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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 330
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
उ꣢दु꣣ ब्र꣡ह्मा꣢ण्यैरत श्रव꣣स्ये꣡न्द्र꣢ꣳ सम꣣र्ये꣡ म꣢हया वसिष्ठ । आ꣡ यो विश्वा꣢꣯नि꣣ श्र꣡व꣢सा त꣣ता꣡नो꣢पश्रो꣣ता꣢ म꣣ ई꣡व꣢तो꣣ व꣡चा꣢ꣳसि ॥३३०॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢त् । उ꣣ । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । ऐ꣣रत । श्रवस्य꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣मर्ये꣢ । स꣣ । मर्ये꣢ । म꣣हय । वसिष्ठ । आ꣢ । यः । वि꣡श्वा꣢꣯नि । श्र꣡व꣢꣯सा । त꣣ता꣡न꣢ । उ꣣पश्रोता꣢ । उ꣣प । श्रोता꣢ । मे꣣ । ई꣡व꣢꣯तः । व꣡चां꣢꣯ऽसि ॥३३०॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्येन्द्रꣳ समर्ये महया वसिष्ठ । आ यो विश्वानि श्रवसा ततानोपश्रोता म ईवतो वचाꣳसि ॥३३०॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । उ । ब्रह्माणि । ऐरत । श्रवस्य । इन्द्रम् । समर्ये । स । मर्ये । महय । वसिष्ठ । आ । यः । विश्वानि । श्रवसा । ततान । उपश्रोता । उप । श्रोता । मे । ईवतः । वचांऽसि ॥३३०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 330
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि विद्वान् जन क्या करें।
पदार्थ
उपासक जन (श्रवस्या) यश-प्राप्ति की इच्छा से इन्द्र परमेश्वर के प्रति (ब्रह्माणि) स्तोत्रों को (उद् ऐरत उ) उच्चारण करते हैं। हे (वसिष्ठ) सद्गुणकर्मों में और विद्या में अतिशय निवास किए हुए विद्वन् ! तू भी (समर्ये) जीवन-संग्राम में वा यज्ञ में (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् परमात्मा की (महय) पूजा कर। (यः) जिस परमात्मा ने (विश्वानि) सब भुवनों को (श्रवसा) यश से (आ ततान) विस्तीर्ण किया है, वह (ईवतः मम) मुझ पुरुषार्थी के (वचांसि) प्रार्थना-वचनों को (उपश्रोता) सुननेवाला हो ॥८॥
भावार्थ
परमेश्वर पुरुषार्थी के ही वचनों को सुनता है, पौरुषरहित होकर केवल स्तुति करते रहनेवाले के नहीं। जिसने सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि सब भुवनों को यश से प्रसिद्ध किया है, वह मुझे भी यशस्वी बनाये, यह आकांक्षा सबको करनी चाहिए और उसके लिए प्रयत्न भी करना चाहिए ॥८॥
पदार्थ
(वसिष्ठ) हे परमात्मा में अत्यन्त वसने वाले उपासक! (समर्ये) अपने अन्दर उठे शुभाशुभ वृत्तियों के संग्राम—संघर्ष में “समर्ये संग्रामनाम” [निघं॰ २.१७] (इन्द्र महय) परमात्मा को अर्चित कर—उसकी स्तुति कर (श्रवस्या ब्रह्माणि-उदैरत-उ) ‘श्रवस्यया’ अवश्य अपने अध्यात्म धन की इच्छा से “श्रवः धनम्” [निघं॰ २.१०] उपासनाकर्मों को उच्चभाव से अनुष्ठित कर (यः) जो परमात्मा (विश्वानि श्रवसा) समस्त ‘श्रवसानि-श्रवस् शब्दान्मतुबर्थीयोऽ-कारश्छान्दसः’ अध्यात्म धन के आश्रयों को (आ ततान) प्रकाशित किया करता है (सः) वह परमात्मा (ईवतः-मे वचांसि-उपश्रोत) मुझ प्राप्त हुए के वचनों को सुनता है या स्वीकार करता है।
