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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 333
ऋषिः - भरद्वाजः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
त्रा꣣ता꣢र꣣मि꣡न्द्र꣢मवि꣣ता꣢र꣣मि꣢न्द्र꣣ꣳ ह꣡वे꣢हवे सु꣣ह꣢व꣣ꣳ शू꣢र꣣मि꣡न्द्र꣢म् । हु꣣वे꣢꣫ नु श꣣क्रं꣡ पु꣢रुहू꣣त꣡मिन्द्र꣢꣯मि꣣द꣢ꣳ ह꣣वि꣢र्म꣣घ꣡वा꣢ वे꣣त्वि꣡न्द्रः꣢ ॥३३३॥
स्वर सहित पद पाठत्रा꣣ता꣡र꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣विता꣡र꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ह꣡वे꣢꣯हवे । ह꣡वे꣢꣯ । ह꣣वे । सुह꣡व꣢म् । सु꣣ । हव꣢꣯म् । शू꣡र꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । हु꣣वे꣢ । नु । श꣣क्र꣢म् । पु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । इ꣣द꣢म् । ह꣣विः꣢ । म꣣घ꣡वा꣢ । वे꣣तु । इ꣡न्द्रः꣢꣯ ॥३३३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रꣳ हवेहवे सुहवꣳ शूरमिन्द्रम् । हुवे नु शक्रं पुरुहूतमिन्द्रमिदꣳ हविर्मघवा वेत्विन्द्रः ॥३३३॥
स्वर रहित पद पाठ
त्रातारम् । इन्द्रम् । अवितारम् । इन्द्रम् । हवेहवे । हवे । हवे । सुहवम् । सु । हवम् । शूरम् । इन्द्रम् । हुवे । नु । शक्रम् । पुरुहूतम् । पुरु । हूतम् । इन्द्रम् । इदम् । हविः । मघवा । वेतु । इन्द्रः ॥३३३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 333
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा आह्वान करने योग्य हैं, यह इन्द्र नाम से दर्शाया गया है।
पदार्थ
मैं (त्रातारम्) आपत्तियों से त्राण करनेवाले (इन्द्रम्) शत्रुविदारक जगदीश्वर वा राजा को (अवितारम्) सुखादि के प्रदान द्वारा पालना करनेवाले (इन्द्रम्) ऐश्वर्यशाली जगदीश्वर वा राजा को, (हवे हवे) प्रत्येक संग्राम में, प्रत्येक संकट में (सुहवम्) सरलता से पुकारने योग्य (शक्रम्) शक्तिशाली, (पुरुहूतम्) बहुत स्तुति किये गये अथवा बहुतों से बुलाये गये (इन्द्रम्) अविद्या, दुःख आदि के भञ्जक जगदीश्वर वा राजा को (नु) शीघ्र ही (हुवे) पुकारता हूँ। (सः) वह (मघवा) प्रशस्त धनवाला (इन्द्रः) जगदीश्वर वा राजा (इदम्) इस मेरे द्वारा दी जाती हुई (हविः) आत्मसमर्पण रूप अथवा राजकर रूप हवि को (वेतु) स्वीकार करे ॥२॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है, विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकरालङ्कार भी है। इन्द्र शब्द की चार बार पुनरुक्ति उसकी बहुक्षमता को तथा अन्यों से विलक्षण आह्वानयोग्यता को द्योतित करती है। निरर्थक ‘तारमिन्द्रं’ की दो बार, ‘रमिन्द्रं’ की तीन बार, ‘मिन्द्र’ की चार बार आवृत्ति होने से यमक अलङ्कार है। इसी प्रकार ‘हवे, हवे, हवं, हवं हुवे, हवि’ में वृत्त्यनुप्रास है। ‘त्रातारम्, अवितारम्,’ में और ‘इन्द्रम्, शक्रम्, पुरुहूतम्’ में पुनरुक्तवदाभास है ॥२॥
