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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 444
    ऋषिः - त्रसदस्युः देवता - इन्द्रः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    4

    उ꣡प꣢ प्र꣣क्षे꣡ मधु꣢꣯मति क्षि꣣य꣢न्तः꣣ पु꣡ष्ये꣢म र꣣यिं꣢ धी꣣म꣡हे꣢ त इन्द्र ॥४४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣡प꣢꣯ । प्र꣣क्षे꣢ । प्र꣣ । क्षे꣢ । म꣡धु꣢꣯मति । क्षि꣣य꣡न्तः꣢ । पु꣡ष्ये꣢꣯म । र꣣यि꣢म् । धी꣣म꣡हे꣢ । ते꣣ । इन्द्र ॥४४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप प्रक्षे मधुमति क्षियन्तः पुष्येम रयिं धीमहे त इन्द्र ॥४४४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप । प्रक्षे । प्र । क्षे । मधुमति । क्षियन्तः । पुष्येम । रयिम् । धीमहे । ते । इन्द्र ॥४४४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 444
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से जगदीश्वर को सम्बोधित किया गया है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) मधु बरसानेवाले जगदीश्वर ! हम (ते) तुझे (धीमहे) अपने अन्तःकरण में धारण करते हैं। तेरे (मधुमति) मधुर (प्रक्षे) आनन्द के झरने में (क्षियन्तः) निवास करते हुए, हम (रयिम्) आनन्दरूप धन को (पुष्येम) परिपुष्ट करें ॥८॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर की उपासना से उसके आनन्द के झरने में अपने-आप को नहलाते हुए हम धन्य हों ॥८॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् (मधुमति प्रक्षे) मधुर प्रक्षरण प्रास्रवण—स्तुतिवाणियों के अन्त स्थान मोक्षधाम में “एष उ ह वै वाचोऽन्तो यत् प्रक्षः प्रास्रवणः-यत्रो ह वै वाचोऽन्तः” [जै॰ २.२८८] (उपक्षियन्तः) निवास करते हुए (रयिं पुष्येम) मोक्षधन—मोक्षसुख को पुष्ट करें और (ते धीमहे) तेरा ध्यान करें।

    भावार्थ

    हे परमात्मन्! स्तुतियों के आधार तेरे मधुर प्रास्रवण करने में हम निवास करते हुए मोक्षधन—भोग को अपने अन्दर पुष्ट करें, सम्भाले, प्राप्त कर लें, अतः तेरा ध्यान करते हैं॥८॥

    विशेष

    ऋषिः—सम्पातः (परमात्मा से मेल करने वाला उपासक)॥ देवताः—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    मधुमान् प्रक्ष में निवास

    पदार्थ

    ‘प्रक्ष’ शब्द का अर्थ है- निवास का प्रकृष्ट स्थान । केवल निवास ही नहीं, ‘क्षि= निवासगत्योः' धातु से बना यह शब्द यह निर्देश कर रहा है कि इस शरीर में हमारा उत्तम निवास हो और हम सदा गतिशील हों। इस प्रक्ष को हम 'मधुमति' = मधुमान बनाएँ, हमारा सारा व्यवहार माधुर्य को लिए हुए हो । ('मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परयणम्') = मेरा आना-जाना भी माधुर्य को लिये हुए हो। इस (मधुमति प्रक्षे) = माधुर्यमय शरीर में (उपक्षियन्तः) = निवास करते हुए और गतिशील रहते हुए हम (रयिं पुष्येम) = धनों का पोषण करें और (इन्द्र) = हे प्रभो! (ते धीमहे) = आपका ध्यान करें और आपको धारण करें।

    'हम गतिशील रहते हुए धन कमाएँ' इस वाक्य का अभिप्रय स्पष्ट है कि हम पुरुषार्थ-प्राप्य धन को ही उपादेय मानें। 'और यह धन हमारे जीवनों में किसी प्रकार के धब्बों को लगानेवाला न हो जाए' इसलिए हम प्रभु का ध्यान व उसे धारण करें। 'धनसम्पन्न - प्रभुभक्त' गृहस्थ कितना सौभाग्यशाली है? धन से उसके सब कार्य चलते हैं और प्रभु-भक्ति उसकी हानि नहीं होने देती। प्रभुभक्ति धन की हानियों का प्रतिकार है। एवं, उल्लिखित दो मन्त्रों में उपासना के निम्न लाभ परिगणित हुए हैं१. प्रभु - प्राप्ति [आयाहि ], २. इन्द्रियों का मार्ग से विचलित न होना, ३. शरीर में उत्तम निवास व गतिशीलता [प्रक्षे], ४. माधुर्य [मधुमति] ५. ऐश्वर्यलाभ [रयिं पुष्येम], ६. दिव्यता का धारण [ते धीमहि ] ।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से मेरा मन अवश्य उपासना-प्रवण हो।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = परमेश्वर ! ( मधुमति ) = मधुर फल से सम्पन्न ( प्रक्षे  ) = बट आदि वृक्ष पर आश्रय लेकर जिस  प्रकार पक्षिगण और राजा का आश्रय लेकर जीव प्रजागण जिस प्रकार सुख और ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( प्रक्षे ) = विशाल ब्रह्माण्ड में ( क्षियन्तः ) = निवास करते हुए हम जीव ( रयिम् ) = अपने उत्तम कर्मफल को ( पुण्येम ) = प्राप्त करें और उन् से वृद्धि को प्राप्त हों और ( ते धीमहि ) = हम तेरा ध्यान करें ।

