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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 336
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
यो꣡ नो꣢ वनु꣣ष्य꣡न्न꣢भिदा꣢ति꣣ म꣢र्त꣣ उ꣡ग꣢णा वा꣣ म꣡न्य꣢मानस्तु꣣रो꣡ वा꣢ । क्षि꣣धी꣢ यु꣣धा꣡ शव꣢꣯सा वा꣣ त꣡मि꣢न्द्रा꣣भी꣡ ष्या꣢म वृषमण꣣स्त्वो꣡ताः꣢ ॥३३६
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । नः꣣ । वनुष्य꣢न् । अ꣣भिदा꣡ति꣢ । अ꣣भि । दा꣡ति꣢꣯ । म꣡र्तः꣢꣯ । उ꣡ग꣢꣯णा । उ । ग꣣णा । वा । म꣡न्य꣢꣯मानः । तु꣣रः꣢ । वा꣣ । क्षिधी꣢ । यु꣣धा꣢ । श꣡व꣢꣯सा । वा꣣ । त꣢म् । इ꣣न्द्र । अभि꣢ । स्या꣣म । वृषमणः । वृष । मनः । त्वो꣡ताः꣢꣯ । त्वा । ऊ꣣ताः ॥३३६॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नो वनुष्यन्नभिदाति मर्त उगणा वा मन्यमानस्तुरो वा । क्षिधी युधा शवसा वा तमिन्द्राभी ष्याम वृषमणस्त्वोताः ॥३३६
स्वर रहित पद पाठ
यः । नः । वनुष्यन् । अभिदाति । अभि । दाति । मर्तः । उगणा । उ । गणा । वा । मन्यमानः । तुरः । वा । क्षिधी । युधा । शवसा । वा । तम् । इन्द्र । अभि । स्याम । वृषमणः । वृष । मनः । त्वोताः । त्वा । ऊताः ॥३३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 336
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह विषय है कि परमात्मा और राजा की सहायता से हम क्या करें।
पदार्थ
(यः मर्तः) जो मनुष्य (वनुष्यन्) क्रोध करता हुआ (उगणा वा) और सैन्यगणों अथवा आयुध गणों को तैयार किये हुए (मन्यमानः) अभिमान करता हुआ, अथवा (उगणा) अपनी शस्त्रास्त्रों से सज्जित सेनाओं को (मन्यमानः) बहुत मानता हुआ (तुरः) शीघ्रकारी यमराज भी होकर (नः) हमारी (अभिदाति) हिंसा पर उतारू होता है, हे (इन्द्र) शत्रुविदारक परमात्मन् वा राजन् ! (तम्) उस मनुष्य को (त्वम्) आप (युधा) युद्ध से (शवसा वा) और बल से (क्षिधि) विनष्ट कर दो। हे (वृषमणः) बलवान् मनवाले परमात्मन् वा राजन् ! (त्वोताः) आप से रक्षित हम, उसे (अभिस्याम) परास्त कर दें ॥५॥
भावार्थ
जो वैरी शत्रु विशाल सेना लेकर अपने बल का अभिमान करता हुआ सज्जनों को उद्विग्न करे, उसे वे परमात्मा से पुरुषार्थ की प्रेरणा लेकर और राजा की सहायता से युद्ध में पराजित कर दें ॥५॥
पदार्थ
(यः) जो (मर्त्तः) अनात्मा—असत्त्व—मृत का मोह “अनात्मा हि मर्त्यः” “मर्तः स्वार्थे यत्” [श॰ २.२.२.८] (वनुष्यन्) हनन करना चाहता हुआ “वनुष्यति जिघांसति” [निरु॰ ५.२] (नः-अभिदाति) हम पर प्रहार करता है (वा) या (उगणाः) “उद्गणा” उद्वाक्—उखड़ा वचन किसी का आक्षिप्त वचन—आक्षेप “गणस्-वाङ्नाम” [निघं॰ १.११] (वा मन्यमानः-तुरः) या अपने अन्दर माना हुआ भ्रमात्मक—मृत्युविषयक विचार “मन्यमानस्तुरः-तुर इति यमनाम” [निरु॰ १२.१६] ‘अभिदाति’—प्रहार करता है (क्षिधी युधा) ‘क्षिधिना युधा’—क्षय धारण करने वाली गति से “युध्यति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (वा) या (शवसा) बल से “शवः-बलम्” [निरु॰ २.९] (वृषमणः) बलिष्ठ मन वाले हुए हम (इन्द्र त्वोताः) हे परमात्मन्! तेरे से रक्षित हुए (तम्) उसे (अभीष्याम) अभिभूत करें—दबा देते हैं।
