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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 534
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
3
प्र꣢ ते꣣ धा꣢रा꣣ म꣡धु꣢मतीरसृग्र꣣न्वा꣢रं꣣ य꣢त्पू꣣तो꣢ अ꣣त्ये꣡ष्यव्य꣢꣯म् । प꣡व꣢मान꣣ प꣡व꣢से꣣ धा꣡म꣢ गो꣡नां꣢ ज꣣न꣢य꣣न्त्सू꣡र्य꣢मपिन्वो अ꣣र्कैः꣢ ॥५३४॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । ते꣣ । धा꣡राः꣢꣯ । म꣡धु꣢꣯मतीः । अ꣣सृग्रन् । वा꣡र꣢꣯म् । यत् । पू꣣तः꣢ । अ꣣त्ये꣡षि꣢ । अ꣣ति । ए꣡षि꣢꣯ । अ꣡व्य꣢꣯म् । प꣡व꣢꣯मान । प꣡व꣢꣯से । धा꣡म꣢꣯ । गो꣡ना꣢꣯म् । ज꣣न꣡य꣢न् । सू꣡र्य꣢꣯म् । अ꣣पिन्वः । अर्कैः꣢ ॥५३४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते धारा मधुमतीरसृग्रन्वारं यत्पूतो अत्येष्यव्यम् । पवमान पवसे धाम गोनां जनयन्त्सूर्यमपिन्वो अर्कैः ॥५३४॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । ते । धाराः । मधुमतीः । असृग्रन् । वारम् । यत् । पूतः । अत्येषि । अति । एषि । अव्यम् । पवमान । पवसे । धाम । गोनाम् । जनयन् । सूर्यम् । अपिन्वः । अर्कैः ॥५३४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 534
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पवमान सोम का कार्य वर्णित किया गया है।
पदार्थ
हे सोम ! हे रसमय परमात्मन् ! (ते) तेरी (मधुमतीः) मधुर (धाराः) धाराएँ (प्र असृग्रन्) प्रवाहित होती हैं, (यत्) जब (पूतः) पवित्र तू (अव्यम्) पार्थिव अर्थात् अन्नमय (वारम्) कोश को (अत्येषि) अतिक्रान्त करता है अर्थात् अन्नमयकोश को पार कर क्रमशः प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमयकोश को भी पार करता हुआ जब तू आनन्दमयकोश में अधिष्ठित हो जाता है तब तेरी मधुर आनन्दधाराएँ शरीर, प्राण, मन और आत्मा में प्रवाहित होने लगती हैं। हे (पवमान) पवित्रकारी जगदीश्वर ! तू (गोनाम्) पृथिव्यादि लोकों के तुल्य इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, आत्मा के (धाम) धाम को (पवसे) पवित्र करता है और (सूर्यम्) आकाशवर्ती सूर्य के समान अध्यात्मप्रकाश के सूर्य को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ, उसकी (अर्कैः) किरणों से (अपिन्वः) उपासक के आत्मा को सींचता है, अर्थात् उपासक के आत्मा को अध्यात्मसूर्य की किरणों से अतिशय भरकर शान्ति प्रदान करता है ॥२॥
भावार्थ
जैसे सोमरस जब भेड़ों के बालों से निर्मित दशापवित्र में से पार होता है तब उसकी मधुर धाराएँ द्रोणकलश की ओर बहती हैं, वैसे ही जब परमेश्वर अन्नमय आदि कोशों को पार कर आनन्दमयकोश में अधिष्ठित हो जाता है, तब उसकी मधुर आनन्दधाराएँ शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा के धामों को आप्लावित कर देती हैं ॥२॥
पदार्थ
(पवमान) हे आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले सोम शान्तस्वरूप परमात्मन्! (ते) तेरी (मधुमतीः-धाराः) मधु वाली आनन्दधाराएँ (प्र-असृग्रन्) छूट रही हैं (यत्) जबकि (पूतः) अध्येषित—ध्यान से प्रेरित हुआ “पवस्व-अध्येषणाकर्मा” [निघं॰ ३.२१] (अव्ये वारम्-अत्येषि) पार्थिव “इयं पृथिवी वा अविरियं हीमाः सर्वाः प्रजा अवति” [श॰ ६.१.२.३३] वारण साधन शरीर को लाङ्घ जाता है—अन्दर आत्मा में चला जाता है तब (गोनां धाम पवसे) स्तुति करने वाले उपासकों के “गौः स्तोतृनाम” [निघं॰ ३.१६] अङ्ग—प्रत्येक अङ्ग को “अङ्गानि वै धामानि” [काश॰ ४.३.४.११] तू आनन्दरूप में पहुँच जाता है (सूर्यं जनयन्) तेज को उत्पन्न करने के हेतु “तेजः सूर्यः” [मै॰ २.२.८] (अर्कैः-अपिन्वः) प्राणों के द्वारा—प्राणों में “प्राणो वा अर्कः” [श॰ १०.४.१.२३) सींच—अपना अमृतरस सींचता है।
