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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 460
ऋषिः - रेभः काश्यपः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अतिजगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
त꣡मिन्द्रं꣢꣯ जोहवीमि म꣣घ꣡वा꣢नमु꣣ग्र꣢ꣳ स꣣त्रा꣡ दधा꣢꣯न꣣म꣡प्र꣢तिष्कुत꣣ꣳ श्र꣡वा꣢ꣳसि꣣ भू꣡रि꣢ । म꣡ꣳहि꣢ष्ठो गी꣣र्भि꣡रा च꣢꣯ य꣣ज्ञि꣡यो꣢ ववर्त्त रा꣣ये꣢ नो꣣ वि꣡श्वा꣢ सु꣣प꣡था꣢ कृणोतु व꣣ज्री꣢ ॥४६०॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । जो꣣हवीमि । मघ꣡वा꣢नम् । उ꣣ग्र꣢म् । स꣣त्रा꣢ । द꣡धा꣢꣯नम् । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतम् । अ । प्र꣣तिष्कुतम् । श्र꣡वाँ꣢꣯सि꣣ । भू꣡रि꣢꣯ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठः । गी꣣र्भिः꣢ । आ । च꣣ । यज्ञि꣡यः꣢ । व꣣वर्त । राये꣢ । नः꣣ । वि꣡श्वा꣢꣯ । सु꣣प꣡था꣢ । सु꣣ । प꣡था꣢꣯ । कृ꣣णोतु । वज्री꣢ ॥४६०॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रं जोहवीमि मघवानमुग्रꣳ सत्रा दधानमप्रतिष्कुतꣳ श्रवाꣳसि भूरि । मꣳहिष्ठो गीर्भिरा च यज्ञियो ववर्त्त राये नो विश्वा सुपथा कृणोतु वज्री ॥४६०॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । इन्द्रम् । जोहवीमि । मघवानम् । उग्रम् । सत्रा । दधानम् । अप्रतिष्कुतम् । अ । प्रतिष्कुतम् । श्रवाँसि । भूरि । मँहिष्ठः । गीर्भिः । आ । च । यज्ञियः । ववर्त । राये । नः । विश्वा । सुपथा । सु । पथा । कृणोतु । वज्री ॥४६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 460
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा, राजा और आचार्य को लक्ष्य करके कहा गया है।
पदार्थ
मैं (तम्) उस प्रसिद्ध (मघवानम्) ऐश्वर्यवान् (उग्रम्) अन्यायों और अन्यायियों के प्रति उग्र, (सत्रा दधानम्) सत्य को धारण करनेवाले, (अप्रतिष्कुतम्) शत्रुओं से प्रतिरुद्ध न होनेवाले (इन्द्रम्) परमात्मा, राजा वा आचार्य से (भूरि) अनेकानेक (श्रवांसि) यशों की (जोहवीमि) बार-बार याचना करता हूँ। (मंहिष्ठः) अतिशय दानी, (यज्ञियः) पूजा वा सत्कार के योग्य वह (गीर्भिः) उपदेशवाणियों के साथ (आ ववर्त) हमारे अभिमुख होवे। (वज्री) अविद्या-अन्याय आदि पर, हिंसा-असत्य-तस्करी आदि पर और हिंसकों पर वज्र उठानेवाला वह (राये) ऐश्वर्य के लिए (विश्वा नः) हम सबको (सुपथा) सुपथ से (कृणोतु) ले चले ॥४॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥४॥
भावार्थ
परमेश्वर, राजा और आचार्य जिन पर अनुग्रह करते हैं, वे सन्मार्ग पर चलनेवाले और यशस्वी होते हैं ॥४॥
पदार्थ
(तम्) उस (मघवानम्) ऐश्वर्यवाले—(उग्रम्) ओजस्वी—(सत्रा भूरि श्रवांसि दधानम्) सच्चे—स्थिर बहुत यशकार्यों को धारण करने करानेवाले “श्रवः श्रवणीयं यशः” [निरु॰ ११.९] (अप्रतिष्कुतम्) अप्रतिस्खलित—न हिंसित होनेवाले, न प्रतीकार करने योग्य (इन्द्रम्) परमात्मा को (जोहवीमि) पुनः पुनः आमन्त्रित करता हूँ। (च) और जो (मंहिष्ठः) ज्येष्ठ श्रेष्ठ (यज्ञियः) सङ्गमनीय (गीर्भिः) स्तुतियों से (राये) मोक्षैश्वर्य के लिये (आवर्तते) हमारी ओर प्रवृत्त होता है (वज्री) वह ओजस्वी (नः) हमारे लिये (विश्वा सुपथा कृणोतु) सब अच्छे मार्गवाले आचरण कर दे।
भावार्थ
हम उस मोक्षैश्वर्यवाले प्रतापी स्थायी बहुत यशस्कर कार्यों को धारण करनेवाले, न दबनेवाले न प्रतीकार करने योग्य परमात्मा को पुनः-पुनः आमन्त्रित करते रहें तथा जो ज्येष्ठ श्रेष्ठ समागम करने, हेतु स्तुतियों से मोक्षैश्वर्य के लिये हमारी ओर प्रवृत्त होता है, वह ओजस्वी परमात्मा हमारे लिये सब अच्छे मार्गवाले आचरण कर दे॥४॥
