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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 269
    ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    आ꣢ नो꣣ वि꣡श्वा꣢सु꣣ ह꣢व्य꣣मि꣡न्द्र꣢ꣳ स꣣म꣡त्सु꣢ भूषत । उ꣢प꣣ ब्र꣡ह्मा꣢णि꣣ स꣡व꣢नानि वृत्रहन्परम꣣ज्या꣡ ऋ꣢चीषम ॥२६९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । नः꣣ । वि꣡श्वा꣢꣯सु । ह꣡व्य꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । भू꣣षत । उ꣡प꣢꣯ । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । स꣡व꣢꣯नानि । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । परमज्याः꣢ । प꣣रम । ज्याः꣢ । ऋ꣣चीषम ॥२६९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो विश्वासु हव्यमिन्द्रꣳ समत्सु भूषत । उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहन्परमज्या ऋचीषम ॥२६९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । विश्वासु । हव्यम् । इन्द्रम् । समत्सु । स । मत्सु । भूषत । उप । ब्रह्माणि । सवनानि । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । परमज्याः । परम । ज्याः । ऋचीषम ॥२६९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 269
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह विषय वर्णित है कि सर्वत्र युद्धों में परमेश्वर आह्वान करने योग्य है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (विश्वासु समत्सु) सब देवासुर-संग्रामों में (नः) हमारे और तुम्हारे, सबके (हव्यम्) पुकारने योग्य (इन्द्रम्) शत्रुविदारक परमात्मा को (आभूषत) नेता के पद पर अलंकृत करो। हे (वृत्रहन्) पाप आदि असुरों के विनाशक, हे (ऋचीषम) वेदज्ञों का सत्कार करनेवाले, स्तोताओं को मान देनेवाले, स्तुति के अनुरूप परमात्मन् ! (परमज्याः) प्रबल कामक्रोधादि रिपुओं के विध्वंसक, आप (ब्रह्माणि) हमारे स्तोत्रों को और (सवनानि) जीवनरूप यज्ञ के बचपन-यौवन-बुढ़ापा रूप प्रातःसवन, माध्यन्दिनसवन तथा सायंसवनों को (उप) प्राप्त होवो ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य के जीवन में जो बाह्य और आन्तरिक देवासुर-संग्राम उपस्थित होते हैं, उनमें यदि वह परमेश्वर को स्मरण कर उससे बल प्राप्त करे तो सभी प्रतिद्वन्द्विओं को पराजित कर सकता है ॥७॥

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    पदार्थ

    (विश्वासु समत्सु) समस्त प्रतिद्वन्द्वी प्रवृत्तियों में दैववृत्तियों आसुरवृत्तियों के संघर्षों में (हव्यम्-इन्द्रम्) आमन्त्रणीय परमात्मा को (आः-भूषत) आभूषित करो पूजित करो। यतः (ऋचीषम) स्तुति के अनुरूप फलप्रद “ऋचीषमः-ऋचा समः” [निरु॰ ६.२३] (परमज्याः) विरोधियों पर अलौकिक जय साधन वाला (वृत्रहन्) सर्वत्र “सुपां सुलुक्” [अष्टा॰ ७.३.३९] “सुलुक् छान्दसः” पापनाशक (नः) हमारे (ब्रह्माणि सवनानि) मन-बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, उपासना रस निष्पादन स्थानों को “मनो ब्रह्मेति व्यजानात्” [तै॰ आ॰ १०.६४.१] (उप—उपभूषत) उपभूषित कर अपने आनन्द स्वरूप से वासित कर।

    भावार्थ

    उपासको! सारी विरोधी प्रवृत्तियों के प्रसङ्ग में आमन्त्रणीय परमात्मा को आहूत करो स्मरण करो जिससे वह उन पर परम जय साधन वाला पापनाशक स्तुति के अनुरूप फलप्रद परमात्मा हमारे मनों-मन, बुद्धि, चित्त अहङ्कार उपासना रस के निष्पादन स्थानों को उपभूषित करें अपने आनन्द स्वरूप से वासित कर दें॥७॥

