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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 319
ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
व꣡यः꣢ सुप꣣र्णा꣡ उ꣢꣯प सेदु꣣रि꣡न्द्रं꣢ प्रि꣣य꣡मे꣢धा꣣ ऋ꣡ष꣢यो꣣ ना꣡ध꣢मानाः । अ꣡प꣢ ध्वा꣣न्त꣡मू꣢र्णु꣣हि꣢ पू꣣र्धि꣡ चक्षु꣢꣯र्मुमु꣣ग्ध्या꣢३꣱स्मा꣢न्नि꣣ध꣡ये꣢व ब꣣द्धा꣢न् ॥३१९॥
स्वर सहित पद पाठव꣡यः꣢꣯ । सु꣣पर्णाः । सु꣣ । पर्णाः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । से꣣दुः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । प्रि꣣य꣡मे꣢धाः । प्रि꣣य꣢ । मे꣣धाः । ऋ꣡ष꣢꣯यः । ना꣡ध꣢꣯मानाः । अ꣡प꣢꣯ । ध्वा꣣न्त꣢म् । ऊ꣣र्णुहि꣢ । पू꣣र्धि꣢ । च꣡क्षुः꣢ । मु꣣मुग्धि꣢ । अ꣣स्मा꣢न् । नि꣣ध꣡या꣢ । नि꣣ । ध꣡या꣢꣯ । इ꣣व । बद्धा꣢न् ॥३१९॥
स्वर रहित मन्त्र
वयः सुपर्णा उप सेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः । अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुमुग्ध्या३स्मान्निधयेव बद्धान् ॥३१९॥
स्वर रहित पद पाठ
वयः । सुपर्णाः । सु । पर्णाः । उप । सेदुः । इन्द्रम् । प्रियमेधाः । प्रिय । मेधाः । ऋषयः । नाधमानाः । अप । ध्वान्तम् । ऊर्णुहि । पूर्धि । चक्षुः । मुमुग्धि । अस्मान् । निधया । नि । धया । इव । बद्धान् ॥३१९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 319
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पहेली द्वारा बहुत-से अर्थों का वर्णन है।
पदार्थ
प्रथम—सूर्य और सूर्य-किरणों के पक्ष में। (सुपर्णाः वयः) सुन्दर पंखोंवाले पक्षियों के समान सुन्दर उड़ान लेनेवाली सूर्य-किरणें, मानो (इन्द्रम्) सूर्य के (उपसेदुः) समीप पहुँचती हैं। (प्रियमेधाः) बुद्धि बढ़ाना अथवा प्रकाशप्रदानरूप यज्ञ करना जिन्हें प्रिय है, ऐसी (ऋषयः) दर्शन में सहायक वे (नाधमानाः) मानो याचना करती हैं कि हे सूर्य (निधया इव) मानो जाल से (बद्धान्) बँधी हुई (अस्मान्) हमें आप मुमुग्धि छोड़ दो, हमारे द्वारा (ध्वान्तम्) अन्धकार के आवरण को (अप-ऊर्णुहि) परे हटा दो, और (चक्षुः) प्राणियों की आँख को (पूर्धि) प्रकाश से पूर्ण कर दो ॥ द्वितीय—आचार्य और शिष्यों के पक्ष में। (सुपर्णाः) ज्ञान, कर्म, उपासना रूप सुन्दर पंखोंवाले, (वयः) उड़ने में समर्थ पक्षियों के समान पढ़ी हुई विद्या के प्रचार में समर्थ शिष्यगण (इन्द्रम्) विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्य के (उपसेदुः) समीप पहुँचते हैं। (प्रियमेधाः) मेधा और यज्ञ से प्रीति रखनेवाले, (ऋषयः) वेदादि शास्त्रों के द्रष्टा होते हुए वे (नाधमानाः) आचार्य से याचना करते हैं कि (निधया इव बद्धान्) मानो जाल से बाँधकर इस गुरुकुल में रखे हुए (अस्मान्) हमें, आप (मुमुग्धि) बाहर जाने के लिए छोड़ दीजिए, (ध्वान्तम्) संसार में फैले हुए अविद्या के अन्धकार को, (अप-ऊर्णुहि) हमारे द्वारा हटा दीजिए, और लोगों में (चक्षुः) ज्ञान के प्रकाश को (पूर्धि) भर दीजिए ॥ तृतीय—परमात्मा और जीवात्मा के पक्ष में। (सुपर्णाः) ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि रूप सुन्दर पंखोंवाले (वयः) पक्षियों के तुल्य जीवात्मा (इन्द्रम्) परमेश्वर के (उपसेदुः) पास पहुँचते हैं। (प्रियमेधाः) बुद्धि अथवा यज्ञ के प्रेमी, (ऋषयः) पदार्थों का दर्शन करनेवाले वे (नाधमानाः) परमात्मा से याचना करते हैं कि हमारे (ध्वान्तम्) तमोगुण के आवरण को (अप-ऊर्णुहि) हटा दो, और हमारे अन्दर (चक्षुः) ज्ञानप्रकाश को (पूर्धि) भर दो। (निधया इव) जाल के तुल्य जन्म, जरा, मरण आदि से (बद्धान्) शरीर या संसार में बंधे हुए (अस्मान्) हमें (मुमुग्धि) मुक्त कर दो, मोक्ष प्रदान कर दो ॥ चतुर्थ—राजा और प्रजा के पक्ष में। (सुपर्णाः) विविध साधनरूप शुभ पंखोंवाले (वयः) कर्मण्य प्रजाजन (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् वीर राजा के (उपसेदुः) समीप पहुँचते हैं। (प्रियमेधाः) मेधाप्रिय एवं यज्ञप्रिय, (ऋषयः) दृष्टिसम्पन्न, प्रबुद्ध वे (नाधमानाः) राजा से याचना करते हैं कि (ध्वान्तम्) राष्ट्र में व्याप्त अविद्या, भ्रष्टाचार आदि के अन्धकार को (अप-ऊर्णुहि) हटा दीजिए, हमारे अन्दर (चक्षुः) सद्विज्ञान, सद्विचार, सदाचार आदि का प्रकाश (पूर्धि) भर दीजिए। (निधया इव) मानो पापों और दुर्व्यसनों के जाल से (बद्धान्) बँधे हुए (अस्मान्) हम प्रजाजनों को (मुमुग्धि) श्रेष्ठ शिक्षा, दण्ड आदि उपायों द्वारा पापों और दुर्व्यसनों से छुड़ा दीजिए ॥७॥ इस मन्त्र में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है। अप्रस्तुत सूर्य तथा रश्मियों के वृत्तान्त से प्रस्तुत गुरु-शिष्य, परमात्मा-जीवात्मा और राजा-प्रजा का वृत्तान्त सूचित हो रहा है। ‘निधयेव बद्धान्—मानो जाल में बँधे हुए’ में उत्प्रेक्षा है ॥७॥
भावार्थ
कवि उत्प्रेक्षा कर रहा है कि रात्रि में सूर्य-किरणें जाल में बँधे पक्षियों के समान मानो सूर्यमण्डल के अन्दर बद्ध हो जाती हैं, तब वे मानो सूर्य से याचना करती हैं कि हमें छोड़ दो, जिससे हम भूतल पर जाकर अँधेरा मिटाकर सर्वत्र प्रकाश फैला दें। इसी प्रकार विद्याध्ययन किये हुए शिष्य आचार्य से याचना करते हैं कि आप हमें गुरुकुल से मुक्त कर दीजिए, जिससे बाहर जाकर हम संसार में फैले हुए अविद्या के अँधेरे को मिटाएँ। जीवात्मा-गण परमात्मा से याचना करते हैं कि ज्ञान की सलाई से हमारी चक्षु को दोषमुक्त करके जन्म, जरा, मरण आदि से बँधे हुए हमें मोक्ष का अधिकारी बना दीजिए। प्रजाजन राजा से याचना करते हैं कि राष्ट्र में व्याप्त अज्ञान, दुराचार आदि के अन्धकार को विछिन्न कर राष्ट्र को पतन की ओर ले जानेवाले सब दुर्व्यसनों से हमें छुड़ा दीजिए ॥७॥
पदार्थ
(वयः सुपर्णाः) ऊँची गति वाले पुरुष अर्थात् उपासक सत्पुरुष “पुरुष- सुपर्णः” [श॰ ७.४.२.५] (प्रियमेधाः-ऋषयः) परमात्मा की सङ्गति प्रिय जिनको है ऐसे “मेधृ सङ्गमे” [भ्वादि॰] ऋषि महानुभाव (नाधमानाः) यह याचना करने के हेतु (इन्द्रम्-उपसेदुः) परमात्मा को ध्यान में प्राप्त हुए—प्राप्त होते हैं (ध्वान्तम्-अप-ऊर्णुहि) कि परमात्मन्! तू अज्ञान अन्धकार को हटा दे (चक्षुः-पूर्धि) अपने ज्ञानप्रकाश से ज्ञाननेत्र को भर दे (अस्मान्-निधया-इव बद्धान् मुमुग्धि) हमें पाशसमूह की भाँति संसारपाश में बन्धे हुओं को अब छोड़ दे।
भावार्थ
