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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 473
    ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    3

    अ꣡सा꣢व्य꣣ꣳशु꣡र्मदा꣢꣯या꣣प्सु꣡ दक्षो꣢꣯ गिरि꣣ष्ठाः꣢ । श्ये꣣नो꣢꣫ न योनि꣣मा꣡स꣢दत् ॥४७३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡सा꣢꣯वि । अँ꣣शुः꣢ । म꣡दा꣢꣯य । अ꣣प्सु꣢ । द꣡क्षः꣢꣯ । गि꣣रिष्ठाः꣢ । गि꣣रि । स्थाः꣢ । श्ये꣣नः꣢ । न । यो꣡नि꣢꣯म् । अ । अ꣣सदत् ॥४७३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असाव्यꣳशुर्मदायाप्सु दक्षो गिरिष्ठाः । श्येनो न योनिमासदत् ॥४७३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असावि । अँशुः । मदाय । अप्सु । दक्षः । गिरिष्ठाः । गिरि । स्थाः । श्येनः । न । योनिम् । अ । असदत् ॥४७३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 473
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में आनन्दरस का वर्णन है।

    पदार्थ

    (गिरिष्ठाः) पर्वत पर स्थित, (दक्षः) बलप्रद (अंशुः) सोम ओषधि, जैसे (अप्सु) जलों में (असावि) अभिषुत की जाती है, वैसे ही (गिरिष्ठाः) पर्वत के समान उन्नत परब्रह्म में स्थित, (दक्षः) आत्मबल को बढ़ानेवाला (अंशुः) आनन्द-रस (मदाय) हर्ष के लिए (अप्सु) मेरे प्राणों वा कर्मों में (असावि) मेरे द्वारा अभिषुत किया गया है। (श्येनः न) बाज पक्षी, जैसे (योनिम्) अपने घोंसले को प्राप्त होता है, वैसे ही यह आनन्दरस (योनिम्) मेरे हृदय-गृह में (आ असदत्) आकर स्थित हो गया है ॥७॥ इस मन्त्र में पूर्वार्द्ध में श्लिष्ट व्यङ्ग्योपमा तथा उत्तरार्ध में वाच्योपमा अलङ्कार है ॥७॥

    भावार्थ

    जैसे बाज आदि पक्षी सायंकाल अपने आवासभूत वृक्ष पर आ जाते हैं, वैसे ही परब्रह्म के पास से झरता हुआ आनन्द-रस हृदय-प्रदेश में आता है और जैसे सोमलता का सोमरस वसतीवरी नामक पात्र में स्थित जल में अभिषुत किया जाता है, वैसे ही आनन्द-रस स्तोता के प्राणों और कर्मों में अभिषुत होता है ॥७॥

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    पदार्थ

    (अंशुः) सोम—प्रजापति परमात्मा जो अध्यात्मयाजी के लिये शम्—कल्याणकारी होता है “प्रजापतिर्वा एष यदंशुः” [श॰ ४.६.१.१] “अंशुः-अननाय शं भवतीति” [निरु॰ २.५] (अप्सु दक्षः) प्राणों में प्रगतिप्रद “आपो वै प्राणाः” [श॰ ३.८.२.४] (गिरिष्ठाः) स्तुति के साधन सामगान में स्थित—स्तुतिगान से साक्षात् होने वाला “तेन गारेण साम्ना गरान् गीर्णानपाघ्नत त एवेमे गिरयोऽभवन्” [जै॰ १.२२३] (असावि) हृदय में प्रकट किया। वह आनन्दधारा में आने वाला परमात्मा (श्येनः-न योनिम्-आसदत्) प्रशंसनीय गति वाले घोड़े के समान—“श्येनः शंसनीयं गच्छति” [निरु॰ २.२४] “श्येनः-अश्वः” [निघं॰ १.१४] अपने गृह में प्राप्त हो जाता है—हृदयसदन में प्राप्त हो जाता है।

    भावार्थ

    जीवन को शान्ति देने वाला प्रजा स्वामी सोम उत्पादक परमात्मा आनन्दप्रद प्राणों में प्रगतिप्रद स्तुति में स्थित स्तुतियों से साक्षात् किया हुआ सुन्दर गति वाले घोड़े की भाँति हृदयसदन में आ बैठता है—आ जाता है॥७॥

    टिप्पणी

    [*35. “जमदग्नयः प्रजमिताग्नयो वा प्रज्वलिताग्नयो वा” [निरु॰ ७.३५]।]

    विशेष

    ऋषिः—जमदग्निः (प्रज्वलित—साक्षात् परमात्माग्नि वाला*35 उपासक)॥<br>

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    विषय

    प्रभु के स्थान में पहुँच जाऊँ [ अंशु ]