भावार्थ
उपासक अपने को सम्बोधित करके कहे कि अरे उपासक! तू अपने अन्दर वृत्तियों के संघर्ष में परमात्मा की अर्चना कर अध्यात्मधन की इच्छा से उपासना कर्मों—अष्टाङ्गयोगाचरणों का अनुष्ठान कर, जो परमात्मा अध्यात्मधन के आश्रयों—मित्रों को प्रकाशित करता है वह प्राप्त हुए मुझ उपासक के प्रार्थनावचनों को स्वीकार करता है॥८॥
विशेष
ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥<br>
विषय
ज्ञान, उपासना व कर्मवाला जीवन
पदार्थ
श्रवस्' शब्द के ज्ञान, यश व श्री तीनों ही अर्थ हैं, 'य' प्रत्यय इच्छा अर्थ में आता है। (श्रवस्या) = ज्ञान, यश व श्री की इच्छा से (ब्रह्माणि) = वेदमन्त्रों को (उ) = निश्चय से (उद्ऐरत) = उच्चारण करो ही। वेदमन्त्रों का अभ्यास यहाँ स्वाध्याय का द्योतक है। स्वाध्याय के बिना ज्ञानादि की प्राप्ति सम्भव नहीं।
हे (वसिष्ठ) = सर्वोत्तम निवास चाहनेवाले अथवा वशियों में सर्वश्रेष्ठ! तू (सम् अर्ये) = उत्तम जितेन्द्रिय बनने के निमित्त (इन्द्रम्) = उस परमैयशाली प्रभु को (महया) = पूज। उस प्रभु का गुणगान तुझे वासनाओं के आक्रमण से सुरक्षित रक्खेगा। ‘समर्ये का दूसरा अर्थ ‘स-मर्ये' [सह मर्याः यत्र] जहाँ घर के सब व्यक्ति समवेत हों वहाँ प्रभु की पूजा कर अर्थात् प्रातः- सायं मिलकर प्रभु - उपासना कर ।
(यः) = जो प्रभु (श्रवसा) = अपनी सर्वज्ञता से व श्री से (विश्वानि) = इन सब लोक-लोकान्तरों को (आततान) = विस्तृत करता है, वह प्रभु (ईवतः) = [ई-गमन] गमनशील (मे) = मेरे (वचांसि) = वचनों को (उपश्रोता) = समीप से श्रवण करता है। यदि मैं स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, केवल प्रार्थना ही प्रार्थना करता हूँ तो मेरे वचन व्यर्थ हैं, वे प्रभु से सुने नहीं जाते। प्रभु का साहाय्य तो मुझे तभी प्राप्त होता है जबकि मैं स्वयं क्रियाशील बनता हूँ।
इस प्रकार एक आदर्श जीवन 'ज्ञान, उपासना व कर्म' तीनों को ही उचित स्थान प्राप्त होता है। ज्ञान और कर्म के मध्य में यहाँ उपासना को इसलिए रक्खा गया है कि ज्ञानपूर्वक कर्मों से ही वह साध्य होती है। उपसना से ज्ञान उज्ज्वल होता है तो कर्म पवित्र होते हैं। केवल ज्ञानी ज्ञानदैत्य बन जाता है, केवल भक्त अन्धभक्त [fanatic] हो जाता है और केवल कर्म मनुष्य को अनन्त रीतियों [ rituals] के जंजाल में फंसा देता है। इन तीनों के समन्वय से उसका जीवन अत्युत्तम बनता है और इस उत्तम निवासवाला यह ‘वसिष्ठ' होता है। इस ज्ञान उपासना व कर्म की त्रयी को अपने में घटित करने के लिए ही यह 'मैत्रावरुणि' प्राणापान की साधना करनेवाला बनता है।
भावार्थ