भावार्थ
हे आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले शान्त परमात्मन्! तेरी मधुमय आनन्दधाराएँ छूट रही हैं, बह रही हैं, जबकि तू ध्यान से प्रेरित हुआ पार्थिवावरण शरीर को लाङ्घ जाता है, अन्दर आत्मा में पहुँच जाता है तब स्तुति करने वाले उपासकों के अङ्ग-अङ्ग में प्रति तू आनन्दरूप में पहुँच जाता है और तेज को उत्पन्न करने के लिये प्राणों में अपना अमृतरस सींचता है॥२॥
विशेष
ऋषिः—शाक्त्यः पराशरः (शक्तिसम्पन्न कामक्रोध आदि को नष्ट करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
अध्यात्म संग्राम में विजय
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'पराशर शाक्त्य' है - शत्रु को नष्ट करनेवाला शक्तिसम्पन्न। यह काम-क्रोधादि को नष्ट करने में तत्पर है। (अव्यम्) = रक्षण करनेवालों में सर्वोत्तम जो 'ज्ञान' है, उस ज्ञान के (वारम्) = विघ्नभूत काम को यह पराशर नष्ट करने के लिए सतत प्रयत्न में लगा है। काम ज्ञान का शत्रु है - और ज्ञान काम का विध्वंश करनेवाला। ज्ञान-जल कामाग्नि को उसी प्रकार बुझा देता है जैसे प्रचण्ड सूर्य की किरणें बादल को छिन्न-भिन्न कर देती हैं। प्रभु इस पराशर से कहते हैं कि (यत्) = जब (अव्यं वारम्) = इस सर्वोत्त्म रक्षक ज्ञान के विघ्नभूत [वृ=वृत्र, वार] काम को (पूतः) = ज्ञान से पवित्र हुआ हुआ तू [नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमहि विद्यते] (अत्येषि) = लाँघ जाता है, तो (ते) = तेरी (मधुमती: धारा असृग्रन्) = योग की अन्तिम भूमिका में उत्पन्न होनेवाली आनन्दरस के माधुर्य की स्त्रविणी धाराएँ उत्पन्न होती हैं। यह आनन्द की वर्षा तुझे इस मार्ग में और स्थिर होने की प्रेरणा देती है।
पराशर नम्रतापूर्वक प्रभु से कहता है कि हे प्रभो! (पवमान) = आप ही तो मुझे पवित्र करनेवाले हो। १. (गानां धाम पवसे) = मेरी इन्द्रियों के तेज को प्राप्त कराते हैं या उसे तेजस्वी बनाते हैं, २. (सूर्यं जनयन्) = आप ही मुझमें ज्ञान - सूर्य का उदय करनेवाले हैं। आपकी कृपा से ही मेरा ज्ञान सूर्य की भाँति चमकता है - मेरे मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान का सूर्य आपके द्वारा ही तो उदित किया जा रहा है और ३. हे प्रभो आप ही मेरे हृदय को (अर्कैः) = स्तुति मन्त्रों से—स्तोमों से–भक्ति की भावनाओं से (अपिन्वः) = भर रहे हैं- पूरित कर रहे हैं। मेरे शरीर को तेजस्विता, मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि की प्रचण्डता तथा हृदय में भक्ति की भावनाएँ सब आपसे ही तो पैदा की जा रही हैं। यह अत्यन्त विनीत पराशर प्रभु की गोद में क्यों न पहुँचेगा।
भावार्थ
मैं काम का संहार कर, प्रभुकृपा से इस अध्यात्म युद्ध का विजेता बनूँ। प्रभु सेनानी हों और मैं हार जाऊँ? यह कैसे हो सकता है?
