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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 398
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिपदा विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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पि꣢बा꣣ सो꣡म꣢मिन्द्र꣣ म꣡न्द꣢तु त्वा꣣ यं꣡ ते꣢ सु꣣षा꣡व꣢ हर्य꣣श्वा꣡द्रिः꣢ । सो꣣तु꣢र्बा꣣हु꣢भ्या꣣ꣳ सु꣡य꣢तो꣣ ना꣡र्वा꣢ ॥३९८॥
स्वर सहित पद पाठपि꣡ब꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣣न्द्र । म꣡न्द꣢꣯तु । त्वा꣣ । य꣢म् । ते꣣ । सुषा꣡व꣢ । ह꣣र्यश्व । हरि । अश्व । अ꣡द्रिः꣢꣯ । अ । द्रिः꣣ । सोतुः꣢ । बा꣣हु꣡भ्या꣢म् । सु꣡य꣢꣯तः । सु । य꣣तः । न꣢ । अ꣡र्वा꣢꣯ ॥३९८॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबा सोममिन्द्र मन्दतु त्वा यं ते सुषाव हर्यश्वाद्रिः । सोतुर्बाहुभ्याꣳ सुयतो नार्वा ॥३९८॥
स्वर रहित पद पाठ
पिब । सोमम् । इन्द्र । मन्दतु । त्वा । यम् । ते । सुषाव । हर्यश्व । हरि । अश्व । अद्रिः । अ । द्रिः । सोतुः । बाहुभ्याम् । सुयतः । सु । यतः । न । अर्वा ॥३९८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 398
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में सोमपानार्थ इन्द्र का आह्वान किया गया है।
पदार्थ
प्रथम—राष्ट्र के पक्ष में। हे (हर्यश्व) वेगवान् घोड़ों के स्वामी (इन्द्र) शत्रुविदारक सेनापति वा राजन् ! तुम (सोमम्) सोमादि ओषधियों के वीरताप्रदायक रस को (पिब) पान करो, वह रस (त्वा) तुम्हें (मन्दतु) उत्साहित करे। (यम्) जिस रस को, (सोतुः) रथचालक की (बाहुभ्याम्) बाहुओं से (सुयतः) सुनियन्त्रित (अर्वा न) घोड़े के समान, (सोतुः) रस निकालनेवाले के (बाहुभ्याम्) हाथों से (सुयतः) सुनियन्त्रित (अद्रिः) सिलबट्टे रूप साधन ने (ते) तुम्हारे लिए (सुषाव) कूट-पीस कर अभिषुत किया है ॥ द्वितीय—अध्यात्म पक्ष में। हे (हर्यश्व) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों के स्वामी (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! तू (सोमम्) ज्ञानरस और कर्मरस को (पिब) पान कर, वह ज्ञान और कर्म का रस (त्वा) तुझे (मन्दतु) आनन्दित करे, (यम्) जिस ज्ञान और कर्म के रस को (सोतुः) रथ-प्रेरक सारथि की (बाहुभ्याम्) बाहुओं से (सुयतः) सुनियन्त्रित (अर्वा न) घोड़े की तरह (सुयतः) सुनियन्त्रित (अद्रिः) विदीर्ण न होनेवाले तेरे मन ने (ते) तेरे लिए (सुषाव) उत्पन्न किया है ॥८॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमा और श्लेष अलङ्कार है ॥८॥
भावार्थ
पुष्टिप्रद सोमादि ओषधियों का रस पीकर राष्ट्र के सैनिक, सेनापति और राजा सुवीर होकर शत्रुओं को पराजित करें। इसी प्रकार राष्ट्र के सब स्त्री-पुरुष मन के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान-रस का तथा कर्मेन्द्रियों द्वारा अर्जित कर्म-रस का पान कर परम ज्ञानी और परम पुरुषार्थी होते हुए ऐहिक तथा पारलौकिक उत्कर्ष को सिद्ध करें ॥८॥ इस दशति में इन्द्र के बल-पराक्रम का वर्णन होने से, इन्द्र से सम्बद्ध आदित्यों से दीर्घायु-प्राप्ति तथा रोग, दुर्मति आदि के दूरीकरण की याचना होने से और सोमपानार्थ इन्द्र का आह्वान होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में प्रथम अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(हर्यश्व-इन्द्र) दुःखापहरण सुखाहरण हैं व्यापनधर्म दया और प्रसाद जिसके ऐसे हे परमात्मन्! (सोमं पिब) उपासनारस का पान कर—स्वीकृत कर (यम्-अद्रिः) जिसको आदर करने वाला प्रशंसाकर्ता—स्तोता उपासक ने “अद्रिरसि श्लोककृत्” [काठ॰ १.