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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 35
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    3

    य꣣ज्ञा꣡य꣢ज्ञा वो अ꣣ग्न꣡ये꣢ गि꣣रा꣡गि꣢रा च꣣ द꣡क्ष꣢से । प्र꣡प्र꣢ व꣣य꣢म꣣मृ꣡तं꣢ जा꣣त꣡वे꣢दसं प्रि꣣यं꣢ मि꣣त्रं꣡ न श꣢꣯ꣳसिषम् ॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣣ज्ञा꣡य꣢ज्ञा । य꣣ज्ञा꣢ । य꣣ज्ञा꣢ । वः । अग्न꣡ये꣢ । गि꣣रा꣡गि꣢रा । गि꣣रा꣢ । गि꣣रा । च । द꣡क्ष꣢꣯से । प्र꣡प्र꣢꣯ । प्र । प्र꣣ । वयम्꣢ । अ꣣मृ꣡तम्꣢ । अ꣣ । मृ꣡तम्꣢꣯ । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । प्रियम्꣢ । मि꣣त्रम्꣢ । मि꣣ । त्रम्꣢ । न । शँ꣣सिषम् ॥३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरागिरा च दक्षसे । प्रप्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रं न शꣳसिषम् ॥३५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञायज्ञा । यज्ञा । यज्ञा । वः । अग्नये । गिरागिरा । गिरा । गिरा । च । दक्षसे । प्रप्र । प्र । प्र । वयम् । अमृतम् । अ । मृतम् । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । प्रियम् । मित्रम् । मि । त्रम् । न । शँसिषम् ॥३५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 35
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कोई विद्वान् उपदेशक मनुष्यों को प्रेरणा कर रहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो, (यज्ञायज्ञा) प्रत्येक यज्ञ में (वः) तुम लोगों को (अग्नये) सद्गुणप्रेरक परमात्मा की आराधना करने के लिए, मैं नियुक्त करता हूँ। (गिरागिरा च) और प्रत्येक वाणी से अर्थात् प्रभावजनक वाक्यावली के विन्यास से (दक्षसे) बढ़ने अर्थात् उन्नति करन के लिए, प्रेरित करता हूँ। इस प्रकार (वयम्) तुम-हम सब मिलकर (अमृतम्) अमरणधर्मा, अविनाशी (जातवेदसम्) सर्वज्ञ और सर्वव्यापक परमेश्वर की (प्र प्र) पुनः पुनः प्रशंसा करते हैं। मैं पृथक् भी (प्रियम्) प्रिय (मित्रं न) मित्र के समान, उस परमेश्वर की (प्र प्र शंसिषम्) पुनः पुनः प्रशंसा करता हूँ ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों द्वारा जो भी नित्य या नैमित्तिक यज्ञ आयोजित किये जाते हैं, उनमें परमेश्वर का अवश्य स्मरण और आराधन करना चाहिए। महापुरुष मनुष्यों को यह प्रेरणा दें कि तुम निरन्तर वृद्धि और समुन्नति के लिए प्रयत्न करो। इस प्रकार उपदेश देनेवाले और उपदेश सुननेवाले सब मिलकर एकमति से सर्वज्ञ, सर्वव्यापक परमात्मा की स्तुति करें तथा ऐहलौकिक और पारलौकिक अभ्युदय को प्राप्त करें ॥१॥

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    पदार्थ

    (यज्ञा यज्ञा गिरा गिरा च) मेरे सकल यज्ञ और सकल स्तुतियाँ “द्विरुक्तिर्वीप्सायामुभयत्र सुस्थाने-आकारादेशः” “सुपां सुलुकपूर्वसर्वणाच्छे॰.......” [अष्टा॰ ७.३.३९] (वः-दक्षसे-अग्नये) “तुभ्यम्, वचनव्यत्ययः” तुझ प्रवृद्ध—सर्वत्र व्याप्त एवं ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा के लिये हैं, अतः (अमृतं जातवेदसम्) तुझ अमृतरूप तथा उत्पन्नमात्र के आधार और ज्ञाता—(प्रियं मित्रं न) प्यारे मित्र के समान परमात्मा की (वयं प्र प्रशंसिषम्) ‘अहं वचनव्यत्ययः’ मैं निरन्तर प्रशंसा-स्तुति करता हूँ।

