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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 420
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    आ꣡ग्निं न स्ववृ꣢꣯क्तिभि꣣र्हो꣡ता꣢रं त्वा वृणीमहे । शी꣣रं꣡ पा꣢व꣣क꣡शो꣢चिषं꣣ वि꣢ वो꣣ म꣡दे꣢ य꣣ज्ञे꣡षु꣢ स्ती꣣र्ण꣡ब꣢र्हिषं꣣ वि꣡व꣢क्षसे ॥४२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । न । स्व꣡वृ꣢꣯क्तिभिः । स्व । वृ꣣क्तिभिः । हो꣡ता꣢꣯रम् । त्वा꣣ । वृणीमहे । शीर꣢म् । पा꣣वक꣡शो꣢चिषम् । पा꣣वक꣡ । शो꣣चिषम् । वि꣢ । वः꣣ । म꣡दे꣢꣯ । य꣣ज्ञे꣡षु꣢ । स्ती꣣र्ण꣡ब꣢र्हिषम् । स्ती꣣र्ण꣢ । ब꣣र्हिषम् । वि꣡व꣢꣯क्षसे ॥४२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आग्निं न स्ववृक्तिभिर्होतारं त्वा वृणीमहे । शीरं पावकशोचिषं वि वो मदे यज्ञेषु स्तीर्णबर्हिषं विवक्षसे ॥४२०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अग्निम् । न । स्ववृक्तिभिः । स्व । वृक्तिभिः । होतारम् । त्वा । वृणीमहे । शीरम् । पावकशोचिषम् । पावक । शोचिषम् । वि । वः । मदे । यज्ञेषु । स्तीर्णबर्हिषम् । स्तीर्ण । बर्हिषम् । विवक्षसे ॥४२०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 420
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह विषय है कि कैसे गुणवाले अग्नि परमेश्वर को हम वरते हैं।

    पदार्थ

    हम लोग (न) इस समय (होतारम्) सुख आदि के दाता, (शीरम्) सर्वत्र शयन करनेवाले, सर्वव्यापक (पावकशोचिषम्) पवित्रताकारक दीप्तिवाले (त्वा अग्निम्) आप अग्रनायक परमेश्वर को (स्व-वृक्तिभिः) अपनी सूक्तियों अथवा क्रियाओं से (आ वृणीमहे) वरते हैं। हम (वः मदे) आपके प्राप्त कराये हुए आनन्द में (वि) उत्कर्ष को प्राप्त करें। आप (यज्ञेषु) ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ आदि पञ्च यज्ञों में तथा अन्य विविध परोपकार-रूप यज्ञों में (स्तीर्णबर्हिषम्) जिसने आसन बिछाया है अर्थात् उन यज्ञों को करने में जो प्रवृत्त हुआ है, उसे (विवक्षसे) विशेष रूप से उन्नत कर देते हो ॥२॥

    भावार्थ

    परम आनन्द के प्रदाता, सर्वत्र व्यापक, अपने तेज से मनों को पवित्र करनेवाले, महान् परमेश्वर का सब यज्ञकर्ताओं को भौतिक अग्नि के समान वरण करना चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (अग्निं न त्वा होतारं) परमात्मन्! अग्नि के समान तुझ होता को—मेरे उपासनारस के आदाता—स्वीकारकर्ता को (स्ववृक्तिभिः) अपने दोषवर्जनप्रवृत्तियों द्वारा (आ वृणीमहे) समन्तरूप से वरते हैं (शीरम्) सर्वत्र शयनशील—व्यापक (पावकशोचिषम्) पवित्रकारक दीप्ति वाले (यज्ञेषु) अध्यात्म यज्ञों में (स्तीर्णबर्हिषम्) विस्तृतप्रजा—प्रजायमान प्राणि वनस्पति जिससे हैं ऐसे को “बर्हिः प्रजाः” [जै॰ १.८६] (विमदे) विशेष आनन्द के निमित्त (विवक्षसे) महत्त्व युक्त प्रशंसित करते हैं।

