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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 551
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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आ꣡ ह꣢र्य꣣ता꣡य꣢ धृ꣣ष्ण꣢वे꣣ ध꣡नु꣢ष्टन्वन्ति꣣ पौ꣡ꣳस्य꣢म् । शु꣣क्रा꣢꣫ वि य꣣न्त्य꣡सु꣢राय नि꣣र्णि꣡जे꣢ वि꣣पा꣡मग्रे꣢꣯ मही꣣यु꣡वः꣢ ॥५५१॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । ह꣣र्यता꣡य꣢ । धृ꣣ष्ण꣡वे꣢ । ध꣡नुः꣢꣯ । त꣣न्वन्ति । पौँ꣡स्य꣢꣯म् । शु꣣क्राः꣢ । वि । य꣣न्ति । अ꣡सु꣢꣯राय । अ । सु꣣राय । निर्णि꣡जे꣢ । निः꣣ । नि꣡जे꣢꣯ । वि꣣पा꣢म् । अ꣡ग्रे꣢꣯ । म꣣हीयु꣡वः꣢ ॥५५१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हर्यताय धृष्णवे धनुष्टन्वन्ति पौꣳस्यम् । शुक्रा वि यन्त्यसुराय निर्णिजे विपामग्रे महीयुवः ॥५५१॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । हर्यताय । धृष्णवे । धनुः । तन्वन्ति । पौँस्यम् । शुक्राः । वि । यन्ति । असुराय । अ । सुराय । निर्णिजे । निः । निजे । विपाम् । अग्रे । महीयुवः ॥५५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 551
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि सोम परमेश्वर को पाने के लिए उपासक जन क्या करते हैं।
पदार्थ
(हर्यताय) चाहने योग्य, (धृष्णवे) कामादि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले सोम परमात्मा को पाने के लिए, योगसाधक लोग (पौंस्यम्) पुरुषार्थ-रूप (धनुः) धनुष् को (आ तन्वन्ति) तानते हैं अर्थात् पुरुषार्थरूप धनुष् पर ध्यानरूप डोरी को चढ़ाते हैं। (शुक्राः) पवित्र अन्तःकरणवाले वे (महीयुवः) पूजा के इच्छुक साधक लोग (असुराय) प्राणप्रदायक जीवात्मा को (निर्णिजे) शुद्ध करने के लिए (विपाम्) मेधावी विद्वानों के (अग्रे) संमुख (वि यन्ति) विशेष शिष्यभाव से पहुँचते हैं ॥७॥ इस मन्त्र में पौंस्य में धनुष् का आरोप होने से रूपकालङ्कार है। योगसाधना में धनुष् का रूपक मुण्डकोपनिषद् में इस प्रकार बाँधा गया है—उपनिषदों में वर्णित ब्रह्मविद्यारूप धनुष् को पकड़कर, उस पर उपासनारूप बाण चढ़ाये। तन्मय चित्त से धनुष् को खींचकर अक्षर ब्रह्म रूप लक्ष्य को बींधे। प्रणव धनुष् है, आत्मा शर है, ब्रह्म उसका लक्ष्य है। अप्रमत्त होकर ब्रह्म को बींधना चाहिए, उपासक उस समय बाण की भाँति तन्मय हो जाये (मु० २।२।३,४) ॥७॥
भावार्थ
योगसाधक लोग अपने पुरुषार्थ से, ध्यान से और गुरु की कृपा से अपने आत्मा को शुद्ध कर परमात्मा को पाने योग्य हो जाते हैं ॥७॥
पदार्थ
(विपाम्-अग्रे) मेधावी जनों के “विपो मेधाविनः” [निघं॰ ३.१५] आगे रहने वाले, (शुक्राः) शुद्ध—निष्पाप (महीयुवः) महती मोक्षपदवी के चाहने वाले मुमुक्षुजन (धृष्णवे) पापभाव को धर्षि करने वाले—(हर्यताय) कमनीय परमात्मा के लिये—उसके आनन्द प्राप्त करने के लिये (पौंस्यं धनुः-आतन्वन्ति) पौरुष—बलयुक्त “पौंस्यं बलम्” [निघं॰ २.९] प्रणव—‘ओ३म्’ नाम धनुष को समन्तरूप से तानते हैं “प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्” [मुण्ड॰ २.२.४] (असुराय निर्णिजे) प्राणदाता शुद्धस्वरूप में लाने वाले शान्त परमात्मा के लिये (वियन्ति) विशेष याचना और प्रार्थना करते हैं “यन्ति याचनाकर्मा” [निरु॰ ३.१९]।
भावार्थ