टिप्पणी
[*34. “रेभः स्तोतृनाम्” [निघं॰ ३.१६]।]
विशेष
ऋषिः—रेभाः (स्तुतिकर्ता*34)॥ छन्दः—अतिजगती॥<br>
विषय
पवित्र ऐश्वर्य
पदार्थ
‘रेभः काश्यपः’=ज्ञानी स्तोता इस मन्त्र का ऋषि है। यह कहता है कि मैं (तम्) = उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली परमात्मा को (जोहवीमि) = पुकारता हूँ जोकि (मधवानम्) = पापशून्य ऐश्वर्यवाले हैं, अतएव (उग्रम्) = उदात्त हैं। वस्तुतः धन के बिना ऊँचा उठना सम्भव नहीं। धर्म के छोटे-छोटे कार्यों के लिए भी धन की आवश्यकता पड़ती है। दूसरों की सहायता के बिना धन के कुछ शाव्दिक-सी रह जाती है। परन्तु हम धन की दृष्टि से ऊपर उठ जाने पर मनुष्य सुखभोग व विलास में फँस जाते हैं। 'ऐसा न हो' इसके लिए आवश्यक है कि हमारा ऐश्वर्य ‘मघ' हो–पाप से अर्जित न हो। 'मघवान्' बनें और 'उग्र' हों।
मैं उस प्रभु को पुकारता हूँ जो (सत्रादधानम्) = सच्चाई को धारण करनेवाले हैं और (अप्रतिष्कुतम्) = किसी से विरोध में प्रतिशब्दित [challanged] नहीं होते, प्रभु सत्यस्वरूप हैं और परिणामतः अज्ञेय हैं। सत्य सदा विजयी होता है। हम भी सत्य पर दृढ़ होंगे तो अन्त में अवश्य विजयी होंगे।
मैं उस प्रभु को पुकारता हूँ जोकि (भूरि श्रवांसि) = धारण करनेवाले ज्ञानों का (महिष्ठः) = देनेवाला है (च) = और (गीर्भिः) = वेद वाणियों से (यज्ञियः) = पूजा के योग्य है। मनुष्य का धारण ज्ञान से होता है। प्रभु द्वारा दिये हुए ज्ञान को धारण करने से हम प्रभु की पूजा कर रहे होते हैं।
(आ ववर्त) = वे प्रभु सब ओर वर्तमान हैं। कौन सा स्थान है जहाँ कि प्रभु की सत्ता नहीं? वे मेरे हृदय में भी तो वर्तमान हैं। यह प्रभु की सर्वव्यापकता का स्मरण (न:) = हमें (विश्वा सुपथा) = सब उत्तम मार्गों से (राये कृणोतु) = धनैश्वर्य की प्राप्ति के लिए करे-ले- चले। प्रभु का स्मरण करके हम भी कुपथ से धन कमाने में प्रवृत्त न होंगे।
धन को सुपथ से कमाने का संकेत 'वज्री' शब्द में भी है। वे प्रभु वज्री हैं- [वज् गतौ] सदा गतिशील हैं। हमें भी पुरुषार्थ से पसीना बहाकर ही धनार्जन करना चाहिए। (‘अक्षैर्मा दीव्यः कृषिः मित् कृषस्व') = 'पासों से मत खेलो, खेती करो' इस उपदेश में भी तो यही
कहा गया है। धन के बिना उन्नति नहीं, पर तामस धन से सब उन्नति की समाप्ति भी तो हो जाती है।
भावार्थ
‘सर्वव्यापक प्रभु का स्मरण करो और पुरुषार्थ में लगे रहो। इस प्रकार कमाया हुआ धन ही सात्त्विक है। यह धन हमारे उत्कर्ष का कारण बनेगा और हम उस उत्कर्ष को स्थिररूप से प्राप्त करनेवाले होंगे।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( तं ) = उस ( मघवानं ) = धन धान्य, सम्पत्ति, विभूतियों से सम्पन्न, ( उग्रं ) = वेगवान्, ( सत्रा ) = सत् पुरुषों के त्राता, ( भूरि श्रवांसि ) = नाना प्रकार की बल, शक्तियों, ज्ञानों, वेद ऋचाओं को ( दधानम् ) = धारण करते हुए ( अप्रतिष्कुतम् ) = किसी से भी न पराजित, ( इन्द्रं ) = वीर राजा के समान परमेश्वर को ( जोहवीमि ) = स्मरण करता हूं । वह ( मंहिष्ठ: ) = सबसे महान् दानशील ( गीर्भिः ) = वेदमन्त्रों द्वारा ( यज्ञिया ) = यज्ञ के कार्यों में ( आ ववर्त्त ) = पुन: २ स्मरण किया जाता है, आवृत्ति किया जाता है । वह ( वज्री ) = सब विघ्नों का नाशक ( नः ) = हमारे लिये ( राये ) = धन प्राप्त करने के लिये ( विश्वा ) = सब ( सुपथा ) = उत्तम २ मार्ग, द्वार, साधन ( कृणोतु ) = करे, खोल दे ।
