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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 509
    ऋषिः - अयास्य आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    2

    प्र꣡ न꣢ इन्दो म꣣हे꣡ तु न꣢꣯ ऊ꣣र्मिं꣡ न बिभ्र꣢꣯दर्षसि । अ꣣भि꣢ दे꣣वा꣢ꣳ अ꣣या꣡स्यः꣢ ॥५०९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । नः꣣ । इन्दो । महे꣢ । तु । नः꣣ । ऊर्मि꣢म् । न । बि꣡भ्र꣢꣯त् । अ꣣र्षसि । अभि꣢ । दे꣣वा꣢न् । अ꣣या꣡स्यः꣢ ॥५०९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र न इन्दो महे तु न ऊर्मिं न बिभ्रदर्षसि । अभि देवाꣳ अयास्यः ॥५०९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । नः । इन्दो । महे । तु । नः । ऊर्मिम् । न । बिभ्रत् । अर्षसि । अभि । देवान् । अयास्यः ॥५०९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 509
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 13
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सोम परमात्मा का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    हे (इन्दो) आनन्द-रस से आर्द्र करनेवाले रस के सागर परमात्मन् ! (अयास्यः) प्राणप्रिय तू (ऊर्मिं न) मानो लहर को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (नः) हमारी (महे) वृद्धि के लिए (तु) शीघ्र ही (देवान् नः अभि) हम विद्वान् उपासकों को लक्ष्य करके (अर्षसि) प्राप्त हो ॥१३॥ इस मन्त्र में ‘ऊर्मिं न बिभ्रत्’ में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥१३॥

    भावार्थ

    उपासना किया गया प्राणप्रिय परमेश्वर अपने प्यारे उपासक को मानो आनन्द की तरङ्गों से आप्लावित कर देता है ॥१३॥

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    पदार्थ

    (इन्दो) हे आर्द्र रसीले सोम शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (नः) हमारे (महे) महान्—(तुने) समृद्धि के लिये “तु वृद्धौ” [अदादि॰] ‘ततो नुक् छान्दसः-उणादिर्वा बाहुलकात्’ (ऊर्मिं न) तरङ्ग समान आनन्दधारा को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (देवान्-अभि) जीवन्मुक्तों की ओर (अयास्यः) आयास न रखता हुआ—स्वभावतः (प्र-अर्षसि) प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    आर्द्र—रसीले शान्तस्वरूप परमात्मन्! तेरा क्या कहना? तू तो हमारे महान् वैभव के लिये अपनी आनन्दधारा को तरङ्ग समान धारण करते हुए देवों—जीवन्मुक्तों की ओर अनायास ले जा रहा है, पहुँचा रहा है—जीवन्मुक्त बना रहा है, यह तेरी महती कृपा है॥१३॥

    विशेष

    ऋषिः—अयास्यः (यास्य—प्रयत्नसाध्यभोग-प्रवृत्तिरहित वैराग्यवान् उपासक)॥<br>

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    विषय

    अनथक

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम! तू (नः) = हमारे (महे तुने) महनीय - प्रशंसनीय ज्ञानरूप धन के लिए (ऊर्मि न बिभ्रत्) = हृदय में तरङ्ग - सी धारण करता हुआ (प्र अर्षसि) = खूब गतिशील होता है। सोम के धारण से हृदय में गम्भीर ज्ञान के लिए उसी प्रकार उत्साह होता है जैसाकि समुद्र में तरङ्गे उठती हैं।

    ज्ञान-प्राप्ति के अतिरिक्त यह सोम हमें निरन्तर (देवां अभि) = दिव्य गुणों की ओर ले-चलता है। इससे हमारे अन्दर दैवी सम्पत्ति की वृद्धि होती है।

    यह (अयास्यः) = अनथक होता है। संयमी पुरुष कभी थकता नहीं। उसके शरीर में शक्ति होती है जो उसे निरन्तर कार्य करने में समर्थ बनाती है।

    सोम का मस्तिष्क पर परिणाम गम्भीर ज्ञान के लिए सामर्थ्य है, हृदय में दैवी गुणों का विकास है, तथा शरीर को यह अनथक काम करने के योग्य बनाता है। मन्त्र का ऋषि ही ‘अयास्य-आङ्गिरस' है-न थकनेवाला शक्तिशाली पुरुष। 

    भावार्थ

    सोम मुझे अयास्य बनाए ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्दो ) = ऐश्वर्यसम्पन्न ! आप ( महे तुने ) = विशाल ज्ञान प्राप्त करने के लिये ( नः ) = हमारे लिये ( ऊर्मिम् न ) = तरङ्ग के समान ( विभ्रद् ) = हर्ष उत्पन्न करते हुए ( अर्षसि ) = प्रकट हो और ( देवान् अभि ) = देवों, विद्वानों ज्ञानयोगियों के प्रति ( अयास्यः ) = 'अयास्य' अर्थात् मुख्य प्राण रूप में प्रकट होते हो । 'अयास्य' का वर्णन बृहदा० उप० में देखो ।
     

    टिप्पणी

    ५०६ - 'महेतन' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अयास्य आङ्गिरसः।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमं परमात्मानमाह्वयति।

