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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 424
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
स꣢ घा꣣ तं꣡ वृष꣢꣯ण꣣ꣳ र꣢थ꣣म꣡धि꣢ तिष्ठाति गो꣣वि꣡द꣢म् । यः꣡ पात्र꣢꣯ꣳ हारियोज꣣नं꣢ पू꣣र्ण꣡मि꣢न्द्र꣣ चि꣡के꣢तति꣣ यो꣢जा꣣꣬ न्वि꣢꣯न्द्र ते꣣ ह꣡री꣢ ॥४२४॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । घ꣣ । त꣢म् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । र꣡थ꣢꣯म् । अ꣡धि꣢꣯ । ति꣣ष्ठाति । गोवि꣡द꣢म् । गो꣣ । वि꣡द꣢꣯म् । यः । पा꣡त्र꣢꣯म् । हा꣣रियोजन꣢म् । हा꣣रि । योजन꣢म् । पू꣣र्ण꣢म् । इ꣣न्द्र । चि꣡के꣢꣯तति । यो꣡ज꣢꣯ । नु । इ꣣न्द्र । ते । ह꣢री꣣इ꣡ति꣢ ॥४२४॥
स्वर रहित मन्त्र
स घा तं वृषणꣳ रथमधि तिष्ठाति गोविदम् । यः पात्रꣳ हारियोजनं पूर्णमिन्द्र चिकेतति योजा न्विन्द्र ते हरी ॥४२४॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । घ । तम् । वृषणम् । रथम् । अधि । तिष्ठाति । गोविदम् । गो । विदम् । यः । पात्रम् । हारियोजनम् । हारि । योजनम् । पूर्णम् । इन्द्र । चिकेतति । योज । नु । इन्द्र । ते । हरीइति ॥४२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 424
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में मानवदेह रूप रथ को कौन प्राप्त करता है इसका वर्णन है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! (स घ) वही मनुष्य (तम्) उस श्रेष्ठ, (वृषणम्) बलवान् (गोविदम्) इन्द्रियरूप बैलों से युक्त (रथम्) मानव-शरीर-रूप रथ का (अधितिष्ठाति) अधिष्ठाता बनता है, (यः) जो (हारियोजनम्) प्राणयुक्त मानव-शरीर को प्रदान करने में समर्थ (पात्रम्) सत्कर्मों के कोष को (पूर्णम्) भरा हुआ (चिकेतति) जान लेता है। इसलिए, हे (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! तू (ते हरी) अपने ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों को (नु) शीघ्र ही (योज) नियुक्त कर, अर्थात् पुनर्जन्म में मनुष्य-शरीर प्राप्त करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों से सत्य ज्ञान प्राप्त कर और कर्मेन्द्रियों से उत्कृष्ट कर्म कर ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य इस जन्म में मानवदेह प्राप्त कराने योग्य सत्कर्मों को करता है, वही अगले जन्म में मानवदेह प्राप्त करता है, यह जानकर सब मनुष्यों को श्रेष्ठ ही कर्म करने चाहिएँ ॥६॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन्! (सः) वह तेरा उपासक आत्मा (घ) हाँ (तं वृषणं गोविदम् रथम्) उस सुखवर्षक स्तुतिवाणियों से प्राप्त होने वाले रथ—रमण स्थान मोक्ष रथ पर (अधितिष्ठाति) बैठना चाहता है “लिङर्थे लेट्” [अष्टा॰ ३.४.७] अब इस शरीर रथ पर नहीं (यः) जो उपासक (हारियोजनं पात्रम्) तेरे दया प्रसाद रूप दुःखापहरण और सुखाहरण करने वाले जिसमें निरन्तर तेरे द्वारा युक्त किए हुए हैं ऐसे नितान्त पालक रक्षक (पूर्ण चिकेतति) पूर्णरूप से जानता है कि बस कल्याण स्थान यही है, अतः (ते हरी) तेरे दया और प्रसाद को (नु योज) मुझ उपासक में शीघ्र युक्त कर।