प्रगतिशील सत्पुरुष परमात्मा की सङ्गति ही जिन्हें प्रिय है ऐसे ऋषिजन ध्यान में परमात्मा को प्राप्त हो यही याचना किया करते हैं कि परमात्मन्! तू हमारे आज्ञानान्धकार को मिटा अपने ज्ञानप्रकाश से हमारे ज्ञाननेत्र भर दे और पाश में बन्धे जैसे हमें संसार बन्धन से छोड़ अपने मुक्तिसदन में ले ले। परमात्मन्! ऐसे सत्पुरुषों को तू अपनी कृपा से उन्हें मुक्ति प्रदान करता है॥७॥
टिप्पणी
[*24. “तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गौरिवीतम्” [ऐ॰ ४.२३]।]
विशेष
ऋषिः—गौरीवीतिः शाक्त्यः (ब्रह्मवर्चस्तेज का सम्पादक शक्ति से सम्पन्न जन*24)॥<br>
विषय
उपासक का स्वरूप व उपासक की प्रार्थना
पदार्थ
‘प्रभु की उपासना का ठीक स्वरूप क्या है?' इस प्रश्न का उत्तर इस मन्त्र में बड़े उत्तम प्रकार से दिया गया है। अकर्मण्य स्तोत्रपाठी प्रभु के उपासक नहीं हैं। (इन्द्रं उपसेदुः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु के समीप तो ये ही बैठते हैं, उसकी उपासना तो ही करते हैं जोकि
१. (वयाः)=[वय गतौ] गतिशील हैं, अकर्मण्य नहीं। प्रभु की उपासना शब्दों से न होकर कर्मों से होती है - ('स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः । ') = [ pray to god, but keep the powder dry ] यह उक्ति ठीक है। प्रार्थना पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त ही शोभा देती है।
२. (सुपर्णा:) = उत्तम प्रकार से अपना पालन करनेवाले प्रभु के उपासक हैं। काम, क्रोध, लोभादि आसुर वृत्तियों के आक्रमण से जो सदा अपने को बचाने में लगे हैं। इसी उद्देश्य से जो सदा आत्मालोचन करते हैं वे प्रभु के सच्चे उपासक हैं।
३. (प्रिय मेधाः)=जिन्हें बुद्धि प्रिय है। शरीर रथ है तो बुद्धि सारथि । रथ भी ठीक होना ही चाहिए परन्तु सारथि की कुशलता उससे कहीं अधिक आवश्यक है। एक घटिया रथ को भी कुशल सारथि आगे ले जाएगा, परन्तु नये रथ को भी अनाड़ी सारथि विकृत कर देगा।
४. (ऋषयः)=जो देखनेवाले हैं। जो तत्त्व तक पहुँचते हैं।
५. (नाधमाना:)=नाध् आशी:- सभी के लिए मङ्गल की आशी:-कामना करनेवाले, किसी का भी अशुभ न चाहनेवाले ही सच्चे उपासक होते हैं।
यह उपासक प्रभु से प्रार्थना भी निम्न शब्दों में करता है -
१. (ध्वान्तम् अप ऊर्णुहि) = हे प्रभो! आप अन्धकार को दूर कीजिए। इस अन्धकार के ककारण हम वस्तुओं के ठीक रूप को नहीं देख पाते। यह अन्धकार ही हमें अनित्य में नित्य का, अशुचि में शुचि का, दुःख में सुख का और अनात्मा में आत्मा का आभास कराए रहता है। यह चतुर्विध अविद्या ही हमारे सब दुःखों का मूल बनती हैं।
२. (पूर्धि चक्षुः) = हे प्रभो! अज्ञानान्धकार को दूर कर आप हमारी चक्षुओं को ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण कर दीजिए। जब हमारे नेत्र ज्ञान की ज्योति से परिपूर्ण होंगे तो हम सर्वत्र आपकी महिमा देख पाएँगे। आपको देखने से उस एकत्व का भी दर्शन होगा, जोकि अन्तिम सत्य है।
३. (अस्मान् निधया इव बद्धान् मुग्धि) = हम विषय- जाल में इस अज्ञान के कारण ही फँसे हैं। अहंता और ममता की बेड़ी अज्ञानमूलक ही है। अविद्या को नष्ट कर विषय जाल में बद्ध हमें आप मुक्त कर दीजिए |