    पदार्थ

    सोम को यहाँ अंशु कहा है क्योंकि यह मनुष्य को उस प्रभु का अंश ही बना डालता है। यह अंशु-मुझे परमेश्वर का ही छोटा रूप बना देनेवाला सोम (असावि) = उत्पन्न हुआ है। यह उत्पन्न होकर १. (मदाय) = मेरे जीवन में एक विशेष मद को जन्म देनेवाला है - मेरा जीवन इससे सदा उत्साहमय बना रहता है । इस सोम से २. मनुष्य (अप्सु) = कर्मों में(दक्षः) = चतुर बनता है। ‘योगः कर्मसुकौशलम्'- कर्मों में कुशलता ही योग है। यह सोमी पुरुष कभी आकुल नहीं होता। यह (गिरिष्ठा:) = उन्नति के पर्वत शिखर पर स्थित होता है - अथवा वाणी पर इसका पूर्ण प्रभुत्व होता है। यहाँ वाणी उपलक्षण है अन्य सब इन्द्रियों का । इस प्रकार आत्मवश्य विधेय मनवाला (श्येनो न) = प्रशंसनीय गतिवाले पक्षी की भाँति (योनिम्) = उस प्रभु के स्थान को (आसदत्) = पा लेता है। प्रभु को पाने के लिए गत मन्त्र में ‘मधुमत्तमः' शब्द से १. 'माधुर्य' का संकेत हुआ है। प्रस्तुत मन्त्र में २. उल्लास - मनः प्रसाद [मदाय], ३. कार्यकुशलता- सिद्धि व असिद्धि में सम होकर निर्लेपता से कर्म करना तथा ४. इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनना [गिरिष्ठा:] – इन नये उपायों का उल्लेख हो गया है। उस सोम की रक्षा तो साधन है ही जोकि माधुर्य आदि को हमारे जीवन में उत्पन्न करता है। इस सोम की रक्षा से यह भी परिणाम होता है कि यह शरीर-यन्त्र अन्त तक ठीक रहता है - मनुष्य अन्त तक 'जमदग्नि' बना रहता है। इस सोम की रक्षा में प्राणायामादि तपस्या तो आवश्यक है ही। इस तपस्या का करनेवाला ‘भार्गव' है। यह जमदग्नि-भार्गव प्रभु का अंश बन जाता है। ऐसा बनानेवाला यह सोम 'अंशु' है।

    भावार्थ

    मैं अंशु की रक्षा द्वारा प्रभु का अंश बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( गिरिष्ठाः ) = पर्वतों या मेघों में स्थित और विद्वानों की वाणियों में स्थित, या विद्वानों में रहने वाला, ( अंशुः ) = सर्वव्यापक ( अप्सु ) = कर्मों और ज्ञानों को उत्पन्न करने में ( दक्षः ) = बलशाली, सोम, आनन्दरस  ( असावि ) = प्रकट होता है । वह ( योनिम् ) = अपने प्रादूर्भाव  होने के स्थान में ( श्येन: न ) = श्येनस्वरूप आत्मा के समान ही ( आ सदत् ) = विराजमान होता है | आत्मा के समान परमात्मा भी हृदय में विराजमान है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - जमदग्नि:।

    देवता - पवमानः ।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथानन्दरसो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (गिरिष्ठाः) पर्वते स्थितः। गिरौ तिष्ठतीति गिरिष्ठाः ‘आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। अ० ३।२।७४’ इति विच् प्रत्ययः। (दक्षः) बलप्रदः (अंशुः) सोमौषधिः। अंशुः शमष्टमात्रो भवति, अननाय शं भवतीति वा। निरु० २।५। यथा (अप्सु) उदकेषु (असावि) सूयते, तथा (गिरिष्ठाः) पर्वतवदुन्नते परब्रह्मणि विद्यमानः (दक्षः) आत्मबलवर्द्धकः (अंशुः) आनन्दरसः (मदाय) हर्षाय (अप्सु) मम प्राणेषु कर्मसु च (असावि) मया अभिषुतोऽस्ति। (श्येनः न) श्येनपक्षी यथा (योनिम्) स्वनीडं प्राप्नोति, तथा एष आनन्दरसः (योनिम्) मम हृदयमन्दिरम् (आ असदत्) आगतोऽस्ति ॥७॥ अत्र पूर्वार्द्धे श्लेषमूलो व्यङ्ग्योपमालङ्कारः। उत्तरार्द्धे वाच्योपमा ॥७॥

    भावार्थः

    यथा श्येनादयः पक्षिणः सायंकाले स्वस्वावासभूतं वृक्षं प्रत्यागच्छन्ति तथैव परब्रह्मणः सकाशान्निर्झरन्नानन्दरसो हृदयप्रदेशमभ्यागच्छति। यथा च सोमो वसतीवर्याख्यपात्रस्थे जलेऽभिषूयते तथाऽऽनन्दरसः स्तोतुः प्राणेषु कर्मसु च ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६२।४, साम० १००८।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    All-pervading God, the companion of the learned, Mighty in the performance of deeds and imparting knowledge, manifests Himself for the enhancement of joy. He resides in the heart like the soul.