भावार्थ
जीवन्मुक्त उपासक इस शरीररथ में रहना नहीं चाहता, किन्तु वह तो उस स्तुतियों द्वारा प्राप्त हुए सुख-शान्ति-वर्षक मोक्ष रमणस्थान रथ में बैठना चाहता है जिसमें परमात्मा के दुःखापहरण सुखाहरण धर्म दया और प्रसाद युक्त रहते हैं। ऐसे नितान्त पालक रक्षक रूपी रथ पर स्थित होना चाहता है, जिसे वह पूर्णरूप से अपने कल्याण का कारण जानता है। अतः शीघ्र ही उन दया और प्रसाद को मुझ उपासक में युक्त कर॥६॥
विशेष
ऋषिः—गोतमः (परमात्मा में अत्यन्त गति करने वाला)॥<br>
विषय
हारियोजन- पात्र
पदार्थ
प्रभु जीव से कहते हैं कि - (सः) = वह (घा) = निश्चय से (तम्) = उस (वृषणम्) = शक्तिशाली (गोविदम्) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करनेवाले (रथम्) = शरीररूप रथ का (अधितिष्ठाति) = अधिष्ठाता बनता है, (यः) = जो हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठता (हारियोजनम्) = [ हरियोजनाय इदम्] परमेश्वर के सम्पर्क के लिए दिये गये इस (पात्रम्) = जीव के आधारभूत - रक्षा के योग्य शरीर को (पूर्णम्) = पूर्णतया (चिकेतति) = रोगशून्य करता है तथा (पूर्णम् चिकेतति) = इसमें पालनात्मक प्रकार से रहना जानता है [कित निवासे रोगापनयने च] इसलिए (नु) = अब (इन्द्र) = शक्तिसम्पन्न कार्यों को करनेवाले जीव तू (ते हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों को (योजा) = इस शरीररूप रथ में जोत–सदा ज्ञानप्राप्ति में लगा रह और कार्यव्याप्त हो । न मूढ़ हो, न अलस बना।
प्रस्तुत मन्त्र में शरीर को 'रथ व पात्र' शब्दों से स्मरण किया है। यह रथ तो इसलिए कि जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए दिया गया है, और पात्र इसलिए कि यह आत्मा का आधार है। यह रथ शक्तिशाली [वृषणम्] व ज्ञान के प्रकाशवाला [गोविदम्] होना चाहिए। हमें भी चाहिए कि हम इसमें रहना सीखें और इसे नीरोग रखें [पूर्ण चिकेतति]। कभी असमय पर न खाएँ, तमस व तामस वस्तुओं का सेवन न करें। हम इस बात को न भूल जाएँ कि यह शरीर हमें इसलिए दिया गया है कि इसके द्वारा अपनी साधना को पूर्ण करके हमें प्रभु को प्राप्त करना है। यह शरीर भोग भोगने के लिए नहीं मिला। इस का मुख्य उद्देश्य प्रभु-प्राप्ति है–‘इदं शरीरम् परमार्थसाधनम् ।' परन्तु यह तभी हो सकता है जब हम इसके अधिष्ठाता बनें रहें [अधितिष्ठाति]। यदि इस शरीररूप रथ की बागडोर हमारे हाथ में रहेगी तब तो हमारी यात्रा पूर्ण होगी, अन्यथा ये घोड़े हमें न जाने किस गर्त्त में जा गिराएँगे। प्रभु की ओर से जीव को कितना मित्रतापूर्ण निर्देश मिला है कि तू इन ज्ञानेन्द्रियरूप घोड़ों को ज्ञानप्राप्ति में और कर्मेन्द्रियों को यज्ञादि शुभ कर्मों में व्याप्त किये रह। इनको वश में करने का सर्वोत्तम साधन यही है। ऐसा करने पर तू अवश्य अपनी जीवन-यात्रा को पूर्ण करनेवाला होगा और इस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त करानेवाला यह शरीररूप पात्र सचमुच हारियोजन बनेगा। इस चमकीले अत्यन्त सुन्दर सु - कृत शरीररूप पात्र में ही वह सत्यरूप आत्मा छिपा है। कल्पना की आँखों से इस पात्र की पाँचों तहों को अलग करके ही हम उस आत्मतत्व को देखेंगे। अन्नमयादि कोशों के उपभोगों को त्याग करनेवाले हम 'राहूगण' होंगे। और निर्मलेन्द्रिय होने से गौतम होंगे।