टिप्पणी
४६०–‘यज्ञियो बवर्त्तद्' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - रेभः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - अतिजगती।
स्वरः - निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मानं राजानमाचार्यं चाभिलक्ष्य प्राह।
पदार्थः
अहम् (तम्) प्रसिद्धम् (मघवानम्) ऐश्वर्यवन्तम्, (उग्रम्) अन्यायेषु अन्यायिषु च प्रचण्डम्, (सत्रा दधानम्) सत्यं धारयन्तम्। सत्रा इति सत्यनाम। निघं० ३।१०। (अप्रतिष्कुतम्) अप्रतिरुद्धं शत्रुभिः। स्कुतम्, स्कुञ् आप्रवणे क्र्यादिः। (इन्द्रम्) परमात्मानं राजानम् आचार्यं वा (भूरि) भूरीणि बहूनि। ‘शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७०’ इति शेर्लोपः। (श्रवांसि) यशांसि (जोहवीमि) अतिशयेन पुनः पुनः प्रार्थये। (मंहिष्ठः) दातृतमः (यज्ञियः) पूजार्हः सत्कारार्हश्च सः (गीर्भिः) उपदेशवाग्भिः सह (आ ववर्त) अस्मान् प्रति आवर्तताम्। (वज्री) अविद्याऽन्यायादिषु हिंसाऽसत्यस्तेयादिषु हिंसकेषु च उद्यतवज्रः सः (राये) ऐश्वर्याय (विश्वाः नः) सर्वान् अस्मान्। विश्वशब्दाच्छन्दसि ‘सुपां सुलुक्०’ इति विभक्तेराकारादेशः। (सुपथा) सुमार्गेण (कृणोतु) नयतु ॥४॥ अत्रार्थश्लेषालङ्कारः ॥४॥
भावार्थः
परमेश्वरो नृपतिराचार्यश्च याननुगृह्णन्ति ते सुमार्गगामिनो यशस्विनश्च जायन्ते ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९७।१३, अथ० २०।५५।१। उभयत्र ‘भूरि’ इति नास्ति, ‘ववर्त राये’ इत्यत्र च ‘ववर्तद्राये’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
I invoke that God, Who is Opulent, Agile, the Preserver of the good, the Master of many glories. Resistless, most Liberal, Worthy of remembrance, in Yajnas through Vedic verses. May He, the Remover of all impediments, make our pathways pleasant.
Meaning
That Indra, ruler of the world, I invoke and address, illustrious, pious and true, wielder of unopposed powers, and I pray may the most generous and adorable lord of thunderous power, in response to our voice, turn to us constantly and clear our paths of advancement for the achievement of wealth, power, honour and excellence of the world. (Rg. 8-97-13)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तम्) તે (मघवानम्) ઐશ્વર્યવાન, (उग्रम्) ઓજસ્વી, (सत्रा भूरि श्रवांसि दधानम्) સત્ય-સ્થિર અનેક યશકાર્યોને ધારણ કરનાર (अप्रतिष्कुतम्) હિંસિત ન બનનાર, પ્રતિકાર ન કરવા યોગ્ય (इन्द्रम्) પરમાત્માને (जोहवीमि) વારંવાર આમંત્રિત કરું છું (च) અને જે (मंहिष्ठः) અત્યંત શ્રેષ્ઠ (यज्ञियः) સંગમનીય (गीर्भिः) સ્તુતિઓ દ્વારા (राये) મોક્ષ ઐશ્વર્યને માટે (आवर्तते) અમારી તરફ પ્રવૃત્ત થાય છે(वज्री) તે ઓજસ્વી (नः) અમારે માટે (विश्वा सुपथा कृणोतु) સર્વ શ્રેષ્ઠ માર્ગવાળું આચરણ કરી દે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અમે તે ઐશ્વર્યવાળા, પ્રતાપી, સ્થિર, અત્યંત યશસ્વી કાર્યોને ધારણકર્તા, ન દબાવનાર, ન પ્રતિકાર કરવા યોગ્ય પરમાત્માને વારંવાર આમંત્રિત કરતા રહીએ તથા જે અત્યંત શ્રેષ્ઠ સમાગમ કરવા માટે સ્તુતિઓ દ્વારા મોક્ષૈશ્વર્યને માટે અમારી તરફ પ્રવૃત્ત થાય છે, તે ઓજસ્વી પરમાત્મા અમારા માટે સર્વ શ્રેષ્ઠ માર્ગવાળું આચરણ કરી દે. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
گُمراہی سے بچا کر راہِ راست پر چلائیں!
