Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 371
ऋषिः - सुवेदाः शैलूषिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
श्र꣡त्ते꣢ दधामि प्रथ꣣मा꣡य꣢ म꣣न्य꣢꣫वेऽह꣣न्य꣢꣯द्दस्युं꣣ न꣡र्यं꣢ वि꣣वे꣢र꣣पः꣢ । उ꣣भे꣢꣫ यत्वा꣣ रो꣡द꣢सी꣣ धा꣡व꣢ता꣣म꣢नु꣣ भ्य꣡सा꣢ते꣣ शु꣣ष्मा꣢त्पृथि꣣वी꣡ चि꣢दद्रिवः ॥३७१॥
स्वर सहित पद पाठश्र꣢त् । ते꣣ । दधामि । प्रथमा꣡य꣢ । म꣣न्य꣡वे꣢ । अ꣡ह꣢꣯न् । यत् । द꣡स्यु꣢꣯म् । न꣡र्य꣢꣯म् । वि꣣वेः꣢ । अ꣣पः꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ । यत् । त्वा꣣ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । धा꣡व꣢꣯ताम् । अ꣡नु꣢꣯ । भ्य꣡सा꣢꣯ते꣣ । शु꣡ष्मा꣢꣯त् । पृ꣣थिवी꣢ । चि꣣त् । अद्रिवः । अ । द्रिवः ॥३७१॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवेऽहन्यद्दस्युं नर्यं विवेरपः । उभे यत्वा रोदसी धावतामनु भ्यसाते शुष्मात्पृथिवी चिदद्रिवः ॥३७१॥
स्वर रहित पद पाठ
श्रत् । ते । दधामि । प्रथमाय । मन्यवे । अहन् । यत् । दस्युम् । नर्यम् । विवेः । अपः । उभेइति । यत् । त्वा । रोदसीइति । धावताम् । अनु । भ्यसाते । शुष्मात् । पृथिवी । चित् । अद्रिवः । अ । द्रिवः ॥३७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 371
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से जगदीश्वर की महिमा का गान किया गया है।
पदार्थ
हे इन्द्र जगदीश्वर ! मैं (ते) तेरे (प्रथमाय) सर्वोत्कृष्ट (मन्यवे) तेज के प्रति (श्रत् दधामि) श्रद्धा करता हूँ, (यत्) क्योंकि, तू (दस्युम्) यज्ञादि कर्मों के विध्वंसक दुर्भिक्ष को अथवा रात्रि के अन्धकार को (अहन्) नष्ट करता है, (नर्यम्) मनुष्यों के हितकर रूप में (अपः) मेघ-जलों को (विवेः) भूमि पर बरसाता है, और (यत्) क्योंकि (उभे रोदसी) द्युलोक और पृथिवी-लोक दोनों (त्वा) तेरे (अनु धावताम्) पीछे-पीछे दौड़ते हैं। हे (अद्रिवः) प्रतापरूपवज्रवाले ! तेरे (शुष्मात्) बल से (पृथिवी चित्) अन्तरिक्ष भी (भ्यसाते) भय से काँपता है ॥२॥
भावार्थ
सूर्य के प्रकाश से रात्रि के अन्धकार का निवारण होना, बादल से वर्षा होना, द्यावापृथिवी के मध्य में विद्यमान लोक-लोकान्तरों का नियन्त्रण होना, सूर्य और भूमि का परस्पर सामञ्जस्य होना इत्यादि जो कुछ भी व्यवस्था जगत् में दिखायी देती है, उसका करनेवाला जगदीश्वर ही है। इस लिए हमें उसके प्रताप पर श्रद्धा करनी चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(अद्रिवः) हे ओजस्वी परमात्मन्! (ते प्रथमाय मन्यवे) तेरे श्रेष्ठ तेज के लिए “मन्युर्मन्यतेदीर्प्तिकर्मणः” [निरु॰ १०.३०] (श्रत्-दधामि) श्रद्धा करता हूँ—स्वागत करता हूँ (यत्-नर्यं दस्युम्-अहन्) जो नर—देवजन मुमुक्षुजन के दस्यु उपक्षीण—करने वाले विरोधी विचार को मारता है (अपः-विवेः) मोक्षयोग्य कर्म को विस्तृत करता है “अपः कर्मनाम” [निघं॰ २.१] (यत्) ‘यतः’ क्योंकि (उभे रोदसी) दो द्यावापृथिवी—द्युलोक और पृथिवीलोक (त्वा-अनु) तेरे अनुशासन में या अनुसार (भ्यसात्) भय से (धावताम्) अपनी अपनी गति करते हैं (पृथिवी चित्-ते शुष्मात्) प्रथनशील अन्तरिक्ष भी तेरे बल—शासन में प्रथित हो रहा है “पृथिवी-अन्तरिक्षनाम” [निघं॰ १.३] “शुष्मं बलम्” [निघं॰ २.९]।
भावार्थ
परमात्मन्! तू बड़ा दयालु है जो अपने मुमुक्षु उपासक के विरोधी रुकावट करने वाले विचार को नष्ट करता है दस्यु की तो बात क्या ये द्युलोक, पृथिवीलोक और अन्तरिक्षलोक भी तेरे शासन बल भय में अपनी गतिविधि और स्थिति में वर्तमान हैं अतः तेरे इस दीप्त तेज शासन पर मैं श्रद्धा करता हूँ॥२॥
टिप्पणी
[*30. “शील समाधौ” [भ्वादि॰]।]
विशेष
ऋषिः—सुवेदः शैलूषिः (अच्छा ज्ञाता शील-समाधि में वसने वाले का शिष्य*30)॥<br>
विषय
प्रभु का प्रिय कैसे बनूँ?
