैश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! त्वम् (मघवद्भ्यः) योगसिद्धिरूपधनवद्भ्यो योगिभ्यः (मह्यं च) योगसाधकाय (स्वस्तये) मोक्षरूपोत्तमास्तित्वलाभाय (त्रिधातु) त्रयो धातवः सत्त्वचित्त्वानन्दलक्षणा यत्र तत् (त्रिवरूथम्) त्रयाणाम् आध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकरूपदुःखानां वरूथं निवारकम्, (छर्दिः) पापानामुद्वमनकारकम्। छर्द वमने धातोः ‘अर्चि-शुचि-हु-सृपि-छदि-छर्दिभ्य इसिः’ उ० २।११० इति इसिप्रत्ययः. (शरणम्) स्वकीयं शरणम् (यच्छ) प्रदेहि। (एभ्यः) योगारूढेभ्यो जनेभ्यः (दिद्युम्) उत्तेजकं कामक्रोधादिकम् (यावय) पृथक् कुरु ॥४॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वार्द्धे तकारानुप्रासः, उत्तरार्द्धे च यकारानुप्रासः ॥४॥
भावार्थः
राजसाहाय्येन राष्ट्रवासिनां निवासगृहाणि यथायोग्यं त्रिभूमिकानि, न्यूनान्न्यूनं त्रिकोष्ठानि, शीतातपवृष्टिभ्यस्त्राणकराणि, सर्वर्तुसुखकराणि, विद्युत्प्रकाशयुक्तानि, विद्युत्पातसहानि च भवेयुः। परमात्मनश्छत्रच्छायारूपं गृहमप्यस्माकं सुलभं भवेत्। किं च वयं सर्वदा तादृशानि सत्कर्माणि कुर्याम यैरस्माभिर्भूयो भूयो मानवशरीररूपं गृहमेव प्राप्येत। न कदाचित् तादृशेषु कर्मसु लिप्ता भवेम यैः सिंहव्याघ्रकीटपतङ्गस्थावरादियोनिषु जन्म गृह्णीयाम ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।४६।९, अथ० २०।८३।१ ऋषिः शंयुः। उभयत्र ‘स्वस्तये’ इत्यत्र ‘स्वस्तिमत्’ इति पाठः। २. त्रिधातु। धातुशब्देन रसा उच्यन्ते। त्रयो रसाः देवपितृमनुष्योपभोग्याः, अपि वा धातवः कामक्रोधलोभादयः तैर्युक्तम्। अथवा सुवर्णरजतमाणिक्यैः त्रिभिर्धातुभिर्युक्तम् यत् त्रिधातुशरणं गृहम्.... इति वि०। त्रिभूमिकम्—इति भ०, सा०। ३. त्रिवरूथम्। वरणीयं ग्रीष्मवर्षाहेमन्तेषु चन्दनागुरुकुङ्कुमादिविलेपनं त्रिप्रकारकमपि अस्मिन् तत् त्रिवरूथम्। अथवा त्रिभिरग्निभिर्युक्तम्। वेदैस्त्रिभिर्देवैर्वा ब्रह्मविष्ण्वीशैःसवनैर्वा त्रिभिः उपतेमित्यर्थः—इति वि०। त्रयाणां वारकं वर्षवातातपानाम्—इति भ०। त्रयाणां शीतातपवर्षाणां वारकम्—इति सा०। ४. यावय पृथक्कुरु यावत्प्रमाणकं दिद्युम् देयमस्मभ्यम्। अथवा दिद्युदिति वज्रनाम तस्यायं छान्दसः तकारलोपः, दिद्युतम्—इति वि०। आयुधं शत्रुभिः प्रहितम्—इति भ०। शत्रुप्रेरितं द्योतमानम् आयुधम्—इति सा०। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिरिमं मन्त्रम् मनुष्याः कीदृशं गृहं निर्मिमीरन्निति विषये व्याख्यातवान्। तन्मते (त्रिधातु) त्रयः सुवर्णरजतताम्रा धातवो यस्मिँस्तत्, (त्रिवरूथम्) शीतोष्णवर्षासूत्तमम्, (शरणम्) आश्रयितुं योग्यम्, (स्वस्तिमत्) बहुसुखयुक्तम् (छर्दिः) गृहम् निर्मातव्यम्, तत्र (दिद्युः) सुप्रकाशश्च योजनीयः। एष च तत्कृतो भावार्थः—“मनुष्यैर्यत् सर्वर्तुषु सुखकरं धनधान्ययुक्तं वृक्षपुष्पफलशुद्धवायूदकधार्मिकधनाढ्यसमन्वितं गृहं तन्निर्माय तत्र निवसनीयं, यतः सर्वदाऽऽरोग्येण सुखं वर्धेत” इति।
इंग्लिश (2)
Meaning
o God, remove the bondage of three-humoured house. Grant me and these devotes of Thine, for their good. Thy lustrous shelter that wards off triple miseries.