    भावार्थ

    अपने को दोषों से रहित कर सद्वृत्तियों से अग्नि के समान परमात्मा को आमन्त्रित करते हैं और व्यापक पवित्र दीप्ति वाले को अध्यात्मयज्ञों में विस्तृत प्रजाओं—प्राणी वनस्पतियों वाले को विशेष आनन्द के निमित्त महत्त्व युक्त प्रशंसित करते हैं॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—विमदः (परमात्मा में विशेष हर्ष को प्राप्त उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    उल्लास व विकास

    पदार्थ

    (न)=जैसे (स्ववृक्तिभिः)=अपने कुछ वर्जन व त्याग से अग्निम् अग्नि को वरते हैं, अर्थात घृतसामग्री आदि में कुछ व्यय करके जैसे हम अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों को करते हैं, उसी प्रकार हम (होतारम्) = सर्वस्व दान करनेवाले (त्वा) = आपको (स्ववृक्तिभिः) = अपने कामादि दोषों के वर्जन से तथा यज्ञादि उत्तम कर्मों के आप में समर्पण से (आवृणीमहे) = आपका वरण करते हैं। प्रभु होता हैं—अपने को भी जीवहित के लिए दे डालनेवाले हैं। हम प्रभु का वरण दान द्वारा ही कर सकते हैं। अपने सब कर्मों का प्रभु में समर्पण ही वह महान् त्याग है जिससे हम प्रभु का वरण करते हैं। 'तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च'=यही वेद का उपदेश है कि कर्म करो और प्रभुचरणों में उसका त्याग कर दो। अपना अहं भाव न रक्खो-यही ‘स्ववृक्ति'=‘अपने को छोड़ना' है। वे प्रभु (शीरम्) = [शायिनं, आशिनं वा] सबमें निवास करनेवाले व सबमें व्याप्त हैं। मैं भी उस हृदयस्थ प्रभु को अनुभव करने का प्रयत्न करूँ। वे प्रभु तो (पावकशोचिषम्) = पवित्र करनेवाली ज्ञानदीप्तिवाले हैं। उस ज्ञानाग्नि में मेरा जीवन और पवित्र हो उठेगा।

    वे प्रभु (यज्ञेषु स्तीर्णबर्हिष) ='यज्ञों में बिखेर दी है- व्याप्त कर दी है हमारी वृद्धि [बृहि वृद्धौ] जिन्होंने, ऐसे हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में यज्ञों को उत्पन्न करके प्रभु ने यही तो कहा कि ‘इससे फूलों-फलो, यह तुम्हारी सब इष्ट कामनाओं को पूरा करे'। ये यज्ञ (वः) = तुम्हारे (विमदे) = विशेष उल्लास के निमित्त हैं और (विवक्षसे) = विशेष उन्नति के साधन हैं [वक्षस्=growth]। यहाँ ‘विमदे व विवक्षसे' इन दोनों शब्दों में निमित्त सप्तमी है। यज्ञों के द्वारा हमारा जीवन उल्लासमय व विकासमय बनता है। प्रातः का अग्निहोत्र सायं तक और सायं का प्रातः तक चित्त को प्रसन्न रखता है। यज्ञों के बिना किसी भी विकास का सम्भव ही नहीं।

    भावार्थ

    हमारा जीवन यज्ञमय हो, हम उस महान् होता के उपासक बनकर एक छोटे होता ही बनें । पर हमें उस होतृत्व का मद= गर्व न हो। उस यज्ञ को भी प्रभु - चरणों में अर्पित कर हम 'वि-मद' [मदशून्य] ही बने रहें ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे देव ! ( विवक्षसे ) = आप सबको धारण करने हारे सबसे महान् हो । इसलिये ( स्ववृक्तिभिः ) = उत्तम, दोष रहित निज स्तुतियों से हम लोग ( शीरं ) = सबके भीतर ज्ञान-रस रूप से शयन करने हारे, ( पावक-शोचिषं ) = पवित्र करने वाली दीप्ति से युक्त, ( च:) = हमारे और तुम्हारे ( विमदे ) = विशेष आनन्द लाभ करने के लिये ( यज्ञेषु ) = यज्ञों में ( स्तीर्णबर्हिषम् ) = बर्हिः =धान्य या कुश, आसन या इस देह को फैलाये हुए ( होतारं ) = सबको जीवन योग्य उत्तम पदार्थों के देने हारे या सबको अपने पास बुलाने वाले ( त्वा ) = तुझ ( अग्नि ) = ज्ञानस्वरूप ईश्वर का ( होतारं न ) = अपने यज्ञ के होता के समान ( आवृणीमहे ) = वरण करते हैं ।