    भावार्थ

    हे सर्वोत्पादक सर्वाधार सर्वज्ञ अमृतस्वरूप परमात्मन्! प्रतिदिन किया जाता हुआ यज्ञ—श्रेष्ठकर्म सदाचरण और प्रतिदिन की जाती हुई स्तुति तुझ सर्वत्र व्याप्त-महान् ज्ञानप्रकाशस्वरूप के लिये—तेरी प्राप्ति के लिये हैं। तुझ प्रिय मित्र जैसे को बहुत और निरन्तर प्रशंसित करता हूँ—चाहता हूँ मित्र समान स्नेही सङ्गी बन जा यह प्रार्थना है॥१॥

    विशेष

    छन्दः—बृहती। स्वरः—मध्यमा। ऋषिः—शंयुर्बार्हस्पत्यः (विद्यानिष्णात आचार्य से सम्बद्ध कल्याण का इच्छुक उपासक)॥<br>

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    विषय

    अमर व ज्ञानी बनना

    पदार्थ

    इस मन्त्र के ऋषि 'शंयु' सबके लिए शान्ति चाहनेवाले हैं। उनकी कामना है कि (वयम्)=हम (अ-मृतम्)= उस अमर (जातवेदसम्)= प्रत्येक पदार्थ को जाननेवाले, सर्वत्र विद्यमान प्रभु की (प्रियं मित्रं न )= प्यारे मित्र की भाँति (प्र प्र शंसिषम्)= स्तुति करते हैं और खूब स्तुति करते हैं।

    स्तुति का अभिप्राय गुणों में प्रीति करना है। हम भी प्रभु की भाँति अमर व ज्ञानी बनने का प्रयत्न करते हैं। शंयु के लिए ऐसा करना आवश्यक ही है, क्योंकि (“यद्यदाचरति श्रेष्ठतस्तत्तदेवेत्तरो जन: ")। उसे देखकर ही तो सामान्य लोग भी इसी मार्ग का अनुसरण करेंगे। इसीलिए मन्त्र में कहा गया है कि (यज्ञायज्ञा)= यज्ञों के द्वारा (अग्नये)= अग्रगति के लिए (च)= और (गिरागिरा)= वेदवाणियों द्वारा (दक्षसे)= योग्य बनने के लिए हम (वः)= तुझ प्रभु का सर्वज्ञरूप में शंसन करते हैं।

    मनुष्य यज्ञों द्वारा ही उन्नत होता है और अमरता का लाभ करता है। एवं, ये यज्ञ उसके अभ्युदय [उन्नति] व निःश्रेयस [ अमरता] का कारण बनते हैं।

    इसी प्रकार वेदवाणी से मनुष्य का ज्ञान व योग्यता बढ़ती है। मनुष्य के सामने ये ही दो लक्ष्य हों कि यज्ञों के द्वारा अमर व वेदवाणी के द्वारा योग्य बनना है। तभी हमें चाही हुई शान्ति प्राप्त होगी।

    भावार्थ

    मनुष्य यज्ञों से अपनी उन्नति साधे और वेदवाणी से अपने ज्ञान को बढ़ाए। 

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे मनुष्यो ! ( वः ) = आप लोग ( दक्षसे ) = बलशाली, सर्वशक्तिमान् ( अग्नये  ) = अग्नि  परमेश्वर की ( यज्ञा यज्ञा१  ) = प्रत्येक यज्ञ में और ( गिरा गिरा च ) = प्रत्येक वेदवाणी से गुण कीर्त्तन करो । ( वयम् ) = हम भी ( अमृतं ) = उस अमृत , मृत्यु से रहित ( जातवेदसम् ) = वेदों के एकमात्र उत्पन्न करनेहारे , सर्वज्ञ, परमेश्वर को ( प्रियं मित्रं न ) = प्रिय मित्र के समान ( प्र शंसिषम् ) = कीर्त्तन करते हैं ।