मोक्षपदवी के इच्छुक मुमुक्षु उपासकजन पापभावों को मिटाने वाले कमनीय शान्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए—उसके आनन्दरस पाने के लिए प्रणव—ओ३म् नामक बलवान् बलिष्ठ धनुष—ओ३म् जप को समन्तरूप से तानते हैं अर्थभावन के साथ “तज्जपस्तदर्थभावनम्” [योग॰ १।२८] प्राणप्रद निजशुद्धस्वरूप में लानेवाले परमात्मा के लिए विशेष प्रार्थना करते हैं॥७॥
विशेष
ऋषिः—रेभसूनू काश्यपावृषी (ज्ञानी गुरु से सम्बद्ध स्तुति प्रेरित करने वाले दो परमात्मोपासक)॥<br>
विषय
आत्मरूप शरवाला धनुष [ प्रणवो धनुः ]
पदार्थ
(शुक्राः) = जो व्यक्ति अपने जीवन को [शुच् दीप्तौ] शुद्ध बनाते हैं या शक्तिशाली [शुक्र=वीर्यम्] बनाते हैं, वे (हर्यताय) = [हर्य= कान्ति] कामना के योग्य-जीव से चाहने योग्य धृष्णवे हमारे कामादि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले प्रभु के लिए (पौंस्यम्) = [पुञ्+तुमुन्] पवित्र किए हुए आत्मरूप तीरवाले (धनुः) = धनुष को (आतन्वन्ति) = खूब तानते हैं। उपनिषदों में इस धनुष का रूपक इस रूप में दिया है कि (प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥) = ओंकार धनुष है आत्मा ही वाणी है, ब्रह्म उसका लक्ष्य है। बड़ी सावधानी से उसका वेध करना चाहिए। शर जिस प्रकार लक्ष्य में प्रविष्ट हो जाता है, इसी प्रकार आत्मरूप शर भी ब्रह्मरूप लक्ष्य में प्रविष्ट हो जाएं वास्तव में ही (शुक्रा:) = अपने को शुद्ध बनानेवाले ये उपासक (असुराय) = [असून् राति] प्राणों के प्राण, प्राणों के दाता उस प्रभु के लिए (वियन्ति) = विशेषरूप से जाते हैं और उसी में प्रवेश कर जाते हैं [अभि सं विशन्ति] । इस प्रभु में प्रवेश के द्वारा वे (निर्णिजे) = पूर्णरूप से अपने शोधन के लिए समर्थ होते हैं [णिजिर् शुद्धि ] । वे प्रभु सहस्रधार पवित्र हैं, उनमें यह उपासक सर्वथा शुद्ध हो जाता है।
इस प्रकार अपना शोधन करनेवाले ये व्यक्ति (विपाम् अग्रे) = मेधावियों के प्रमुख होते हैं। (अमहीयुवः) = ये भौतिक सुखों की आसक्ति से ऊपर उठ चुके होते हैं। उस महनीय प्रभु से मेल चाहनेवाले के लिए यह आवश्यक ही है।
भावार्थ
मैं प्रवणरूप धनुष के द्वारा आत्मरूप शर से ब्रह्मरूप लक्ष्य का वेधन करूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( हर्यताय कृष्णवे ) = अति प्रेमयुक्त राजा के लिये जिस प्रकार उसके सैनिक ( पौंस्यं धनुः तन्वन्ति ) = बलयुक्त धनुष तानते हैं, जी-जान से शत्रु पर प्रहार करते हैं उसी प्रकार विद्वान्जन ( हर्यताय ) = सबके अभिलाषा के योग्य कमनीय ( धृष्णवे ) = सब वृत्तियों को दबाने हारे, उस सोम अर्थात् आत्मा के हित के लिये ( पौंस्यं ) = मर्दानगी दर्शाने वाले ( धनुः) = धनुष कामरूप धनु को ( तन्वन्ति ) = साधते, वश करते हैं। अथवा परम पुमान् परमेश्वर के नाममय ओंकाररूप धनुष को तानते हैं उसका जप और मनन करते हैं । और ( महीयुवः ) = महत्व की आकांक्षा करने हारे साधक ( विपाम् अग्रे ) = विद्वान् मेधावी पुरुषों के समक्ष ( असुराय ) = प्राणों के प्रेरक इस आत्मा के ( निर्णिजे ) = स्वरूप को शोधन करने के लिये ( वि यन्ति ) = विशेष रूप से जाते हैं। पौंस्य धनुष का तानना=ब्रह्मचर्य का पालन और विद्वानों के पास जाना=स्वाध्याय है।