हे प्रभो! इस प्रकार ज्ञान को प्राप्त करनेवाला [गौरी वाचं व्येति= प्राप्नोति इति] मैं इस मन्त्र का ऋषि ‘गौरिवीति' बनूँ और अपने में अज्ञानमूलक निर्बलता को समाप्त कर शक्ति भरनेवाला ‘शाक्त्य' बनूँ।
भावार्थ
हम क्रियाशील, लोभादि से अपनी रक्षा करनेवाले, प्रिय-मेध, तत्त्वद्रष्टा और सर्वहितैषी बन प्रभु के सच्चे उपासक बनें और हमारी सदा यही आराधना हो कि हे प्रभो! हमारे ज्ञान-नेत्रों को खोल दीजिए |
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( वयः ) = दूर तक गति करने हारे, दूरदर्शी ( सुपर्णा: ) = उत्तम ज्ञान और बल की याचना करते हुए, ( ऋषय:) = विद्वान् लोग और आत्म पक्ष में -इन्द्रियां ( इन्द्रम् उपसेदुः ) = इन्द्र आत्मा आचार्य, परमेश्वर के समीप शिष्य भाव से पहुंचे और कहने लगे ( ध्वान्तं ) = हमारे अज्ञानरूप अन्धकारको ( अप ऊर्णुहि ) = दूर कर । ( चक्षुः ) = हमारी आंख को ( पूर्धि ) = शक्तिमान् कर, तेज से भर दे और ( निधया इव बद्धान् ) = जाल में बंधे हुए के समान हमको ( सुमुग्धि ) = मुक्त कर ।
इन्द्रियों का आत्मा के प्रति शिष्यों का ब्रह्मज्ञानी गुरु के प्रति, ऋषियों ज्ञानियों का परमात्मा के प्रति यह वचन है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - गौरिवीतिः ।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - त्रिष्टुभ् ।
स्वरः - नेवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रहेलिकया बहवोऽर्था वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
प्रथमः—सूर्य-सूर्यरश्मि-पक्षे। (सुपर्णाः वयः२) उत्कृष्टपक्षतियुक्ताः पक्षिणः इव सुपतनाः आदित्यरश्मयः (इन्द्रम्) सूर्यम् (उपसेदुः) उपसीदन्तीव। अत्र कालसामान्ये लिट्। (प्रियमेधाः) प्रिया मेधा बुद्धिप्रदानाख्यं कर्म येषां तादृशाः, यद्वा, प्रियः मेधः यज्ञः प्रकाशप्रदानरूपः येषां तथाविधाः। प्रियमेधः प्रिया अस्य मेधा। निरु० ३।१७। मेध इति यज्ञनाम। निघं० ३।१७ बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (ऋषयः) दर्शयितारः ते। ऋषिर्दर्शनात् इति निरुक्तम् २।११। (नाधमानाः) याचमानाः इव भवन्ति। नाधृ याच्ञोपतापैश्वर्याशीःषु, भ्वादिः, शानच् प्रत्ययः। यत् हे आदित्य ! (निधया इव) पाशसमूहेन इव। निधा पाश्या भवति यन्निधीयते। पाश्या पाशसमूहः, पाशः पाशयतेः विपाशनात्। निरु० ४।२। (बद्धान्) संयतान् (अस्मान्) नः (मुमुग्धि) मुञ्च। मुच्लृ मोचने, तुदादिः। लोटि ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६’ इति शपः श्लौ द्वित्वे रूपम्। अस्मद्द्वारा (ध्वान्तम्) तमः, तमसः आवरणमिति यावत् (अप ऊर्णुहि) अपावृणु, (चक्षुः) प्राणिनां नेत्रम् (पूर्धि) प्रकाशेन पूरय ॥ मन्त्रमेतं यास्काचार्य एवं व्याख्यातवान्—वयो वेर्बहुवचनम्। सुपर्णाः सुपतनाः आदित्यरश्मयः। उपसेदुरिन्द्रं याचमानाः। अपोर्णुहि आध्वस्तं चक्षुः। पूर्धि पूरय, देहीति वा। मुञ्चास्मान् पाशैरिव बद्धान् इति। निरु० ४।३ ॥ अथ द्वितीयः—आचार्य-शिष्य-पक्षे। (सुपर्णाः) ज्ञानकर्मोपासनारूपशोभनपक्षयुक्ताः (वयः) उड्डयनसमर्थाः पक्षिणः इव अधीतविज्ञानप्रचारसमर्थाः शिष्याः (इन्द्रम्) विद्यैश्वर्यवन्तम् आचार्यम् (उपसेदुः) उपसीदन्ति। (प्रियमेधाः) प्रियबुद्धयः प्रिययज्ञाः वा (ऋषयः) वेदादिशास्त्रद्रष्टारः सन्तः ते (नाधमानाः) आचार्यं याचमानाः भवन्ति यत् (निधया इव बद्धान्) पाशैरिवात्र गुरुकुले निगडितान् (अस्मान्) नः (मुमुग्धि) बहिर्गन्तुं मुञ्च, अस्मद्द्वारा (ध्वान्तम्) जगति प्रसृतम् अविद्यान्धकारम् (अप-ऊर्णुहि) अपसारय, जनेषु च (चक्षुः) ज्ञानप्रकाशम् (पूर्धि) पूरय ॥ अथ तृतीयः—परमात्म-जीवात्म-पक्षे। (सुपर्णाः) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय-प्राण- मनो-बुद्धिरूपशोभनपक्षाः (वयः) पक्षिणः इव जीवात्मानः (इन्द्रम्) परमेश्वरम् (उपसेदुः) उपसीदन्ति। (प्रियमेधाः) प्रियप्रज्ञानाः प्रिययज्ञाः वा (ऋषयः) द्रष्टारः ते (नाधमानाः) परमेश्वरं याचमानाः भवन्ति, यत् अस्माकम् (ध्वान्तम्) तमोगुणावरणम् (अप-ऊर्णुहि) अपसारय, (चक्षुः) ज्ञानप्रकाशम् (पूर्धि) पूरय, (निधया इव) पाशसमूहेन इव जन्मजरामरणादिना (बद्धान्) देहे जगति वा निगडितान् (अस्मान्) नः (मुमुग्धि) मुञ्च, मुक्तिप्रदानेन अनुगृहाण ॥ अथ चतुर्थः—राज-प्रजा-पक्षे। (सुपर्णाः) विविधसाधनरूपशुभपक्षाः (वयः) कर्मण्याः प्रजाजनाः। गत्यर्थकाद् वी धातोरिदं रूपम्। (इन्द्रम्) परमैश्वर्यं वीरं राजानम् (उपसेदुः) उपसीदन्ति। (प्रियमेधाः) प्रियबुद्धयः प्रिययज्ञाः वा (ऋषयः) दर्शनशक्तिसम्पन्नाः प्रबुद्धाः ते (नाधमानाः) राजानं याचमानाः भवन्ति, यत् (ध्वान्तम्) राष्ट्रे व्याप्तम् अविद्याभ्रष्टाचारादिरूपं तमः (अप-ऊर्णुहि) अपसारय, (चक्षुः) सद्विज्ञान-सद्विचार-सदाचारादीनां प्रकाशम् (पूर्धि) पूरय, (निधया इव) पाशसमूहेन इव पापैर्दुर्व्यसनैश्च (बद्धान्) निगडितान् (अस्मान्) प्रजाजनान् (मुमुग्धि३) सच्छिक्षण-दण्डादिभिरुपायैः पापेभ्यो दुर्व्यसनेभ्यश्च मोचय ॥७॥ अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः। अप्रस्तुतेन सूर्य-रश्मि-वृत्तान्तेन प्रस्तुतो गुरुशिष्य-परमात्मजीवात्मराजप्रजावृत्तान्तो व्यज्यते। ‘निधयेव बद्धान्’ इत्युत्प्रेक्षा ॥७॥
भावार्थः
कविरुत्प्रेक्षते यद् रात्रौ सूर्यरश्मयो जालबद्धाः खगा इव सूर्यमण्डले संयता इव भवन्ति, ते तदा सूर्यं याचन्ते इव यदस्मान् मुञ्च येन वयं भूतलं गत्वाऽन्धकारं निवार्य सर्वत्र प्रकाशं प्रसारयेम। तथैव गृहीतविद्याः शिष्या आचार्यं याचन्ते यदस्मान् गुरुकुलाद् विसृज, येन बहिर्गत्वा वयं जगति प्रसृतम् अविद्यान्धकारं निवारयेम। तथैव जीवात्मानः परमात्मानं याचन्ते यज्ज्ञानाञ्जनशलाकयाऽस्माकं चक्षुरुन्मील्य जन्मजरामरणादिभिर्निगडि- तानस्मान् मोक्षाधिकारिणः कुरु। तथैव प्रजाजना राजानं याचन्ते यद् राष्ट्रे व्याप्तम् अज्ञानदुराचारादिरूपं तमो विच्छिद्य राष्ट्रपतनकारिभ्यः समस्तेभ्योऽपि दुर्व्यसनेभ्योऽस्मान् मोचयेति ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।७३।११। २. वयः। लुप्तोपममेतत्। वय इव। शीघ्रगमनेन पक्षिसदृशा इत्यर्थः। के ते ? आदित्यरश्मयः—इति वि०। ३. मुमुग्धि मोचय अस्मान् पापेभ्यः—इति भ०।
इंग्लिश (2)
Meaning
Far-seeing, Knowledge-seeking, sacrifice-loving sages, imploring, approach God, and pray unto Him to dispel the darkness of their ignorance, fill full their eye with flow of knowledge, and release them from the snare of infatuation like birds entangled in a net.