भावार्थ
हे परमात्मन्! जो अनात्मा असत्त्व पाप हमें मारना चाहता हुआ प्रहार करता है या किसी का शाप—शपथ—आक्षेप या हमारा माना हुआ मृत्यु विचार प्रहार करता है हम बलिष्ठ मन वाले होकर तेरे से रक्षा पाए हुए उसे क्षय धारण गति से या बल से दबा देते हैं॥५॥
विशेष
ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपासनीय देव वाला)॥<br>
विषय
आधिभौतिक संग्राम
पदार्थ
गत मन्त्रों में विस्तार से आध्यात्मिक संग्राम का चित्रण हुआ है। वस्तुतः बाह्य शत्रुओं से आन्तर शत्रुओं के विजय का महत्त्व निर्विवादरूप में अधिक है। सेनाओं को जीतने के स्थान में अपने क्रोध को जीतनेवाला बड़ा विजेता कहलाता है। आध्यात्मिक संग्राम में विजय श्रेय का मार्ग है, जबकि बाह्य शत्रुओं का विजय प्रेय मार्ग का ही एक पड़ाव है। बाह्य शत्रुओं को जीत कर हम ‘राज्य, भोग और सुखों' को पा सकते हैं। इनके विजय से आत्मिक उन्नति सम्भव नहीं।
एवं, बाह्य संग्राम से अध्यात्म संग्राम उत्कृष्ट है, पर बाह्य संग्राम का भी मानव जीवन में स्थान है ही। मनुष्य केवल आत्मा से बना हुआ नहीं हैं यह शरीर में रहनेवाले आत्मा का नाम है। शरीर व शारीरिक वस्तुओं की रक्षा के लिए बाह्य संग्राम भी आवश्यक ही है, अतः वेद में कहा है कि (य:) = जो (न:) = हमें वनुष्यन्-[win] पराजित करना चाहता हुआ (मर्तः) = मनुष्य (अभि) = आगे-पीछे व दाएँ-बाएँ (दाति) = काट-छाँट करता है, जो (उगणा:) = सूती हुई तलवारोंवाले सैनिकों से युक्त हुआ [with drawn swords], (वा) = या (मन्यमानः) = अपने बल के गर्व से अभिमानी बना हुआ, (तुरः वा) = इसीलिए हिंसक मनोवृत्तिवाला बनकर जो हमारा घातपात करने में प्रवृत्त होता है, हे प्रभो! आप उसे (क्षिधी) = क्षीण कर दें, नष्ट कर दें। प्रभु ही युद्ध की स्थिति को समाप्त कर दें तब कितना अच्छा है! परन्तु यदि ऐसा न हो और युद्ध आवश्यक हो जाए तो यह ‘वामदेव गौतम' कहता है कि हे (इन्द्र) = शत्रुओं के दूर भगानेवाले प्रभो! (युधा) = युद्ध के द्वारा (त्वा ऊता:) = तुझ से रक्षा किये जाते हुए हम (वृषमणः) = शक्तिशाली, उत्साह से भरे मनोंवाले होते हुए (तम्) = उस शत्रु को (अभीष्याम्) = पूर्णरूप से अभिभूत करनेवाले हों ।
'वृषमण: ' शब्द स्पष्ट कर रहा है कि उत्साह के अभाव में विजय सम्भव नहीं। ‘त्वोता' शब्द की भावना सुव्यक्त है कि विजय प्रभु की सुरक्षा से ही होनी है, हमारी शक्ति हमें विजय नहीं प्राप्त करा सकती, अतः हमें विजय का गर्व भी क्यों हो। विजयी होकर भी उस विजय के गर्व से पराजित न होने में ही तो उस विजय का सौंदर्य है।