प्रभुकृपा से प्राणसाधना करते हुए हम इस ज्ञान, कर्म व उपासना की त्रयी से अपने जीवनों को अलंकृत करें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( वसिष्ठ ) = वाग् ! या विद्वन् ! ( श्रवस्या ) = ज्ञान की प्राप्ति के लिये ( ब्रह्माणि ) = वेदमन्त्रों का ( उद् ऐरत ) = उच्चस्वर से पाठ कर। ( समर्ये ) = यज्ञ आदि विद्वानों की संगति में ( इन्द्रं ) = उस परमात्मा की ( महय ) = उपासना कर ( यः ) = जो ( श्रवसा ) = अपने सामर्थ्य से ( विश्वानि ) = समस्त ब्रह्माण्डों को ( अततान ) = रचता है और ( यः ) = जो ( मे ) = मुझ ( ईवतः ) = ज्ञानी पुरुष के ( वचांसि ) = वचनों को ( उप श्रोता ) = समीपतम होकर श्रवण करता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वसिष्ठ:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - त्रिष्टुभ् ।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वांसो जनाः किं कुर्युरित्याह।
पदार्थः
उपासका जनाः (श्रवस्या२) यशःप्राप्तीच्छया। श्रवः श्रवणीयं यशः इति निरुक्तम्। (११।९)। तस्येच्छा श्रवस्या। क्यचि ‘अ प्रत्ययात्’। अ० ३।३।१०२ इति अ प्रत्यये टाप्। ततस्तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। श्रवस्याशब्दश्चित्त्वादन्तोदात्तः, उदात्तेन सह विभक्तेरेकादेशोऽप्युदात्त एव। इन्द्रं प्रति (ब्रह्माणि) स्तोत्राणि (उद् ऐरत उ) उदीरयन्ति खलु। ईर गतौ कम्पने च, लडर्थे लुङ्। हे (वसिष्ठ३) अतिशयेन सद्गुणकर्मसु विद्यासु च कृतनिवास विद्वन् ! अतिशयेन वस्ता इति वसिष्ठः। वस्तृ शब्दाद् इष्ठनि ‘तुरिष्ठेमेयस्सु’ अ० ६।४।१५४ इति तृचो लोपः। ‘यद्वै नु श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठोऽथो यद् वस्तृतमो भवति तेनो एव वसिष्ठः’। श० ८।१।१।६। त्वमपि (समर्ये४) जीवन-संग्रामे यज्ञे वा। संगता भवन्ति मर्याः शत्रवो मनुष्या यत्र स समर्यः संग्रामः। समर्ये इति संग्रामनामसु पठितम्। निघं० २।१७। संग्रामवाचिनः शब्दा यज्ञवाचिनोऽपि दृश्यन्ते इति यज्ञोऽपि समर्यः। तत्रापि यज्ञेच्छया जनाः समवेता भवन्ति। (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानम् (महय) पूजय। (मह) पूजायाम्। संहितायाम् ‘अन्येषामपि दृश्यते’ अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः। (यः) इन्द्रः (विश्वानि) सर्वाणि भुवनानि (श्रवसा) यशसा (आ ततान) वितस्तार सः (ईवतः५) गमनवतः कर्मण्यस्य पुरुषार्थिनः। अयनम् ईः, ई गतिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, क्विपि रूपम् तद्वतः। (मे) मम (वचांसि) प्रार्थनावचनानि (उपश्रोता) सामीप्येन आकर्णयिता, भवत्विति शेषः ॥८॥६
भावार्थः