    टिप्पणी

    ४२० - 'यज्ञाय स्तीर्ण वर्हिषं विवो मदे शीरं पावकशोचिषं  विवक्षते' इति ऋ०। 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - विमद: ऐन्द्रः प्रजापत्यो वा वसुकृद् वासुक्रो वा ।  

    देवता - अग्निः।

    छन्दः - पङ्क्तिः।

    स्वरः - पञ्चमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृग्गुणविशिष्टमग्निं परमेश्वरं वयं वृण्महे इत्याह।

    पदार्थः

    वयम् (न२) सम्प्रति (होतारम्) सुखादीनां दातारम् (शीरम्) सर्वत्र शयानम्। शीरम् अनुशायिनमिति वाऽऽशिनमिति वा। निरु० ४।१४। (पावकशोचिषम्) शोधकदीप्तिम् (अग्निम्) अग्रनेतारं परमेश्वरम् (त्वा) त्वाम् (स्ववृक्तिभिः३) स्वकीयाभिः सूक्तिभिः क्रियाभिर्वा (आ वृणीमहे) आभिमुख्येन वृण्महे संभजामहे। वृञ् वरणे, क्र्यादिः। वयम् (वः मदे) त्वज्जनिते आनन्दे (वि) विभवेम, उत्कर्षं प्राप्नुयाम। अत्र उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः। त्वम् (यज्ञेषु) ब्रह्मयज्ञदेवयज्ञादिपञ्चयज्ञेषु इतरेषु च विविधेषु परोपकारयज्ञेषु (स्तीर्णबर्हिषम्) स्तीर्णं प्रसारितं बर्हिः दर्भासनं येन तम्, यज्ञेषु प्रवृत्तं जनम् इत्यर्थः, (विवक्षसे) विशेषेण वहसि, उत्कर्षं नयसि। वि पूर्वाद् वह प्रापणे धातोर्लेटि रूपम् ॥२॥

    भावार्थः

    परमानन्दप्रदाता, सर्वत्र व्यापकः, स्वतेजसा मनसां शोधको महान् परमेश्वरः सर्वैर्यज्ञानुष्ठातृभिर्भौतिकाऽग्निवद् वरणीयः ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १०।२१।१, ऋषिः विमव ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद् वा वासुक्रः। ‘यज्ञाय स्तीर्णबर्हिषे वि वो मदे शीरं पावकशोचिषं विवक्षसे’ इत्यत्तरार्धपाठः। २. न सम्प्रति—इति भ०। ३. स्वयङ्कृताभिः दोषवर्जिताभिः स्तुतिभिः—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God Thou art great. Just as the performers of sacrifice in Yajnas, choose fire, prevalent everywhere, foil of purifying lustre, the developer of Yajna, so, we the devotees of knowledge, solicit Thee, the Bestower to all of good things for life!