'क्षधी' शब्द की भावना भी स्पष्ट है कि युद्ध जहाँ तक टल सके उतना ही ठीक। इन्द्र=सेनापति को दिन आ जाने पर भी बाण न गिरे, इससे अधिक सुन्दर और क्या हो सकता है! परन्तु आवश्यक ही हो जाने पर युद्ध तो करना ही है, कायर थोड़े ही बनना है। युद्ध में शत्रुओं को जीतकर अभ्युदय की सिद्धि भी तो धर्म ही है। क्रोध का विजय निःश्रेयस देता है तो विवशता में क्रोधी को समाप्त करके हम अभ्युदय को सिद्ध करते हैं। क्रोध को जीतना
‘ब्रह्म' का परिणाम है, क्रोधी को समाप्त करना ‘क्षत्र' का। 'ब्रह्म क्षत्र' का समन्वय ही ठीक है। यह समन्वय ही हमें 'वामदेव' = सुन्दर दिव्यगुणोंवाला बनाता है। यह ठीक है कि ‘क्षत्र' ब्रह्म से नियन्त्रित होना चाहिए पर यह ठीक नहीं है कि क्षत्र का अभाव ही हो जाए । क्षत्र के अभाववाली कोई भी संस्कृति पनप नहीं सकती।
भावार्थ
मैं अपने जीवन में ब्रह्म और क्षत्र का समन्वय कनेवाला बनूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( यो मर्त्तः ) = जो मनुष्य ( वनुष्यन् ) = मारने की इच्छा से ( नः,अभिदाति ) = हम पर प्रहार करता है । ( उगणा वा मन्यमानः ) = या अपने को बहुतसे योद्धाओं सहित बलवान् मानता हुआ, ( तुरो वा ) = या आवेश में आया हुआ, ( क्षिधी ) = प्राणविनाशक ( युधा ) = हथियार से या ( शवसा ) = बल से हमारे प्रति ( अभिदाति ) = आता और प्रहार करता है, हे परमेश्वर ! सेनापते ! ( त्वोताः ) = हम तेरे से रक्षित होकर ( वृषमणः ) = खूब पुष्ट शरीर होकर ( तम् ) = उस दुष्ट के प्रति ( अभिस्याम ) = मुकाबले पर डट जायं और उसे दबावें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वामदेव:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - त्रिष्टुभ् ।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो नृपतेश्च साहाय्येन वयं किं कुर्यामेत्याह।
पदार्थः
(यः मर्तः) यो मनुष्यः (वनुष्यन्) क्रुध्यन्। वनुष्यतिः क्रुध्यतिकर्मा। निघं० २।१२। अपि च (उगणा१ वा) उद्यतसैन्यो वा उद्यतायुधगणो वा। उगणा उद्यतगणः ? उ इति उत् इत्यर्थे वर्तते। पृषोदरादित्वान्मध्यमपदलोपः। ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति प्रथमैकवचनस्याकारादेशः। (मन्यमानः) अभिमन्यमानो वा। यद्वा (उगणा) स्वकीया उद्यतायुधगणाः सेनाः (मन्यमानः) बहु मन्यमानः इति व्याख्येयम्। याः सेना॑ अ॒भीत्व॑रीराव्या॒धिनी॒रुग॑णा उ॒त। ये स्ते॒ना ये च॒ तस्क॑रास्ताँस्ते॑ अ॒ग्नेऽपि॑ दधाम्या॒स्ये॑। य० ११।७७ इति प्रामाण्यात्।(तुरः२) सत्वरो यमोऽपि भूत्वा। तुर त्वरणे। तुर इति यमनाम, तरतेर्वा त्वरतेर्वा, त्वरया तूर्णगतिर्यमः। निरु० १२।१४। (नः) अस्मान् (अभिदाति३) हिनस्ति। दाप् लवने अदादिः। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक परमात्मन् राजन् वा ! (तम्) मनुष्यम्, त्वम्, (युधा) युद्धेन (शवसा वा) बलेन वा। शव इति बलनाम। निघं० २।