    पदार्थः

    हे (इन्दो) आनन्दरसेन क्लेदयितः रससागर परमात्मन्। (अयास्यः२) प्राणप्रियः त्वम्। स प्राणो वा अयास्यः। जै० उ० ब्रा० २।८।८। (ऊर्मिं न) तरङ्गमिव (बिभ्रत्) धारयन् (नः) अस्माकम् (महे) वृद्ध्यै (तु३) क्षिप्रम् (देवान् नः अभि) विदुषः अस्मान् उपासकान् अभिलक्ष्य (अर्षसि) प्राप्नुहि। गत्यर्थाद् ऋषतेर्लेटि रूपम् ॥१३॥ ‘ऊर्मिं न बिभ्रत्’ इत्यत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥१३॥

    भावार्थः

    उपासितः प्राणप्रियः परमेश्वरः प्रियमुपासकमानन्दतरङ्गैरिव संप्लावयति ॥१३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।४४।१ ‘प्र ण इन्दो महे तने’ इति प्रथमः पादः। २. माधवसायणौ ‘अयास्य’ इति ऋषेर्नाम मत्वा व्याचक्षाते। अयास्यः गमनशील इति वा उपगन्तव्य इति वा—इति भरतः। ३. भरतस्वामिसायणौ ‘तुन’ इति संयुक्तं पाठं मत्वा ‘तुने धनाय’ इति व्याचक्षाते। तत्तु पदकारविरुद्धम्, पदपाठे ‘तु नः’ इति विभज्य दर्शनात्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, Thou art fully realised by the worshippers. For our wealth of knowledge. Thou manifestest Thyself like a wave creating pleasure!

    Translator Comment

    The pleasure derived from the attainment of God, creates a kind of wave in the hearts of the worshippers.

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    Meaning

    O Soma, vibrant and fast, bearing waves of light and energy of divinity, you radiate to the noble and brilliant divine souls for our great advancement and achievement all round in life. (Rg. 9-44-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रो) હે આર્દ્ર રસવાન સોમ શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (नः) અમારી (महे) મહાન, (तुने) સમૃદ્ધિને માટે (ऊर्मिं न) તરંગ સમાન આનંદધારાને (बिभ्रत्) ધારણ કરતાં (देवान् अभि) જીવનમુક્તોની તરફ (अयास्यः) આયાસ ન રાખતા-સ્વભાવતઃ (प्र अर्षति) પ્રાપ્ત થાય છે. (૧૩)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : આર્દ્ર-રસવાન શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તારી શું વાત કરવી ? તું તો અમારા મહાન વૈભવને માટે પોતાની આનંદધારાને તરંગ સમાન ધારણ કરતાં દેવો-જીવનમુક્તોની તરફ અનાયાસ લઈ જઈ રહ્યો છે, પહોંચાડી રહ્યો છે-જીવન મુક્ત બનાવી રહ્યો છે, એ તારી મહાન કૃપા છે. (૧૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    تیری عظیم نوازش ہے!

    Lafzi Maana

    یہ تیری مہان کرپا ہے، چندر کی طرح شانتی اور آنند دینے والے پرمیشور! ہر پرکار سے ہم کو بڑھانے کے لئے ترنگوں کی طرح ہمارے اندر آنند کی دھارا کو بہا رہا ہے، تیری نوازش سے ہی اپنے آپ ہمارے اندر دیوتاؤں کے گُن کرم سوبھاؤ آ رہے ہیں۔

    Tashree

    تیری نوازشوں سے ہوں جا رہا بڑہتا ہوا، آنند رس لیتا ہُوا دو گنوں کو بھرتا ہوا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    उपासना केला गेलेला प्राणप्रिय परमेश्वर आपल्या प्रिय उपासकाला जणू आनंदाच्या तरंगांनी आप्लावित करतो ॥१३॥

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    विषय

    सोम परमात्म्यालाावाहन केले आहे.

    शब्दार्थ

    हे (इन्दो) आनंद रसाने उपासकाला चिंब करून टाकणार्या हे रसागार परमेश्वरा, (अयास्यः) तू आम्हांस प्राणाहून प्रिय आहेस. (ऊर्मि न) तरंगाप्रमाणे (प्रेमाचा वर्षाव करीत) (बिभुत्) स्नेह आर्द्रत्व धारण करीत (नः) आमच्या (महे) उन्नतीसाठी (तु) शीघ्र (देवान् नः) (अभि) आम्हा विद्वान उपासकांच्या दिशेने (अर्षसि) ये.।। १३।।

    भावार्थ

    प्राणप्रिय परमेश्वर उपासकांनी उपासना केल्यानंतर जणू काय आनंदाच्या लहरींनी उपासकाला आप्लावित करून टाकतो.।। १३।।

    विशेष

    या मंत्रात ‘ऊर्मि न बिभ्रत्’मध्ये उत्प्रेक्षा अलंकार आहे.।। १३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (இந்துவே)! எங்களின் மகத்தான ஐசுவரியத்திற்கு உன் அலைகளை (தேவர்களுக்குத்) தரித்துக்கொண்டு ஆயாசமன்னியில் நீ பெருகிக்கொண்டிருக்கிறாய்.

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