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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 293
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    इ꣣म꣡ इन्द्रा꣢꣯य सुन्विरे꣣ सो꣡मा꣢सो꣣ द꣡ध्या꣢शिरः । ता꣡ꣳ आ मदा꣢य वज्रहस्त पी꣣त꣢ये꣣ ह꣡रि꣢भ्यां या꣣ह्यो꣢क꣣ आ꣢ ॥२९३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣मे꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सु꣣न्विरे । सो꣡मा꣢꣯सः । द꣡ध्या꣢꣯शिरः । द꣡धि꣢꣯ । आ꣣शिरः । ता꣢न् । आ । म꣡दा꣢꣯य । व꣣ज्रहस्त । वज्र । हस्त । पीत꣡ये꣢ । ह꣡रि꣢꣯भ्याम् । या꣣हि । ओ꣡कः꣢꣯ । आ । ॥२९३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इम इन्द्राय सुन्विरे सोमासो दध्याशिरः । ताꣳ आ मदाय वज्रहस्त पीतये हरिभ्यां याह्योक आ ॥२९३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । इन्द्राय । सुन्विरे । सोमासः । दध्याशिरः । दधि । आशिरः । तान् । आ । मदाय । वज्रहस्त । वज्र । हस्त । पीतये । हरिभ्याम् । याहि । ओकः । आ । ॥२९३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 293
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में इन्द्र को सोमपान के लिए बुलाया जा रहा है।

    पदार्थ

    प्रथम—अतिथि के पक्ष में। (इमे) ये (दध्याशिरः) दही के साथ मिलाये हुए (सोमासः) सोमादि ओषधियों के रस (इन्द्राय) तुझ विद्वान् अतिथि के लिए (सुन्विरे) तैयार रखे हैं। हे (वज्रहस्त) हमारे दोषों को नष्ट करने के लिए उपदेशवाणीरूप वज्र को धारण करनेवाले विद्वन् ! (तान्) उन दधिमिश्रित सोमरसों को (मदाय) तृप्त्यर्थ (पीतये) पीने के लिए (हरिभ्याम्) ऋक् और साम के ज्ञान के साथ अथवा दो घोड़ों से चलनेवाले रथ पर बैठकर, मुझ गृहस्थ के (ओकः) घर पर (आयाहि) आइए ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (इमे) ये (दध्याशिरः) कर्मरूप दही के साथ मिलाये या पकाये हुए (सोमासः) हमारे श्रद्धा-रस (इन्द्राय) तुझ जगदीश्वर के लिए (सुन्विरे) तैयार किये हुए हैं। हे (वज्रहस्त) वज्र-धारी के समान दोषों को नष्ट करनेवाले परमेश्वर ! (तान्) उन कर्ममिश्रित श्रद्धारसों को (मदाय) तृप्त्यर्थ (पीतये) पान करने के लिए (हरिभ्याम्) जैसे कोई रथ में घोड़ों को नियुक्त करके वेगपूर्वक आता है, वैसे (ओकः) हमारे हृदय-सदन में (आयाहि) आइए ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, परमात्मपक्ष में लुप्तोपमा भी है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे दही में मिलाकर सोमादि ओषधियों का रस अतिथियों को समर्पित किया जाता है, वैसे ही श्रद्धारस को कर्म के साथ मिलाकर ही परमेश्वर को अर्पित करना चाहिए, क्योंकि कर्महीन भक्ति कुछ भी लाभ नहीं पहुँचाती है ॥१॥

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    पदार्थ

    (वज्रहस्त) विश्व का शासन हाथ में रखने वाले परमात्मन्! “वज्रः शासः” [श॰ ३.८.१.५] (इमे) ये (दध्याशिरः) दधिध्यान के आश्रय—आश्रित “दध्यङ् प्रत्यक्तो ध्यानमिति प्रत्यक्तमस्मिन् ध्यानमिति वा” [निरु॰ १२.३४] “आशीराश्रयणात्” [निरु॰ ६.८] (सोमासः) सोम-उपासनारस (इन्द्राय) तुझ ऐश्वर्यवान् परमात्मा के लिये (सुन्विरे) निष्पन्न किये गये हैं (तान्) उन्हें (मदाय) प्रीति के अर्थ (पीतये) पान करने-स्वीकार करने के लिये (आयाहि) आ-प्राप्त हो (हरिभ्याम्-ओकः-आ) दुःखाज्ञानापहरणशील तथा सुखाहरणशील ज्योति और आनन्द स्वरूपों से मेरे हृदय—आत्मा के निवास-गृह को आ प्राप्त हो। “ओक-इति निवासनाम” [निरु॰ ३.३]।