भावार्थ
हम यह भी न भूलें कि यह शरीर प्रभु - प्राप्ति के लिए प्राप्त हुआ है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे इन्द्र ! ( यः ) = जो ( हारियोजनं ) = इन्द्रियों को वश करने हारे योग साधन और ( पात्रं ) = क्रिया साधन को ( पूर्णं ) = उचित प्रकार से पूर्ण रूप से ( चिकेतति ) = जानता है ( स घ ) = वही ( तं ) = उस ( वृषणं ) = सुखप्रद, ( गोविंद ) = इन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले चेतन ( रथम् ) = रथपर ( अधि तिष्ठति ) = स्वामी होकर सवारी करता है । हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ( ते हरी ) = तुम अपने अश्व=प्राण अपान दोनों को ( योज नु ) = इस समय समाधि योग से जोड़ो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - गोतमो राहूगणः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - पङ्क्तिः।
स्वरः - पञ्चमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ को मानवदेहरूपं रथं प्राप्नोतीत्याह।
पदार्थः
हे (इन्द्र) मदीय अन्तरात्मन् ! संहितायाम् ‘इन्द्रा’ इति दीर्घश्छान्दसः। (सः घ) स एव जनः। संहितायाम् ‘ऋचि तुनुघ०। अ० ६।३।१३३’ इति दीर्घः। (तम्) श्रेष्ठम् (वृषणम्) बलवन्तम्, (गोविदम्) गाः इन्द्रियरूपान् वृषभान् विन्दते प्राप्नोति यस्तम् (रथम्) मानवशरीररूपं शकटम् (अधि तिष्ठाति) अधिष्ठाय वर्तते। तिष्ठतेर्लेटि रूपम्। (यः हारियोजनम्) हरयः प्राणाः युज्यन्ते यस्मिन् तत् हरियोजनम् शरीरम्, तत्सम्बन्धि हारियोजनम् मानवदेहप्रदानक्षमम् (पात्रम्) सत्कर्मकोषम् (पूर्णम्) परिपूर्णम् (चिकेतति) जानाति। कित ज्ञाने जुहोत्यादिः, ततो लेटि रूपम्। अतः हे (इन्द्र) मदीय आत्मन् ! त्वम् (ते हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ (नु) क्षिप्रम् (योज) युङ्क्ष्व। जन्मान्तरे पुनर्मानवदेहं प्राप्तुं ज्ञानेन्द्रियैः सत्यं ज्ञानं प्राप्नुहि, कर्मेन्द्रियैश्चोत्कृष्टकर्माणि कुर्विति भावः ॥६॥२
भावार्थः
यो मनुष्योऽस्मिन् जन्मनि मानवदेहप्रापकाणि सत्कर्माणि करोति स एवाग्रे जन्मनि मानवदेहं प्राप्नोति, इदं ज्ञात्वा सर्वैर्मनुष्यैः श्रेष्ठाण्येव कर्माणि कर्तव्यानि ॥६॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।८२।४ ‘मिन्द्रा’ इत्यत्र ‘मिन्द्र’ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां सेनाध्यक्षविषये व्याख्यातवान्। तथा हि, तत्र तत्कृतो भावार्थः—‘सेनाध्यक्षेण पूर्णशिक्षाबलहर्षिता हस्त्यश्वरथशस्त्रादिसामग्रीपरिपूर्णां सेनां संपाद्य शत्रवो विजेयाः’—इति।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, the devotee who knows full well the application of the organs of knowledge and action, assumes control over the vehicle of his body, the source of happiness, and the bestower of knowledge through senses. O soul yoke thy organs to deep meditation (Yoga)!