    टिप्पणी

    १. सुपांसुलुग्  इति सप्तम्या: लुक् ( पा० ७  ।  १ ।  ३९  ) वीप्सायां द्विवेचनम् । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः। 
    छन्दः - बृहती। 
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कश्चिद् विद्वानुपदेशको मनुष्यान् प्रेरयति।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः, (यज्ञायज्ञा) यज्ञे यज्ञे। सुपां सुलुक्’ अ० ७।३।३९ इति सप्तम्या आकारादेशः वीप्सायां द्वित्वम्। (वः) युष्मान् (अग्नये) सद्गुणप्रेरकाय परमात्मने, तमाराद्धुमित्यर्थः, नियुनज्मि इति शेषः। (गिरागिरा च२) वाचा वाचा च, प्रत्येकप्रभावजनकवाक्यावली- विन्यासेनेति भावः (दक्षसे३) वर्द्धितुम्, उन्नतिं कर्तुं, प्रेरयामि इति शेषः। वृद्ध्यर्थकाद् दक्षधातोः तुमर्थे सेसेनसे असेन्० अ० ३।४।९ इति तुमर्थे असेन्’ प्रत्ययः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम्। (वयम्) यूयं वयं च सर्वे मिलित्वा (अमृतम्) अमरणधर्माणम्, अविनश्वरम् (जातवेदसम्) सर्वज्ञं सर्वव्यापकं च परमेश्वरम् (प्रप्र)४ प्रशंसामः प्रशंसामः, भूयोभूयः प्रशंसाम इत्यर्थः। किञ्च, पृथगप्यहं तम् (प्रियम्) स्निग्धम् (मित्रं न) सखायमिव (प्रप्र शंसिषम्५) भूयो भूयः प्रशंसामि। शंसु स्तुतौ धातोर्लेटि रूपम् ॥१॥६ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्येऽपि नैत्यिका नैमित्तिका वा यज्ञा आयोज्यन्ते तेषु परमेश्वरोऽवश्यं स्मरणीय आराधनीयश्च। महापुरुषा जनान् प्रेरयेयुर्यद् यूयं सततं वृद्ध्यै समुन्नत्यै च प्रयतध्वम्। एवमुपदेशका उपदेश्याश्च सर्वे संभूयैकमत्येन सर्वज्ञस्य सर्वव्यापकस्य परमात्मनः स्तुतिं कुर्युः, ऐहलौकिकपारलौकिकाभ्युदयं च प्राप्नुयुः ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ६।४८।१, य० २७।४२, साम० ७०३। २. च शब्दः समुच्चयादेरर्थस्याभावात् पादपूरण इति वि०। अस्माभिस्तु समुच्चयार्थ एव व्याख्यातः। ३. भरतस्वामी दक्षसे इति क्रियापदं मन्यते—चः चेदर्थे वर्तते, तद्योगाच्च दक्षसे इति आख्यातस्य उदात्तत्वम्, निपातैर्यद्यदि- हन्तकुविन्नेच्चेच्चण् कच्चिद्यत्रयुक्तम्’ पा० ८।१।३० इति। अन्यथा सर्वानुदात्ततैव स्यात् तिङ्ङतिङः पा० ८।१।२८ इति। पक्षे सायणोऽप्येवमाह। अस्माभिस्तु तुमर्थप्रत्ययत्वेन व्याख्यातम्। प्रत्ययस्य नित्त्वादाद्युदात्तता सिद्धैव। ४. प्रसमुपोदः पादपूरणे। अ० ८।१।१६ इति पादपूरणे द्वित्वमुक्तम्। वस्तुतस्तु प्र-प्र इति द्वित्त्वस्य न पादपूरणमात्रं प्रयोजनं, किन्तु प्रशंसाया भूयोभूयस्त्वं द्योत्यते। ५. वयं प्रशंसिषम् इत्यंसंगतेः विवरणकारेण वयमित्येतत् प्रथमाबहुवचनमेकवनस्य स्थाने द्रष्टव्यम् इत्युक्त्वा, भरतस्वामिसायणाभ्यां च प्रशंसिषम् इत्यत्र वचनव्यत्ययं मत्वा समाधानं कृतम्। अस्माभिस्तु व्यत्ययो निराकृतः। ६. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च विद्वत्कर्तव्यविषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O men, sing the glory of the Omnipotent God at every sacrifice, with each vedic verse. Let us praise Everlasting God, Creator of the Vedas, as a well-beloved friend.