    भावार्थ

    हे विश्व के शासन को सम्भालने वाले परमात्मन्! ये ध्यान चिन्तन से मिश्रित उपासनारस तुझ ऐश्वर्यवान् के लिये निष्पन्न हैं उन्हें हमारे प्रति प्रीति के निमित्त पान करने-स्वीकार करने के लिये प्राप्त हो, दुःख अज्ञान के अपहरण करने वाले तथा सुख के आहरण करने वाले अपने ज्योति और आनन्दमय स्वरूपों के साथ मेरे निवास स्थान हृदय गृह को प्राप्त हो॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त बसने वाला उपासक)॥<br>

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    विषय

    घर में आ भटक नहीं

    पदार्थ

    इमे (सोमासः) = ये सोमकण (सुन्विरे) = पैदा किये गये हैं। क्यों? (इन्द्राय) = प्रभु की प्राप्ति के लिए। जड़ जगत् की इस सर्वोत्तम वस्तु से हमने चेतन जगत् की सर्वोत्तम वस्तु को पाना है। ‘ब्रह्मचर्य' शब्द, जिसका धात्वीय अर्थ 'ब्रह्म की ओर जाना है', का अर्थ ही शक्ति का संयम हो गया है। यह संयत शक्ति ही हमें परमेश्वर को प्राप्त कराती है। इस प्रकार मुख्यरूप से इन सोमकणों का लाभ प्रभु - प्राप्ति ही है। प्रासंगिक रूप से ये (दध्यशिरः) = धारणशक्ति से युक्त हैं, अर्थात् शरीर में धारण किये जाकर ये शरीर के स्वास्थ्य को स्थिर रखनेवाले होते हैं। मन:प्रसाद व बुद्धि-नैर्मल्य का भी ये कारण बनते हैं।

    हे (तान्) = जीव! इन सोमकणों को तू इसलिए भी धारण कर कि ये तेरे (मदाय) = हर्ष का कारण होंगे। सोमरक्षा जीवन को उल्लासमय बना देती है, अतः ‘प्रभु-प्राप्ति', ‘धारणशक्ति' व ‘हर्ष' इन तीन उद्देश्यों से हे (वज्रहस्त) ! - (तू पीतये) = इनकी रक्षा के लिए प्रयत्नशील हो। ‘वज्रहस्त' शब्द का अभिप्राय है, जिसके हाथ में [वज्= गतौ] = गतिशीलता हो। क्रियामय जीवन ही हमें सोमरक्षा के योग्य बनाता है। इनकी रक्षा के लिए ही प्रभु जीव से कहते हैं कि (हरिभ्याम्) = तू अपने इन इन्द्रियरूप घोड़ों से (ओके) = अपने शरीररूप घर में (आयाहि) = आ। इन्द्रियों को विषयों की ओर न जाने देगा तो तू वासनाओं में न फँसने के कारण इन सोमकणों की रक्षा कर पाएगा। एवं, सोमकणों की रक्षा के मुख्यरूप से ये दो ही साधन हैं–क्रियाशील बनना और इन्द्रियों को बाहर भटकने से रोकना । इस सुरक्षित वीर्य से जीवन उल्लासमय होगा, धारणशक्ति प्राप्त होगी और अन्त में तू प्रभु को प्राप्ति।

    इन्द्रियों को वश में करके यह वसिष्ठ सचमुच प्रभु को प्राप्त कर सका है, परन्तु यह वसिष्ठ इसलिए बन पाया है क्योंकि यह मैत्रावरुणि प्राणापान की साधना करनेवाला हुआ। इस प्रकार क्रम यह है - १. प्राणापान की साधना से २. वसिष्ठ बनेंगे, ३. इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोक पाएँगे, ४. वासना का शिकार न होने से सोम की रक्षा सम्भव होगी, ५. इससे जीवन स्वस्थ व उल्लासमय होगा और अन्त में प्रभु की प्राप्ति होगी।

    भावार्थ

    हम इन्द्रियों को विषयों में न भटकने दें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( इमे ) ये ( दध्याशिरः ) = दधि से मिश्रित या ध्यान योग से प्राप्त ( सोमासः ) = सोम, ज्ञान ( इन्द्राय ) = आत्मा के लिये ( सुन्विरे ) = सम्पादित किये हैं, हे ( वज्रहस्त ) = हाथ में ज्ञान रूप वज्र को धारण किये हुए आत्मन् ! ( मदाय ) = अपने अन्तः प्रसन्नता, हर्ष के लिये ( तान् आ पीतये ) = उनको साक्षात् पान करने के लिये ( हरिभ्यां ) = ज्ञान और कर्म या दोनों प्रकार के इन्द्रियों से ( ओक: ) = इस देह में ( आयाहि ) = तू आ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वसिष्ठ:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रः सोमपानायाहूयते।

