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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 29
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    9

    तं꣡ त्वा꣢ गो꣣प꣡व꣢नो गि꣣रा꣡ जनि꣢꣯ष्ठदग्ने अङ्गिरः । स꣡ पा꣢वक श्रुधी꣣ ह꣡व꣢म् ॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣢म् । त्वा꣣ । गो꣣प꣡व꣢नः । गि꣣रा꣢ । ज꣡नि꣢꣯ष्ठत् । अ꣣ग्ने । अङ्गिरः । सः꣢ । पा꣣वक । श्रुधी । ह꣡व꣢꣯म् ॥२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा गोपवनो गिरा जनिष्ठदग्ने अङ्गिरः । स पावक श्रुधी हवम् ॥२९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । त्वा । गोपवनः । गिरा । जनिष्ठत् । अग्ने । अङ्गिरः । सः । पावक । श्रुधी । हवम् ॥२९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 29
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    कौन उस परमात्मा को हृदय में प्रकट करता है, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अङ्गिरः) मेरे प्राणभूत (अग्ने) ज्ञान के सूर्य, जगन्नेता परमात्मन् ! (तम्) उस समस्त गुणगणों से युक्त (त्वा) आपको (गो-पवनः) इन्द्रियरूप या वाणीरूप गौओं का शोधक, पवित्रेन्द्रिय, पूतवाक् स्तोता, अथवा (गोप-वनः) आत्मसेवी स्तोता (गिरा) स्तुतिवाणी या वेदवाणी से (जनिष्ठत्) अपने अन्तःकरण में प्रकट करता है। हे (पावक) शुद्धिकर्त्ता देव ! (सः) वह तू (हवम्) मेरे आह्वान को (श्रुधि) सुन ॥९॥

    भावार्थ

    परमेश्वर अव्यक्तरूप से सबके हृदय में सन्निविष्ट है। उसे पवित्रेन्द्रिय, पवित्र वाणीवाला, आत्मसेवी मनुष्य ही वेदमन्त्रों से स्तुति करता हुआ प्रकट करने में समर्थ होता है और परमेश्वर प्रकट होकर हृदय को पवित्र करता है ॥९॥

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    पदार्थ

    (अङ्गिरः पावक-अग्ने) हे अङ्गों को सन्मार्ग में प्रेरित करने वाले पवित्रकारक ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (तं त्वा) उस तुझ को (गोपवनः) अपनी इन्द्रियों को पवित्र करने वाला जन (गिरा जनिष्ठत्) स्तुति से अपने अन्दर प्रसिद्ध करता है—साक्षात् करता है (सः-हवं श्रुधि) वह तू हमारे ह्वान-पुकार को सुन।

    भावार्थ

    परमात्मन्! पवित्र करने वाला तथा अपने उपासक की भीतरी अभ्यर्थना को सुनने वाला है तथा उपासक के अन्दर साक्षात् हो जाता है पुनः इन्द्रियों में संयम शक्ति प्राप्त कर उनकी अशान्ति से छूट जाता है। परमात्मा का कृपापात्र बन जाता है॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—गोपवनः (गौओं—इन्द्रियों को पवित्र करने रखने वाला संयमी उपासक)॥<br>

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    विषय

    गो-पवन

    पदार्थ

    हे (अग्ने)= आगे ले-चलनेवाले प्रभो! या ज्ञानाग्नि से वासनाओं को भस्म कर देनेवाले प्रभो! (अङ्गिर)=अङ्ग-अङ्ग में बल का संचार करनेवाले प्रभो! (तम्)= उस (त्वा)= तुझे (गोपवनः)= अपनी इन्द्रियों को पवित्र करनेवाला व्यक्ति ही (गिरा)= वाणी से - संकीर्तन के द्वारा (जनिष्ठत्) = आविर्भूत करता है।

    प्रभु केवल कीर्तन से प्रकट नहीं होते। कीर्तन तो दम्भ के लिए भी होता है। प्रत्येक कीर्तन करनेवाला उस प्रभु को नहीं पा सकता। वेद कहता है कि प्रभु का आभास तो ‘गोपवन' को ही होता है। गोपवन है गो= इन्द्रियों को, पवन पवित्र करनेवाला। इन्द्रियों को पवित्रकरने के लिए ही गत मन्त्र में आराधना थी कि मेरी इन्द्रियाँ दान, अर्चना व स्तुति का पाठ पढ़ें। इन तीन क्रियाओं में लगाकर इन्द्रियों को पवित्र बनानेवाला व्यक्ति ही प्रभु-दर्शन का अधिकारी होता है। प्रभु - दर्शन और उस 'सहस्रधार' में स्नान कर वह और भी अधिक पवित्र हो जाता है।