ब्रह्मचर्यं गुप्तेन्द्रियोपस्थसंयमः । ब्रह्मचर्यप्रतिष्टायां वीर्यलाभः । यस्यलाभादप्रतिघान् गुणान् अणिमादीन् उत्कर्षयाते । सिद्धश्च विनेयेषु ज्ञानमाधातुं समर्थो भवति ( व्यासभाष्ये ) । स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः ( यो ० सू०) तस्य वाचकः प्रणवः । २७ । तज्जपस्तदर्थभावनम् । २८ । ततः प्रत्यक् चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ उपस्थ इन्द्रिय का संयम ब्रह्मचर्य है । इससे वीर्य प्राप्त होता है । इससे अखण्ड बल प्राप्त होता है इसी के बल पर आचार्य शिष्यों में ज्ञान स्थापन करता है। स्वाध्याय से परमेश्वर में भक्ति होती है । ‘ओ३म्' परमेश्वर का नाम है। उसकी भावना से शीघ्र आत्मा का साक्षात् होता और सब विघ्न दूर होते हैं।
टिप्पणी
५५१ – ‘धनुस्तन्वन्ति’, 'शुक्रां व्ययन्त्यसुराय निर्णिजं' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ।
देवता - पवमानः।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमं परमेश्वरमधिगन्तुमुपासका जनाः किं कुर्वन्तीत्युच्यते।
पदार्थः
(हर्यताय) स्पृहणीयाय। हर्य गतिकान्त्योः ‘भृमृदृशियजिपर्विपच्यमितमिनमिहर्येभ्योऽतच्’ उ० ३।११० इत्यतच् प्रत्ययः। (धृष्णवे) कामादिशत्रूणां धर्षणशीलाय सोमाय परमात्मने, सोमं परमात्मानं प्राप्तुमित्यर्थः। हर्यताय, धृष्णवे इत्यत्र ‘क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। अ० २।३।१४’ इति कर्मणि कारके चतुर्थी। योगसाधका जनाः (पौंस्यम्) पुरुषार्थरूपम्। पौंस्यमिति बलनाम। निघं० २।९। पुंसो भावः कर्म वा पौंस्यम्। (धनुः) चापम् (आ तन्वन्ति) अधिज्यं कुर्वन्ति, तत्र ध्यानरूपां प्रत्यञ्चामधिरोहयन्तीति भावः। (शुक्राः) पवित्रान्तःकरणाः ते (महीयुवः) पूजाकामाः साधकाः। महीं पूजामिच्छन्तीति ते, क्यचि ‘क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७०’ इति उः प्रत्ययः। (असुराय) प्राणप्रदातुः जीवात्मनः। असून् प्राणान् राति ददातीत्यसुरः। षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। (निर्णिजे) शोधनाय। निर् पूर्वाद् णिजिर् शौचपोषणयोः इति क्विबन्तस्य चतुर्थ्येकवचने रूपम्। (विपाम्) मेधाविनाम्। विप इति मेधाविनाम निघं० ३।१५। (अग्रे) सम्मुखम् (वि यन्ति) विशेषतः शिष्यभावेन गच्छन्ति ॥७॥ अत्र पौंस्ये धनुष्ट्वस्यारोपणाद् रूपकालङ्कारः। योगसाधनायां धनुषो रूपकं मुण्डकेऽपि प्रपञ्चितम्। तथाहि—“धनुर्गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं शरं ह्युपासानिशितं संधयीत। आयम्य तद्भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥ प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत् तन्मयो भवेत्” इति मु० २।२।३,४ ॥७॥
भावार्थः
योगसाधका जनाः स्वपुरुषार्थेन, ध्यानेन, गुरोः कृपया च स्वकीयमात्मानं संशोध्य परमात्मानं प्राप्तुमर्हन्ति ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९९।१ ‘धनुस्तन्वन्ति’ इति ‘शुक्रां वयन्त्यसुराय निर्णिजं’ इति च पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as soldiers extend the powerful bow for their beloved King, so do the learned persons control their formidable passions for the attainment of the Beautiful God. Strong souls, hankering after greatness, approach the learned and wise persons, for purifying the soul, the urger of vital breaths.
Translator Comment
$ धनुः may also mean the bow of Om. Learned persons recite Om and contemplate upon it. Extending the bow by learned persons, means the observance of celibacy, and comradeship with the sages.
