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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 500
    ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    2

    त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति꣣ धा꣡रा꣢ सु꣣त꣡स्यान्ध꣢꣯सः । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥५००॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति । धा꣡रा꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥५००॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तरत्स मन्दी धावति धारा सुतस्यान्धसः । तरत्स मन्दी धावति ॥५००॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तरत् । सः । मन्दी । धावति । धारा । सुतस्य । अन्धसः । तरत् । सः । मन्दी । धावति ॥५००॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 500
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सोम के धाराप्रवाह से क्या फल प्राप्त होता है, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    (सुतस्य) आचार्य के अथवा परमात्मा के पास से अभिषुत (अन्धसः) ज्ञान और कर्म के रस की अथवा आनन्द-रस की (धारा) धारा से (मन्दी) तृप्त हुआ (सः) वह आत्मा (तरत्) दुःख, विघ्न, विपत्ति आदि के सागर को पार कर लेता है, और (धावति) ऐहलौकिक लक्ष्य की ओर वेग से अग्रसर होने लगता है। (मन्दी) ज्ञान और कर्म के रस वा आनन्दरस की धारा से तृप्त हुआ (सः) वह आत्मा (तरत्) दुःखादि के सागर को पार कर लेता है, और (धावति) पारलौकिक लक्ष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होने लगता है ॥४॥ इस मन्त्र में ‘तरत् स मन्दी धावति’ की पुनरुक्ति में लाटानुप्रास अलङ्कार है ॥४॥

    भावार्थ

    गुरु के पास से प्राप्त ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड के रस से तथा परमात्मा के पास से प्राप्त आनन्दरस से तृप्त होकर मनुष्य समस्त ऐहलौकिक एवं पारलौकिक उन्नति करने में समर्थ हो जाता है ॥४॥

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    पदार्थ

    (धारा सुतस्य) स्तुतिवाणी द्वारा स्तुत हुए (अन्धसः) आध्यानीय सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा का (सः-मन्दी) वह स्तुतिकर्ता (तरत्) पाप को तरता है (धावति) ऊर्ध्वगति को जाता है—प्राप्त होता है (तरत् सः-मन्दी धावति) निश्चय वह स्तुतिकर्ता ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है “तरति स पापं सर्वं मन्दी य स्तौति धावति गच्छत्यूर्ध्वांगतिम्” [निरु॰ १३.६]।

    भावार्थ

    समन्तरूप से ध्यान करने योग्य सोमरूप शान्त परमात्मा की स्तुति स्तुतिकर्ता पाप को तरता हुआ ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है निश्चित्त पाप को तर जाता है ऊँची गति को प्राप्त होता है॥४॥

    विशेष

    ऋषिः—अवत्सारः (रक्षा करते हुए परमात्मा—परमात्मा के अनुसार चलने वाला आस्तिक जन)॥<br>

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    विषय

    तैरते हुए

    पदार्थ

    जो व्यक्ति सोम की जोकि सारे भोजन का सार है रक्षा करता है वह 'अवत्सार' कहलाता है। यह ज्ञानी काश्यप तो है ही । (सः) = वह संसार में आनेवाली विघ्न-बाधाओं को (तरत्) = तैरता हुआ (मन्दी) = उल्लासवाला (धावति) = दौड़ता चलता है। ‘धाव्' धातु के दोनों अर्थ हैं गति और शुद्धि। यह मार्ग में आनेवाले विघ्नों का शोधन-सफाया करता है और आगे बढ़ता है। यह (सुतस्य) = उत्पन्न हुए - हुए (अन्धसः) = सर्वथा ध्यान देने योग्य सोम की (धारा) = [धारया] धारणशक्ति से आगे और आगे बढ़ता चलता है। ज्ञानी होने से रमणीय विषयों का भोग करता हुआ भी उनमें उलझता नहीं है। (सः) = वह तो (तरत्) = तेजी से तैरता हुआ (मन्दी) = सदा उत्साह में स्थित (धावति) = आगे बढ़ता ही चलता है।
     

    भावार्थ

    मैं १. तैरते हुए, २. उत्साह में कमी न आने देते हुए, ३. आगे और आगे बढ़ता चलूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( सः ) = वह ( मन्दी ) = स्तुति करने हारा, स्वतः तृप्त आत्मा ( तरत् ) = इस देहबन्धन को तर जाता है। वही ( सुतस्य ) = उत्पन्न हुए ( अन्धसः ) = अन्धकार के नाशक ज्ञान और आनन्दरस की ( धारा ) = धारा, या शक्ति द्वारा ( धावति ) = ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है । वही ( तरत् ) = अज्ञान को पार करके ( मन्दी ) = अत्यन्त आनन्दमय होकर ( धावति ) = परम शुद्ध होकर ब्रह्म को प्राप्त होजाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अवत्सारः।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमधाराप्रवाहेण किमाप्यत इत्याह।