    ब्रह्माण्ड रूप परम प्लक्ष या चमस का वर्णन उपनिषदों में तथा वेदमन्त्रों में वर्णित है । इसी प्लक्ष से द्यौ भूमि बनाई गई है। वहां कर्मफल या मोक्षरूप मधु है । देखो बृहदारण्यक  ओर छान्दोग्य के मधुविद्याप्रकरण जिसमें पृथिवी आदि को मधु कहा है। मस्तकरूप चमस में वैसे इन्द्रिय गण का आत्मा के प्रति वचन भी स्पष्ट है । 

    टिप्पणी

    ४४४ –‘पुष्पन्तो' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः -नोपलभ्यते । 

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - पङ्क्तिः।

    स्वरः - पञ्चमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रनाम्ना जगदीश्वरः सम्बोध्यते।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) मधुवर्षक जगदीश्वर ! वयम् (ते) त्वाम् (धीमहे) स्वान्तःकरणे धारयामः। डुधाञ् धारणपोषणयोः। लटि ‘छन्दस्युभयथा। अ० ३।४।११७’ इत्यार्द्धधातुकत्वात् शपोऽभावः। तव (मधुमति) मधुरे (प्रक्षे) आनन्दनिर्झरे। पृषु सेचने धातोः औणादिकः क्सः प्रत्ययः। (क्षियन्तः) निवसन्तः। क्षि निवासगत्योः, तुदादिः। वयम् (रयिम्) आनन्दरूपं धनम् (पुष्येम) पुष्णीयाम ॥८॥

    भावार्थः

    जगदीश्वरस्योपासनया तदानन्दनिर्झरे स्वात्मानं स्नपयन्तो वयं धन्या भवेम ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. साम० १११५।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May we, inhabiting a dwelling full of spiritual happiness, increase our wealth of knowledge, and meditate on Thee, O God!

    Translator Comment

    See Brihad-Aranyak Upanishad 4/5—(13—16), where soul is spoken of as a sweet object. This sweetness of the soul can be realised by the learned alone, and not by ignorant persons. The Chhandogya Upanishad also makes its mention.

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    Meaning

    Indra, omnipotent Lord, living close to you in the honey sweet abode of your realm, may we augment our wealth and excellence and meditate on your divine presence.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! (मधुमति प्रक्षे) મધુર પ્રક્ષરણ પ્રસ્રવણ-સ્તુતિવાણીઓ અન્તઃસ્થાન મોક્ષધામમાં (उपक्षियन्तः) નિવાસ કરતાં (रयिं पुष्येम) મોક્ષસુખને પુષ્ટ કરે તથા (ते धीमहे) તારું ધ્યાન કરે. (૮)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! સ્તુતિઓના આધાર તારું મધુર પ્રાસ્રવણ કરવામાં અમે નિવાસ કરતાં મોક્ષધન-ભોગને અમારી અંદર પુષ્ટ કરીએ, પ્રાપ્ત કરી લઈએ, તેથી તારું ધ્યાન કરીએ છીએ. (૮)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    نزدیک تیرے ہو کے رہیں!

    Lafzi Maana

    ہے اِندر! ہم تیرے ستوتر گاتے ہوئے تیرے مُدھر واتاورن (میٹھے ماحول) میں رہتے ہوئے موکھش دھن کا اکٹھا کر لیں، سنبال لیں اور تیرا دھیان ہی سدا کرتے رہیں!

    Tashree

    نزدیک تیرے ہو کے رہیں آتم دھن بھریں، مل جائے مُکتی مارگ تیرے دھیان میں رہیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जगदीश्वराच्या उपासनेने त्याच्या आनंदाच्या झऱ्यात स्वत: आम्ही स्नान करत धन्य व्हावे ॥८॥

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    विषय

    इंद्र नावाने जगदीश्वराला संबोधन

    शब्दार्थ

    हे (इन्द्र) मधुवर्षक परमेश्वरा, आम्ही (ते) तुला (धीमहे) आमच्या अंतःकरणात धारण करतो (तुझे ध्यान हृदयी धरतो.) तुझ्या (मधुमति) मधुर (प्रक्षे) आनंदरूप निर्झरात (क्षियन्तः) मग्न होऊन आम्ही (रयिम्) आनंदरूप धन (पुष्येम) पुष्ट करावे, (तुझे ध्यान अधिकाधिक दृढ करावे.) ।। ८।।

    भावार्थ

    जगदीश्वराच्या उपासनेद्वारे आम्ही त्याच्या आनंदरूप निर्झरामध्ये स्नान करीत धन्य व्हावे, हेच आमच्या हिताचे आहे.।। ८।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரனே ! மாதுரியமான நிலயத்தில் உன் அருகிலுள்ள நாங்கள் ஐசுவரியத்தைப் போஷிப்போம்; உன்னை தியானஞ் செய்வோம்.

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