    विशेष

    ऋषिः—नृमेधः पुरुमेधश्च (नायक बुद्धि वाला और बहुत बुद्धि वाला)॥<br>

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    विषय

    साम्यवाद [ ३ ] – साम्यवाद कैसे प्रचलित हो ? प्रभु स्मरण [ब्रह्म+सवन ] के द्वारा

    पदार्थ

    गत दो मन्त्रों में उन दो सिद्धान्तों का उल्लेख हुआ है जो आज के युग में 'साम्यवाद' के नाम से प्रसिद्ध हैं। किसी भी समाज के उत्थान व दीर्घजीवन के लिए वे आवश्यक हैं, परन्तु उन सिद्धान्तों का प्रचलन तभी हो सकता है जब समाज के अङ्गभूत व्यक्ति प्रभु को स्मरण करते हुए अपना पारस्परिक बन्धुत्व अनुभव करें। घर के अन्दर तो बन्धुत्व अनुभव होता है तभी यह सिद्धान्त वहाँ लागू हो पाता है, अतः मन्त्र में 'नृ-मेध' के द्वारा कहा जाता है कि (नः) = हमारी (विश्वासु समत्सु) = सब सभाओं में [सम्+अत्=अज्] (हव्यम् इन्द्रम्)=उस पुकारने योग्य प्रभु को (आभूषत) = सब प्रकार से अलंकृत किया जाए । इकट्ठा होने पर सदा, प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में हम उस प्रभु का स्मरण करें जिससे हम पारस्परिक बन्धुत्व का अनुभव करें। हम एक हों और (उप) = सदा प्रभु के समीप रहने का प्रयत्न करें। उसके समीप रहने से हमारे जीवन में (ब्रह्माणि) = स्तोत्र होंगे, (सवनानि) = यज्ञ होंगे। प्रभु के समीप, उसकी महिमा को देखते हुए, उसके स्तोत्रों का उच्चारण तो हम करेंगे ही, साथ ही हमारा जीवन यज्ञमय होगा। हम सदा उत्तम कर्मों को करनेवाले होंगे ।

    हे (वृत्रहन्) = आप वृत्रों को समाप्त करनेवाले हैं, हम आपके समीप रहेंगे तो आप हमारी वासनाओं को विनष्ट कर डालेंगे। (परमज्या) = वे प्रभु तो एक प्रबल शक्ति हैं [ज्या overpowering strength] उनके समीप रहकर मैं भी तो उस शक्ति से सम्पन्न होऊँगा ।

    (ऋचीषम) = वे स्तुति के समान गुणोंवाले हैं। जिस रूप में हम प्रभु का स्मरण करते हैं, तदनुरूप गुणों को हम धारण कर पाते हैं, अतः प्रभु का स्मरण करते हुए हम अपने जीवनों को उच्च बना पाएँगे।

    प्रभु के साथ यह सङ्गम हमारा पालन व पूरण करेगा- हम 'पुरुमेध' होंगे। प्रभु के सम्पर्क में आकर बन्धुत्व अनुभव करने के कारण हम ‘नृमेध' तो होंगे ही, सबके साथ मिलकर चलेंगे। उल्लिखित साम्यवाद के सिद्धान्त हमारे जीवन-व्यवहार में सहज समा जाएँगे।

    भावार्थ

    प्रभु-स्मरण से हम सबके साथ बन्धुत्व का अनुभव करें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( विश्वासु ) = सब ( समत्सु ) = एकत्र आनन्द उत्सवों में ( नः ) = हमारा ( हव्यं ) = स्तुतिवचन ( इन्दम् ) = उस ईश्वर को ( आ भूषत ) = सुभूषित करे, उसका गुणगान करे । हे ( वृत्रहन् ) = विघ्ननिवारक ! सब से अधिक शत्रुओं का नाश करने हारे, हे ( ऋचीषम ) = सब स्तुतियों में समानरूप से विद्यमान ईश्वर ! ( ब्रह्माणि ) = वेदस्तवन और वैदिक कर्म ( सवनानि ) = यज्ञ यागादि सब  उपासना कर्म तुझको ही ( उप भूषत ) = शोभा देते हैं । 

    टिप्पणी

    २६९ – 'हव्य इन्द्रः', 'भूषतु', 'वृत्रहा', ऋचीषमः' इति ऋ०। 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - नृमेधपुरुमेधौ ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सर्वत्र समरेषु परमेश्वरो हव्योऽस्तीत्याह।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! यूयम् (विश्वासु समत्सु) सर्वेषु देवासुरसंग्रामेषु। समत् इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। (नः) अस्माकम् युष्माकं च (हव्यम्) आह्वातुं योग्यम् (इन्द्रम्) शत्रुविदारकं परमात्मानम् (आ भूषत) नेतृपदे अलंकुरुत। भूष अलंकारे, भ्वादिः। हे (वृत्रहन्) पापादीनाम् असुराणां हन्तः ! हे (ऋचीषम२) वेदज्ञानां सत्कर्तः ! ऋक्षु ईषा गतिर्येषां ते ऋगीषाः, चकारस्य प्रकृतिभावे ऋचीषाः, तान् मानयतीति ऋचीषमः। मन पूजायाम् धातोर्ड प्रत्ययः, डित्वाट्टिलोपः। यद्वा, हे (स्तोतॄणां) मानप्रद ! ऋचन्ति स्तुवन्तीति ऋचीषाः। ऋच स्तुतौ धातोर्बाहुलकादौणादिक ईषन् प्रत्ययः। तान् मानयतीति ऋचीषमः। यद्वा, ऋचीषम स्तुत्यनुरूप परमात्मन् ! ऋचीषमः ऋचासमः। निरु० ६।२३। (परमज्याः३) परमान् प्रबलान् कामक्रोधादीन् रिपून् जिनाति विनाशयतीति तादृशः। परमोपपदात् ज्या वयोहानौ इति धातोः क्विपि रूपम्। त्वम् (ब्रह्माणि) अस्माकं स्तोत्राणि (सवनानि४) जीवनयज्ञस्य बाल्य-यौवन-वार्द्धक्य-रूपाणि प्रातर्माध्यन्दिनसायंसवनानि (उप) उपगच्छ प्राप्नुहि। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः ॥७॥