    हम सब भी उस प्रभु की आराधना करते हैं कि हे (पावक)= पवित्र करनेवाले प्रभो! (सः)= वे आप (हवम्) = मेरी भी प्रार्थना को – पुकार को (श्रुधि)= सुनिए । मुझे भी पवित्रता प्राप्त करने की कामना है- मैं भी आपको पुकार रहा हूँ। प्रभो! कृपा करो कि हमारी इन्द्रियाँ पवित्र हों। हम अपनी इन्द्रियों को पवित्र बनाकर इस मन्त्र के ऋषि ‘गोपवन' बनें। 

    भावार्थ

    हम अपनी इन्द्रियों को पवित्र बनाकर प्रभु-कीर्तन के अधिकारी बनें।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = हे अग्ने! ( तम् त्वा ) = उस आपको  ( गोपवन: ) = वाणी की शुद्धि चाहनेवाला और आपकी स्तुति से जिसकी वाणी शुद्ध हो गई है ऐसा भक्त पुरुष  ( गिरा ) = अपनी वाणी से  ( जनिष्ठत् ) = आपकी स्तुति करता हुआ आपको ही प्रकट कर रहा है।  ( अङ्गिर: ) = हे ज्ञाननिधे! ( पावक ) = पवित्र करनेवाले ! ( स हवम् श्रुधी ) = ऐसे आप हमारी स्तुति प्रार्थना को सुनकर अंगीकार करो ।
     

    भावार्थ

    भावार्थ = मनुष्य की वाणी, संसार के अनेक पदार्थों के वर्णन और कठोर, कटु, मिथ्या भाषणादिकों से अपवित्र हो जाती है । परमात्मा पतितपावन हैं, जो पुरुष उनके ओंकारादि सर्वोत्तम पवित्र नामों का वाणी से उच्चारण और मन से चिन्तन करते हैं, वे अपनी वाणी और मन को पवित्र करते हुए आप पवित्र होकर, दूसरे सत्संगियों को भी पवित्र करते हैं । धन्य हैं ऐसे सत्पुरुष जो आप भक्त बनकर दूसरों को भी भक्त बनाते हैं, वास्तव में उनका ही जन्म सफल है।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे अग्ने ! ( तं, त्वा ) = उस पूर्व प्रकारसे स्तुत तुझको ( गोपवनः ) = वाणियों और इन्द्रियों के वश करने वाला पुरुष ( गिरा ) = अपनी वाणी से ( जनिषद् ) = प्रकट करता है । हे ( अंगिरः ) = प्रकाशस्वरूप या अंगों में रस या बल के समान विद्यमान अग्ने  ! हे ( पावक ) = मल आदि से पवित्र करनेहारे ! ( सः ) = वह तू हमारी ( हवम् ) = स्तुतिको ( श्रुधि ) श्रवण कर । 
     

    टिप्पणी

    १  'यं त्वा' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - गोपवन:।

    छन्द: - गायत्री।
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कस्तं परमात्मानं हृदये प्रकटयतीत्याह।

    पदार्थः

    हे (अङ्गिरः२) मत्प्राणभूत। प्राणो वा अङ्गिराः श० ६।३।७।३। (अग्ने) ज्ञानसूर्य जगन्नेतः परमात्मन् ! (तम्) तादृशं निखिलगुणसमन्वितम् (त्वा) त्वाम् (गोपवनः) गवामिन्द्रियाणां वाचां वा पवनः शोधयिता गो-पवनः पवित्रेन्द्रियः पूतवाक्, यद्वा गाः इन्द्रियाणि पाति रक्षतीति गोपः आत्मा तं वनति सेवते इति गोप-वनः आत्मसेवी स्तोता (गिरा) स्तुतिवाचा वेदवाण्या वा (जनिष्ठत्) जनयति स्वान्तःकरणे प्रकटयति। जनी प्रादुर्भावे धातोर्ण्यन्ताल्लेटि जनिषत् इति प्राप्ते बहुलवचनात् ठकारागमश्छान्दसः। हे (पावक) शुद्धिकर्त्तः देव ! (सः) तादृशस्त्वम् (हवम्) मदीयाह्वानम्। हवं ह्वानमिति निरुक्तम् १०।२ ह्वेञ् धातोः बहुलं छन्दसि।’ अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणे सति उकारान्तत्वाद् दोरप्।’ अ० ३।३।५७ इत्यप् प्रत्ययः। (श्रुधि) शृणु। श्रु श्रवणे धातोः श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि।’ अ० ६।४।१०२ इति हेर्धिः। अन्येषामपि दृश्यते’ अ० ६।३।१३ इति संहितायां दीर्घः ॥९॥