    पदार्थः

    (सुतस्य) आचार्यसकाशात् परमात्मसकाशाद् वा अभिषुतस्य (अन्धसः) ज्ञानकर्मरसस्य आनन्दरसस्य वा (धारा) धारया। अत्र तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्’ इति विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। (मन्दी) तृप्तिमान् (सः) आत्मा (तरत्) तरति दुःखविघ्नविपदादिसागरम्। तरतेर्लेटि रूपम्। (धावति) वेगेन गच्छति च ऐहलौकिकं लक्ष्यं प्रति। (मन्दी) ज्ञानकर्मरसस्य आनन्दरसस्य वा धारया तृप्तः सन् (सः) असौ आत्मा (तरत्) तरति दुःखादिसागरम्, (धावति) वेगेन गच्छति च पारलौकिकं लक्ष्यं मोक्षं प्रति ॥४॥ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याख्यातवान्—“तरति स पापं सर्वं मन्दी यः स्तौति। धावति गच्छति ऊर्ध्वां गतिम्। धारा सुतस्य अन्धसः, धारयाऽभिषुतस्य सोमस्य मन्त्रपूतस्य वाचा स्तुतस्य” इति (निरु० १३।६)। मन्त्रेऽस्मिन् ‘तरत् स मन्दी धावति’ इत्यस्य पुनरुक्तौ लाटानुप्रासोऽलङ्कारः ॥४॥

    भावार्थः

    गुरोः सकाशात् प्राप्तेन ज्ञानकाण्डरसेन कर्मकाण्डरसेन च, परमात्मनः सकाशात् प्राप्तेनानन्दरसेन च तृप्तः सन् मनुष्यः सर्वामप्यैहिकीं पारलौकिकीं चोन्नतिं कर्तुं शक्नोति ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।५८।१, साम० १०५७।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The satisfied soul crosses the bondage of the body. With the force of knowledge acquired for the removal of ignorance, the soul elevates itself. Overcoming ignorance, full of happiness, the purified soul attains to God.

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    Meaning

    Soma, Spirit of peace, beauty and bliss, saving, rejoicing, fulfilling, flows on. The stream of delight exhilarating for body, mind and soul flows on full of bliss. Crossing over the hurdles of life, delighted all over, the celebrant goes on. (Rg. 9-58-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (धारा सुतस्य) સ્તુતિવાણી દ્વારા સ્તુત કરેલ (अन्धसः) આધ્યાનીય સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માની (सः मन्धी) તે સ્તુતિકર્તા (तरत्) પાપથી તરે છે. (धावति) ઊર્ધ્વગતિ તરફ જાય છે-પ્રાપ્ત થાય છે. (तरत् सः मन्दी धावति) નિશ્ચિત તે સ્તુતિકર્તા ઊંચી શ્રેષ્ઠ ગતિને પ્રાપ્ત થાય છે. (૪) 

     

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સમગ્ર રૂપથી ધ્યાન કરવા યોગ્ય સોમરૂપ શાન્ત પરમાત્માની સ્તુતિ તે સ્તુતિકર્તા પાપને તરીને ઊર્ધ્વગતિને પ્રાપ્ત થાય છે, નિશ્ચિત તરી જાય છે, ઊંચી-શ્રેષ્ઠ ગતિને પ્રાપ્ત થાય છે. (૪)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگتی مارگ کا پھل!

    Lafzi Maana

    بلاشک وہ اُپاسک عابد و عارف پاپ کی ندی (بھو ساگر) کو تر جاتا ہے۔ ساتوک اَنّ یا روحانی خوراک سے ایشور بھگتی کی دھارا اُس میں دوڑنے لگ جاتی ہے، جس سے بالضرور پاپ کی ندی کو پار کرتا اور آنند مگن ہوتا ہوا وہ بھگتی کے مارگ پر دوڑتا جاتا ہے۔

    Tashree

    جس سمے ترنگیں بھگتی کی اُٹھتی ہیں مانس گاگر سے، سب پاپوں کو تر کر پار ہو جاتا وہ بھو ساگر سے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    गुरुपासून प्राप्त केलेल्या ज्ञानकांड व कर्मकांडाच्या रसाने व परमात्म्यापासून प्राप्त झालेल्या आनंदरसाने तृप्त होऊन माणूस संपूर्ण इहलौकिक व पारलौकिक उन्नती समर्थपणे करू शकतो ॥४॥

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    विषय

    सोमाच्या धाराप्रवाहाने काय प्राप्त होते, याविषयी -

    शब्दार्थ

    (सुतस्य) आचार्याकडून वा परमात्म्याकडून प्राप्त (अन्धसः) ज्ञानाची व कर्माची रस-धारा (धारा) त्या धारेने (मन्दी) तृप्त झालेला (सः) तो आत्मा (तर्) दुःख, विघ्न, विपत्ती आदींचा सागर तरून जातो आणि (धावति) आपल्या ध्येयाकडे पुढे पुढे जातो. (मन्दी) ज्ञान, कर्म आणि आनंद रसाच्या धारेने तृप्त झालेला (सः) तो आत्मा (तरत्) दुःखादीचा सागर पार करू शकतो आणि (धावति) पारलौकिक लक्ष्याकडे म्हणजे मोक्षाकडे अग्रेसर होऊ लागतो.।। ४।।

    भावार्थ

    गुरूपासून प्राप्त ज्ञान आणि कर्म या रूप रसाने तसेच परमेश्वरापासून प्राप्त आनंद रसाने तृप्त होऊन मनुष्य ऐहलोकिक व पालकौकिक उत्कर्ष प्राप्त करण्यात समर्थ होतो.।। ४।।

    विशेष

    या मंत्रात ‘तरत् स मन्दी धावति’ या वाक्यांशाच्या पुनरुक्तीमुळे लाटानुप्रास अलंकार आहे.।। ४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    சந்தோஷமளிக்கும் சோமன் துரிதமாய்ப் பாய்கிறான். தாரையான இந்த சோமரசம் இன்பமளிப்பவன்; துரிதமாய்ப் பாய்ந்தோடுகிறான்.

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