परमेश्वरः पुरुषार्थिन एव वचांसि शृणोति, न पौरुषहीनस्य केवलं स्तुतिं कुर्वतः। यः सर्वाणि सूर्यचन्द्रपृथिव्यादीनि भुवनानि यशसा प्रख्यापयति, स मामपि यशस्विनं विदध्यादिति सर्वैराकाङ्क्षणीयं तदर्थं प्रयतनीयं च ॥८॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।२३।१, अथ० २०।१२।१, उभयत्र ‘श्रवसा’ इत्यत्र ‘शवसा’ इति पाठः। २. श्रवस्या श्रवणीयानि उत्कृष्टानीत्यर्थः—इति वि०। अस्मिन् पक्षे स्वरो न सङ्गच्छते, यति स्वरितान्तत्वापत्तेः। ‘श्रवस्या’ श्रवस्यया अन्नेच्छया—इति भ०। तदेव सायणस्याभिप्रेतम्। ३. (वसिष्ठम्) यो वसति धर्मादिकर्मसु सोऽतिशयितस्तम् इति ऋ० १।११२।९ भाष्ये, (वसिष्ठाः) अतिशयेन सद्गुणकर्मसु निवासिनः इति ऋ० ७।३७।४ भाष्ये, (वसिष्ठः) अतिशयेन विद्यासु कृतवासः इति च ऋ० ७।२६।५ भाष्ये द०। ४. समर्ये संग्रामस्थानीययज्ञे—इति वि०। भरतसायणावपि ‘यज्ञे’ इत्येव व्याचक्षाते। ५. ईवतः। इवतेर्व्याप्तिकर्मण एतद्रूपम्। व्याप्तिमत—इति वि०। उपगमनवतः—इति भ०, सा०। ६. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा ऋगियम् ‘उपस्थिते संग्रामे प्रबन्धकर्तारः किं किं कुर्युरिति’ विषये व्याख्याता।
इंग्लिश (2)
Meaning
O learned person, for the acquisition of knowledge, recite aloud the Vedic verses. In struggle for advancement pray unto God, Who in His might creates all the worlds and listens to the words which I, his faithful servant, utter !
Meaning
O brilliant sage of divine vision settled in peace, raise your voice and sing songs of celebration in honour of Indra, mighty ruler of the world. In the battle business of life, glorify him who pervades the wide worlds by his might, and as I approach him he listens close by so that my words of prayer reverberate across the spaces. (Rg. 7-23-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वसिष्ठ) હે પરમાત્મામાં અત્યંત વસનાર ઉપાસક ! (समर्ये) પોતાની અંદર ઉઠતી શુભ-અશુભ વૃત્તિઓના સંગ્રામમાં-સંઘર્ષમાં (इन्द्र महय) પરમાત્માને અર્ચિત કર-તેની સ્તુતિ કર (श्रवस्या ब्रह्माणि उदैरत उ) અવશ્ય પોતાની અધ્યાત્મ ધનની ઇચ્છાથી ઉપાસનાકર્મોને શ્રેષ્ઠ ભાવથી અનુષ્ઠિત કર (य) જે પરમાત્મા (विश्वानि श्रवसा) સમસ્ત અધ્યાત્મધનના આશ્રયોને (आ ततान) પ્રકાશિત કર્યા કરે છે સઃ તે પરમાત્મા (ईवतः मे वचांसि उपश्रोत) મને પ્રાપ્ત થયેલાના વચનોને સાંભળે છે અર્થાત્ સ્વીકાર કરે છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસક પોતાને સંબોધિત કરીને કહે કે, અરે ઉપાસક ! તું તારી અંદરની વૃત્તિઓના સંઘર્ષમાં પરમાત્માની અર્ચના કર, અધ્યાત્મધનની ઇચ્છાથી ઉપાસના કર્મો-અષ્ટાંગયોગનાં આચરણોનું અનુષ્ઠાન કર, જે પરમાત્મા અધ્યાત્મધનના આશ્રયો-મિત્રોને પ્રકાશિત કરે છે, તે પ્રાપ્ત થયેલા મારા ઉપાસકનાં પ્રાર્થના વચનોનો સ્વીકાર કરે છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
وید منتروں کا اُونچے سؤر سے گان کرو!