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    Meaning

    The peace and pleasure of lifes ecstasy in thought and action, and the expertise well founded on adamantine determination is created by Savita, the creator, like the flying ambition of the soul and it is settled in its seat at the hearts core in the personality. (Rg. 9-62-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अंशुः) સોમ-પ્રજાપતિ પરમાત્મા જે અધ્યાત્મયાજી-યાજ્ઞિકને માટે શમ્—કલ્યાણકારી હોય છે. (अप्सु दक्षः) પ્રાણોમાં પ્રગતિપ્રદ (गिरिष्ठाः) સ્તુતિનાં સાધન સામગાનમાં સ્થિત-સ્તુતિગાનથી સાક્ષાત્ થનાર (असावि) હૃદયમાં પ્રકટ કર્યો. તે આનંદ ધારામાં આવનાર પરમાત્મા (श्येनः न योनिम् आसदत्) પ્રશંસનીય ગતિવાળા ઘોડાની સમાન પોતાના ઘરમાં પ્રાપ્ત થઈ જાય છે-હૃદયગૃહમાં પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. (૭)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જીવનને શાન્તિ પ્રદાન કરનાર, પ્રજા સ્વામી સોમ ઉત્પાદક પરમાત્મા આનંદપ્રદ પ્રાણોમાં પ્રગતિપ્રદ, સ્તુતિમાં સ્થિત સ્તુતિઓથી સાક્ષાત્ કરેલ, સુંદર ગતિવાળા ઘોડાની સમાન હૃદયગૃહમાં આવીને બેસે છે-આવી જાય છે. (૭) 

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آنند ہی آنند ہے!

    Lafzi Maana

    بادلوں میں، پہاڑوں میں، وِدوانوں کی بانیوں، گیان اور کرموں میں سوم امرت آنند کا داتا پرمیشور میرے پریم ہردیہ میں باز پکھشی کی طرح آ کر بیٹھ گیا ہے۔ آہا! اب میں جگت ماتا کی گود میں بیٹھ رہا ہوں، آنند ہی آنند ہے۔

    Tashree

    باز پکھشی کی طرح میرے ہردیہ میں آ بسا، گود میں ماتا کی ہوں آنند ایسا آ رہا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा बाज इत्यादी पक्षी सायंकाळी आपल्या आवासात वृक्षावर येतात. तसाच परब्रह्मापासून पाझरणारा आनंदरस हृदयात प्रवेश करतो व जसा सोमलतेचा सोमरस वसतीवरी नावाच्या पात्रात स्थित जलात सिंचित केला जातो, तसेच आनंदरस स्तोत्याच्या प्राणात व कर्मात सिंचित होतो. ॥७॥

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    विषय

    आनंद रसाचे वर्णन

    शब्दार्थ

    (गिरिष्ठाः) पर्वतावर स्थित (दक्षः) शक्तिवर्धक (अंशुः) सोम औषधी ज्याप्रकारे (अप्सु) पाण्यामध्ये (असावी) अभिषुत केली जाते (त्या वनस्पतीला पाण्यात भिजवून / रगडून त्याचा रस काढला जातो.) तसेच (मिरिष्ठाः) पर्वताप्रमाणे उच्च असलेल्या परब्रह्मामध्ये सणारा (दक्षः) आत्मशक्ती वाढविणार (अंशुः) आनंद रस (मदाय) हर्षप्राप्तीकरिता (असावि) मी अभिषुत केला आहे (अप्सु) माझ्या प्राणां / कर्मांद्वारे मी तो प्राप्त केला आहे. (श्येनः न) वहिरी ससाणा पक्षी (योनिम्) ज्याप्रमाणे आपल्या (योनिम्) घरट्याकडे येतो, तद्वत हा ब्रह्मानंद रस (योनिम्) माझ्या हृदय गृहात (आ सद्) येऊन स्थित जाला आहे. (मी तो आनंद सतत निरंतर अनुभव आहे.)।। ७।।

    भावार्थ

    जसे ससाणा आदी पक्षी सायंकाळी आपापल्या वृक्षावरील आवास-गृहात येतात, तसेच परब्रह्मापासून झिरपत येणारा आनंद रस हृदय प्रदेशात येतो. तसेच ज्याप्रमाणे सोमलतेचा रस वसतीवरी नावाच्या पात्रातील पाण्यात अभिषुत केला जातो, तसेच हा आनंद रस स्तोताजनाच्या प्राणांतून व कर्मांतून प्रकट होतो.।। ७।।

    विशेष

    या मंत्राच्या पूर्वार्धात श्लिष्ट व्यंग्योपमा व उत्तरार्धात वाच्योपमा अलंकार आहे.।। ७।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மலையில் (மேன்மையான ஸ்தானத்தில்) மலர்ந்த சோமன் சந்தோஷத்திற்காக நீர்த்தாரைகளில் அமிழ்த்தப்பட்டுள்ளான். கருடனைப் (பலமுள்ளவனைப்)போல் அவன் தன் நிலயத்தில் நிலையாகிறான்.

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