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे सोम आनन्दमय ! ( मधुमती: ) = अति आनन्ददायक मधु से मिली हुई, ब्रह्मज्ञान की ( ते धारा: ) = तेरी रस-धाराएं तब ( प्र असृग्रन् ) = खूब उत्पन्न होती हैं ( यत् ) = जब तू ( पूतः ) = छने हुए ओषधि रस के समान पवित्र होकर ( अव्यम् ) = प्राणमय कोश में से ( अति एषि ) = पार होकर प्रकट होता है। हे ( पवमान ) = पवित्रकारक ! ( गोनां ) = इन्द्रियों के भीतर तू अपना ( धाम ) = तेजो रूप रस ( पवसे ) = चुआता है और वहां प्रकट होकर ( अर्कैः ) = अपनी पवित्र किरणों से ( सूर्यं ) = सूर्य के समान तेजस्वी साधक को (अपिन्व:) = आनन्दरस से पूर्ण करता है। इस दशा में आदित्य के समान साधक तमतमाता है ।
टिप्पणी
५३४ – 'अत्येष्यव्यान्' 'जज्ञानः' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः।
देवता - पवमानः।
छन्दः - त्रिष्टुप्।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पवमानस्य सोमस्य कृत्यं वर्णयति।
पदार्थः
हे सोम ! रसमय परमात्मन् ! (ते) तव (मधुमतीः) मधुराः (धाराः) प्रवाहसन्ततयः (प्र असृग्रन्) प्रसृष्टाः भवन्ति। अत्र सृज विसर्गे धातोर्लडर्थे लङि ‘बहुलं छन्दसि’ अ० ७।१।८ इति रुडागमः वर्णव्यत्ययेन जकारस्थाने गकारश्च। (यत्) यदा (पूतः) पवित्रः त्वम् (अव्यम्) पार्थिवम्, अन्नमयमित्यर्थः। इयं पृथिवी वा अविः। श० ६।१।२।३३। (वारम्) कोशम्। वारयति आवृणोतीति वारः कोशः, वृञ् आवरणे चुरादिः। (अत्येषि) अतिक्रामसि, अन्नमयकोशमतिक्रम्य क्रमेण प्राणमयं, मनोमयं, विज्ञानमयम् चापि कोशमतिक्राम्यन् आनन्दमयं कोशं यदाधितिष्ठसि, तदा ते मधुरा आनन्दधाराः शरीरे, प्राणे, मनसि, आत्मनि च प्रवहन्तीत्यर्थः। हे (पवमान) पावित्र्यसम्पादक जगदीश्वर ! त्वम् (गोनाम्) गवां पृथिव्यादिलोकानामिव इन्द्रियप्राणमनोबुद्ध्यात्मनाम् (धाम) स्थानम् (पवसे) पुनासि। पूङ् पवने, भ्वादिः। किञ्च (सूर्यम्२) गगनवर्तिनम् आदित्यमिव अध्यात्मप्रकाशस्य सूर्यम् (जनयन्) उत्पादयन्, तस्य (अर्कैः) किरणैः। सूर्यवाचकाः शब्दाः बहुवचने प्रयुक्ताः किरणार्थं गमयन्ति। (अपिन्वः) उपासकस्य आत्मानं सिञ्चसि। पिवि सेचने, लडर्थे लङ्। अत्र किरणैः सेचनासंभवात् पूरणार्थो लक्ष्यते, शान्तिप्रदत्वं च व्यङ्ग्यम्, उपासकस्यात्मानमध्यात्मसूर्यस्य किरणैर्निरतिशयं प्रपूर्य शान्तिं प्रयच्छसीत्यर्थः ॥२॥
भावार्थः
यथा यदा सोमरसः अविबालमयं दशापवित्रम् अतिक्रामति तदा तस्य मधुरा धारा द्रोणकलशं प्रति प्रवहन्ति, तथैव यदा परमेश्वरोऽन्नमयादिकोशानतिक्रम्यानन्दमयकोशमधितिष्ठति तदा तस्य मधुरा आनन्दधाराः शरीरस्य प्राणमनोबुद्ध्यात्मधामान्याप्लावयन्ति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९७।