Lafzi Maana
ہے اُپاسکو! (شروسّیا برہمانی اُداُوایرت) برہم کی مہما کے وید منتروں کو اُونچے سؤر سے گاؤ، (وسِشٹھ سمریے اندرم مہیا) پرانایام کے ذریعے ریاضت کرنے والے عابد! اِیشور کی حمد و ثنا خوب گا، (یاہ شروسا دشوانی آت تان) جس مہان اِندر نے اپنی مہان کیرتی اور طاقت سے سب لوکوں کو خلا میں پھیلا ہوا ہے، وہ (وچانسی اُپ شروتا ایہوتہ) میری پرارتھناؤں کو قریب سے سُن لیتا ہے اور میں اُس کے پاس پہنچ جاتا ہوں۔
Tashree
ہو کے قریب اُس کے حمد و ثنا جو گائے، بھگتوں کا پیارا اِیشور اُس کو گلے لگائے۔
मराठी (2)
भावार्थ
परमेश्वर पुरुषार्थींच्याच वचनांना ऐकतो, पुरुषार्थहीन केवळ स्तुती करत राहणाऱ्यांचे ऐकत नाही. ज्याने सूर्य, चंद्र, पृथ्वी इत्यादी सर्व जगाला प्रकट केलेले आहे व यश प्राप्त केलेले आहे त्याने मलाही यशस्वी बनवावे अशी आकांशा सर्वांनी बाळगावी व त्यासाठी प्रयत्नही करावेत ॥८॥
विषय
विद्वानांनी काम केले पाहिजे -
शब्दार्थ
उपासक गण (श्रवस्या) यश प्राप्तीच्या कामनेसाठी इंद्र परमेश्वराप्रत (ब्रह्माणि) स्तोत्रांचे (उद् ऐरत उ) उच्चारण करतात. (वसिष्ठ) हे सद्गुण, सत्कर्मांमध्ये आणि विद्येत निवास करणाऱ्या (पारंगत) विद्वान, तूदेखील (समर्ये) जीवन संग्रामामध्ये वा यज्ञात (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान परमेश्वराची (महय) पूजा कर. (यः) ज्या परमात्म्याने (विश्वामि) सर्व (भुवमानि) लोक - लोकान्तरांची (आ ततान) उत्पत्ती वा विस्तार केला आहे, तो (ईषतः मम) मी जो एक पुरुषार्थी, उद्यमशील मनुष्य आहे अशा व्यक्तीचे (वचांसि) प्रार्थना वचने (उपश्रोता) ऐकणारा होवो, (अशी की कामना वा प्रार्थना करीत आहे.)।। ८।।
भावार्थ
परमेश्वर पुरुषार्थ करणाऱ्या मनुष्याचीच प्रार्थना ऐकतो. जो काही उद्यम, यत्न न करता केवळ प्रार्थना करीत बसतो, परमेश्वर त्याची प्रार्थना ऐकत नाही. ज्या ईश्वराने सूर्य, चंद्र, पृथ्वी आदी सर्व भुवनांची उत्पत्ती केलीआहे, तो मलादेखील माझ्या सर्व सत्कार्यामध्ये यशस्वी करो, सर्वांनी अशी आकांक्षा केली पाहिजे आणि त्याच्या पूर्ततेसाठी प्रयत्नदेखील केले पाहिजेत. ।। ८।।
तमिल (1)
Word Meaning
(வசிஷ்டனே!) அறிஞனே! அறிவிற்கு வேதத்தை [1]உச்சகானஞ் செய்யவும். (இந்திரனை) யுத்தத்தில் மேன்மையாக்கவும். எவன் தன் சிறப்பால் சமஸ்தங்களைச் செய்கிறானோ அவன் என் அறிஞன் (சொற்களைக் கேட்கிறான்).
FootNotes
[1].உச்சகானஞ் செய்யவும் - பலர் அறியும்படி நீ பிரசாரஞ் செய்யவும்.
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