Meaning
Indra, only that person who knows the science and technology of that horse-powered chariot which is perfect and fully capable of defence and safety against the enemy, would ride that prize-winning chariot of victory which would lead him to the conquest of territory and prosperity. Indra, yoke your horses (and come to join the yajna of defence and protection). (Rg. 1-82-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! (सः) તે તારો ઉપાસક આત્મા (घ) હાં (तं वृषणं गोविदं रथम्) તે સુખવર્ષક સ્તુતિ વાણીઓથી પ્રાપ્ત થનાર રથરમણ સ્થાન મોક્ષ ૨થ પર (अधितिष्ठाति) બેસવા ચાહે છે. હવે આ શરીર રથ પર બેસવા નથી ચાહતો (यः) જે ઉપાસક (हारियोजनं पात्रम्) તારા દયા અને પ્રસાદ રૂપ દુઃખાપહરણ અને સુખાહરણ કરનાર જેમાં નિરંતર તારા દ્વારા યુક્ત કરેલ છે એવા નિતાન્તપાલક રક્ષક (पूर्ण चिकेतति) પૂર્ણરૂપથી જાણે છે કે બસ કલ્યાણ સ્થાન એ જ છે, તેથી (ते हरी) તારી દયા અને પ્રસાદને (नु योज) મારામાં-ઉપાસકમાં શીઘ્ર યુક્ત કર. (૬)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જીવનમુક્ત ઉપાસક આ શરીરરથમાં રહેવા ઇચ્છતો નથી, પરન્તુ તે તો સ્તુતિઓ દ્વારા પ્રાપ્ત થયેલ સુખ-શાન્તિ-વર્ષક મોક્ષ રમણ સ્થાન રથમાં બેસવા ઇચ્છે છે, જેમાં પરમાત્માના દુ:ખાપહરણ અને સુખાહરણ ધર્મ દયા અને પ્રસાદયુક્ત રહે છે. એવા નિતાન્ત પાલક, રક્ષકરૂપી રથ પર સ્થિત થવા ચાહે છે, જેથી તે પૂર્ણરૂપથી પોતાના કલ્યાણનું કારણ જાણે છે. તેથી શીઘ્ર જ એ દયા અને પ્રસાદથી મને ઉપાસકને યુક્ત કર. (૬)
उर्दू (1)
Mazmoon
شریر کے رتھ کا سوار کون ہو سکتا ہے؟
Lafzi Maana
ہے انڈر! وہی منش یا عارف انسان اِس سُکھدائیک شریر کی گاڑی پر سوامی ہو کر بیٹھنے کے لائق ہے، جو اپنی اِندریوں رُوپی گھوڑوں کوؤش میں کرنے والے یوگ ابھیاس اور پوِتّر کرم کانڈ، آچار، وِہار کے ابھیاس کو کر لیتا ہے، آتما کا دھرم ہے کہ وہ پران اپان کے ابھیاس سے سارے پنڈ پر قابُو پا جیون یاترا کو سُکھی بنائے!
Tashree
اِندریوں کے اَشو جوڑے جسم میں پرماتما، شُدھ اور قابُو میں کر اِن کو سُکھی ہو آتما۔
मराठी (2)
भावार्थ
जो मनुष्य या जन्मात मानवदेह प्राप्त करविण्यायोग्य सत्कर्म करतो. तोच पुढच्या जन्मी मानवदेह प्राप्त करतो. हे जाणून सर्व माणसांनी श्रेष्ठ कर्म केले पाहिजेत ॥६॥
विषय
मानव देहरूप रथ कोणाला मिळतो -
शब्दार्थ
हे (इंद्र) माझ्या अंतराळा, (स घ) तोच माणूस (तम्) श्रेष्ठ (वृषणम्) बलवान (गोविदम्) इंद्रियरूप बैल ज्यात जुंपलेले आहेत अशा (रथम्) मानव शरीररूप रथाचा (अधिविष्ठाति) अधिष्ठाता होणे (यः) जो (हारियोजनम्) प्राणयुक्त शरीर प्रदान करण्यात समर्थ (पात्रम्) सत्कर्मांच्या कोष (पूर्णम्) पूर्ण (निकेतति) भरावा से जाणतो. (पुन्हा मानव शरीर मिळावा, असे हवे असल्यास सत्कर्मे करावीत.) यामुळे ( (इंद्र) माझ्या अंतरात्मा, (तू) (ते हरी) आपल्या ज्ञानेंद्रिय व कर्मेंद्रिय रूप दोन घोड्यांना (तु) त्वरति (योज) जुंपून घे. म्हणजे पुनर्जन्मात मानव देह मिळावा, असे वाटत असेल, तर ज्ञानेद्रियांनी सत्यज्ञान प्राप्त कर आणि कर्मेन्द्रियांनी उत्तम कर्म कर.।। ६।।
भावार्थ
जो माणूस या जन्मात सत्कर्मे करतो, तोच पुढच्या जन्मात मानव- शरीर प्राप्त करतो, असे जाणून घेऊन कसर्व मनुष्यांनी श्रेष्ठ कर्मे करावीत.।। ६।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரன் விருப்பமளிக்கும் பசுக்களைக் (பிராணன்களை) காணும் ரதத்தில் ஏறுவான். (இந்திரனே), எந்த (ரதம்) பொன் குதிரைகளை (புனித வன்மைகளை) இணைப்பதான சோமனால் (பூர்ணமான) பொருளை ஞாபகமாக்குகிறதோ அந்த ரதத்தில் உன் (குதிரைகளை) இணைக்கவும்.
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