    भावार्थः

    मनुष्यस्य जीवने ये बाह्या आन्तरिकाश्च देवासुरसंग्रामा उपतिष्ठन्ति तेषु यदि स परमेश्वरं स्मृत्वा ततो बलं याचेत तर्हि सर्वानपि प्रतिपक्षिणो जेतुमर्हति ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।९०।१, अथ० २०।१०४।३। उभयत्र ‘हव्य इन्द्रः समत्सु भूषतु’ इति ‘वृत्रहा परमज्या ऋचीषमः’ इति च पाठः। अथर्ववेदे ऋषिः नृमेधः। साम० १४९२। २. ऋचीषमः। ऋचीत्यनेन शब्देन स्तुतिरुच्यते। ऋच स्तुतावित्येतस्य स्तुत्यर्थत्वात्। यावन्तः स्तुतौ गुणाः तैः सर्वैर्युक्त इत्यर्थः—इति वि०। ऋचा स्तुत्या सदृश—इति भ०। स्तुतिभिरभिमुखीकरणीयेन्द्र—इति सा०। ‘ऋच्यन्ते स्तूयन्ते त ऋचीषाः तान् अतिमान्यान् करोति, अत्र ऋच धातोर्बाहुलकादौणादिकः कर्मणि ईषन् प्रत्ययः’ इति ऋ–० १।६१।१ भाष्ये, ऋचा तुल्य प्रशंसनीय इति च ऋ० ६।४६।४ भाष्ये द०। ३. परमा उत्कृष्टा ज्या यस्य स परमज्याः। परमो वा शत्रूणां जेता परमज्याः—इति वि०। परमम् अत्यर्थं क्षपयिता शत्रूणाम्—इति भ०। युद्धेषु शत्रुहननार्थं परमा अविनश्वरा ज्या मौर्वी यस्य तथोक्तः। यद्वा परमान् बलेन प्रकृष्टान् शत्रून् जिनाति हिनस्तीति परमज्याः—इति सा०। ४. द्रष्टव्यम्—छा० उ० ३।१६। पुरुषो वाव यज्ञः, तस्य यानि चतुर्विंशतिवर्षाणि तत् प्रातःसवनम्। ..... अथ यानि चतुश्चत्वारिंशद् वर्षाणि तन्माध्यन्दिनं सवनम्।... अथ यान्यष्टाचत्वारिंशद् वर्षाणि तत् तृतीयसवनम् इत्यादि।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    On all occasions of affliction, let our songs of praise glorify God. O Banisher of sins, Conqueror of obstacles, Worthy of adoration, may our Vedic hymns and prayers glorify Thee!

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    Meaning

    Indra, lord of universal energy, world power and human forces, is worthy of reverence and invocation in all our joint battles of life. May the lord of strongest bow, destroyer of evil and dispeller of darkness and ignorance, great and glorious as sung in the Rks, grace our songs of adoration and faithful efforts with the beauty and glory of success. (Rg. 8-90-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विश्वासु समत्सु) સમસ્ત પ્રતિદ્વંદ્વી પ્રવૃત્તિઓમાં દૈવ વૃત્તિઓ અને આસુરી વૃત્તિઓના સંઘર્ષોમાં (हव्यम् इन्द्रम्) આમંત્રણીય પરમાત્માને (आः भूषत) આભૂષિત કરો , પુજિત કરો યતઃ (ऋचीषम) સ્તુતિને અનુરૂપ ફળપ્રદ (परमज्याः) વિરોધીઓ પર અલૌકિક જય સાધનવાળા (वृत्रहन्) સર્વત્ર પાપનાશક (नः)  અમારા (ब्रह्माणि सवनानि) મન , બુદ્ધિ , ચિત્ત , અહંકાર ઉપાસનારસ ઉત્પાદન સ્થાનોને (उप उपभूषत) ઉપભૂષિત કર પોતાના આનંદ સ્વરૂપથી વાસિત કર. (૭)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસકો ! સંપૂર્ણ વિરોધી પ્રવૃત્તિઓના પ્રસંગોમાં આમંત્રણીય પરમાત્માને આહૂત કરો , સ્મરણ કરો , જેથી તે તેના પર પરમ જય સાધનવાળો , પાપનાશક , સ્તુતિને અનુરૂપ ફળપ્રદ પરમાત્મા. અમારા મનો-મન , બુદ્ધિ , ચિત્ત , અહંકાર એ ઉપાસનારસના ઉત્પન્ન સ્થાનોને ઉપભોષિત - અલંકૃત કરે , પોતાના આનંદ સ્વરૂપથી વાસિત કરી દે. (૭) 