पदार्थ
गत मन्त्र में प्रभु को अपनी जीवन-यात्रा का जहाज बनाने का निश्चय 'रेभ काश्यप' ने किया था। यहाँ वही काश्यप 'सुवेदा' नाम से कहा गया है - उत्तम ज्ञानी । यह अपने के 'शैलूषि' ' = वह नर समझता है जो उस संसार - नाटक के सूत्रधार प्रभु के निर्देशानुसार अपना नृत्य करता चलता है। १. प्रभु इससे कहते हैं कि ते तेरे (प्रथमाय मन्यवे) = इस सर्वोत्कृष्ट संकल्प के लिए (श्रुत दधामि) = तुझे आदरणीय समझता हूँ – श्रद्धा के योग्य मानता हूँ। 'प्रभु जो नाच नचाएँगे वही नाचूँगा' यही सर्वोत्तम संकल्प है। प्रभु की नाव में ही बैठूंगा- यही निश्चय प्रशस्य है।
प्रभु कहते हैं कि मैं इसलिए भी तुझे अच्छा समझता हूँ कि २. (यत्) = जो तूने (दस्युम्) = कामक्रोध-लोभ आदि दस्युओं को (अहन्) = नष्ट कर दिया। और फिर ३. (नर्यं अपः) = नर हितसाधक कर्मों को तूने (विवेः) = विशेषरूप से (सन्तत) = विस्तृत किया । तूने औरों के भले के लिए अपने सुख, समय व सम्पत्ति का त्याग किया और अपने जीवन को एक रूा का रूप दे दिया। इसी का यह परिणाम था (यत् द्वये रोदसी) = कि दोनों द्युलोक व पृथिवीलोक (त्वा अनुधावताम्) = तेरे पीछे दौड़ कर आये। जिस किसी को भी कोई कष्ट हुआ वह तेरे समीप पहुँचा, सारा संसार तेरी ही ओर दौड़ा।
प्रभु कहते हैं कि मुझे तू इसलिए भी अच्छा लगा कि ४. हे (अद्रिवः) = वज्र तुल्य शरीरवाले नर! (ते) = तेरे (शुष्मात्) = बल से (पृथिवीचित्) = सारी पृथिवी भी (भ्यसात्) = काँप उठी। तुझे अपनी रक्षा के लिए रक्षकों की आवश्यकता नहीं हुई। तू इस लोकहित के कार्य में निर्भीक होकर जुटा रह सका। शरीर के नाजुक होने की दशा में जहाँ तू इतना अधिक कार्य न कर सकता, वहाँ तुझे कितने ही कार्यों को करने में भय भी लगता। इसलिए यह भी तूने ठीक ही किया कि अपने शरीर का वज्र तुल्य बनाया।
भावार्थ
‘मैं उस प्रभु का आदर- पात्र बनूँ अतः १. प्रभु को आधार बनाने का संकल्प करूँ, २. काम-क्रोधादि को कुचल डालूँ, ३. नरहित के कार्यों का विस्तार करूँ और ४. शरीर को वज्र तुल्य बनाऊँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( अद्रिवः ) = अखण्ड ज्ञानवन् ! परमेश्वर ! ( प्रथमाय ) = सबसे श्रेष्ठतम, सबसे पूर्व विद्यमान, सब के आदि कारण ( मन्यवे ) = माननीय या ज्ञानस्वरूप ( ते ) = तुझे ( श्रत् -दधामि ) = सत्य रूप मानकर धारण करता हूं, तुझे सत्य ज्ञानस्वरूप मानता हूं । ( यद् ) = क्योंकि तु ( दस्युं ) = नाशक उपद्रवी को ( अहन् ) = मारता है और ( नर्यं ) = मनुष्यों के हितकारी ( अपः ) = जल आदि पदार्थों कर्मों और ज्ञानों को ( विवेः ) = प्रकट करता है । ( यत् ) = और क्योंकि ( त्वा ) = तेरे बल पर ही ( रोदसी ) = द्यौलोक और पृथिवी लोक ( उभे ) = दोनों ( धावताम् ) = गति कर रहे हैं। हे ( अद्रिवः ) = ज्ञान और बल से युक्त सब के संहारकारिन् ! ( पृथिवी चित् ) = यह अतिविस्तृत अन्तरिक्ष भी ( ते शुष्मात् ) = तेरे बल से ( अनुभ्यसात् ) = भय करता है ।
टिप्पणी