    भावार्थः

    परमेश्वरोऽव्यक्तरूपेण सर्वेषां हृदि सन्निविष्टः। तं पवित्रेन्द्रियः पूतवाग् आत्मसेवी जन एव वेदमन्त्रैः स्तुवन् प्रकटयितुं समर्थो भवति। परमेश्वरश्च प्रकटीभूय हृदयं पुनाति ॥९॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।७४।११ तन्त्वा, जनिष्ठदग्ने इत्यत्र क्रमेण यं त्वा, चनिष्ठदग्ने इति पाठः। २. ‘अङ्गिरः अङ्गानि शरीरावयवाः, तद्वत् अङ्गि शरीरम्, तस्य स्थितिहेतुरशितपीतरसः, तत्करोतीति णिच् अङ्गिरसयति। जाठरो ह्यग्निः अन्नं रसीकरोति। तस्य सम्बोधनं हे अङ्गिरः शरीरस्थितिहेतोरशितपीतरसस्य कर्त्तः इत्यर्थः—इति वि०। अङ्गिरः अङ्गिरसः पुत्रः अङ्गिरसां वा एकोग्निः (ऐ० ब्रा० ६।३४) इति ऐतरेयकम्। अगेर्वा अङ्गिराः। गन्तव्यं सर्वत्र—इति भ०। अङ्गिरः सर्वत्र गन्तः अङ्गिरसां पुत्रो वा—इति सा०।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O God, a devotee who controls his organs and speech, manifests Thee through praise, O Refulgent Lord, Remover of the sin of ignorance, hear Thou my invocation.

    Translator Comment

    Griffith has not translated the words ‘Gopvan’ and ‘Angira’ and has put them as they are, Gopvan means a devotee who controls his organs and speech. Angira means the ‘Refulgent Lord'.^Griffith considers Angiras as a name of Agni regarded as the best or eldest of the primeval priestly family of the Angiras. This interpretation is wide of the mark.

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    Meaning

    Agni, light of the world, dear as breath of life, all purifier, whom the poet visionary of light and the Word celebrates, pray listen to our invocation and song of adoration. (Rg. 8-74-11)

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    Translation

    O most beloved. God : Life of our life, A wise man who
    has purifid his speech and controlled all his senses,manifests Thee through his songs. Listen to my invocation O purifier.

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    Translation

    O Lord, ever and everywhere approachable, and purifier, kindly listen to our earnest prayers. The sage of the secret lore always refers to you as the generous giver of sustenance in his sweet devotional compositions. (Cf. Rv VIII.74.11)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अङ्गिरः पावक अग्ने) હે અંગોને સન્માર્ગમાં પ્રેરિત કરનાર પવિત્રકારક જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (तं त्वा) તે તને (गोपवनः) પોતાની ઇન્દ્રિયોને પવિત્ર કરનાર જન (गिरा जनिष्ठत्) સ્તુતિથી પોતાની અંદર પ્રસિદ્ધ કરે છે - સાક્ષાત્ કરે છે (सः हवं श्रुधि) તું અમારા આહ્વાન-પુકારને સાંભળ. (૯) 

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! પવિત્ર કરનાર તથા પોતાના ઉપાસકની અંદરની અભ્યર્થનાને સાંભળનાર છે. જ્યારે ઉપાસકને પોતાની અંદર તેનો સાક્ષાત્ થાય છે, ત્યારે તે ઇન્દ્રિયોનો સંયમ પ્રાપ્ત કરીને તેની અશાન્તિથી છૂટી જાય છે. પરમાત્માની કૃપાનો પાત્ર બની જાય છે. (૯)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگوان کے درشن کِن کو؟

    Lafzi Maana

    (اگنے) گیان کے ساگر (انگرہ) ایک ایک انگ میں رس او بل دینے والے، ذرے ذرے میں ویاپک بھگوان! (گِرا) وید بانی کے ذریعے (گوپ ونہ) اِندریوں کو پوتر کرنے والا اُپاسک (عابد) جس نے گیان اور کرم کو شُدھ کر لیا ہے (تم تُوا) اُس آپ کو اپنے ہردیہ میں (جنشِٹھت) پرگٹ کر لیتا ہے۔ ساکھشات کر لیتا ہے۔ پا لیتا ہے۔ دیدارِ نُورِ تجّلی (پاوک) ہے پوتر کر دینے والے، شرناگت کے اندرونی مل، بُرائیوں، دوشوں اور گناہوں کے انبار کو جلا کر شُدھ کر دینے والے پرمیشور! (ہوّم) ایسے بھگت کی فریاد کو (شُردھی) سُنیئے۔