५] (ते सुषाव) तेरे लिए अभिषुत किया है, सम्पादित किया है यह सोम—उपासनारस (सोतुः-बाहुभ्याम्) रसनिष्पादक—उपासनारस सम्पादित करने वाले के स्नेह और अनुराग से “तस्मादयं बाहुमेद्यतोऽनुमेद्यति” [जै॰ २.४०७] (सुयतः-न-अर्वा) सुव्यवस्थित—सुसिद्ध घोड़े के समान है।
भावार्थ
हे दुःखापहरण सुखाहरण करने वाले दया और प्रसादरूप व्यापन धर्मी वाले परमात्मन्! तू उपासनारस का पान करता है स्वीकार करता है जिसे तेरा आदर करने वाला प्रशंसक स्तुतिकर्ता उपासक तेरे लिए तैयार करता है जो कि उपासक के स्नेह और अनुराग द्वारा सुसिद्ध घोड़े के समान आकर्षक है॥८॥
विशेष
ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ छन्दः—त्रिपदा अनुष्टुप्॥<br>
विषय
प्रभु का अंतिम निर्देश
पदार्थ
वेद में स्थान-स्थान पर हम यह देखते हैं कि जहाँ कहीं शरीर, मन व बुद्धि के उत्थान की प्रार्थना है वहाँ प्रभु ने 'सोमपान' का निर्देश किया है। चारों वेदों की समाप्ति पर अथर्व के २०वें काण्ड में ('पिब सोमं ऋतुना') = यही उपदेश है कि समय रहते सोमपान करना। युवावस्था में ही सोमरक्षा का ध्यान करना । प्रस्तुत मन्त्र में भी प्रभु यही कहते हैं कि यदि तूने ‘रोग-कुत्सा व दुर्गति' को दूर करना है तो हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू (सोमं पिबा) = सोम का पान कर | यह सोम (त्वा) = तुझे मन्दतु हर्षित करे। इसके कारण तेरा जीवन उल्लासमय हो। उस सोम को तू पी (यम्) = जिसे ते तेरे लिए (हर्यश्वाद्रिः) = हरि=मनुष्यों के हृदय में स्थित होकर प्रेरणा देनेवाले और वज्रहस्त प्रभु ने (सुषाव) = उत्पन्न किया है। प्रभु प्रेरणा देते हैं, पर लाचारी में वज्र प्रहार भी करते हैं। प्रभु के इसी वज्र से वस्तुतः जीव धर्म मे मार्ग पर चलता है।
यह सोम (सोतुः) = जिसके लिए सोम का सवन हुआ है उस जीव के (बाहुभ्याम्) = हाथों से निरन्तर किये जानेवाले प्रयत्नों से [बाह्र प्रयत्ने] (सुयतः) = उत्तम प्रकार से नियन्त्रित होता है। निरन्तर प्रयत्न में लगा हुआ व्यक्ति वासनाओं का शिकार नहीं होता, और इस प्रकार सोम की रक्षा में समर्थ होता है। सोम की रक्षा करके यह अर्वान- अश्व की भाँति शक्तिशाली होता है। अश्व शक्ति का प्रतीक है। यह सोमपान करनेवाला भी अश्व-शक्ति का पुञ्ज बनता है।
सोम को सुयत=उत्तम प्रकार से नियन्त्रित करनेवाला यह सचमुच वसिष्ठ वशियों में सर्वश्रेष्ठ है। इस वशित्व के लिएए ही यह ‘मैत्रावरुणि' प्राणापान की साधनावाला बना है।
भावार्थ
‘सोमपान’ यह प्रभु का अन्तिम निर्देश है- मैं उसके पालन को अपना पवित्र कार्य समझँ।
टिप्पणी
नोट – सोता = जीव – जिसके लिए सोम पैदा किया गया है। सविता=परमात्मा- जो सोम के उत्पादन की व्यवस्था करता है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( सोमम् पिब ) = सोम, आनन्दरस का पान कर हे ( हर्यश्व ) = हरणशील अश्वरूप प्राणों से युक्त ! ( सोतुः ) = प्रेरणा करने हारे सारथि के ( बाहुभ्यां ) = बाहुओं से ( सुयतः ) = उत्तम रूप से नियन्त्रित ( अर्वा न ) = घोड़े के समान ( सः ) = वह आनन्दरस ( यम् ) = जिसको ( अद्रि: ) = मेघ के सदृश वर्षण करने वाला धर्ममेघ समाधि ( ते ) = तेरे लिये ( सुषाव ) = उत्पन्न करता है वह ( त्वा मन्दतु ) = तुझको आनन्दित करे।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वसिष्ठ:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - विराडुष्णिक्।