३१ ‘वारान् यत्पूतो अत्येष्यव्यान्’ इति ‘जज्ञानः सूर्यमपिन्वो अर्कैः’ इति च पाठः। २. यद्यप्यस्य मन्त्रस्य सोमौषधिपरोऽप्यर्थः संभवति, तथापि मन्त्रेषु यत्र तत्र कानिचिदेवंविधानि पदानि वाक्यांशा वाक्यानि वा समागच्छन्ति यानि सूचयन्ति यन्मन्त्रः स्थूलार्थ एव न पर्यवस्यति। यथाप्रस्तुते मन्त्रे ‘जनयन् सूर्यम्’ इति वाक्यांशः परमात्मपरमर्थं सङ्केतयति, यत ओषध्यात्मके सोमे सूर्यजननसामर्थ्यं नास्ति। सायणस्तु ‘जनयन् जायमानः’ इत्यसंभाविनमर्थमाविष्करोति, परं तथा कृतेऽप्यसंगतिस्तदवस्थैव, यतः ‘जनयन् जायमानस्त्वम् अर्कैः स्वतेजोभिः सूर्यम् आदित्यम् अपिन्वः पूरयसि’ इति तदीयोऽप्यर्थः सोमौषधिपक्षे न संगच्छते।
इंग्लिश (2)
Meaning
O happy soul, thy streams of divine knowledge flow forth, when thou being purified manifestest thyself crossing the respiratory sheath ! O purifier, in the midst of the organs, thou revealest thy radiant beauty, and with thy pure beams, like the Sun, fillest thy votary with supreme delight !
Translator Comment
$ Respiratory sheath is प्राणमय कोश, one of the five sheaths which enshrine the soul.
Meaning
O Soma, the honeyed showers of your gifts radiate and flow when you, with your power and purity, move to your favourite choice well protective and well protected. Indeed, pure and purifying, you move and bless the treasure homes of light, and, self-manifesting and generative, you vest the sun with the light that illuminates the days. (Rg. 9-97-31)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ: (पवमान) હે આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (ते) તારી (मधुमतीः धाराः) મધુયુક્ત આનંદધારાઓ (प्र असृग्रन्) છુટે છે (यत्) જ્યારે (पूतः) અધ્યેષિત-ધ્યાનથી પ્રેરિત થઈને (अव्ये वारम् अत्येषि) પાર્થિવ વારણ સાધન શરીરને ટપી જાય છે-અંદર આત્મામાં ચાલી જાય છે, ત્યારે (गोनां धाम पवसे) સ્તુતિ કરનારા ઉપાસકોનાં અંગોમાં પ્રત્યેક અંગમાં તું આનંદરૂપમાં પહોંચી જાય છે (सूर्यं जनयन्) તેજને ઉત્પન્ન કરવા માટે (अर्कैः अपिन्वः) પ્રાણોના દ્વારા-પ્રાણોમાં સિંચ-તારો અમૃતરસ સિંચે છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર શાન્ત પરમાત્મન્ ! તારી મધુમય આનંદધારાઓ છૂટી રહી છે, વહી રહી છે, જ્યારે તું ધ્યાન દ્વારા પ્રેરિત થઈને પાર્થિવ આવરણ શરીરને ટપી જાય છે, અંદર આત્મામાં પહોંચી જાય છે, ત્યારે સ્તુતિ કરનાર ઉપાસકોનાં પ્રત્યેક અંગમાં તું આનંદરૂપમાં પહોચી જાય છે અને તેજને ઉત્પન્ન કરવા માટે પ્રાણોમાં તારો અમૃતરસ સિંચે છે. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
کس طرح ہوتے ہیں بھگوان کے درشن
Lafzi Maana