Translator Comment
$ 'Three-humoured house means the body, that has got three humours of wind, bile and phlegm, i.e., वात, पित्त and कफ.^Triple miseries: Spiritual, Physical and Elemental i.e., Adhyatmik. Adhibhautik, Adhidaivic.
Meaning
Indra, lord ruler of the wealth of nations, for the men of wealth, power, honour and generosity of heart, and for me too, give a home made of three metals and materials, comfortable in three seasons of summer, winter and rains, a place of rest, peace and security for complete well being. Give the light for them, keep off the blaze from them. (Rg. 6-46-9)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (स्वस्तये) સુ-અસ્તિ-સુંદર અસ્તિત્વ , સ્વ આત્મસ્વરૂપને માટે , (मह्यं च) મારા ઉપાસકને માટે તથા (एभ्यः मघवम्दयः च) એ મારા જેવા અધ્યાત્મયજ્ઞવાળાને માટે પણ (त्रिधातु) ત્રણ સ્તુતિ , પ્રાર્થના , ઉપાસના રૂપ પરમાત્માને ધારણ કરવાના સાધનોથી સિદ્ધ થનાર (त्रिवरूथम्) તૃતીય ધામ મોક્ષમાં ઇન્દ્રિય , મન , આત્મામાંથી આત્મા દ્વારા વરણયી મોક્ષધામમાં અથવા ત્રણ સ્થૂલ , સૂક્ષ્મ અને કારણ શરીરનું વારણ-નિવૃત્તિ જેમાં થઈ જાય એવા મોક્ષધામ (छर्दिः) સંદીપ્ત પ્રકાશમય - જ્યોતિર્મય (शरणम्) ઘરને (यच्छ) પ્રદાન કર (दिद्युं यावय) અમારા અધ્યાત્મયજ્ઞને ખંડિત કરનારા વાણ અથવા વજ્રની સમાન બાધક પાપ અથવા વાસના ભાવને પૃથક્ - દૂર કરી દે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તુ સ્વસ્તિ - સુંદર અસ્તિત્વ - પોતાના સ્વરૂપ અમરત્વને માટે મારા - ઉપાસકને માટે , મારા જેવા અધ્યાત્મયજ્ઞ - સેવન કરનારા ઉપાસકોને માટે પણ તને ધારણ કરાવનાર સ્તુતિ , પ્રાર્થના ઉપાસનાથી સિદ્ધ થનાર - પ્રાપ્ત થનાર તૃતીય ધામ કે , જેમાં સ્થૂલ , સૂક્ષ્મ અને કારણ ત્રણેય શરીરોનું વારણ નિવૃત્તિ થઈ જાય છે , એવા મોક્ષરુપ જ્યોતિર્મય ઘરને આપની કૃપાથી પ્રદાન કર , જ્યાં અમે અમારા અમર સ્વરૂપને તારા પરમ અમૃત આનંદને પ્રાપ્ત કરી શકીએ. તેથી અધ્યાત્મયજ્ઞ ને ખંડિત કરનારા વાણ અથવા વજ્રની સમાન બાધક કોઈ પણ બાધક પાપ અથવા વાસનામય ભાવને દૂર રાખ - દૂર કર. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
جنم اور مرن سے چُھڑائیں!