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    Meaning

    In every yajnic programme of your creative and constructive work, in every word of our voice, join and let us honour, appraise and develop Agni, imperishable energy pervasive in all things of existence, and adore Agni, omniscient and omnipresent lord giver of knowledge and enlightenment. (Rg. 6-48-1)

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    Translation

    n the oceasion of every sacrifice

    We adore the Lord.

    By every word that we utter

    We praise Almighty God

    We praise Him like a dear friend

    Who is Omnipresent

    He is Immortal Supreme Leader

    For Hig our prayers are meant.

    Comments

    जातवेदसम-सवव्यापकं सवज्ञ च परमेश्वरम्‌ जाते-जाते विद्यत इति वा जातानि वेद इतिवेति निरुक्त ७.५ 

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    Translation

    At every benevolent selfless work, let us glorify our adorable Lord. With reiterated eulogies to obtain the inner strength. May we glorify Him, the immortal, the cognizant of all that has come into existence as our dear friend. (Cf. S. 703; Rv VI.48.1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यज्ञा यज्ञा गिरा गिरा च) મારા સકલ યજ્ઞ અને સમસ્ત સ્તુતિઓ (वः दक्षसे अग्नये) તારા પ્રવૃદ્ધ સર્વત્ર વ્યાપક અને જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્માને માટે છે; તેથી (अमृतं जातवेदसम्) તું અમૃતરૂપ અને ઉત્પન્ન માત્રના આધાર તથા જ્ઞાતા (प्रियं मित्रं न) પ્રિય મિત્રની સમાન પરમાત્માની (वयं प्र प्रशसिषम् હું પ્રશંસા-સ્તુતિ કરું છું. (૧)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે સર્વોત્પાદક, સર્વાધાર, સર્વજ્ઞ અને અમૃતસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! પ્રતિદિન કરવામાં આવતો યજ્ઞ શ્રેષ્ઠકર્મ સદાચરણ અને પ્રતિદિન કરવામાં આવતી સ્તુતિ તારા સર્વત્ર વ્યાપ્ત-મહાન જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપને માટે તારી પ્રાપ્તિને માટે છે. તારા જેવા પ્રિય મિત્રને અધિક અને નિરંતર પ્રશંસિત કરું છું. ચાહું છું, તું મિત્ર સમાન સંગી બની જા એ જ પ્રાર્થના છે. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    امرت پیارے مترایشور کے گن گائیں

    Lafzi Maana

    (یگیا یگیا) ہر ایک یگیہ میں (وہ) آپ (اگنے) ایشور کی گِراگِرا) وید کی بانیوں سے سُتتیوں کے دوارہ (دکھشے) بل اُتساہ پرپت کرنے کے لئے (ویتم) ہم لوگ (امرتم جات ویدسم) امر سروگیہ سب کچھ جاننے والے وید کے پرکاشک یعنی پرگٹ کرنے والے (پریمّ) پیارے (مِترم) ِتر دوست (ناپر سنشی شم) کی طرح اُتم پرکار سے گُن واد کرتے ہیں۔ مہما گاتے ہیں۔

