Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 285
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
सु꣣नो꣡त꣢ सोम꣣पा꣢व्ने꣣ सो꣢म꣣मि꣡न्द्रा꣢य व꣣ज्रि꣡णे꣢ । प꣡च꣢ता प꣣क्ती꣡रव꣢꣯से कृणु꣣ध्व꣢꣯मित्पृ꣣ण꣢न्नित्पृ꣢꣯ण꣣ते꣡ मयः꣢꣯ ॥२८५॥
स्वर सहित पद पाठसु꣣नो꣡त꣢ । सो꣣मपा꣡व्ने꣢ । सो꣣म । पा꣡व्ने꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । व꣣ज्रि꣡णे꣢ । प꣡च꣢꣯त । प꣣क्तीः꣢ । अ꣡व꣢꣯से । कृ꣣णुध्व꣢म् । इत् । पृ꣣ण꣢न् । इत् । पृ꣣णते꣢ । म꣡यः꣢꣯ ॥२८५॥
स्वर रहित मन्त्र
सुनोत सोमपाव्ने सोममिन्द्राय वज्रिणे । पचता पक्तीरवसे कृणुध्वमित्पृणन्नित्पृणते मयः ॥२८५॥
स्वर रहित पद पाठ
सुनोत । सोमपाव्ने । सोम । पाव्ने । सोमम् । इन्द्राय । वज्रिणे । पचत । पक्तीः । अवसे । कृणुध्वम् । इत् । पृणन् । इत् । पृणते । मयः ॥२८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 285
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र के लिए सोम अभिषुत करने की प्रेरणा दी गयी है।
पदार्थ
हे मरणधर्मा मनुष्यो ! तुम (सोमपाव्ने) उपासकों के श्रद्धारस का पान करनेवाले, (वज्रिणे) पापाचारियों के प्रति दण्डधारी (इन्द्राय) जगदीश्वर के लिए (सोमम्) श्रद्धारस को (सुनोत) अभिषुत करो, (पक्तीः) ज्ञान, कर्म आदि के परिपाकों को (पचत) पकाकर तैयार करो और (अवसे) जगदीश्वर की प्रीति के लिए (कृणुध्वम् इत्) उन श्रद्धारसों और ज्ञान, कर्म आदि के परिपाकों को उसे समर्पित करो। (पृणते) समर्पण करनेवाले मनुष्य के लिए वह जगदीश्वर (मयः) सुख को (पृणन् इत्) अवश्य प्रदान करता है ॥३॥ इस मन्त्र में ‘समर्पण करनेवाले को सुख मिलता है’ इससे सोमसवन एवं पाकों के परिपाक के समर्पण रूप कार्य का समर्थन होता है, अतः अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है। ‘सोम-सोम’ में लाटानुप्रास तथा ‘पृण-पृण’ में छेकानुप्रास है ॥३॥
भावार्थ
सुखार्थी जनों को चाहिए कि परमेश्वर में श्रद्धा और अपनी अन्तरात्मा में ज्ञान, कर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि का परिपाक अवश्य करें ॥३॥
पदार्थ
(वज्रिणे) ओजस्वी—“वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (सोमपाव्ने) उपासनारस का पान करने वाले—स्वीकार करने वाले—(इन्द्राय) परमात्मा के लिये (सोमं सुनोत) उपासनारस को निष्पन्न करो (अवसे) रक्षा के लिये “अवरक्षणगतिकान्तिप्रीतिसृप्त्यवगमप्रवेश........” [भ्वादि॰] (पक्तीः पचत) परिपक्व करने योग्य—साधने योग्य चित्तवृत्तियों को परिपक्व करो, अभ्यास वैराग्य द्वारा साधो—निरुद्ध करो (कृणुध्वम्) पुनः आत्मसमर्पण करो (इत्) इस प्रकार (पृणते) उपासनारस से प्रसन्न करते हुए या उपासनारस प्रदान करते हुए उपासक के लिये (इत्) अवश्य परमात्मा (मयः-पृणन्) सुख देता हुआ सदा वर्तमान रहता है “पृणाति दानकर्मा” [निघं॰ ३.१०]।
भावार्थ