स्वरः - ऋषभ:।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमपानायेन्द्र आहूयते।
पदार्थः
प्रथमः—राष्ट्रपरः। हे (हर्यश्व) हरयः वेगेन हर्तारः अश्वाः तुरगाः यस्य तादृश (इन्द्र) शत्रुविदारक सेनापते राजन् वा ! त्वम् (सोमम्) वीरताप्रदायकम् सोमौषधिरसम् (पिब) आस्वादय, स रसः (त्वा) त्वाम् (मन्दतु) हर्षयतु, (यम्) यं रसम् (सोतुः) रथचालकस्य। अत्र षू प्रेरणे धातुर्बोध्यः। (बाहुभ्याम्) दोर्भ्याम् (सुयतः) सुनियन्त्रितः (अर्वा न) घोटकः इव (सोतुः) अभिषवकर्तुः। अत्र षुञ् अभिषवे धातुः। (बाहुभ्याम्) बाहूपलक्षिताभ्यां हस्ताभ्याम् (सुयतः) सुगृहीतः (अद्रिः) ग्रावा (ते) तुभ्यम् (सुषाव) अभिषुतवान् ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः। हे (हर्यश्व) हरयः ज्ञानकर्माहरणशीलाः अश्वाः ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपाः यस्य तादृश (इन्द्र) मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (सोमम्) ज्ञानरसं कर्मरसं च (पिब) आस्वादय, स ज्ञानरसः कर्मरसश्च (त्वा) त्वाम् (मन्दतु) आनन्दयतु, (यम्) ज्ञानकर्मरसम् (सोतुः) रथप्रेरकस्य सारथेः (बाहुभ्याम्) भुजाभ्याम् (सुयतः) सुनियन्त्रितः (अर्वा न) अश्वः इव (सुयतः) सुनियन्त्रितः (अद्रिः) न दीर्यते इति अद्रिः अजरं मनः। यावत्प्रलयं यावन्मुक्ति वा स्थूलशरीरे सूक्ष्मशरीरे वा तस्यावस्थानात्। (ते) तुभ्यम् (सुषाव) अभिषुतवान्। षुञ् स्नपनपीडनस्नानसुरासन्धानेषु, स्वादिः ॥८॥२ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः श्लेषश्च ॥८॥
भावार्थः
पुष्टिप्रदानां सोमाद्योषधीनां रसं पीत्वा राष्ट्राणां सैनिकाः सेनापतयो नृपतयश्च सुवीरा भूत्वा शत्रून् पराजयन्ताम्। तथैव राष्ट्रस्य सर्वे स्त्रीपुरुषा मनसो माध्यमेन ज्ञानेन्द्रियैरर्जितं ज्ञानरसं कर्मेन्द्रियैरर्जितं कर्मरसं च पीत्वा परमज्ञानिनः परमपुरुषार्थिनश्च सन्त ऐहिकपारलौकिकोत्कर्षं साध्नुवन्तु ॥८॥ अत्रेन्द्रस्य बलपराक्रमवर्णनात्, तत्सम्बद्धेभ्य आदित्येभ्यो दीर्घायुष्यप्राप्तेः रोगदुर्मत्यादेरपाकरणस्य च याचनात्, सोमपानायेन्द्राह्वानाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके प्रथमार्द्धे प्रथमा दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये पञ्चमः खण्डः ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।२२।१, अथ० २०।११७।१, साम० ९२७। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रेऽस्मिन् इन्द्रपदेन वैद्यमर्थं गृह्णाति—“हे भिषजो यूयं यथा वाजिनो तृणान्नजलादिकं संसेव्य पुष्टा भवन्ति, तथैव सोमं पीत्वा बलवन्तो भवत” इति तस्याशयः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, enjoy supreme happiness, May it gladden thee. O soul, coupled with fleeting breaths, deep meditation (Samadhi) has established it for thee. May it afford thee pleasure, like a well-disciplined horse led by the arms of a skilled driver!