Lafzi Maana
(چھردی تِری دھاتُو) خانہ جسم تین دھاتُو وات پِت کف والا ہے اور (تری ورُوتھم) ستھول سوکھشم اور کارن تین جسموں والا ہے، (مگھو دبھیہ) روحانی دولتوں سے مالا مال عالمِ عرفان کے لئے اور ادھیاتمک پُرش کے لئے ہے۔ اِندر پرمیشور! اپنی (شرنم یچّھ) شرن دیجئے۔ تاکہ (سوستئے اے بھیہ ددئیوم یاویہ) اِن سب کے اور ہمارے کلیان کے لئے موت کے چمکتے ہوئے بجر کو دُور کیجئے۔
Tashree
تین دھاتُو سے مکّب تین پردوں سے ڈھکا، نُور کا مندر ہے اِنسان موت سے اِیشور بچا۔
मराठी (2)
भावार्थ
राज्याच्या साह्याने राष्ट्रातील जनतेला राहण्यासाठी यथायोग्य तीन मजली घरे, कमीत-कमी तीन खोल्यांची घरे, सर्दी-गर्मी-पर्जन्य यापासून बचाव करण्यासाठी, सर्व ऋतूमध्ये सुखकर, विद्युतच्या प्रकाशाने युक्त व आकाशातून विद्युत पडल्यावर शांतिग्रस्त न होणारी असावीत. परमात्म्याच्या छत्रछायारूपी घरही आम्हाला सुलभ व्हावे. त्याबरोबरच आम्ही सदैव असे कर्म करावे, ज्यामुळे आम्हाला पुन्हा पुन्हा मानव-शरीर-रूपी घरही मिळेल, कधी अशा कर्मात लिप्त होऊ नये, ज्यामुळे आम्हाला सिंह, वाघ, कीट पतंगांच्या योनीमध्ये किंवा स्थावर योनीमध्ये जन्म मिळता कामा नये. ॥४॥
विषय
आम्हाला कसे घर व शरीर मिळावे ? परमेश्वराचे शरण कसे लाभेल ?
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (राष्ट्रपर) - (एक नागरिक राष्ट्राध्यक्षाला / राजाला प्रार्थना करीत आहे) - हे (इन्द्र) दुःखविदारक, सुखदाता, परमैश्वर्यवान राजा, आपण (मधवद्भ्यःच) धनिकांकरिता (मह्यंच) आणि माझ्यासारख्या सामान्य जनांकरिता (स्वस्तये) सुख, उत्तम जीवन मापन आणि आनंद देण्याकरिता (त्रिधातु) तीन मजले असलेले अथवा तीन कक्ष असलेले (शरण्) आश्रयस्थान तसेच (त्रिवरूथम्) थंडी, ऊन्ह आणि पाूस या तिन्हींचे प्रतिरोधक असे (छर्दिः) घर (यच्छ) प्रदान करा आणि (एम्भयः) या सर्व लोकांसाठी त्या घरात (दिद्युम्) आकाशास्य विजेला (यावय) दूर ठेवा (त्या घरांवर वीज पडू नये, यासाठी) त्या घरांना विद्युत वाहक तांब्याचे तार लावण्याची व्यवस्था करा.।। द्वितीय अर्थ - (मानव शरीरपर) - हे (इन्द्र) परमेश्वर, आपण या राष्ट्रातील (भगवद्भ्यः) विद्या, स्वास्थ्य आदी धनांनी संपन्न अशा लोकांसाठी (महमंच) तसेच माझ्यासाठी (या उपासकाच्या) (स्वस्तये) कल्याणासाठी पुनर्जन्मामध्ये (त्रिधातु) सत्त्व, रज, तम, रूप, वात, पित्त, कफरूप, प्राण, मन, बुद्धीरूप, बाल्य, मौनम, वार्धक