हे उपासक जनो! उपासनारस पान—स्वीकार करने वाले ओजस्वी परमात्मा के लिये उपासनारस को निष्पन्न करो इस कारण परिपक्व करने योग्य—निरुद्ध करने योग्य चित्तवृत्तियों को अभ्यास वैराग्य के द्वारा साधो—निरुद्ध करो पुनः आत्मसमर्पण करो इस प्रकार उपासनारस देने वाले उपासक के लिये परमात्मा सुख का दान—वरदान देता रहता है॥३॥
विशेष
ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाले उपासक)॥<br>
विषय
चार पुरुषार्थ
पदार्थ
यह मन्त्रस भी वसिष्ठ का है। वह कहता है कि (सोमं सुनोत) = सोम का अभिषव करो। अपने अन्दर सोम को उत्पन्न करो। किसके लिए? १. (सोम पाने) = सोम का अपने ही अन्दर पान करने– शरीर में ही खपाने के लिए। २. (इन्द्राय) = इन्द्र बनने के लिए। ऐश्वर्यशाली होते हुए शत्रुओं के विद्रावण के लिए और ३.( वज्रिणे)= [वज् गतौ] गतिशील बनने के लिए। जिस समय एक व्यक्ति इस सोम की रक्षा करता है तो ये दो उसके अवश्यंभावी परिणाम होते हैं [क] एक तो वह वासनाओं को जीत पाता है और [ख] दूसरे वह आलस्य का अनुभव न कर क्रियाशील बना रहता है ।
सोमपान के बाद मनुष्यों क दूसरा कर्त्तव्य यह है कि वे (पक्ती: पचता) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के ओदन का ठीक परिपाक करें। वेद में जीव को पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के भोजन के दृष्टिकोण से पञ्चौदन कहा गया है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के भोजन के ठीक पकाने का अभिप्राय इस पञ्चभौतिक सृष्टि का ठीक ज्ञान प्राप्त करने से है।
इसका ठीक ज्ञान प्राप्त करते हुए - प्रभु की महिमा के अनुभव के द्वारा (अवसे) = प्रभु की दिव्यता के अंश को हम अपने में दोहन (कृणुध्वम्) = को करें। दिव्यता को अपने में उतारने के लिए हम पूर्ण प्रयत्नशील हों और इस दिव्यता के अवतरण के लिए हम इस तत्त्व का मनन करें कि वे प्रभु (इत) = सचमुच (पृणन्) = देनेवाले हैं, (इत्) = वस्तुत: (पृणते) = देनेवाले के लिए ही (मयः) = कल्याण होता है। दान से आसक्ति कम होती है। दान देना, काटना व शुद्ध बनाना', इन तीन अर्थों का वाचक है, अत: दान देते हुए हम अपनी बुराईयों को काट डालें और अपने को शुद्ध बना लें।
मन्त्र में चार बातें कही गयी हैं। आधे मन्त्र में एक और शेष आधे मन्त्र में तीन । वस्तुतः हमारा पचास प्रतिशत प्रयत्न तो लगना ही सोमपान के लिए चाहिए, फिर पञ्चज्ञानों का परिपाक, दिव्यता का अवतरण व देने की वृत्ति स्वयं ही पनपने लगेगी। ये तीन बातें कठिन न रहेंगी।
भावार्थ
प्रभुकृपा से हममें मन्त्रवर्णित चारों बातों का विकास हो। हम सोमपान करें, ज्ञान का परिपाक करें, दिव्यता को अपने में उतारें और दान देनेवाले बनेंगे।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे विहानो ! हे इन्द्रियगण ! ( सोमपाव्ने ) = सोम का पान करने हारे ( वज्रिणे ) = वज्र, तमोनाशक या वैराग्यसाधक साधनो से सम्पन्न ( इन्द्राय ) = आत्मा के लिये ( सोमं ) = सोम, आनन्दरस को ( सुनोत ) = उत्पन्न करो । उसके ( पक्ती:) =पक्वान, पक्वज्ञान परिपुष्ट अनुभव ( पचत ) = पकाओ तैयार करो, प्राप्त करो। ( अवसे ) = अपनी रक्षा के लिये ( कृणुध्वम् ) = यत्न करो। वह ( पृणन् इत् ) = सब को पालना करता हुआ ही ( मयः पृणत ) = सुख कल्याण करता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वसिष्ठ:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्राय सोममभिषोतुं प्रेरयति।