    पदार्थः

    प्रथमः—अतिथिपरः। (इमे) एते (दध्याशिरः) दध्ना सह मिश्रिताः (सोमासः) सोमाद्योषधीनां रसाः (इन्द्राय) विदुषे अतिथये तुभ्यम् (सुन्विरे) अभिषुताः सज्जीकृताः सन्ति। हे (वज्रहस्त) अस्मद्दोषान् नाशयितुं वाग्रूपवज्रधर विद्वन् ! वाग् हि वज्रः। ऐ० ब्रा० ४।१। वज्रः उपदेशवाग् हस्ते पाणौ इव समीपे यस्य स वज्रहस्तः। (तान्) दधिमिश्रितान् सोमरसान् (मदाय) तृप्तये (पीतये) पानाय (हरिभ्याम्) ऋक्सामभ्याम् सह। ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी। षड्विंश० १।१, यद्वा (हरिभ्याम्) यानहारकाभ्याम् अश्वाभ्याम्, अश्वद्वयनियुक्तं रथमारुह्येत्यर्थः। (ओकः) गृहस्थस्य मम गृहम् (आयाहि) आगच्छ ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। (इमे) एते (दध्याशिरः) कर्मरूपेण दध्ना आशिरः मिश्रिताः परिपक्वा वा। दधाति पुष्णातीति दधि कर्म घनीभूतं पयो वा। डुधाञ् धातोः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। अ० ३।२।१७१’ इति किः। ‘आशीः आश्रयणाद्वा आश्रपणाद् वा’ इति निरुक्तम् (६।८)(सोमासः) अस्माकं श्रद्धारसाः (इन्द्राय) जगदीश्वराय तुभ्यम् (सुन्विरे) अभिषुताः सन्ति। हे (वज्रहस्त) वज्रपाणिः इव अस्मद्दोषाणां नाशक परमेश्वर ! (तान्) कर्ममिश्रितान् कर्मभिः परिपक्वान् वा श्रद्धारसान् (मदाय) तृप्त्यर्थम् (पीतये) पानाय (हरिभ्याम्) अश्वाभ्यामिव इति लुप्तोपमम्, यथा रथे अश्वौ नियुज्य वेगेन कश्चिदागच्छति तथेत्यर्थः। (ओकः) अस्मदीयं हृदयरूपं सदनम् (आयाहि) आगच्छ ॥१॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः, परमात्मपक्षे लुप्तोपमापि ॥१॥

    भावार्थः

    यथा दध्ना संमिश्र्य सोमाद्योषधिरसोऽतिथिभ्यः समर्प्यते तथैव श्रद्धारसः कर्मणा संमिश्र्य परमेश्वराय समर्पणीयः, यतः कर्महीना भक्तिरकिञ्चित्करी खलु ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ७।३२।४। २. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयमृग्भाष्ये राजादयः किमाचरेयुरिति विषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    These juices of knowledge have been acquired for the soul through Yoga. O soul, come in this body, with the organs of cognition and action, for enjoying excellent pleasure, and drinking them!

    Translator Comment

    Them refer to juices of knowledge.

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    Meaning

    These somas of the nations honour and excellence energised by the ferment of inspiration and enthusiasm have been distilled to celebrate the dignity and majesty of the land and the ruler Indra. O lord wielder of the thunderbolt, come to our hall of fame for the joy of a drink of them. Come fast by the chariot drawn by horses of the winds. (Rg. 7-32-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वज्रहस्त) વિશ્વનું શાસન હાથમાં રાખનાર પરમાત્મન્ ! (इमे)(दध्याशिरः) દધિધ્યાનના આશ્રય-આશ્રિત (सोमासः) સોમ-ઉપાસનારસ (इन्द्राय) તારા માટે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને માટે (सुन्विरे) નિષ્પન્ન કરેલ છે (तान्) તેને (मदाय) પ્રીતિને માટે (पीतये) પાન કરવા સ્વીકાર કરવાને માટે (आयाहि) આવપ્રાપ્ત થા. (हरिभ्याम् ओकः आ) દુઃખ અજ્ઞાન અપહરણશીલ તથા સુખ આહરણશીલ જ્યોતિ અને આનંદ સ્વરૂપોથી મારા હૃદય-આત્માના નિવાસ-ગૃહમાં આવ-પ્રાપ્ત થા.