९। (क्षिधि) क्षपय।४ क्षि क्षये इत्यस्य छान्दसं रूपमिदम्। अङितश्च अ० ६।४।१०३ इति हेर्धिः। अन्येषामपि दृश्यते अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः। पादादित्वान्निघाताभावः। हे (वृषमणः५) वृषं बलवद् मनो यस्य तादृश परमात्मन् राजन् वा ! (त्वोताः) त्वद्रक्षिताः वयम् तम् (अभिस्याम) अभिभवेम, पराजयेमहि। संहितायाम् अभी इत्यत्र ‘निपातस्य च। अ० ६।३।१३६’ इति दीर्घः। ‘ष्याम’ इत्यत्र ‘उपसर्गप्रादुर्भ्यामस्तिर्यच्परः। अ० ८।३।८७’ इति षत्वम् ॥५॥
भावार्थः
यो रिपुर्महतीं सेनामादाय स्वबलमभिमन्यमानः सन् सज्जनानुद्वेजयेत् तं ते परमात्मनः पुरुषार्थप्रेरणया नृपस्य साहाय्येन च युद्धे पराभवेयुः ॥५॥
टिप्पणीः
१-३. उगणाः उरुगणाः। तुरः तुर्वतेर्वधकर्मण एतद् रूपम्, हिनस्ति—इति वि०। उगणा वा उद्गूर्णा वा । तुर इति तुर्वतेः हिंसाकर्मणो रूपम्। वृत्रतुरितिवत्। हन्त्री वा शत्रूणाम् अस्मदीयाः प्रजा अभिदासति—इति भ०। तुरः इति ‘तुर’ शब्दस्य शसि रूपं चेदङ्गीक्रियते तदा स्वरो न सङ्गच्छेत इत्यस्माभिरकारान्तस्य तुर शब्दस्य प्रथमैकवचनत्वेन व्याख्यातम्। ४. क्षिधी। क्षि क्षये इत्यस्येदं रूपम्। उपक्षपय इत्यर्थः—इति वि०। क्षिधिः क्षयस्य निधिः। क्षिधि शब्दात् तृतीयैकवचने पूर्वसवर्णदीर्घः। क्षयकरेण युधा संप्रहारेण—इति भ०। क्षिः क्षयो धीयते म्रियते अनेनेति क्षिधिः। तृतीयैकवचनस्य पूर्वसवर्णदीर्घः। क्षयकरेण युधा संप्रहारेण—इति भ०। क्षिः क्षयो धीयते भ्रियते अनेनेति क्षिधिः। तृतीयैकवचनस्य पूर्वसवर्णः। क्षयकरेण युधा आयुधेन—इति सा०। ५. सायणस्तु ‘वृषमणः वृषा इवाचरन्तो वयम्’ इत्याह। तत्र स्वरो न सङ्गच्छते।
इंग्लिश (2)
Meaning
The man who with a desire to kill us fights against us, deeming himself a giant or a hero, equipped with a host of warriors, should be conquered by us, O God, protected and strengthened by Thee!
Meaning
Indra, ruler of the world, whoever the mortal single or commanding a force, proud and impetuous, that faces us with the intent to destroy, pray beat them by your power in battle. May we, brave and advancing under your protection, defeat them and keep them under control.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यः) જે (मर्त्तः) અનાત્મા-અસત્ત્વ-મૃતનો મોહ (वनुष्यन्) હનન કરવા ઇચ્છતા (नः अभिदाति) અમારા પર પ્રહાર કરે છે (वा) અથવા (उगणाः) આક્ષેપ - આક્ષિપ્ત વચન (वा मन्यमानः तुरः) અથવા પોતાના માનેલા ભ્રમાત્મક - મૃત્યુ વિષયવિચાર અભિદાતિ પ્રહાર કરે છે (क्षिधी युधा) ક્ષય ધારણ કરનારી ગતિથી (वा) અથવા (शवसा) બળથી (वृषमणः) બળવાન મનવાળા બનેલા અમે (इन्द्र त्वोताः) હે પરમાત્મન્ ! તારા દ્વારા રક્ષિત બનીને (तम्) તેને (अभीष्याम) અભિભૂત કરીએ-દબાવી દઈએ છીએ. (૫)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! જે અનાત્મા-અસત્ત્વ પાપ અમને મારવા ઇચ્છતા પ્રહાર કરે છે અથવા કોઈનો શાપ-શપથ-આક્ષેપ અથવા અમારો માનેલો મૃત્યુ વિચાર પ્રહાર કરે છે. અમે બળવાન મનુયુક્ત બનીને તારા દ્વારા રક્ષા પ્રાપ્ત કરીને તેને ક્ષય ધારણગતિ અથવા બળથી દબાવી દઈએ છીએ. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