भावार्थ
सबको चाहिए कि विपत्त्राता, शुभ पालनकर्त्ता, सुख से आह्वान किये जाने योग्य, अनेक जनों से वन्दित, शूर परमेश्वर तथा राजा का आत्मकल्याण और जनकल्याण के लिए वरण करें। साथ ही परमेश्वर को आत्म-समर्पण और राजा को कर-प्रदान भी नियम से करना चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(त्रातारम्-इन्द्रम्) त्राणकर्ता परमात्मा को (अवितारम्-इन्द्रम्) नित्य रक्षक परमात्मा को (सुहवम्) सुगमता से बुलाने योग्य (शूरम्-इन्द्रम्) विक्रमवान् परमात्मा को (हवे-हवे-हुवे) आमन्त्रित करने योग्य प्रत्येक अवसर पर आमन्त्रित करता हूँ (शक्रम्) शक्तिमान् (पुरुहूतम्) बहुत प्रकार से आहूत करने योग्य (इन्द्रम्-इत्) परमात्मा को अवश्य (नु-हुवे) शीघ्र आमन्त्रित करता हूँ (मघवा-इन्द्रः-हविः-वेतु) ऐश्वर्यवान् परमात्मा हमारे मन—मनोभाव को—प्रार्थना को “मनो हविः” [तै॰ आ॰ ३.६.१] प्राप्त हो—स्वीकार करे।
भावार्थ
परमात्मा त्राणकर्ता है नित्य रक्षक है सुगमता से बुलाया जाने योग्य है, शूर है अतः उसे प्रत्येक आमन्त्रित करने योग्य अवसर पर बुलाया करूँ, शक्तिमान् बहुत प्रकार से आमन्त्रित करने योग्य को मैं आमन्त्रित किया करूँ। वह ऐश्वर्यवान् परमात्मा मेरे मनोरूप हविः—प्रार्थना को प्राप्त हो॥२॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के स्वरूपबल को अपने अन्दर भरण करने वाला)॥<br>
विषय
वह महान् नेता
पदार्थ
मैं (इन्द्रम्) = शत्रुओं को दूर भगानेवाले उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (हुवे) = पुकारता हूँ जो (त्रातारम्) = रक्षा करनेवाले हैं। हमारे मनरूपी पात्र को ईर्ष्या-द्वेष आदि की मलिनताओं से बचानेवाले हैं। प्रभुकृपा से यह पात्र मलिन भावनाओं से भरे जाने से सुरक्षित रहता है-पर क्या यह खाली रहता है? नहीं।
(अवितारम् इन्द्रम्) = [अव् भागदुघे] इसे वे प्रभु अपने अंश से पूरित करते हैं [दुह् प्रपूरणे]। प्रभुस्मरण से इसमें दिव्यता का अंश अवतीर्ण होता है और धीमे-धीमे यह दिव्यता
से भर जाता है। (हवे हवे) = जब जब इन वासनाओं का हमपर आक्रमण होता हे और इनके साथ हमारा संग्राम चलता है, उस-उस संग्राम [हव] के अवसर पर ये प्रभु (सुहवम्) = सम्यक्तया पुकारने योग्य हैं। हम प्रभु को पुकारते हैं उस पुकार को सुनकर ही वासनाएँ भाग जाती हैं। (शूरम् इन्द्रम्) = वे प्रभु [शृ= हिंसायाम् ] इन वासनाओं की हिंसा करनेवाले हैं। इस इन्द्र को (नु) = अब हम हुवे-पुकारते हैं। (पुरुहूतम्) = इसका आह्वान् निश्चय से हमारा पालन करनेवाला है। वे प्रभु (सुहवम्) = सुगमता से पुकारने योग्य हैं। ये प्रभु (शक्रम्) = समर्थ हैं। हमें संग्राम में अवश्य विजयी बनानेवाले हैं। हमारे अन्दर विजय की प्रबल इच्छा हो और हम भी कुछ हाथ-पैर मारें तो वे प्रभु हमें सब कुछ बना सकते हैं - सब कुछ प्राप्त करा सकते हैं। लौकिक नेता से प्रभु में यही तीन महान् अन्तर हैं १. प्रभु सुहव हैं, २. प्रभु पुरुहूत हैं और ३. प्रभु शक्त हैं। -