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે વિશ્વના શાસનને સંભાળનાર પરમાત્મન્ ! એ ધ્યાન, ચિંતનથી મિશ્રિત ઉપાસનારસ તારા-ઐશ્વર્યવાનને માટે નિષ્પન્ન છે. તેને અમારા પ્રત્યે પ્રીતિના કારણે પાન કરવા-સ્વીકાર કરવા માટે પ્રાપ્ત થા, દુઃખ અને અજ્ઞાનનું અપહરણ કરનાર તથા સુખનું આરોહણ કરનાર તારી જ્યોતિ અને આનંદમય સ્વરૂપોની સાથે મારા નિવાસ સ્થાન હૃદયગૃહને પ્રાપ્ત થા. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ہِردیہ کی گُفا میں آئیے!

    Lafzi Maana

    (دھدیا شِرہ امے سومامہ اِندرائے سنورے) دھارنا دھیان وغیرہ یوگ کے انگوں سے یہ بھگتی رس اِندر پرمیشور کے لئے بنائے ہیں، (بجرہست) بُرائیوں کے ناش کرنے والے بجر دھاری! (تان آیا ہی) اُن کے لئے آؤ (مدائے پیتئے ہری بھیام اوکے) اپنی اور ہماری خوشی کے لئے اور اِس بھگتی رس کو پینے کے لئے ہم سے کئے گئے سام وید گان اور رِگ وید کی سُتتی منتروں کے ذریعے اِس دل کی گُفا میں آئیے!

    Tashree

    یوگ سادھن سے بنائے بھگتی رس تیار ہیں، کیجئے منظور بھگون! یہ ہمارے پیار ہیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे दह्यात मिसळून सोम इत्यादी औषधींचा रस अतिथींना समर्पित केला जातो, तसेच श्रद्धारस कर्माबरोबर मिसळूनच परमेश्वराला अर्पण केला पाहिजे, कारण कर्महीन भक्तीचा काहीही लाभ होत नाही ॥१॥

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    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (अतिथिपर) - (इमे) हे जे (दध्याशिरः) हृदयात मिसळलेले (सोमासः) सोम आदी औषधींचे रस (इन्द़्राम) तुझ्यासारख्या विद्वान अतिथीकरिता आम्ही (गृहस्थजनांनी) (सुन्विरे) तयार करून ठेवले आहेत, हे (वज्रुहस्त) आमच्यातील दोष नष्ट करण्याकरिता ज्याच्या हातात उपदेशरूप वज्र आहे, असे विद्वान अतिथी महोदय, ापण (वान्) तो दधिमिक्षित सोमरस (मदाय) यथेच्छ (पीतये) पिण्यासाठी (हरिभ्याम्) ऋक् वसाम या ज्ञानासह अथवा ज्यात दोन घोडे जुंले आहे. अशा रथावर बसून आपण माझ्या म्हणजे गृहस्थ व्यक्तीच्या (ओकः) घरात (आ याहि) या.।। द्वितीय अर्थ - (परमात्मपर) - (इमे) हे जे (दध्याशिरः) कर्मरूप दह्यात मिसळलेला अथवा शिजविलेला जो (सोमासः) श्रद्धा-रस (इन्द्राय) तुझ्यासाठी तुज जयदीश्वरासाठी (सुन्विरे) मी तयार केला आहे, हे (वज्रहस्त) वज्रधारी सैनिकाप्रमाणे दोषांचा विनाश करणाऱ्या हे परमेश्वरा, (तान्) तो कर्ममिश्रित श्रद्धारस (मदाय) आमचे संतोष होईपर्यंत तू (पीतये) पिण्यासाठी तू (हरिभ्याम्) जसा एक रथी दोन घोड्यांच्या रथावर आरूढ होऊन वेगाने येतो. तद्वत तू आमच्या (ओक) हृदय-सदनी (आ याहि) ये.।।१।।

    भावार्थ

    जसे दह्यात मिसळून सोमरस अतिथींना देतात, तसेच श्रद्धा-रस कर्मात मिसळूनच परमेश्वराला अर्पित केला पाहिजे. कारण की कर्म विहीन भक्तीचा काही लाभ होत नाही. (माणसाने परमेश्वराची भक्ती- उपासना अवश्य करावी, पण त्यासोबत पुरुषार्थ व यत्नही केले पाहिजेत. ।। १।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. परमात्मपर अर्थात लुप्तोपमा अलंकारदेखील आहे. ।। १।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1]வச்சிர ஹஸ்தனே[2] தயிரோடு கலந்த இந்த சோமதுளிகள் இந்திரனுக்குப் பொழியப்பட்டவை. அவைகளை சந்தோஷத்திற்காகப் பருக எங்கள் வீட்டிற்கு வரவும்.

    FootNotes

    [1]வச்சிரஹஸ்தனே-வஜ்ராயுதனே [2] தயிரோடு -தியானத்தோடு

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