    Tashree

    اپنے دِل کےمندر میں بھگوان کو ظاہر ظہور کر لینے کا ادھیکاری یا حق دار کون ہے؟ کیا کیول بانی سے، کیرتن ماتر کر لینے سے ہم پرمیشور کو پا لیں گے؟ ہرگز نہیں۔ وید منتر کا اُپدیش صاف ہے کہ جب تک ہم اپنے حواسِ خمسہ گیان اور کرم اِندریوں، من، بُدھی وغیرہ کو بدیوں سے علیٰحدہ کرکے پاک و صاف نہیں کر لیتے۔ اُس کے درشنوں کا نصیبہ نہیں ملے گیا۔
    اگیانیوں سے رہتا ہے کیول وہ دُور دُور،
    کہُل جائیں گیان چکہُشو (آنکھ) تو وہ ہے ملا ہوا۔

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    তং ত্বা গোপবনো গিরা, জনিষ্ঠদগ্নে অঙ্গিরঃ ।

    স পাবক শ্রুধী হবম্।। ৯।।

    (সাম ২৯)

    পদার্থঃ (অগ্নে) হে অগ্নি! (তম্ ত্বা) সেই তোমাকে (গো পবনঃ) বাণীর শুদ্ধি আকাঙ্ক্ষাকারী এবং তোমার স্তুতি দ্বারা যার বাণী শুদ্ধ, এরূপ ভক্ত (গিরা) নিজের বাণী দ্বারা (জনিষ্ঠৎ) তোমার স্তুতি করতে থেকে তোমাকে নিজের হৃদয়ে প্রকট করে। (অঙ্গিরঃ) হে জ্ঞাননিধি! (পাবক) পবিত্রকারী! (স হবম্ শ্রুধী) ঐভাবে তুমি আমাদের স্তুতি প্রার্থনা শ্রবণেরও অঙ্গীকার করো। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ মনুষ্যের বাণী সংসারে অনেক পার্থিব বস্তুর বর্ণনা এবং কঠোর, কটূ, মিথ্যা ভাষণাদি দ্বারা অপবিত্র হয়ে যায়। পরমাত্মা পতিত পাবন হওয়ায়, যে ব্যক্তি তাঁর ওঙ্কার (ও৩ম্) আদি সর্বোত্তম পবিত্র নাম উচ্চারণ করেন এবং মন দ্বারা চিন্তন করেন, সেই ব্যক্তির বাণী ও মনকে পবিত্র করেন। সেই ব্যক্তি  নিজে পবিত্র হয়ে অন্য সৎসঙ্গীদেরও পবিত্র করেন। সেই ব্যক্তিই ধন্য, যিনি নিজে ঈশ্বরের ভক্ত হয়ে অন্যকেও ঈশ্বরের ভক্ত গড়ে তোলেন। বাস্তবে সেই ভক্তের জন্ম সফল হয়ে যায়।।৯।।

     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वर अव्यक्तरूपाने सर्वांच्या हृदयात सन्निविष्ट आहे, त्याला पवित्र इंद्रियमुक्त, पवित्र वाणीयुक्त आत्मसेवी माणूसच वेदमंत्रांनी स्तुती करत प्रकट करण्यात समर्थ होतो व परमेश्वर प्रकट होऊन हृदयाला पवित्र करतो. ॥९॥

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    विषय

    त्या परमेश्वराला कोण आपल्या हृदयात प्रकट करतो, याविषयी सांगतात. -

    शब्दार्थ

    हे (अडिर:) माझे प्राणभूत (अग्ने) ज्ञानसूर्य, जगत्रेता परमात्मन्, (तम्) त्या समस्त गुणांनी युक्त (त्वा) आपणास (गो-पवन) इंद्रियरूप अथवा वाणीरूप गायीचा शोधरू, पवित्रेन्द्रिय पूतवाक् स्तोता (उपासक) अथवा (गोप-वन:) स्वत:च्या अंत:करणात प्रकट करतो. हे (पावक) शुद्धिकर्ता देव, (स:) तो तू (हवम्) माझे हे आवाहक (श्रुधि) ऐक ।।९।।

    भावार्थ

    परमेश्वर अव्यक्तरूपेण सर्वांच्या हृदयात समाविष्ट आहे. त्याला प्रकट करण्यात तोच मनुष्य समर्थ होतो कीजो पवित्रेन्द्रिय आहे, पवित्र वाक् आहे अथवा आत्मज्ञानी आहे. असा माणूसच वेदमंत्राद्वारे ईश्वराची स्तुती करीत त्याला आपल्या हृदयात व्यक्त करू शकतो. परमेश्वरदेखील अशा हृदयी प्रकट होऊन त्यास पवित्र करतो. ।।९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    அக்னியை [1] (கோபவனன்) மொழியால் உன்னை சனனஞ் செய்கிறார்.
    [2](அங்கிரசனே)! புனிதஞ் செய்பவனே! எங்கள் அழைப்பை செவிகொடுக்கவும்.

    FootNotes

    [1]. கோபவனன் - புலன்களை வசியஞ் செய்பவன்
    [2]. அங்கிரசனே - ஒளி வடிவமுள்ளவனே

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