यह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (मघवा) = पापांश से शून्य ऐश्वर्यवाले प्रभु तुझमें (इदम्) = इस (हवि:) = दान की वृत्ति को [हु-दान] (वेतु) = उत्पन्न करें [ वी = प्रजनने] । मुझमें दान की वृत्ति होगी तो मैं भोगों के अन्दर ग्रसित ही कैसे होऊँगा । इन भोगों से बचकर मैं अपनी शक्ति को सुरक्षित कर ‘भारद्वाज' बनूँगा। वासनारूप आवरण को नष्ट करके दीप्त ज्ञानवाला 'बृहस्पति' बनूँगा। 'बार्हस्पत्यो भारद्वाजः' यही इस मन्त्र का ऋषि है।
एवं सम्पूर्ण मन्त्र का निष्कर्ष यह है कि १. मैं वासनाओं से बचूँ, २. इनसे बचने के लिए दान की वृत्ति को अपनाऊँ। ३. वासनाओं से बचकर 'बार्हस्पत्य भारद्वाज' बनूँ।
भावार्थ
हम उस प्रभु को ही सदा अपना महान् नेता समझें।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( त्रातारम् इन्द्रम् ) = पालक परमेश्वर ( अवितारम् इन्द्रम् ) = रक्षक परमेश्वर ( हवे हवे सुहवम् ) = जब जब पुकारें तब तब सुगमता से पुकारने योग्य ( शूरम इन्द्रम् ) = शूरवीर परमेश्वर ( शक्रम् ) = शक्तिमान् ( पुरुहूतम् ) = वेदों में सबसे अधिक पुकारे गए ( इन्द्रम् हुवे ) = ऐसे परमेश्वर को मैं पुकारता हूं। ( मघवा इन्द्रः ) = अनन्त धनवाला परमेश्वर ( इदम् हवि: ) = इस पुकार को ( नु वेतु ) = शीघ्र जाने ।
भावार्थ
भावार्थ = आप प्रभु सबके रक्षक और पालक हैं आपकी भक्ति बड़ी सुगमता से हो सकती है वेदों में आपकी भक्ति, उपासना करने के लिए बहुत ही उपदेश किए गये हैं। जो भाग्यशाली आपकी भक्तिप्रेमपूर्वक करते हैं, उनकी प्रार्थना पुकार को अति शीघ्र सुन कर उनकी सब कामनाओं को आप पूर्ण करते हैं।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( त्रातारम् इन्द्रं ) = अनादि से पालक परमेश्वर को, ( अवितारम् इन्द्रं ) = रक्षक ईश्वर को और यज्ञों, उपासनाओं से ( सुहवं ) = सुख से योग्य, या सुगमता से स्मरण करने योग्य, ( शूरं ) = वीर्यवान् ( इन्द्रं ) = परमात्मा को, ( शक्रं ) = शक्तिमान् ( पुरुहूतं ) = इन्द्रियों या प्रजाओं से पूजित ( इन्द्रं ) = परमात्मा और आत्मा को ( नु ) = ही ( हुवे ) = मैं स्तुति करता हूं । ( इदं हविः ) = इस योग्य स्तुति को ( मघवा ) = वह ऐश्वर्य युक्त प्रभु ( इन्द्रः ) = आत्मा ( वेतु ) = स्वीकार करे ।
टिप्पणी
३३३ – 'सूरमिन्द्र', 'ह्वयामि शक्रं', 'धात्विन्द्रः', इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - मृगो भरद्वाजो वा ।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - त्रिष्टुभ् ।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मनो नृपतेश्चाह्वानयोग्यत्वं दर्शयति।
पदार्थः
अहम् (त्रातारम्२) आपद्भ्यस्त्राणकर्तारम् (इन्द्रम्) शत्रुविदारकं जगदीश्वरं राजानं वा, (अवितारम्) सुखादिप्रदानेन पालयितारम् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यशालिनं जगदीश्वरं राजानं वा, (हवेहवे) संग्रामे-संग्रामे संकटे-संकटे (सुहवम्) आह्वातुं सुशकम्, (शूरम्) शूरवीरम् (इन्द्रम्) सहायकं जगदीश्वरं राजानं वा, (शक्रम्) शक्तिशालिनम् (पुरुहूतम्) बहुस्तुतं बहुभिराहूतं वा (इन्द्रम्) अविद्यादिदुःखभञ्जकं जगदीश्वरं राजानंवा, (नु) क्षिप्रम् (हुवे) आह्वयामि। ह्वेञ् धातोश्छान्दसं सम्प्रसारणजं रूपम्। सः (मघवा) प्रशस्तधनः (इन्द्रः) जगदीश्वरो राजा वा (इदम्) मया दीयमानम् (हविः) आत्मसमर्पणरूपं राजदेयकररूपं वा हव्यम् (वेतु) व्याप्नोतु स्वीकरोतु। वी गतिव्याप्त्यादिषु पठितः। तस्येदं लोटि रूपम् ॥२॥३ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः। विशेषणानां साभिप्रायत्वात् परिकरालङ्कारोऽपि। ‘इन्द्रम्’ इत्यस्य चतुष्कृत्वः पुनरुक्तिरिन्द्रस्य बहुक्षमत्वम् अन्यविलक्षणतयाऽऽह्वानयोग्यत्वं च द्योतयति। निरर्थकस्य ‘तारमिन्द्रं’ इत्यस्य द्विशः, ‘रमिन्द्रं’ इत्यस्य त्रिशः, ‘मिन्द्र’ इत्यस्य चतुश्श आवृत्तेर्यमकालङ्कारः। ‘हवे, हवे, हवं, हवं, हुवे, हवि’ इति वृत्त्यनुप्रासः। ‘त्रातारम्, अवितारम्’, ‘इन्द्रम्, शक्रम्, पुरुहूतम्’ इत्यत्र च पुनरुक्तवदाभासः ॥२॥
भावार्थः
सर्वैर्विपत्त्राता सुपालकः सुखाह्वानो बहुजनवन्दितः शूरः परमेश्वरो नृपतिश्चात्मकल्याणाय जनकल्याणाय च वरणीयः। परमेश्वरायात्मसमर्पणं नृपतये च करप्रदानमपि नियमतो विधेयम् ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।४७।११, य० २०।५० उभयत्र ऋषिः गर्गः, ‘ह्वयामि शक्रं पुरुहूतमिन्द्रं स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः’ इति चोत्तरार्धपाठः। अथ० ७।८६।१, ऋषिः अथर्वा स्वस्त्ययनकामः, ‘स्वस्ति न इन्द्रो मघवान् कृणोतु’ इति चतुर्थः पादः। २. त्रातारमिन्द्रम् अवितारमिन्द्रमिति पुनरुक्तिः स्तोतृतमत्वख्यापनाय। त्राणं नाम उपस्थितेभ्यो भयेभ्यो रक्षणम्, अवनं तु द्वेष्यतानिरोध इति विशेषः। अथवा कामैस्तर्पणम् अवनम्—इति भ०। ३. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च राजप्रजापक्षे व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
I invoke God, the Rescuer, God the Helper, easily called at each invocation, the Hero, Omnipotent, invoked by many. May He accept this prayer of ours.
Meaning
In every battle of life one after another, I invoke Indra, lord giver of wealth, honour and power, saviour Indra, protector Indra, brave Indra invoked with love and devotion, pure and powerful, universally invoked and adored. May Indra bring us the good life and all round well being. (Rg. 6-47-11)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्रातारम् इन्द्रम्) રક્ષા કરનાર પરમાત્માને (अवितारम् इन्द्रम्) નિત્ય રક્ષક પરમાત્માને (सुहवम्) સરળતાથી બોલાવવા યોગ્ય (शूरम् इन्द्रम्) વિક્રમવાન પરમાત્માને (हवेहवे हुवे) આમંત્રિત કરવા યોગ્યને પ્રત્યેક સમય પર આમંત્રિત કરું છું (शक्रम्) શક્તિમાન (पुरुहूतम्) અનેક પ્રકારથી આહ્વાન કરવા યોગ્ય (इन्द्रम् इत्) પરમાત્માને અવશ્ય (नु हुवे) શીઘ્ર આમંત્રિત કરું છું (मघेवाः इन्द्रः हविः वेतु) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા અમારા મન-મનોભાવને-પ્રાર્થનાને પ્રાપ્ત થાય-સ્વીકાર કરે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા ત્રાતા-નિત્ય રક્ષણ કરનાર છે, સરળતાથી બોલાવવા યોગ્ય છે, શૂર છે માટે તેને પ્રત્યેક આમંત્રિત કરવા યોગ્ય અવસર પર બોલાવ્યા કરું, શક્તિમાન અનેક પ્રકારથી આમંત્રિત કરવા યોગ્યને હું આમંત્રિત કર્યા કરું. તે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા મારા મનોરૂપ હવિઃ-પ્રાર્થનાને પ્રાપ્ત થાય-સ્વીકાર કરે. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہماری دِلی دُعاؤں کو منظور فرمائیں!
Lafzi Maana
(تراتارم اوِی تارم اِندرم) سب کے پالک اور رکھشک اِندر اِیشور کو (ہوے ہوے سوہوم) ہر پُکار یا فریاد پر آسانی سے بُلاے جا سکنے والے (شُورم اِندرم) شُور ویر پرماتما کو (شکرم پروُ ہُوتم) جو عظیم طاقت ور اور جس کو سب بے شمار ناموں اور ڈھنگوں سے بُلاتے رہتے ہیں، اُسی کو (نُو ہُووے) میں بھی بالضرور بُلاتا ہوں، اس لئے کہ وہ (مگھوا، اِندر، ہوی، وتُیو) دولت مندِ عظیم اِندر ہماری منو کامناؤں کو پورن کرے، منظور فرمائے۔
Tashree
پالک وہی رکھشک وہی ہے شور ویر اعظم وہی، جس کو بُلاتے ہیں سبھی میں بھی بُلاؤں اُس کو ہی۔
बंगाली (1)
পদার্থ
ত্রাতারমিন্দ্রমবিতারমিন্দ্রং হবেহবে সুহবং শূরমিন্দ্রম্ ।
হুবে নু শক্রং পুরুহূতমিন্দ্রমিদং হবির্মঘবা বেত্বিন্দ্রঃ।।২৭।।
(সাম ৩৩৩)
পদার্থঃ (ত্রাতারম্ ইন্দ্রম্) পরমেশ্বর পালক, (অবিতারম্ ইন্দ্রম্) পরমেশ্বর রক্ষক, (শূরম্ ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরই শূরবীর। (শক্রম্) এই সর্বশক্তিমান পরমেশ্বর (পুরুহূতম্) বেদে সর্বাধিক আহুত হয়েছেন। এজন্য (ইন্দ্রম্ হুবে) পরমেশ্বরকে আমরা আহ্বান করছি। (হবে হবে সুহবম্) যখন যখন উত্তম প্রকারে তাঁকে আহ্বান করি, (মঘবা ইন্দ্রঃ) অনন্ত ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর তখনই (ইদম্ হবিঃ) এই আহ্বানকে (নু বেতু) শীঘ্রই জেনে যান।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে পরমেশ্বর! তুমি সবার রক্ষক এবং পালক। তোমার প্রতি ভক্তি নিবেদন অত্যন্ত সুগমতা দ্বারা করা যেতে পারে। বেদে তোমার ভক্তি, উপাসনা করার জন্য বহু উপদেশ রয়েছে। যে ভাগ্যশালী মনুষ্য তোমাকে প্রেম পূর্বক ভক্তি নিবেদন করেন, তাঁর প্রার্থনারূপ আহ্বানকে অতি শীঘ্রই শুনে তাঁর সব কামনা সমূহকে তুমি পূর্ণ করে দাও।।২৭।।