Meaning
Indra, lord ruler and controller of the dynamic forces of the world, drink this soma of ecstasy which, I am sure, would exhilarate you. The cloud, generative power of nature, has distilled it and showered on you. And just as a horse well controlled by the hands and reins of the driver moves to the right destination, so is this soma generated by the hands of the creator meant to exhort you to take the dominion to its destination. (Rg. 7-22-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (हर्यश्व इन्द्र) જેના દુઃખ અપહરણ, સુખ આહરણ, વ્યાપનધર્મ અને પ્રસાદ છે એવા પરમાત્મન્ ! (सोमं पिब) ઉપાસનારસનું પાન કર-સ્વીકાર કર (यम् अद्रिः) જેનો આદર કરનાર પ્રશંસાકર્તા-સ્તોતા ઉપાસકે (ते सुषाव) તારા માટે અભિષુત કરેલ છે, સંપાદિત કરેલ છે તે સોમ-ઉપાસનારસ (सोतुः बाहुभ्याम्) ૨સનિષ્પાદક-ઉપાસનારસ સંપાદિત કરનારના સ્નેહ અને અનુરાગથી (सुयतः नः अर्वा) સુવ્યવસ્થિત-સુશિક્ષિત ઘોડાની સમાન છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જે દુઃખ અપહરણ અને સુખ આહરણ કરનાર દયા અને પ્રસાદરૂપ વ્યાપન ધર્મોવાળા પરમાત્મન્ ! તું ઉપાસનારસનું પાન કરે છે, સ્વીકાર કરે છે, જેથી તારો આદર કરનાર પ્રશંસક, સ્તુતિકર્તા ઉપાસક તારા માટે તૈયાર કરે છે; જેમ ઉપાસકના સ્નેહ અને અનુરાગ દ્વારા સુશિક્ષિત-કેળવાયેલા ઘોડાની સમાન આકર્ષક છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہماری بھگتی کو سویکار کیجئے!
Lafzi Maana
دُکھ اور پاپوں کا ہرن کرنے والے اور آگ کی طرح پاپوں کے انبار کو بھسم کر دینے والے اِندر پرمیشور! جس بھگتی رس کو پربت کی طرح اٹل برت والے بھگت نے آپ کے لئے تیار کیا ہے، اُسے آپ سویکار کریں، وہ آپ کی نذر ہے۔ آپ تو اُسی طرح بھگت کے بس میں ہو جاتے ہیں بھگوان! جس طرح گھوڑے سواراپنے بازوؤں سے تھامی ہوئی لگام سے گھوڑے کو بس میں کر لیتا ہے۔
Tashree
سوم رس ہے بھگت کا بھگتی کا ارپن لیجئے، نذر آپ کی ہے پربھو سویکار اِس کو کیجئے۔
मराठी (2)
भावार्थ
पुष्टिकारक सोम इत्यादी औषधांचा रस प्राशन करून राष्ट्राचे सैनिक, सेनापती व राजा यांनी वीर बनून शत्रूंना पराजित करावे. याचप्रकारे राष्ट्रातील सर्व स्त्री-पुरुषांनी मनाच्या माध्यमाने ज्ञानेंद्रियांद्वारे अर्जित ज्ञान रसाचा व कर्मेंद्रियांद्वारे अर्जित कर्मरसाचे पान करून परमज्ञानी व परम पुरुषार्थी बनून ऐहिक व पारलौकिक उत्कर्ष सिद्ध करावा ॥८॥
टिप्पणी
या दशतिमध्ये इंद्राच्या बलाचे व पराक्रमाचे वर्णन असल्यामुळे, इंद्राशी संबंधित आदित्यांना दीर्घायु प्राप्ती व रोग, दुर्मती इत्यादींचे दुरीकरण करण्याची याचना असल्यामुळे व सोमपानार्थ इंद्राचे आह्वान असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे
विषय
सोमपानासाठी इंद्राला बोलावणे -
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) - (राष्ट्रपर) - हे (हर्यश्व) वेगवान अश्वांचे स्वामी (इंद्र) शत्रुविदारक सेनापती / राजा, तुम्ही सोम आदी औषधींचा वीरत्वदायक हा रस (पिब) प्या. हा रस (त्या) तुम्हास (मन्दतु) उत्साह देवो. (सोतुः) रथ चालकाच्या (बाहुभ्याम्) बाहूंनी जसे (सुयतः) सुनियंत्रित, प्रशिक्षित (अर्वान) घोड्याला चालवतात तसे (सोतुः) रस काढणाऱ्याच्या (बाहुभ्याम्) हातांनी (सुमतः) सुनियंत्रित (अद्रिः) पाटा- वरवंटा रूप साधनांद्वारे (यम्) जो रस (सुषाव) कुटून - गाळून (ते) तुमच्यासाठी तयार केला आहे. (तो तुम्ही प्या). द्वितीय अर्थ - (अध्यात्मपर अर्थ) - हे (हर्यश्व) ज्ञानेद्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वांचा स्वामी (इंद्र) माझ्या जीवात्मा, तू (सोयम्) ज्ञान रस व कर्म रस (पिब) पी. ज्ञान व कर्माचा (यत्) तो रस (त्वा) तुला (मदन्तु) आनंदित करो. (सोतुः) रथचालक सारथीच्या (बाहुभ्याम्) बाहूद्वारे (न) जसे (सुयतः) सुप्रशिक्षित (अर्वाः) घोडे नीट मार्गाने चालतात. तद्वत (सुयतः) सुनियंत्रित (अद्रिः) विदीर्ण न होणाऱ्या तुझ्या मनाने (यत्) जो रस (ते) तुझ्यासाठी (सुषाव) तयार केला आहे.।। ८।।
भावार्थ
पुष्टिप्रद सोम आदी औषधींचा रस पिऊन राष्ट्राच्या सैनिकांनी, सेनाध्यक्षाने व राजाने शत्रूंचा पराजय केला पाहिजे, त्याचप्रमाणे राष्ट्राच्या सर्व स्त्री- पुरुष नागरिकांनी आपल्या मनाच्या माध्यमातून ज्ञानेन्द्रियांद्वारे अर्जित ज्ञान- रस व कर्मेन्द्रियांद्वारे अर्जित कर्म- रस प्यावा आणि त्याने ज्ञानी व पुरुषार्थी होऊन ऐहिक- पालकौकिक ुत्कर्ष साधावा. ।। ८।। या दशतीमध्ये इंद्राच्या बल- पराक्रमाचे वर्णन, इंद्रासी संबद्ध आदित्याद्वारे दीर्घायु - प्राप्ती, त्याद्वारे रोग, दुर्भती आदींचे दूरीकणावियी याचना तसेच सोमपानासाठी इंद्राचे आवाहन, हे विषय असून या दशतीतील विषयांची संगती मागील दशतीच्या विषयांशी आहे, असे जाणावे. पंचम प्रपाठकातील प्रतम अर्धाची प्रथम दशती समाप्त. चतुर्थ अध्यायातील पाचवा खंड समाप्त.
विशेष
या मंत्रात श्लिष्टोपमा आणि श्लेष अलंकार आहे.।। ८।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே!(சோமனைப்) பருகவும். அது உன்னை சந்தோஷமுடன் ஆக்கட்டும். சாரதியின் கைகளால் இணைக்கப்பட்ட குதிரை போல் அமிழ்த்தப்படுபவர்களின் (தியானிப்பவர்களின்) சாதனங்களால் நன்கு கவனிக்கப்பட்டு பொழியப் பட்டதாகும் (இந்த சோம ரசம்.)
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