रूप अथवा अस्थि, मज्जा, वीर्यरूप या सर्व धातूंनी युक्त (शरणम्) आत्म्याचा जो आधार आणि (त्रिवरूथम्) ज्ञान, कर्म, उपासना रूप तीन वरणीय व्रतांनी युक्त असे (छर्दिः) मानव शरीररूप घर (यच्छ) प्रदान करा आणि (एभ्यः) या अनेकांनी धारण केलेल्या लोकांच्या शरीररूप गृहांम धूम (दिघुम्) संतापक रोगादी व दुष्कर्म आदी (यावय) दूर करा.।। तृतीय अर्थ - (अध्यात्मपर) - हे (इन्द्र) दुःखविदारक, सुखदाता, परमैश्वर्यशाली परमात्मा, आपण (मधवद्भ्यः) योगसिद्धिरूप धनाचे स्वामी अशा सिद्धयोगी जनांकरिता (महयंच) आणि माझ्यासारख्या योग साधकाला (स्वस्तये) मोक्ष रूप उत्तम अस्तिन प्राप्त करण्याकरिता (त्रिधातु) सत्त्व, चित्त्व आणि आनंदरूप तीन धातूंनी युक्त तसेच ९त्रिवरूयम्) आध्यात्मिक, आधिदैविक आणि आधिभौतिक रूप तीन प्रकारचे दुःख दूर करणारी अश (छदि४ः) पापानचे वमन करविणारी (शरणम्) तुमचे शरण (यच्छ) प्रदान करा. तसेच (एभ्यः) या अन्य योगसाधकांच्या हितासाठी (दिघुम्) त्यांच्यातील उत्तेजक काम, क्रोध आदी दोष (यावय) दूर करा.।।४।।
भावार्थ
राष्ट्रवासी जनांकरिता राजकीय साह्याने यथावश्यक रूपाने प्रत्येकाला तिमजले वा कमीत कमी तीन कक्ष असलेले घर देण्यात यावे की जे घर हिवाळा, उन्हाळा, पावसाळा सर्व ऋतूंत सुखकर असावे. ज्यात विद्युत प्रकाशाची व्यवस्ता असावी आणि ज्यावर आकाशातून वीज पडल्यास हानी होऊ नये. तसेच परमेश्वराचे छत्र छायारूप घरही आम्हाला प्राप्त व्हावे. याशिवाय आमच्या हातून सदा अशीच सत्केर्में घडावीत की त्यामुळे आम्हाला पुन्हा पुन्हा मानव सरीर मिळत असावे. आम्ही कधीही अशा दुष्कर्मांत लिप्त होऊ नये की ज्यामुळे आम्हाला वाघ, सिंह, कीट पतंग आदी योनींमध्ये अथवा स्थावर (वृक्षादी) योनींमध्ये जावे लागेल.।।४।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. पूर्वार्धामध्ये ङ्गतफ काराचा अनुप्रास असून उत्तरार्धात ङ्गयफ काराचा अनुप्रासदेखील आहे.।।४।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே! மூன்றுவித பூமியை (மூன்று தாதுக்களுடன்) மூன்று ருதுக்களுடனாயுள்ளதை எங்கள் நன்மைக்கு அளிக்கவும்.எங்களிலும் எங்கள் ஐசுவரிய தலைவர்களிலும், வசிக்கும் நிலயத்தை அளிக்கவும். சத்துருவால் பிரேரிக்கப்பட்ட ஆயுதத்தைத் தனிமையாக்கவும்.
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