३७१ – 'अहन्यद् वृत्रं इति 'उभे यत्त्वा भवतो रोदसी अनुरेजते' इति च ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - सुवेदाः शैरिशि: सुवेद: शैलूषिर्वा।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - जगती।
स्वरः - निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रनाम्ना जगदीश्वरस्य महिमानं गायति।
पदार्थः
हे इन्द्र जगदीश्वर ! अहम् (ते) तव (प्रथमाय) सर्वोत्कृष्टाय (मन्यवे) तेजसे (श्रत् दधामि) श्रद्धां करोमि, (यत्) यस्मात्, त्वम् (दस्युम्) यज्ञादिकर्मणामुपक्षपयितृ अवर्षणम् यद्वा रात्रेरन्धकारम्। दस्युः, दस्यतेः क्षयार्थात्। उपदस्यन्त्यस्मिन् रसाः, उपदासयति कर्माणि। निरु० ७।२२। (अहन्) हंसि, (नर्यम्२) नरहितकरं यथा स्यात् तथा (अपः) मेघजलानि (विवेः३) भूतलं प्रति गमयसि। वी गत्यादिषु, अत्र ण्यर्थगर्भः, ततो लङि ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६’ इति शपः श्लौ, द्वित्वे, अडभावे रूपम्। (यत्) यस्मात् च (उभे रोदसी) द्वे अपि द्यावापृथिव्यौ (त्वा) त्वाम्, त्वच्छासनमित्यर्थः (अनु धावताम्) अनुधावतः। गत्यर्थाद् धावतेर्लडर्थे लङि प्रथमपुरुषस्य द्विवचने रूपम्, ‘बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि। अ० ६।४।७५’ इत्यडागमाभावः। हे (अद्रिवः) प्रतापरूपवज्रवन् ! तव (शुष्मात्) बलात्। शुष्ममिति बलनाम। निघं० २।९। (पृथिवी चित्) अन्तरिक्षमपि। पृथिवी इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। भूमेरुल्लेखः पूर्वं ‘रोदसी’ इति पदे कृत एवेत्यत्र पृथिवीपदेन अन्तरिक्षं वाच्यं भवति। (भ्यसाते४) भयाद् वेपेते। भ्यसते रेजते इति भयवेपनयोः निरु० ३।२१। लेटि ‘लेटोऽडाटौ। अ० ३।४।९४’ इत्याडागमः। मन्त्रान्तरं चात्र ‘यस्य॒ शुष्मा॒द् रोद॑सी॒ अभ्य॑सेताम्’ ऋ० २।१२।१ इति। तथा चोपनिषद्वर्णः—भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः (कठ० ६।३) इति ॥२॥
भावार्थः
सूर्यप्रकाशाद् रात्रेस्तमसो निवारणं, मेघाद् वृष्टिः, द्यावापृथिव्योर्मध्ये विद्यमानानां लोकलोकान्तराणां नियमनं, सूर्यस्य पृथिव्याश्च परस्परं सामञ्जस्यम् इत्यादि या काचिद् व्यवस्था जगति विलोक्यते तस्याः कर्ता जगदीश्वर एव। अतोऽस्माभिस्तस्य प्रतापे श्रद्धा विधेया ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।१४७।१, ऋषिः सुवेदाः शैरीषिः। ‘दस्युं’ इत्यत्र ‘वृत्रं’, उत्तरार्धे च ‘उभे यत्त्वा भवतो रोदसी अनु रेजते शुष्मात् पृथिवी चिदद्रिवः’ इति पाठः। २. नर्यं नरहितम्। नर्यमिति क्रियाविशेषणम्—इति भ०। ३. वेतेः गतिकर्मणः अन्तर्णीतण्यर्थस्य रूपं विवेरिति—भ०। ४. माधवभरतस्वामिनोः पदकारस्य च मते ‘भ्यसात् ते’ इति पाठः। तत्र ‘ते शुष्मात् पृथिवी चित् भ्यसात्’ इति योजना कार्या।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Omniscient God, I have faith in Thee, Most Excellent and powerful, as Thou hast destroyed the violent tendencies of the mind, and manifested the deeds for man’s welfare. Both Heaven and Earth fly for refuge unto Thee. Earth even trembles at Thy strength!