تُجھ سے طاقت پا کر ادھرمی کو دَبا سکیں
Lafzi Maana
(یہ مرتہ ونُوشیّن نہ ابھی واستی) جو ہم عابدوں کو مارنا چاہتا ہوا حملہ کرتا ہے، اور جو منیہ مانہ واتُرہ اُگنہ) شیطانی ٹولیوں سے مغرور ہو اور مارکاٹ کے جذبے سے متاثر ہو کر دھرماتماؤں کو فنا کرنا چاہتاہ ے، ہے اِندر پرمیشور! (تم کھنشدھی) اُس اُس کا آپ وناش کریں، (ورِش منہ اِندر) آنند کی ورشا کرنے والے اِندر! (تسوتا شوسا یدھا واتم ابھی شیام) آپ سے محفوظ ہوئے ہم اپنی طاقت سے اُن بُرے خیالات اور بدکار انسانوں کو پامال کر سکیں۔
Tashree
ٹولیاں بدمعاشوں کی لے، آکڑیں کرتا رہے، کر دو فنا اُس کو پربُھو جو نیکوں پر حملہ کرے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जे शत्रू विशाल सेनेसह आपल्या शक्तीचा गर्व करून सज्जनांना त्रास देतात, त्यांनी परमेश्वराकडून पुरुषार्थाची प्रेरणा घ्यावी व राजाच्या साह्याने शत्रूला पराजित करावे ॥५॥
विषय
परमेश्वराच्या व राजाच्या साह्याने आम्ही काम करावे. -
शब्दार्थ
(यः) (मर्तः) जो मनुष्य (वजुष्यन्) क्रोध दर्शवीत, (उगणावा) आपले सैन्य आणि अनेक शास्त्रास्त्र समूह परजून तसेच (मन्यमानः) मोठ्या घमेंडखोर रीतीने (आमच्यावर चाल करून येतो) अथवा (उगणा वा) आपल्या शस्त्रसु सज्जित सैन्याला (मन्यमानः) अति शक्तिशाली मानव (तुरः) यमराजासारखा हो़ऊन झपाट्याने (नः) आमची (अभिदाति) हिंसा करण्यासाठी चाल करून येतो, अशा वेळी हे (इंद्र) परमेश्वर वा हे राजा, (त्वम्) तुम्ही (युधा) त्याच्याशी युद्ध करून (शवसा वा) अथवा आपल्या दुर्दम्य शक्तीद्वारे (क्षिधि) त्याला नष्ट करा. हे (वृषमणः) बलवान मन असलेले परमेश्वर वा राजा, (त्वोताः) तुमच्यातर्फे रक्षित आम्ही त्या भीषण शत्रूचा (अभि स्याम) पराभव करण्यास समर्थ होऊ। ।। ५।।
भावार्थ
जो शत्रू विशाल सेनेसह आणि मनात आपल्या शक्तीचा अभिमान बाळगत सज्जनांना त्रास देत असेल, सज्जनांनी परमेश्वराकडून पुरुषार्थ व वीरत्वाची प्रेरणा घेत आणि राजाकडून युद्धासाटी सैनिक साह्य घेत त्या शत्रूचा पराभव केला पाहिजे.।। ५।।
तमिल (1)
Word Meaning
(ஐசுவரியம் அளிப்பவன்). தன்னைப்பற்றி அதிகமாக எண்ணிக் கொள்ளுபவனாய் அதிக உபத்திரவ சுபாவமுள்ள எவன் காத்திருந்து எனக்கு விரோதமாய் சண்டை செய்கிறானோ, (போரினாலோ) பலத்தினாலோ அவனை ஒழிக்கவும். (இந்திரனே!) காளை போலான உன் ரட்சிப்பால் நாங்கள் ஜயமுடனாகட்டும்.
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