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    Meaning

    Like fire for comfort, with our own holy chant for the internal yajna of our spiritual purification and your joy, we fellow yajakas, choose you, Agni, high priest of cosmic yajna, all pervasive purifier by the white heat of his divine radiance. Verily the lord is great and glorious for you. (Rg. 10-21-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्निं न त्वा होतारम्) પરમાત્મન્ ! અગ્નિની સમાન તને હોતાને-મારા ઉપાસનારસના આદાતા-સ્વીકારકર્તાને (स्ववृक्तिभिः) અમારી દોષવર્જન પ્રવૃત્તિઓ દ્વારા (आ वृणीमहे) સમગ્રરૂપથી વરીએ છીએ (शीरम्) સર્વત્ર શયનશીલ-વ્યાપક (पावकशोचिषम्) પવિત્રકારક દીપ્તિમાન (यज्ञेषु) અધ્યાત્મયજ્ઞોમાં (स्तीर्णबर्हिषम्) વિસ્તૃત પ્રજા-પ્રજાયમાન પ્રાણી વનસ્પતિ જેનાથી છે. એવાને (विमदे) વિશેષ આનંદને માટે (विवक्षसे) મહત્ત્વ યુક્ત પ્રશંસિત કરીએ છીએ. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અમે અમારા દોષોથી રહિત બનીને સદ્ વૃત્તિઓથી અગ્નિની સમાન પરમાત્માને આમંત્રિત કરીએ છીએ અને વ્યાપક પવિત્ર દીપ્તિવાળાઓને અધ્યાત્મયજ્ઞોમાં વિસ્તૃત પ્રજાઓ-પ્રાણી વનસ્પતિઓવાળા ઓને વિશેષ આનંદને માટે મહત્ત્વ યુક્ત પ્રશંસિત કરીએ છીએ. (૨)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    سب جگت پر آپ کا شاسن ہے!

    Lafzi Maana

    پرمیشور دیو! آپ داتا ہیں اور سروویاپک یعنی سب جگہ موجود رہتے ہوئے سب پر اپنا راجیہ چلا رہے ہیں، اگنی کی طرح سب جگت کے اگواوا ہیں، اُپاسنا یگیوں میں اپنے ہردیوں میں آپ کے لئے آسن بچھائے ہوئے ہیں، آپ منتروں کے ذریعے گیان داتا ہیں، اور سب کے لئے روزی رساں ہیں، ہم آپ کو ورن کرتے ہیں!

    Tashree

    جگت پر چھائے ہوئے سب کیلئے روزی رساں، منتروں کے گیان داتا اگرنی ہیں کُل جہاں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परम आनंदाचा प्रदाता, सर्वत्र व्यापक, आपल्या तेजाने मनांना पवित्र करणाऱ्या महान परमेश्वराचे सर्व यज्ञकर्त्यांनी भौतिक अग्नीप्रमाणे वरण केले पाहिजे ॥२॥

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    विषय

    कोणत्या गुणांनी समृद्ध असा अग्निनाम परमेश्वराचा आम्ही स्वीकार करावा ?

    शब्दार्थ

    आम्ही (न) या वेळी (होतारम्) सुखदायक, (शीरम्) सर्वत्र शयन करणाऱ्या म्हणजे सर्वव्यापी व (पावरुशोचिषम्) पावित्र्यकाक दीप्ती असणाऱ्या (त्वा) (अझिम्) अशा तुम्हा अग्रनायक परमेश्वराला (स्ववृक्तिभिः) आपल्या सूक्तीद्वारे व आचरणाद्वारे (आ वृणीमहे) वरण वा स्वीकार करणे. हे परमेश, आम्ही (वः मदे) तुम्ही दिलेल्या आनंदात (वि उत्कर्ष) उन्नती प्राप्त करावी. (यज्ञेषु) ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, आदी पंच यज्ञांत आणि अन्य परोपकार रूप यज्ञात (स्तीर्णवर्हिमम्) ज्याने आसन आंथरले आहे म्हणजे जो ते वरील यज्ञ करण्यासाठी तत्पर झाला आहे, त्याला आपण (विवक्षसे) विशेषत्वाने उन्नत करता (विशेषत्वाने मानसिक प्रेरणा देता.) ।। २।।

    भावार्थ

    परम आंद प्रदाता, सर्वव्यापी, स्व तेजाने मनास पवित्र करणाऱ्या महान परमेश्वराचा सर्व यज्ञकर्त्यांनी भौतिक अग्नीप्रमाणेच स्वीकार केला पाहिजे. त्याचे स्मरण केले पाहिजे।। २।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    விதவிதமான சந்தோஷத்திற்கு ஹோதாவான, (அக்னியான) உன்னை (யக்ஞங்களில்) நன்கு அமைக்கப்பட்ட தர்ப்பைகளோடு எங்கும் சாய்ந்துள்ள புனிதமாக்கும் ஒளியுடனான உன்னை அழைக்கிறோம்; நீயே மகானாகும்.

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