Meaning
Men of vibrant intelligence and flying imagination, seers and sages with love and reason, in a mood of supplication, prayer and faith sit and abide by Indra. O lord, unveil the truth from darkness, perfect our vision for the light of truth, release us for we are bound like birds in snares. (Rg. 10-73-11)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वयः सुपर्णाः) શ્રેષ્ઠ ગતિવાળા પુરુષ અર્થાત્ ઉપાસક સત્પુરુષ (प्रियमेधाः ऋषयः) જેને પરમાત્માનો સંગ પ્રિય છે એવા ઋષિ મહાનુભાવ (नाधमानाः) એ યાચના કરવા માટે (इन्द्रम् उपसेदुः) પરમાત્માનાં ધ્યાનને પ્રાપ્ત થયેલ-પ્રાપ્ત થાય છે. (ध्वान्तम् अप ऊर्णुहि) હે પરમાત્મન્ ! તું અજ્ઞાનઅંધકારને દૂર કર (चक्षुः पूर्धि) તારા જ્ઞાન-પ્રકાશ દ્વારા જ્ઞાન નેત્રને ભરી દે (अस्मान् निधया इव बद्वान् मुमुग्धि) અમને પાશ સમૂહની માફક સંસારપાશમાં બંધાયેલાને હવે છોડી દે-મુક્ત કર. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પ્રગતિશીલ સત્પુરુષ પરમાત્માની સંગતિ જ જેને પ્રિય છે, એવા ઋષિજનો ધ્યાનમાં પરમાત્માને પ્રાપ્ત કરીને એવી યાચના કરે છે કે, હે પરમાત્મન્ ! તું અમારા અજ્ઞાન-અંધકારનો નાશ કરીને તારા જ્ઞાન-પ્રકાશથી અમારા જ્ઞાન નેત્રને ભરી દે અને પાશમાં બંધાયેલની જેમ અમને સંસાર બંધનથી મુક્ત કરીને તારા મુક્તિઘરમાં લઈ લે. પરમાત્મન્ ! એવા સત્પુરુષોને તું તારી કૃપા દ્વારા તેને મુક્તિ પ્રદાન કરે છે. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
پکشیوں کی طرح جال میں بندھے ہُوئے ہمیں چھڑاؤ
Lafzi Maana
(پریہ میدھا رِشیا) بھگوان کی بھگتی کے پیارے ست پُرش رِشی گن پرارتھنا یا فریاد کرتے ہوئے (اِندرم اُپ سیدُو) پرماتما کے نزدیک تر ہو کر دھیان میں لین ہو جاتے ہیں، (سُپر ناہ دیہ) جیسے پکشی اُڑائیں بھرتے ہیں، وہ بھی ایشور میں اُڑائیں بھرتے ہوئے کہتے جاتے ہیں کہ ہے پرمیشور! ہمارے (دُھوانتم اپ ارنُوہی) اگیان اندھکار کے پردے کو ہٹا دیجئے، ہماری (چکھشو پُوردھی) نظرِ رُوح کو بھر دیجئے (ادھیاتمک درشٹی) (اسمان مُومگدھی) ہمیں مُکت کر دیجئے۔ ہم پکشیوں کی (اِو) طرح (نِدھیا بدھوان) دُنیا کے جال میں پھنس رہے ہیں۔
Tashree
جال میں پھنسے ہوئے اگیان کے وش ہو رہے، مُکت کر دو اِیش پیارے دھیان میں ہیں کھو رہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
कवी उत्प्रेक्षा करतो की रात्री सूर्य-किरणे जाळीत बांधलेल्या पक्ष्याप्रमाणे जणू सूर्यमंडलामध्ये बद्ध होतात, तेव्हा ती जणू सूर्याची याचना करतात की आम्हाला सोडून द्या, ज्यामुळे आम्ही भूतलावर जाऊन अंधार नष्ट करून सर्वत्र प्रकाश पसरवू. याच प्रकारे विद्याध्ययन केलेले शिष्य आचार्याची याचना करतात की तुम्ही आम्हाला गुरुकुलातून मुक्त करा. ज्यामुळे बाहेर जाऊन आम्ही जगात पसरलेला अविद्येचा अंधार नष्ट करू. जीवात्मे परमेश्वराची याचना करतात की ज्ञानाच्या शलाकेने आमचे नेत्र दोषमुक्त करून जन्म, जरा, मरण इत्यादींनी बंधित आम्हाला मोक्षाचा अधिकारी बनवा. प्रजा राजाला याचना करते की राष्ट्रात व्याप्त असलेले अज्ञान, दुराचार इत्यादीच्या अंधकाराला विच्छिन्न करून राष्ट्राला पतनाकडे सर्व दुर्व्यसनांपासून आमची सुटका करा. ॥७॥
विषय
(प्रहेतिका) कोडें विचारून अनेक आर्यांचे वर्णन -
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (सूर्य आणि सूर्यकिरणे याविषयी) (सुपर्णाः वयः) सुंदर पंख असणाऱ्या पक्ष्याप्रमाणे मोहक उड्डाण करणाऱ्या सूर्यकिरणे जणू काय (इन्द्रम्) सूर्याच्या (उपसेदुः) जवळ जातात. (प्रियमेधाः) बुद्धिवर्धन करणे वा प्रकाशदान रूप यज्ञ करणे हे ज्यांचे प्रिय कार्य आहे, अशा त्या (ऋषयः) पाहण्यात ज्या सहाय्यक अशी ती किरणे (नाधमानाः) जणू काय याचना करतात की हे सूर्य, (निधया इव) या पाशाव्वत (बद्धान्) बद्ध झालेल्या (अस्मान्) आम्हाला (मुयुग्धि) मुक्त करा. आमच्या हस्ते (ध्वान्तम्) अंधकाराचे आवरण (उप ऊर्णूहि) दूर सारा आणि (चक्षुः) प्राण्यांचे डोळे (पूर्धि) प्रकाशाने भरून टाका.।। द्वितीय अर्थ - (आचार्य- शिष्यपर) - (सुपर्णाः) ज्ञान, कर्म - उपासनारूप सुंदर पंख असणारे आणि (वयः) उठण्यास सक्षम अशा पक्ष्याप्रमाणे विद्या अध्ययनात समर्थ असे शिष्यगण (इन्द्रम्) विद्यारूप ऐश्वर्याने समृद्ध आचार्यांजवळ (उपसेदुः) जवळ जातात. (प्रियमेघाः) मेधा आणि यज्ञ यांच्याविषयी प्रेम असणारे आणि (ऋषभः) वेदादी शास्त्रांचे द्रष्य असे ते शिष्य (जाधमानाः) आचार्याला याचना करतात की (रिधया इव बद्धान्) जणू या गुरुकुल रूपपाशात बद्द (अस्मान्) आम्हाला (सुमुग्धि) आता आपण गुरुकुलाबाहेर जाण्यासाठी मुक्त करा. (कारण आमचे शिक्षण पूर्ण झाले असून आता आम्ही इतरेजनांना ते ज्ञान देण्यासाठी गुरुकुलाबाहेर जाऊ इच्छितो. या उद्दिष्टाच्या सिद्धतेसाठी) आपण (ध्वान्तम्) जगात पसरलेल्या अविद्या- अंधकाराला (अप ऊर्णुहि) आमच्या हातून पूर्णपणे नष्ट करा आणि (चक्षुः) ज्ञानरूप प्रकाश लोकांच्या (पूर्धि) मस्तिष्कात पूर्णपणे भरा.।। तृतीय अर्थ (परमात्मा- जीवात्मापर)- (सुपर्णाः) ज्ञानेंद्रियें, कर्मेन्द्रियें, प्राण, मन, बुद्धीरूप सुंदर पंख असलेले (वयः) व पक्ष्याप्रमाणे असलेले जीवात्मा, (इन्द्रम्) परमेश्वराजवल (उपसेदुः) पोहचतात. (प्रियमेधाः) बुद्धीचे प्रेमीना यज्ञप्रेमी व (ऋषयः) पदार्थ दर्शन करणारे जीवात्मा (नाधमानाः) परमेश्वराला याचना करतात की आमच्या (ध्वान्तम्) तमोगुणाचे आवरण (अप ऊर्णुहि) दूर करा आणि आमच्या हृदयात वा बुद्धीत (चक्षुः) ज्ञानाचा