Meaning
For the lovely bold Soma, devotees wield and stretch the manly bow, and joyous celebrants of heaven and earth before the vibrants create and sing exalting songs of power and purity in honour of the life giving spirit of divinity. (Rg. 9-99-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विपाम् अग्रे) મેધાવી જનોની આગળ રહેનાર, (शुक्राः) શુદ્ધ નિષ્પાપ (महीयुवः) મહાન મોહ પદવીને ચાહનાર મુમુક્ષુજન (धृष्णवे) પાપભાવને દૂર કરનાર, (हर्यताय) કમનીય પરમાત્માને માટે-તેનો આનંદ પ્રાપ્ત કરવા માટે (पौंस्यं धनुः आतन्वन्ति) પૌરુષ-બળયુક્ત (असुराय निर्णिजे) પ્રાણદાતા શુદ્ધ સ્વરૂપમાં લાવનાર શાન્ત પરમાત્માને માટે (वियन्ति) વિશેષ યાચના પ્રાર્થના કરીએ છીએ. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મોક્ષ પદવીના મુમુક્ષુ ઉપાસકજનોના પાપભાવોને ધર્ષિ = નષ્ટ અર્થાત્ દૂર કરનાર, કમનીય, શાન્ત પરમાત્માની પ્રાપ્તિને માટે-તેનો આનંદ રસ પ્રાપ્ત કરવા માટે પ્રણવ "ओ३म्" નામક બળવાન બલિષ્ઠ ધનુષ્યને-ઓમ્ જપને સમગ્રરૂપથી અભાવનની સાથે ખેંચે છે. પ્રાણપ્રદ નિજ શુદ્ધ સ્વરૂપમાં લાવનાર પરમાત્માને માટે વિશેષ પ્રાર્થના કરીએ છીએ. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
نجات کے خواہش مند
Lafzi Maana
موکھش پد کے اِچھکُ عارف، عابد، شانت سوروپ اور سب کا مناؤں کو پُورن کرنے والے، گُناہوں کو کاٹ دینے والے، پرمیشور کی پراپتی اور اُس کے آنند امرت رس کو پانے کے لئے "اوم" نام کے بلوان دھنش اوم جاپ کو ارتھ کے ساتھ ہر وقت، ہر جگہ تانے رکھتے ہیں، چڑھائے رکھتے ہیں اور سدا سرودا پرارتھنا بھی کرتے رہتے ہیں۔
Tashree
نجات کے چاہنے والے عابد و پرمیشور کی شرن گہو، اوم نام کے دھنش کو تانے جاپ اور دھیان میں مگن رہو۔
मराठी (2)
भावार्थ
योगसाधक लोक आपल्या पुरुषार्थाने, ध्यानाने व गुरुकृपेने आपल्या आत्म्याला शुद्ध करून परमात्म्याला प्राप्त करण्यायोग्य बनतात ॥७॥
विषय
सोम परमेश्वराच्या प्राप्तीसाठी उपासक-जन काय करतात-
शब्दार्थ
(हर्यताय) वांछनीय वा प्रिय (धृष्णवे) तसेच काम आदी शत्रूंचे घर्षण करणाऱ्या सोम परमेश्वराच्या प्राप्तीसाठी योगसाधक जन (पौंस्यम्) पुरुषार्थ रूप (धनुः) धनुष्य (आ तन्वजिक) ताणून सिद्ध करतात म्हणजे पुरुषार्थ रूप धनुष्यावर ध्यानरूप दोरी (प्रत्यंचा) चढवतात. (शुक्राः) पवित्र अंतःकरण असलेले (महीयुवः) पूजा करण्याची इच्छा करणारे ते साधक (असुराय) प्राणदायक जीवात्माला (निर्णिजे) शुद्ध करण्यासाठी (विपाम्) विशेष मेधारी विद्वानां (अग्रे) समोर (वियन्त्रि) विशेष शिष्यत्वभावाने जातात ।।७।।
भावार्थ
योगसाधक जन आपल्या पुरुषार्थाद्वारे, ध्यानाद्वारे आणि गुरूकृपेने आपल्या आत्म्यास शुद्ध करून परमेश्वराच्या प्राप्तीसाठी पात्र होतात.।।७।।
विशेष
या मंत्रात पौंस्य या शब्दावर धनुष्याचा आरोप असल्यामुळे रूपक अलंकार आहे. मुण्डकोषविषदामधे योगसाधनेतील धनुष्यावर एक रूपक अलंकार याप्रमाणे वर्णिलेला आहे- ङ्गङ्घउपनिषदात वर्णित ब्रह्मविद्यारूप धनुष्ट हाती घेऊन साधकाने त्यावर उपासनारूप बाण चढवावा. तन्मय चित्राद्वारे धनुष्य खेचून त्याने अक्षर ब्रह्मरूप लक्ष्याचा वेध घ्यावा. प्रणव हे धनुष्य, तर आत्मा बाण आहे आणि ब्रह्म त्याचे लक्ष्य आहे. साधकाने अप्रमत्र राहून जेव्हां ब्रह्माचा वेध घ्यावा, तेव्हा त्याने बाणाप्रमाणे तन्मय झाले पाहिजे. ।।(मु.२/२/३/४) ।।७।।
तमिल (1)
Word Meaning
அனைவராலும் விரும்பப்படும் சோமனுக்கு ஆண்மைத் தனத்தை வளைக்கிறார்கள்; மேதாவிகளின் முன்னே பெரியோர்கள் வெண்மையான பாலை சுத்தஞ் செய்வதற்காக விசேஷமாய்ச் செல்லுகிறார்கள்.
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