पदार्थः
हे मर्त्याः। यूयम् (सोमपाव्ने) सोमम् उपासकानां श्रद्धारसं पिबतीति सोमपावा तस्मै। पा पाने धातोः ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ, अ० ५।२।१२२’ वा० इति वनिप् प्रत्ययः। (वज्रिणे) पापाचारिणामुपरि दण्डधारिणे (इन्द्राय) जगदीश्वराय (सोमम्) श्रद्धारसं (सुनोत) अभिषुणुत। षुञ् अभिषवे, लोटि ‘तप्तनप्तनथनाश्च, अ० ७।१।४५’ इति तस्य तप्, तस्य च पित्त्वान्ङिद्वत्त्वाभावे गुणनिषधोऽपि न भवति। (पक्तीः) ज्ञानकर्मादीनां परिपाकान् (पचत) पक्त्वा सज्जीकुरुत, (अवसे२) जगदीश्वरस्य प्रीत्यै। अवतिरत्र प्रीतिकर्मा। अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यादिषु। (कृणुध्वम् इत्) तान् श्रद्धारसान् ज्ञानकर्मादीनां परिपाकाँश्च तस्मै समर्पयत एव। (पृणते३) समर्पयते दानशीलाय जनाय। पृणातिः दानकर्मा। निघं० ३।२०। शतरि ‘शतुरनुमो नद्यजादी, अ० ६।१।१७३’ इति विभक्तिरुदात्ता। स जगदीश्वरः (मयः) सुखम्। मयस् इति सुखनाम। निघं० ३।६। (पृणन् इत्) प्रयच्छन्नेव भवतीति शेषः ॥३॥४ अत्र ‘पृणन्नित् पृणते मयः’ इति कारणेन सोमसवन-पक्तिपरिपाक-समर्पणरूपस्य कार्यस्य समर्थनादर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः। ‘सोम, सोम’ इति लाटानुप्रासः ‘पृण पृण’ इति च छेकानुप्रासः ॥३॥
भावार्थः
सुखार्थिभिर्जनैः परमेश्वरे श्रद्धा, स्वात्मनि ज्ञानकर्मसत्याहिंसाब्रह्मचर्यादीनां परिपाकश्चावश्यं कर्त्तव्यः ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।३२।८, अथ० ६।२।३। उभयत्र ‘सुनोत’ इत्यस्य स्थाने ‘सुनोता’ इति पाठः। २. अवसे तर्पणार्थमिन्द्रस्य। पक्त्वा च कृणुध्वम् अलङ्करणादिभिः संस्कारैः संस्कुरुध्वम्—इति वि०। अवसे तर्पयितुम् इन्द्रं कृणध्वमित् कुरुतैव कर्माणि। इन्द्रप्रियकराणि कर्माणि च कुरुतैव—इति सा०। ३. पृणते पूरयित्रे—इत वि०। हवींषि दत्तवते यजमानाय—इति भ०। कैश्चित्तु पृणते इति तिङन्तं व्याख्यातम्। तत्र स्वरो न सङ्गच्छते। ४. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये ‘राज्ञा वैद्यैः किं कारयितव्य’मिति विषये व्याख्यातः। ये वैद्याः स्युस्त उत्तमोत्तमान्यौषधानि सर्वान् मनुष्यान् प्रति शिक्षेरन् येन पूर्णं सुखं स्यादिति तदीयोऽभिप्रायः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O learned persons, develop happiness for the soul, who hankers after knowledge, and is imbued with asceticism. Imbibe his mature experience. Exert for self-protection. Soul, the giver gives happiness!