Meaning
Indra, potent ruler of nature and humanity, lord of thunder and clouds, mover of mountains, I am all faith, reverence and admiration in truth of commitment for your first and foremost power and passion by which you break the clouds and release the showers of rain for humanity, by virtue of which both heaven and earth abide by your law, the power and force by which the firmament shakes with awe. (Rg. 10-147-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अद्रिवः) હે ઓજસ્વી પરમાત્મન ! (ते प्रथमाय मन्यवे) તારા શ્રેષ્ઠ તેજને માટે (श्रत् दधामि) શ્રદ્ધા કરું છું-સ્વાગત કરું છું (यत् नर्यं दस्युम् अहन्) જે નર-દેવજન-મુમુક્ષુજનના દસ્યુ ઉપક્ષીણ-કરનાર વિરોધી વિચારને મારે છે (अपः विवेः) મોક્ષ યોગ્ય કર્મને વિસ્તૃત કરે છે (यत्) જે કારણ કે (उभे रोदसी) બે દ્યુલોક અને પૃથિવીલોક (त्वा अनु) તારા અનુશાસનમાં અથવા અનુસાર (भ्यसात्) ભયથી (धावताम्) પોત-પોતાની ગતિ કરે છે. (पृथिवी चित् ते शुष्मात्) વિસ્તૃત અન્તરિક્ષ પણ તારા બળ-શાસનમાં વિસ્તાર પામી રહેલ છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તું મહાન દયાળું છે. જે તારા મુમુક્ષુ ઉપાસકના વિરોધી, અવરોધ કરનાર વિચારને નષ્ટ કરે છે, દસ્યુની તો વાત જ ક્યાં, એ તો દ્યુલોક, પૃથિવીલોક અને અન્તરિક્ષ લોક પણ તારા શાસન બળના ભયથી પોતાની ગતિવિધિ અને સ્થિતિમાં રહે છે, તેથી તારા એ દીપ્ત તેજ શાસન પર હું શ્રદ્ધા કરું છું. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
نفسِ امارہ پر آپ کا غُصہ ہمارے لئے امرت
Lafzi Maana
ہے پرمیشور! جب آپ کا غُصّہ گرتا ہے نفسِ امارہ پر، جو ہمیں تحس نحس کرنے پر تلے ہوئے ہیں تو آپ کے لئے اتینت شردھا پیدا ہوتی ہے میرے دل میں، اور جب آپ ان کا ناش کرنے کے لئے نیک عمل کا راستہ کھول دتے ہیں، تب سبھی صد صد بار شُکر گزار ہوتے ہیں، یہ آپ ہی ہیں مہا بلوان پرمیشور جن کے ڈر سے ارض و سما دوڑ رہے ہیں اور ہماری دھرتی سورج کے چاروں طرف چکر کاٹ رہی ہے۔
Khaas
نفس پر غصہ برستا دیکھ کر کے آپ کا، ہوتا ہوں خوش آ گئے میرے بچانے کے لئے، عرش پر اور فرش پر تیری حکومت دیکھ کے، ڈر کے مارے دھرتی اور سُورج ہیں کب سے دوڑتے۔
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्याच्या प्रकाशाने रात्रीच्या अंधकाराचे निवारण होणे, मेघाद्वारे वृष्टी होणे, द्यावा पृथ्वीमध्ये विद्यमान लोकलोकांतरांचे नियंत्रण होणे, सूर्य व भूमीचे परस्पर सामंजस्य होणे, इत्यादी जी व्यवस्था जगात दिसून येते ती करणारा जगदीश्वरच आहे. त्यासाठी आम्हाला त्याच्या प्रतापरूपी बलावर विश्वास व श्रद्धा ठेवली पाहिजे ॥२॥
तमिल (1)
Word Meaning
வச்சிராயுதனே ! உன் முதன்மையான கோபச்செயலில் எனக்கு நம்பிக்கையுண்டு. ஏனெனில் அதனால் நீ விருத்திரனைக்கொன்று மனிதனுக்கு ஹிதஞ் செய்பவனாகிறாய். சோதியும் வானமும் உன்னை துரிதமாய் நாடி சரணமடைந்துள்ளது. உன் பலத்தில் பூமியும் நடுங்கும். அதாவது [1]உன் கோபத்தாலேயே இவைகள் தங்கள் தங்கள் கடமைகளைச் செய்து வருகின்றன.
FootNotes
[1]உன் கோபத்தால் - பகவத்கீதை விசுவரூப அத்தியாயத்தைப் பார்க்கவும்.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal