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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 520
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
3
इ꣡न्द्रा꣢य पवते꣣ म꣢दः꣣ सो꣡मो꣢ म꣣रु꣡त्व꣢ते सु꣣तः꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢धारो꣣ अ꣡त्यव्य꣢꣯मर्षति꣣ त꣡मी꣢ मृजन्त्या꣣य꣡वः꣢ ॥५२०॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯य । प꣣वते । म꣡दः꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । म꣣रु꣡त्व꣢ते । सु꣣तः꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢धारः । स꣣ह꣡स्र꣢ । धा꣣रः । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣡व्य꣢꣯म् । अ꣣र्षति । त꣢म् । ई꣣ । मृजन्ति । आय꣡वः꣢ ॥५२०॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय पवते मदः सोमो मरुत्वते सुतः । सहस्रधारो अत्यव्यमर्षति तमी मृजन्त्यायवः ॥५२०॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राय । पवते । मदः । सोमः । मरुत्वते । सुतः । सहस्रधारः । सहस्र । धारः । अति । अव्यम् । अर्षति । तम् । ई । मृजन्ति । आयवः ॥५२०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 520
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में वह वर्णित है कि सोम परमात्मा किसके लिए झरता है।
पदार्थ
(मदः) तृप्ति देनेवाला, (सुतः) ध्यानरूपी सिलबट्टों से अभिषुत (सोमः) रसनिधि परमात्मा (मरुत्वते) प्राण से सहचरित (इन्द्राय) आत्मा के लिए (पवते) झरता है। (सहस्रधारः) अनेकों आनन्दधाराओं से युक्त वह (अव्यम् अति) पार्थिव अन्नमय कोश को पार कर प्राणमय, मनोमय आदि कोशों में (अर्षति) पहुँचता है। (तम् ई) उसे (आयवः) मनुष्य (मृजन्ति) भक्तिपुष्पों से अलङ्कृत करते हैं ॥१०॥
भावार्थ
रसागार परमेश्वर ध्यानी, भक्तिपरायण जीवात्मा को आनन्द के झरने में स्नान कराता है ॥१०॥
पदार्थ
(सुतः-मदः-सहस्रधारः सोमः) हृदय में निष्पन्न—साक्षात्कृत असंख्य धारा वाला—बहुत स्तुतिवाणी वाला हर्षकर शान्तस्वरूप परमात्मा (मरुत्वते-इन्द्राय) प्राणशक्तिसम्पन्न उपासक आत्मा के लिये (पवते) गति करता है (अव्यम्-अत्यर्षति) रक्षणीय योगभूमि को प्राप्त होता है (ईम्) हाँ (तम्) उसे (आयवः-मृजन्ति) पुनः मनुष्य “आयवः-मनुष्याः” [निघं॰ २.३] प्राप्त करते हैं “मार्ष्टि गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।
भावार्थ
निष्पन्न—हृदय में साक्षात् हुआ बहुत स्तुति वाला शान्तस्वरूप परमात्मा प्राणवान्—प्राणशक्तिमान् उपासक के लिये गति करता है—बहता है रक्षणीय योगभूमि को प्राप्त होता है, हाँ उसे फिर मनुष्य प्राप्त करते हैं॥१०॥
विशेष
ऋषिः—जमदग्निः॥<br>
विषय
सहस्त्रधार सोम का शोधन
पदार्थ
(सोमः) = सोम इन्द्राय जितेन्द्रिय के लिए (मदः) = उल्लासजनक होकर (पवते) = शरीर में प्रवाहित होता है। सोम के संयम के लिए इन्द्रियों को वश में करना आवश्यक है। रसना का संयम किए बिना क्या कभी ब्रह्मचर्य सम्भव है? 'इन्द्र' प्रातः मध्यान्ह व सायं तीनों सवनों में सोम का पान करता है अर्थात् बाल्य, यौवन व वार्धक्य में सोम को सुरक्षित रखता है, इसलिए उसका जीवन मद= उल्लास लिए हुए है। यह सोम (मरुत्वते) = प्राणवाले के लिए (सुतः) = उत्पन्न किया गया है। प्राणसाधना करनेवाले पुरुष ही इस सोम की ऊर्ध्वगति कर पाता है।
धारण किया हुआ यह सोम (सहस्त्रधार:) = हज़ारों प्रकार से धारण करनेवाला होता है। जीवात्मा की यह सभी शक्तियों को विकसित करनेवाला होता है। यह सोम (अव्यम्) = रक्षा करनेवाले पुरुष को (अति अर्षति) = अतिशयेन प्राप्त होता है। प्रतिदिन कण-कण संग्रह करके भी संचित होकर यह राशिभूत हो जाता है । (ईम) = निश्चय से (तम्) = उस सोम को (आयवः) = गतिशील पुरुष (मृजन्ति) = शुद्ध करते हैं। गतिशीलता से वासना को स्थान नहीं मिलता और वासना के अभाव में यह सोम शुद्ध बना रहता है। शुद्धता के लिए क्रियाशीलता आवश्यक है।
भावार्थ
मैं सहस्रधार सोम का शोधन करूँ। इसके लिए क्रियाशील बना रहूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( सुतः ) = सोमरस के समान तैयार किया हुआ, छाना हुआ, परिशोधा हुआ ( मदः ) = आनन्दस्वरूप ( सोमः ) = सोम ( मरुत्वते ) = प्राणों, प्रजाओं और मध्यस्थानीय मरुद्गण के अधिपति ( इन्द्राय ) = आत्मा, राजा और परमात्मा के लिये ( पवते ) = बहता है । वह ( सहस्रधारः ) = सहस्त्रों शक्तियों के रूप में ( अव्यम् ) = अवि=चेतनामय मनःसाधन को ( अति ) = अतिक्रमण करके ( अर्षति ) = प्रकट होता है । ( तम् ) = उस ( ईं ) = इस सोम रस को ( आयवः ) = परम आयु से सम्पन्न साधक लोग ( मृजन्ति ) = और भी परिष्कृत करते हैं । अवि-मेषी रूप चेतना का वर्णन अथर्व में विस्तार से है। जैसे— आविर्वै नाम देवतर्त्तन परीवृता । तस्या रूपेणेमे वृक्षा ईरिता हरितस्रजः । अथर्व० ( १०८ । ३१ )
इसीका वर्णन वशा, ब्रह्मगवी, मेषी, शतौदना, मधुकशा आदि नाना नामों से वेदों में आया है । यही सप्तर्षियों की ब्रह्मण्वती है जिसका सोम वत्स और छन्दः पात्र है, ब्रह्म और तप उसका दूध है । इत्यादि । अथर्व ८ । १० ( ४ ) १४ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाजः काश्यपो गोतमोऽत्रिर्विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठश्चैते सप्तर्षयः ।
देवता - पवमानः ।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमः परमात्मा कस्मै पवत इत्याह।
पदार्थः
(मदः) तृप्तिकरः, (सुतः) ध्यानरूपैः ग्रावभिः अभिषुतः (सोमः) रसनिधिः परमात्मा (मरुत्वते) प्राणवते (इन्द्राय) आत्मने (पवते) प्रस्रवति। (सहस्रधारः) सहस्रं बह्व्यः धारा आनन्दधारा यस्य सः (अव्यम् अति) अविः पृथिवी तस्यायम् अव्यः पार्थिवः अन्नमयकोशः तम् अतिक्रम्य, प्राणमयमनोमयादिकोशान् (अर्षति) गच्छति। (तम् ई२) तं किल। ई इति वाक्यालङ्कारे, यद्वा ई ईम् एनम्। (आयवः) मनुष्याः (मृजन्ति) भक्तिप्रसूनैः अलङ्कुर्वन्ति ॥१०॥
भावार्थः
रसागारः परमेश्वरो ध्यानानुष्ठातारं भक्तिप्रवणं जीवात्मानमानन्दनिर्झरेण स्नपयति ॥१०॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०७।१७। २. ऋग्वेदे यत्र मूलमन्त्रे ‘ई’ इति पठ्यते तत्र पदकारः ‘ईम्’ इति पठति। परं सामवेदीयपदपाठे ‘ई’ इत्येव प्राप्यते।
इंग्लिश (2)
Meaning
The purified, delightful soul goes unto God, the Lord of Creation. With thousand-fold strength, transgressing the mind, the soul manifests itself. The aged Yogis polish the same soul.
Meaning
Soma, joy of existence, invoked and realised, flows purifying and consecrating for Indra, the vibrant soul, in a thousand streams of ecstasy and overflows the heart and soul of the devotee. That Spirit of the universe, intelligent dedicated yogis realise, exalt and glorify. (Rg. 9-107-17)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सुतः मदः सहस्रधारः सोमः) હૃદયમાં નિષ્પન્ન-સાક્ષાત્ કૃત અસંખ્ય ધારાવાળા-અનેક સ્તુતિવાણીવાળા હર્ષકર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (मरुत्वते इन्द्राय) પ્રાણશક્તિ સંપન્ન ઉપાસક આત્માને માટે (पवते) ગતિ કરે છે (अव्यम् अत्यर्षति) ૨ક્ષણીય યોગભૂમિને પ્રાપ્ત થાય છે (ईम्) હાં (तम्) તેને (आयवः मृजन्ति) ફરી મનુષ્યો પ્રાપ્ત કરે છે.
भावार्थ
ભાવાર્થ : નિષ્પન્ન-હૃદયમાં સાક્ષાત્ કરેલ, અનેક સ્તુતિવાળા શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા પ્રાણવાનપ્રાણશક્તિમાન ઉપાસકને માટે ગતિ કરે છે-વહે છે, રક્ષણીય યોગ ભૂમિને પ્રાપ્ત થાય છે. હાં, ફરી તેને મનુષ્યો પ્રાપ્ત કરે છે. (૧૦)
उर्दू (1)
Mazmoon
سب کی زِندگیوں کا سہارا
Lafzi Maana
پیدا ہوا ایک ایک اعضاء میں یہ سوم بھگتی رس بہہ رہا ہے اور خوشیوں کو لا رہاہ ے، لیکن ہے یہ امرت اِندر پرمیشور کے لئے جو پرانوں کا سوامی ہے اور یہ پیارا بھگتی رس بھگتوں، عارفوں کا جیون آدھار، رکھشک پرمیشورک ی افضل ترین نعمت ہے، جو سب کو پوتّر کرتا ہے۔
Tashree
یہ سوم ہے بھگتی پان اِندر پرمیشور کا، جس کو پی ہوتا پوتّر سارا جگ اِیشور کا۔
मराठी (2)
भावार्थ
रसाचा आगार परमेश्वर, ध्यानी, भक्तिपरायण जीवात्म्याला आनंदाच्या झऱ्यात स्नान करवितो ॥१०॥
विषय
सोम परमात्मा कोणाकरिता स्रवतो, याविषयी -
शब्दार्थ
(मदः) तृप्ती देणारा (सुतः) ध्यान-रूप पाटा- वरवंट्याने रगडून काढलेला प्राप्त वा अनुभूत होणारा (सोमः) रसनिधी परमेश्वर (मरूलते)( प्राणांचा जो सहधारी त्या (इन्द्राय) आत्म्यासाठी (पवते) स्रमतो (वाहतो) (सहस्त्रधारः) अनेक आनंद धारा असणारा तो आनंद रस (अन्यम् अति) पार्थिव अन्नमय कोश ओलांडून प्राणमय, मनमोय आदी कोशांपर्यंत (अर्षति) पोचतो. (तम् ई) त्या रसाला (आयवा) मनुष्य (मृजन्ति) भक्तिपुष्पांनो अलंकृत करतात. ।।१० ।।
भावार्थ
रसागार परमेश्वर ध्यानी, भक्तिपरायण जीवात्म्याला आनंदाच्या निर्झराद्वारे न्हाऊ घालतो. ।। १४ ।।
तमिल (1)
Word Meaning
இன்பமளிக்கும் பொழியப்பட்ட சோமன் மருத்துக்களோடு (இந்திரனுக்குப்) பாய்கிறான். (ஆயிரம் தாரைகளோடு) சூரியகிரணத்தை வழிந்து பாய்கிறான். அவனை மனிதர்கள் சுத்தஞ் செய்கிறார்கள்.
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