प्रकाश (पूर्धि) भरा. (निधमा इव) जणू काय पोशाप्रमाणे असलेल्या या जन्म, जरा, मरण आदींमध्ये (बद्धान्) बद्ध असलेल्या (अस्मान्) आम्हाला (मुमुग्धि) मुक्त करा. आम्हास मोक्ष द्या.।। चतुर्थ अर्थ - (राजा- प्रजापर) (सुपर्णाः) विविध साधनरूप शुभ पंख असलेले (वयः) कर्मशील प्रजाजन (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान वीर राजाजवळ (उपसेदुः) जातात. (प्रियमेधाः) मेधाप्रिय व यज्ञप्रिय (ऋषयः) दृष्टिसंपन्न, प्रबुद्ध ते प्रजानन (नाधमानाः) राजाला याचना करतात की (ध्वान्तम्) राष्ट्रत व्याप्त अविद्या, भ्रष्टाचार आदींच्या अंधकाराला (अप ूर्णुहि) दूर करा. ते म्हणतात की आमच्यामध्ये (चक्षुः) सद्विज्ञान, सद्विचार, सदाचार आदींचा प्रकाश (पूर्धि) भरा. (निधया इव) जणू काय पाप आणि दुर्व्यसनांच्या पाशात (बद्धान्) बद्ध असलेल्या (अस्मान्) आम्हा प्रजाजनांना (मुमुग्धि) श्रेष्ठ शिक्षण, प्रशिक्षण, दंड आदी उपायांद्वारे पाप आणि व्यसनांपासून आम्हाला तुम्ही सोडविले आहे, असे करा.।। ७।।
भावार्थ
कवी उत्प्रेक्षा करीत आहे की रात्री सूर्याची किरणे जणू काय जाळ्यात अडकलेल्या पक्ष्यांप्रमाणे सूर्यमंडलात बद्ध असतात. तेव्हा किरणे सूर्याला याचना करतात की आम्हाला सोडा की ज्यामुळे आम्ही भूतलावर जाऊन अंधकाराचा नाश करून सवज्ञर्त्र प्रकाशाचा विस्तार करू शकू. तद्वत विद्याध्ययन- काल पूर्ण केलेले शिष्यगण आचार्याला प्रार्थना करतात की आम्हाला गुरूकुलातून मुक्त करा की ज्यायोगे आम्ही बाहेर जाऊन जगात पसरलेल्या अविद्यान्धकार नष्ट करू शकू. याचप्रमाणे जीवात्मा- गण परमेश्वराला याचना करतात की ज्ञानरूप सळईने आमचे नेत्र दोषमुक्त करून जन्म, जरा, मरण आदी वब्ध असलेल्या आम्हाला मोक्षासाठी पात्र असे करा. मोक्ष द्या. तद्वत प्रजाजन राजाला याचना करतात की राष्ट्रात व्याप्त अज्ञान, दुराचार आदी रूप अंधकार छिन्न- विछिन्न करा आणि राष्ट्राला पतनाकडे घेऊन जाणाऱ्या सर्व दुर्व्यसनांपासून आम्हाला सोडवा. (वा वाचवा) ।। ७।।
विशेष
या मंत्रात अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार आहे. कारण येथे अप्रस्तुत सूर्य आणि रश्मी यांच्या वर्णनातून प्रस्तुत गुरू- शिष्य, परमात्मा- जीवात्मा व राजा-प्रजा वृत्तांत सूचित केले आहे. ङ्गनिधयेव बद्धान्फ ङ्गजणू काय पाशबद्धफ असे म्हटल्यामुळे येथे उत्प्रेक्षा अलंकारही आहे. ।। ७।।
तमिल (1)
Word Meaning
செல்லும் (சுபர்ணனைப்) போல் சூரியரசிமிகளைப்போல் (பிரியமேதர்கள்) (அறிஞர்கள்) ரிஷிகள் அறிவை யாசித்துக் கொண்டு (இந்திரன்) அருகிலாகிறார்கள். இருளை நீக்கவும். எங்கள் காட்சியைப் பூர்ணமாக்கவும். வலையில் அகப்பட்டவன் போலுள்ள என்னை விடுதலையாக்கவும்.
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