اُپاسک (عابد) جب دُنیاوی عیش و عشرت سے منہ موڑ کر اس کے پار ہو جاتا ہے تو اُس کے آتما میں مُدھر آنند کی لہریں چلنی شروع ہو جاتی ہیں، سب کو پوتر کرنے والا پرمیشور اُس کے اندر روحانی سُورج کے نُور کو پیدا کر کے اُس کی کرنوں سے بھگت کی آتما کو روشنی سے بھرپور کر دیتے ہیں، جس سے وہ آنند آنند ہو جاتا ہے (یوگ درشن اور اُپنشدوں میں آئے ہوئے دھیان دھارنا کے سادھنوں کا یہ مُول منتر ہے، جن میں بتلایا گیا ہے کہ برہم کے درشن سے پہلے اُپاسک یا یوگی کو مختلف نظارے دکھائی دیتے ہیں۔ مثلاً سُورج، چاند، تاروں، جُگنو کی سی روشنیاں دھواں وغیرہ وغیرہ۔)
Tashree
جب اُپاسک بھوگ سے منہ موڑ لیتا ہے نرنتر، آتما میں اُس کی پیدا ہوتا ہے ایشور کا منظر۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा सोमरस मेंढ्यांच्या केसापासून निर्मित होऊन दशापवित्रामधून गाळून घेतला जातो तेव्हा त्याच्या मधुर धारा द्रोणकलशाकडे वाहतात, तसेच जेव्हा परमेश्वर अन्नमय इत्यादी कोशांमधून पार पडून आनंदमय कोशात अधिष्ठित होतो, तेव्हा त्याच्या मधुर आनंदधारा शरीर, प्राण, मन, बुद्धी व आत्म्याच्या धामांना आप्लवित करतात ॥२॥
विषय
पवमान सोमाची कृत्ये याविषयी
शब्दार्थ
हे सोम, हे रसमय परमेश्वरा, (ते) तुझ्या (मधुमतीः) मधुर (धाराः) आनंद धारा (प्र असृग्रन्) हृदयात प्रवाहित होत आहेत. (यत्) जेव्हा (पूतः) पवित्र असा तू (अव्यम्) पार्थिव कोश म्हणजे अन्न मयकोशाला (अत्येषि) अतिक्रांत करतो. म्हणजे अन्नमयकोश ओलांडून क्रमाने प्राणमय कोश, मनोमय कोश आणि विज्ञान मय कोशालादेखील तू जेव्हा आनंद मयकोशात अधिष्ठित होतोस तेव्हा तुझ्या मधुर आनंदधारा शरीर, प्राण, मन आणि आत्मा या सर्वांत प्रवाहित होऊ लागतात. हे (पवमान) पवित्रकारी परमेश्वरा, तू (गोनाम्) पृथ्वी आदी लोकांप्रमाणे इंद्रिये, प्राण, मन, बुद्धी, आत्मा या (धाम) स्थानांना (पवसे) पवित्र करतोस आणि (सूर्यम्) आकाशाताली सूर्याप्रमाणे अध्यात्म प्रकाश रूप सूर्यास (जनयन्) उत्पन्न करीत त्याच्य (अर्केः) किरणांनी (अपिन्वः) उपासकाच्या आत्म्याला सिंचित करतोस. म्हणजे अध्यात्म सूर्याच्या किरणांनी उपासकाच्या आत्म्यास तू भरपूर शांती देतोस.।। २।।
भावार्थ
जसे सोमरस मेंढीच्या केसांनी बनलेल्या दशापवित्र (गाळणी व चाळणी) मधून पार होतो, तेव्हा त्याच्या मधुर धारा द्रोण कलशाकडे प्रवाहित होतात. तद्वत जेव्हा परमेश्वर अ़न्नमय आदी कोश पार करून आनंदमय कोशात स्थित होतो, तेव्हा त्याच्या मधुर भक्तिधारा शरीर, मन, प्राण, बुद्धी व आत्मा या सर्व स्थानांना आप्लवित करते.।। २।।
तमिल (1)
Word Meaning
எல்லா இனிமைகளோடும் உன் தாரைகள் ஊற்றப்படுகின்றன. புனிதமாகுங்கால் [1]ரோமவடிகட்டி வழியாய் செல்லுகிறாய் ; பவமானனே! பசுக்களின் நிலயத்தில் பால் உடை தரித்து நீ பெருகுகிறாய்; சனனஞ்செய்து பூஜிக்கத்தகுந்த உன் தேஜசால் சூரியனை பூர்ணமாக்குகிறாய்.
FootNotes
[1]ரோமவடிகட்டி - வானத்தின் வழியாய்.
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