मराठी (2)
भावार्थ
विपत्तीमध्ये त्राता, शुभ पालनकर्ता, सुखाने आह्वान करण्यायोग्य, अनेक लोकांद्वारे वंदित, शूर परमेश्वर व राजाचे आत्मकल्याण व जनकल्याणासाठी सर्वांनी वरण करावे. त्याबरोबरच परमेश्वराला आत्मसमर्पण व राजाला कर नियमानुसार द्यावा ॥२॥
विषय
इंद्र परमेश्वराचे आणि नृपतीचे आवाहन कसे उचित आहे, याविषयी -
शब्दार्थ
(त्रातारम्) विपत्तींपासून माझे रक्षण करणाऱ्या (इन्द्रम्) शत्रुनाशक जगदीश्वराला अथवा राजाला (मी हाक मारतो) त्या (अवितारत्) सुखप्रदायक व पालक अशा (इन्द्रम्) जगदीश्वराला वा राजाला (हवे हवे) प्रत्येक संग्रामात वा संकटात (सुहवम्) जो सहज हाक देऊन बोलवण्यासारखा आहे, अशा (शक्रम्) शक्तिमान (पुरुहूतम्) अत्यंत स्तवनीय अथवा अनेक लोक ज्याला हाक मारतात, त्या (इंद्र) अविद्या, दुःख आदींचा विनाशक परमेश्वराला / राजाला मी (उपासक / प्रजाजन) (तु) त्वरित (हुवे) रक्षणासाठी हाक मारतो. (सः) तो (मघवा) प्रशस्त धनवान (इन्द्रः) जगदीश्वर वा राजा (इदम् माझ्यातर्फे दिल्या जाणाऱ्या (हविः) आत्मसमर्पण रूप हवी अथवा मी देत असलेले राजकर (वेतु) स्वीकार करतो. (आणि मला सुख, निर्भयपणा देवो.) ।। २।।
भावार्थ
सर्वांचे कर्तव्य आहे की विपत्तीपासून रक्षण करणाऱ्या, पालनकर्ता ज्याला सुखाने व सहज आवाहन करता येते, अशा सर्व वंदित परमेश्वराचा आणि राजाचा स्वीकार करावा वा त्याचा आधार घ्यावा आणि याद्वारे आत्मकल्याण तसेच जनकल्याणही करावे. याशिवाय परमेश्वरासमोर समर्पण करावे आणि राजाला कर देत जावे. ।। २।।
विशेष
या मंत्रात अर्थश्लेष अलंकार आहे. प्रयुक्त विशेषणे साभिप्राय (म्हणजे जाणीवपूर्वक वापरली) असल्यामुळे येथे परिकर अलंकार आहे. एकाच शब्दाची (इन्द्र शब्दाची) चार वेळा केलेली पुनरुक्ती त्या शब्दाची बहुश्रमत्व आणि अन्य शब्दापेक्षा विलक्षणत्व घोतित करते. तसेच ‘तारामिन्द्र’ शब्दाची दोन वेळा ङ्गरमिन्द्रफची तीन वेळा व ‘मिन्द्र’ची चार वेळा आवृत्ती असल्यामुळे यमक अलंकारही आहे. याचप्रमाणे ‘हवे, हवे, हवं हवं हुवे, हवि’ याध्ये वृत्त्युनुप्रास आहे. ‘त्रातारम्’ ‘अवितारम्’ तसेच ‘इन्द्रम्’ शक्रम्, पुरुहूतम्’मुळे पुनरुक्त वादाभांस अलंकार आहे. ।। २।।
तमिल (1)
Word Meaning
சத்துருக்களினின்று காப்பாற்றுபவனாய் விருப்பங்களை ஒவ்வொரு அழைப்பிலும் திருப்தி செய்பவனாய் சுகமாய் அழைப்பதற்கு அருகனாய்
(சூரனாய்) சக்திவாய்ந்தவனான பலர்களால் அழைக்கப்படும் இந்திரனை அழைக்கிறேன். (மகவானான இந்திரன்) இதை அங்கீகரிக்கட்டும்.
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