Lafzi Maana
جو اِیشور دُنیا کی دولتوں کا سرچشمہ ہے اور گناہگاروں کو سزا دینے میں اُگر ہے، سچائی مُجسّم ہے اور مالکِ شہرت ہے، وہ سب کا معبود اور ایسی عظیم طاقت ہے، کہ جس کو جھکایا نہیں جا سکتا، جس کےقانون اٹل ہیں، اُسی اِندر کو میں بار بار شردھا اور بھگتی سے بُلا رہا ہوں، عارف اور عابد لوگ لگاتار حمد و ثنا اور دعاؤں سے اُسے بُلاتے ہین۔ تو وہ اپنی دُنیاوی اور عقبےٰ دونوں دولتیں بخشیش کر دیتا ہے، بھگوان آؤ! ہمیں گمراہی سے بچا کر راہِ راست پر چلاؤ، جس سے ہم بھی نیک شہرت کو پا سکیں!
Tashree
دولتِ دُنیا و عقبےٰ کے ہو سرچشمہ پتا، گمراہی سے دُور کرنیکی کے رستے پر چلا۔
मराठी (2)
भावार्थ
परमेश्वर, राजा व आचार्य ज्यांच्यावर अनुग्रह करतात, ते सन्मार्गावर चालतात व यशस्वी बनतात ॥४॥
विषय
परमेश्वर, राजा आणि आचार्य यांना आवाहन
शब्दार्थ
मी (तम्) त्या प्रसिद्ध (पघवानम्) ऐश्वर्यवान आणि (उग्रम्) अन्याय व अन्यायी लोकांविषयी अत्यंत उग्र आहे आणि जो (सत्रा दधानम्) सत्य धारण करणाऱ्या (अप्रतिष्कुतम्) शत्रू ज्यास कधीही ऐकू शकत नाहीत अशा (इन्द्रम्) परमेश्वराकडे, राजाकडे वा आचार्याकडे (भूरि) अनेकदा (श्रवांसि) यश कीर्तीची वा कार्य साफल्याची (जोहवीमि) याचना करतो. (मंहिष्ठः) अत्यंत महान दानी (यज्ञियः) आणि पूजनीय, सत्करमणीय असा त्याने (गीर्भिः) प्रेरणा वा उपदेश देत देत (आ ववर्त) आमच्याकडे पहावे. (वज्री) अविद्या, अन्याय आदीवर हिंसा, असत्य, तस्कर कर्म आदी दुष्कर्मांवर आणि हिंसकावर वज्र प्रहार करणारा तो परमेश्वर / राजा / आचार्य आम्हाला (राये) ऐश्वर्य देणारा आणि (विश्वानः) आम्हा सर्वांना (सुपथा) सन्मार्गावर (कृणोतु) घेऊन जावो.।। ४।।
भावार्थ
परमेश्वर, राजा आणि आचार्य ज्या कोणावर अनुग्रह करतात, तो सन्मार्गगामी होतो आणि जीवनात यशस्वी होतो.।। ४।।
विशेष
या मंत्रात अर्थश्लेष अलंकार आहे.।। ४।।
तमिल (1)
Word Meaning
ஐசுவரியனாயும்,உக்கிரமாயும், சத்தியனாயும் அதிகம் அளிப்பவனாயும் ஜயிக்கப்படாதவனாயுமுள்ள இந்திரனை அழைக்கிறேன். பூஜிக்கருகனாயும், மந்திரங்களால் யக்ஞத்திற்கு அருகதையான இந்திரன் ஸ்மரிக்கப்படுபவன்; வரப்படுபவன் : வச்சிராயுதனான இந்திரன் ஐசுவரியத்திற்கு நல்ல வழியை செய்யட்டும்.
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