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    زندگی کے ہر شُعبے میں اِیشور کی پوُجا

    Lafzi Maana

    (نہ وِشواسُو سمتسُو ہویّم اِندرم آبُھوشت) منشیو! سبھی خوشیوں کے اوقات پر اور دیو اُسر سنگرام یعنی زندگی کی جدوجہد نیکی بدی کی لڑائی ہمارے اِندر پرمیشور کی پُوجا کیا کرو۔ (رِچی شم) سبھی وید منتروں میں سمائے ہوئے ایشور! (برہمانی سونانی) ویدک انوستٹھان اور یگیہ وغیرہ بھگتی بھاؤنا اُپاسنا حاضرِ خدمت ہے، (ورِترہن پرم جیاہ) جہالت کا ازالہ کرنے والے پربُھو! آپ کے انصاف کی باگ دوڑ بڑی لمبی ہے، جس سے آپ بدکرداروں کو باندھ لیتے ہیں۔

    Tashree

    نیک وید کی جنگ میں آنند کے سب اوسروں پر، وید منتروں میں سمائے اِیش کی پُوجا کرو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसाच्या जीवनात जे बाह्य व आंतरिक देवासुर -संग्राम उपस्थित होतात तेव्हा त्याने परमेश्वर स्मरण करून त्यापासून बल प्राप्त करावे. तेव्हाच तो सर्व प्रतिद्वंद्वींना पराजित करू शकतो. ॥७॥

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    शब्दार्थ

    हे मनुष्यांनो, (विश्वासु समत्सु) सर्व देवासुर- संग्रामामध्ये (मनातील बऱ्या वाईट विचारांच्या संघर्षाच्या वेळी) तुम्ही (नः) आम्ही, तुम्ही वा सर्व जणांनी ज्याला (हव्यम्) आवाहन करणे उचित आहे त्या (इन्द्रम्) शत्रुविदारक परमेश्वराला (आभूषत) नेतेपदी अलंकृत करा. (आपला रक्षक म्हणून त्याला हाक मारा.) हे (वृत्रहन्) पाप आदी असुरांचे संहारक, हे (ऋचीषम्) वेदज्ञांचा सत्कार करणारे, स्तोताजनांचा मान राखणारे हे परमेश्वर, (परमज्याः) प्रबळ काम, क्रोध आदी शत्रूंचा विध्वंस करणारे, आपण (ब्रह्माणि) आम्ही म्हणत असलेले स्तोत्र आणि (सवनानि) जीवनरूप यज्ञाचे बाल्, यौवन व वार्ध्यक्य रूप प्रातः सवन, माध्यमंदिन सवन आणि सायंसवन यांना प्राप्त व्हा. (जीवनाच्या तिन्ही अवस्थेत वा दिवसाच्या तिन्ही वेळा आम्हांवर कृपाशील व्हा.)।। ७।।

    भावार्थ

    मनुष्याच्या आयुष्यात जे बाह्य व आंतरिक संघर्ष देवासुर- संग्राम होतात, त्यात जर माणसाने परमेश्वराचे स्मरण करून त्यापासून शक्ती व प्रेरणा प्राप्त केली, तर तो सर्व प्रतिद्वद्वींना, विरोधकांना अवश्य पराभूत करू शकतो. ।। ७।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    ஒவ்வொரு யுத்தத்திலும் இணைக்கப்பட வேண்டிய இந்திரனை அணுகவும். விருத்திரனைக் கொல்லுபவனே! பிரமங்களை யக்ஞங்களை அலங்கரிக்கவும். பரம ஐயனே துதியால் தெளிபவனே துதிகளை அலங்கரிக்கவும். (பல சாதனங்களை நாடவும்)

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