    Tashree

    گُن واد یا کیرتن یا پرماتما کے اوصافِ حمیدہ کا بار بار ذکر کرنے کا ارتھ ہے۔ اُس کے اُن اوصاف کو زندگی میں عمل میں لانا۔ وہ ہی ہمارا سّچا مِتر اور پیارا سکھا ہے۔ اُس کے ساتھ ہی پیار بڑھانے کے لئے ہر وقت کوشاں رہنے سے ہمیں بل، اُتساہ اور امرت کی پراپتی ہوتی ہے۔
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांद्वारे जे नित्य किंवा नैमित्तिक यज्ञ आयोजित केले जातात, त्यावेळी परमेश्वराचे स्मरण अवश्य केले पाहिजे व आराधनाही केली पाहिजे. महापुरुषांनी माणसांना ही प्रेरणा द्यावी, की तुम्ही निरंतर वृद्धी व सगुन्नतीसाठी प्रयत्न करा. या प्रकारे उपदेशक व श्रोते सर्वांनी मिळून एकमताने सर्वज्ञ, सर्वव्यापक परमेश्वराची स्तुती करावी व इहलौकिक व पारलौकिक अभ्युदय प्राप्त करावा ॥१॥

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    विषय

    एक विद्वान उपदेशक मनुष्यांना प्रेरणा करीत आहे. -

    शब्दार्थ

    हे मनुष्यांनो, (यज्ञायज्ञा) प्रत्येक यज्ञात (व:) तुम्हा लोकांना (मी एक विद्वान) (अग्नये) सद्गुणप्रेरक परमेश्वराच्या आराधनेसाठी नियुक्त करीत आहे. (गिरागिरा च) प्रत्येक वेळी प्रत्येक वाणी वचनाद्वारे म्हणजे प्रभावोत्पादक वाक्यविकासाद्वारे (दक्षसे) वृद्धी वा उत्कर्षासाठी प्रेरित करीत आहे. (तुमचे एक एक उच्चारलेले वाक्य तुमच्या उन्नतीचे कारण व्हावे.) अशाप्रकारे (वयम्) तुम्ही यमी आम्ही सर्वजण मिळून (अमृतम्) अमरणधर्मा, अविनाशी आणि (जातवेदसम्) सर्व व सर्वव्यापी परमेश्वरानी (प्र प्र) पुन्हा पुन्हा वारंवार प्रशंसा करू या. तसेच मी तुमच्या व्यतिरिक्त एकटाच त्या परमेश्वराची (प्रियम्) प्रिय (मित्रं न) माझ्या प्रिय मित्राप्रमाणे (प्र प्र शंसिषम्) पुन्ह पुन्हा प्रशंसा करीत आहे. (व करीत राहीन) ।।१।।

    भावार्थ

    भनुष्य जो यज्ञ मग ते नित्ययज्ञ असो वा नैमित्तिक असो, करतात. त्यात परमेश्वराचे स्मरण व आराधन त्यांनी अवश्य करावे. समाजातील महापुरुषांनी मनुष्यांना अशी प्रेरणा करावी की तुम्ही सतत वृद्धी व समृद्धीकरीता प्रयत्न करीत जा. अशाप्रकारे उपदेश देणारे व ऐकणारे दोघांनी / सर्वांनी मिळून एकमताने सर्वज्ञ, सर्वव्यापक परमात्म्याची स्तुती केली पाहिजे आणि स्वत:चे इहलौकिक व पारलौकिक अभुद्य प्राप्त केला पाहिजे. ।।१।।

    विशेष

    या मंत्रात मित्रंन या शब्दात उपमा अलंकार आहे. ।।१।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    எல்லா யக்ஞங்களிலும் துதி வடிவ மொழிகளோடு உங்கள் (அக்னிக்கு) கானஞ் செய்யவும், பிரியமான (நண்பனைப்போல்) [1](ஜாதவேதசனான) அமிருதனை நாம் பஜிக்க வேண்டும்.

    FootNotes

    [1]. சாதவேதசனான - எல்லா மறிந்தவன்

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