Meaning
Extract, mature and prepare the nectar of life for the Lord, Indra, wielder of the thunderbolt of justice and punishment and destroyer of evil, who loves the soma spirit of lifes beauty and joy. Ripen and perfect the drinks and drugs for health care and protection of life, and create the state of comfort and well being, giving success and fulfilment for those who work for the joy and fulfilment of all in general. (Rg. 7-32-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वज्रिणे) ઓજસ્વી (सोमपाव्ने) ઉપાસનારસનું પાન કરનાર-સ્વીકાર કરનાર (इन्द्राय) પરમાત્માને માટે (सोमं सुनोत)ઉપાસનારસને નિષ્પન્ન કરો. (अवसे) રક્ષાને માટે (पक्तिः पचत) પરિપક્વ કરવા યોગ્ય- સાધવા યોગ્ય ચિત્તવૃત્તિઓને પરિપક્વ કરો, અભ્યાસ અને વૈરાગ્ય દ્વારા સાધો-નિરુદ્ધ કરો. (कृणुध्वम्) પુનઃ આત્મસમર્પણ કરો. (इत्) આ રીતે (पृणते) ઉપાસનારસ દ્વારા પ્રસન્ન કરતા અથવા ઉપાસનારસ પ્રદાન કરતા ઉપાસકને માટે (इत्) અવશ્ય પરમાત્મા (मयः पृणन्) સુખ આપતા સદા વિદ્યમાન રહે છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે ઉપાસક જનો ! ઉપાસનારસ પાન-સ્વીકાર કરનાર ઓજસ્વી પરમાત્માને માટે ઉપાસનારસને ઉત્પન્ન કરો. એ કારણે પરિપકવ કરવા યોગ્ય -નિરુદ્ધ કરવા યોગ્ય ચિત્તવૃત્તિઓને અભ્યાસ અને વૈરાગ્ય દ્વારા સાધો - નિરુદ્ધ કરો. પુનઃ આત્મસમર્પણ કરો. આ રીતે ઉપાસનારસ આપનાર ઉપાસકને માટે પરમાત્મા સુખનું દાન-વરદાન આપતો રહે છે. (૩)
उर्दू (1)
Mazmoon
محافظوں کا محافظ
Lafzi Maana
(بجرنِے سوم پائینے اِندرائے سومم آئینوت) پاپوں کو دُور ہٹانے کے لئے بجر دھاری اور بھگتوں عابدوں کا استقبال کرنے والے اِندر کے لئے ہے عابدو! اپنے اندر اُس کے لئے عقیدت پیدا کرو (یکتو پچتا) اُس کے نام پر پکایا کرو یعنی بانٹنے کے بھاونا سے، (اوسے اکرنئو دھوّم) اپنی رکھشا کے لئے اِیشور کو اپنا بناؤ، (پرنت اِت پرنتے میہ) وہ پالن کرنے والوں کی پالنا کرتا ہے اور اُنہیں سُکھ آنند دیتا ہے۔
Tashree
سوم پائی بجر دھاری اِندر ہیں رکھشک سبھوں کے، پالکوں کی پالنا کرتے ہیں سُکھ دیتے سدا۔
मराठी (2)
भावार्थ
सुखार्थी लोकांनी परमेश्वरावर श्रद्धा ठेवावी व आपल्या अंतरात्म्यात ज्ञान, कर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य इत्यादींचा परिपाक अवश्य करावा ॥३॥
विषय
इंद्रासाठी सोमरस गाळण्याविषयी प्रेरणा -
शब्दार्थ
हे मरण धर्मा मनुष्यानो, तुम्ही (सोम पाघ्ने) उपासकांच्या हृदयातील श्रद्धा रसाचे सेवन करणाऱ्या आणि (वज्रिणे) पापी लोकांना दंड देणाऱ्या (इन्द्राय) जगदीश्वराकरिता (सोमम्) श्रद्धारस (सुनोत) अभिषुत करा (गाळा म्हणजे त्याची उपासना करा) तसेच (पक्तीः) ज्ञान, कर्म आदींच्या मिश्रण परिपाक (पचत) करा, (उपासना दृढ करा) (अवसे) जगदीश्वराच्या प्रीतिसाठी (कृणुध्वम् उत) तो श्रद्धारस व ज्ञान, कर्म आदींचा परिपाक त्याला समर्पित करा. (पृणहे) समर्पण करणाऱ्या मनुष्यासाठी तो परमेश्वर (मयः) सुख (पृणन् इत्) अवश्य देतो.।। ३।।
भावार्थ
सुखार्थीजनांनी परमेस्वराविषयी श्रद्धा ठेवावी आणि आपल्या अंतरात्म्यात ज्ञान, कर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदींचा परिपाक अवश्य करावा, हे त्यांच्या हिताचे आहे. ।। ३।।
विशेष
या मंत्रात ‘समर्पण करणाऱ्याला सुख मिळते,’ या कथनाने सोम सवन व पाक परिपाक समर्पण रूप कार्याचे समर्थन होत आहे. म्हणून इथे अयन्तिरन्यास अलंकार आहे. ‘सोमं सोम’मुळे लायनुप्रास आणि ‘पृण पृण’मुळे छेकानुप्रास आहे. ।। ३।।
तमिल (1)
Word Meaning
வச்சிராயுதனாய் சோமபானஞ் செய்யும் இந்திரனுக்கு சோமனைப்பொழியவும். திருப்தியாக்க உணவுகளைத் தயாராக்கவும்.நம்முடன் கருணையாக அவனைத் தூண்டவும். கொடுப்பவனையே அளிப்பவன் துதி செய்கிறான்.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal